25.4.17

सुकुमा काण्ड पर तीन कविताएँ



आतंकवादी 
वृथा कल्पनाओ से डरे सहमे
       बेतरतीब बेढंगे
नकारात्मक विचारो का सैलाब
   शुष्क पथरीली संवेदना
कटीले विचारो से लहू-लुहान
सूखी-बंज़र भावनाओ का निर्मम 
            "प्रहार "
कोरी भावुकता रिश्ते रेत सामान
हरियाली असमय वीरान
उजड़ता घरोंदा बिखरते अरमान
  टूटती-उखड़ती साँसे जीवन
             " बेज़ान  "
स्वयं से डरी सहमी अंतरात्मा
        औरो को डराती
शुष्क पथरीली पिशाची आत्मा का
          " अठ्ठाहास  "
वृथा कल्पनाओ से डरे सहमे बेतरतीब
       बेढंगे आतंकवादी
    सब के सब एक सामान
         आतंकवादी.......
  भगवानदास गुहा, रायपुर छत्तीसगढ़   

मैं खामोश बस्तर हूँ,लेकिन आज बोल रहा हूँ।
अपना एक-एक जख्म खोल रहा हूँ।
मैं उड़ीसा,आंध्र,महाराष्ट्र की सीमा से टकराता हूँ।
लेकिन कभी नहीं घबराता हूँ
दरिन्दे सीमा पार करके मेरी छाती में आते हैं।
लेकिन महुआ नहीं लहू पीकर जाते हैं।
मैं अपनी खूबसूरत वादियों को टटोल रहा हूँ
मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब
लेकिन आज बोल रहा  हूँ।
गुंडाधूर को आजादी के लिए मैने ही जन्म दिया था।
इंद्रावती का पानी तो भगवान राम ने पीया था।
भोले आदिवासी तो भाला और धनुष बाण
चलाना जानते थे।
विदेशी हथियार तो उनकी समझ में भी नहीं आते थे।
ये विकास की कैसी रेखा खींची गयी,
मेरी छाती पे लैंड माईन्स बीछ गयी।
मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब 
लेकिन बोल रहा हूँ
मेरी संताने एक कपड़े से तन ढकती थी।
हंसती थी,गाती थी,मुस्कुराती थी।
बस्तर दशहरा में रावण नहीं मरता है।
मुझे तो पता ही नहीं था
रावण मेरे चप्पे चप्पे में पलता है।
भाई साहब अब तो मेरी संताने भी
मुखौटे लगाने लगी हैं।
लेकिन ये नहीं जानती हैं कि
बहेलियों ने जाल फ़ेंका है।
मैने कल मां दंतेश्वरी को भी
रोते हुए देखा है।
मैं लाशों के टुकड़ों को जोड़ रहा हूँ
मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब
लेकिन आज बोल रहा हूँ..

नक्सलवाद मेरी आत्मा का एक छाला था
फ़िर धीरे-धीर नासूर हुआ,
और इतना बढा-इतना बढा कि
बढकर इतना क्रूर हुआ

चित्रकूट कराह रहा है,कुटुमसर चुप है
बारसूर में अंधेरा घुप्प है,क्योंकि हर पेड़ के पीछे एक बंदुक है।
और बंदुक नहीं है तो उन्होने कोई रक्खी है।
अरे उन्होने तो अंगुलियों को भी
पिस्तौल की शक्ल में मोड़ रखी है।

सन 1703 में मैथिल पंडित भगवान मिश्र ने जिस दंतेश्वरी का यशगान लिखा,
उसका शब्द शब्द मौन है।
अरे कांगेरघाटी,दंतेवाड़ा,
बीजापूर,ओरछा,सूकमा कोंटा में
छुपे हुए लोग कौन हैं?

मेरी संताने क्यों उनके झांसे में आती हैं।
ये इतनी बात इनकी समझ में क्युं नहीं आती है।
सड़क और बिजली काट देने से तरक्की कभी गांव में नहीं आती है।
मैं अपने पुत्रों की आंखे खोल रहा हूँ,
*मैं खामोश बस्तर हूं भाई साहब लेकिन आज बोल रहा हूँ।*

6 अप्रेल को 76 जवान दंतेवाड़ा में शहीद होते हैं,
8 मई को 8 लोग शहादत से नाता जोड़ते हैं।
23 जून को 29 जवान शहीद होते हैं,

27 जून को 21 जवान शहीद होते हैं।
11 मार्च को 16 जवान शहीद होते है..  
अप्रैल 16 जवान शहीद होते है ....
कल फिर सुकमा में 26 जवान शहीद हो गये ......

*मैं शहीदों की माताओं के आगे  हाथ जोड़ रहा हूँ..*
*मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब लेकिन बोल रहा हूँ...*
इंजीनियर सुनील पारे , विजय नगर जबलपुर    

बस्तर  की आज़ादी के नारे लगाता
जे एन यू.. जाधवपुर का हुजूम......
व्यवस्था के खिलाफ
बरसों से पाली जा रही
आयातित विचारधाराओं की विष बेलें
सहिष्णुता के नाम पर
डेमोक्रेसी के धुर्रे उडाती
माओ की विवादी जमात
पूर्वोत्तर में पलती कुंठा
एक असभ्य अभ्यास
सुनी है न
रवीश की बेतरतीब रिपोर्ट   
शहादत पर  
शब्दों का व्यापार करते
बेरहम लोग...
सुना है एवार्ड वापस नहीं हो रहे
माओ के मवाद
को
साफ़ करना ही होगा
कैसे ..........?
यही सोच रहे हैं ....... सब ........
वो भी जड़ से .........
जड़ कहाँ है
तुमको मालूम है न ?
गिरीश बिल्लोरे मुकुल , जबलपुर    

22.4.17

बाल भवन के नन्हें कलाकारों का गौरैया के प्रति समर्पण


बाल भवन के नन्हें कलाकारों का गौरैया के प्रति समर्पण देकर सभी भावविभोर हो गए। अभिनय के दौरान बच्चों के हावभाव ने छात्र-छात्राओं का दिल जीत लिया। इसके बाद सभी ने एक सुर में गौरैया को वापस लाने का संकल्प लिया। अवसर था विस्डम पब्लिक स्कूल और शासकीय मानकुंवर बाई कॉलेज में नईदुनिया द्वारा आयोजित नुक्कड़ नाटक का।
नाटक के दौरान नन्हें कलाकारों ने गौरैया को वापस लाने की अपील की। इस दौरान उन्होंने गौरैया की उपयोगिता पर भी प्रकाश डाला। नाटक में पेड़ दादा और बैल चाचा का दर्द भी बताया गया। बच्चों ने बताया कि विलुप्त होती गौरैया अब केवल वाट्सअप और फेसबुक पर ही नजर आती है। उन्होंने सभी से अपील करते हुए कहा कि गौरैया को वापस लाने के लिए सभी से आंगन और छत पर दाना-पानी रखने कहा। नाटक में कहा गया कि घरों में लगी जालियों के कारण गौरैया अपने पास नहीं आती।
इनका रहा सहयोग
- निर्देशन- संजय गर्ग
- गीत रचना- गिरीश बिल्लौरे
- संगीत- शिप्रा सुल्लेरे
- बाल भवन के उप संचालक गिरीश बिल्लौरे के निर्देशन में बाल भवन के कलाकारों ने नाटक तैयार किया।
नन्हें कलाकार- वैशाली बरसैंया, आस्था अग्रहरि, वैष्णवी बरसैंया, मानसी सोनी, सागर सोनी, आशुतोष रजक, मिनी दयाल, श्रेया खंडेलवाल, पलक गुप्ता, मनीषा तिवारी।
मिलकर करेंगे प्रयास
कक्षा 12वीं की वैभवी परांजपे ने कहा कि गौरैया को वापस लाने के लिए मिलकर प्रयास करने होंगे। लोग अपने घरों में दाना-पानी रखें। उन्हें घोसलों को उजाड़ें नहीं। गौरैया को काफी दिनों से नहीं देखा। नईदुनिया का अभियान सराहनीय है। इसके माध्यम से लोगों में जागरूकता आएगी।
सभी पक्षियों को बचाना होगा
कक्षा 9वीं की शिवानी स्वामी ने बताया कि पर्यावरण संरक्षण के लिए गौरैया ही नहीं बल्कि सभी पक्षियों को बचाना होगा। नईदुनिया के अभियान के माध्यम से लोग जुड़ेंगे। इसमें सभी का कोई न कोई रोल होना चाहिए। इस अभियान को महाअभियान बनाना चाहिए।
कार्यक्रम से मिली प्रेरणा
कक्षा 11वीं के देवाशीष बोहांकर ने बताया कि बाल भवन के नन्हें कलाकारों द्वारा आयोजित इस नुक्कड़ नाटक से लोगों को प्रेरणा मिलेगी। लोग सकारा और दाना रखेंगे। जिससे भीषण गर्मी में पक्षियों को राहत मिलेगी। हमारी गौरैया एक बार फिर हमारे आंगन में चहकेगी।
सभी का योगदान होना चाहिए
कक्षा 11वीं के कार्तिक रजक ने कहा कि हम क्या खो रहे हैं। इस कार्यक्रम ने हमें जगा दिया। गौरैया को बचाने में सभी का योगदान होना चाहिए। गौरैया को बचाने के लिए सभी को आगे आना चाहिए। हम लोग मिलकर भी गौरैया को बचाने के लिए पूरी कोशिश करेंगे।
विस्डम पब्लिक स्कूल की प्राचार्य मोंदिरा  सनियाल ने कहा कि प्रकृति को बचाने के लिए यह अभियान जरूरी है। बच्चे इस अभियान से जुड़े। घरों में सकोरे रखें और गौरैया को संरक्षित करने प्रयास करें। नईदुनिया का प्रयास पर्यावरण संरक्षण के लिए काफी सराहनीय है।

विस्डम पब्लिक स्कूल में आयोजित कार्यक्रम में डायरेक्टर राधिका खोडियार, हर्षित खोडियार, मोहिनी मालवीय, मधु पात्रे, मृदुला श्रीवास्तव, पूजा पांडे, नीता जैन, विजय लक्ष्मी उपाध्याय, स्नेहा सबलोक, कीर्ति मालवीय, सिवनी असाटी, रितु यादव, मनोज खरे, रवि प्रांसिस, अर्चना असर, राधिका मालवीय, रश्मि दुबे, अंशु कोहली, अंजुली राजपूत, ब्रंदा सिंह, दीप्ति आदि मौजूद थी।
मानकुंवरबाई कॉलेज में आयोजित नुक्कड़ नाटक के दौरान डॉ. नूपुर देशकर, डॉ. राजेश शामकुंवर, डॉ. रजनी शर्मा, डॉ. नंदिता त्रिवेदी, डॉ. अरुणा, डॉ. मीनू मिश्रा, डॉ. वरुण, डॉ. शिखा गुप्ता, डॉ. अंजु यादव, प्रसन्ना आदि मौजूद रहे।


13.4.17

बालनाट्य एवं अभिनय कार्यशाला हेतु पंजीयन


                   संभागीय बालभवन जबलपुर द्वारा बाबा भीम राव अम्बेडकर जयंती दिनांक  14 अप्रैल 2016 से 30 जून 17 तक बालनाट्य एवं अभिनय कार्यशाला आरम्भ होगी. इस  हेतु  पंजीयन के लिए अभिभावक अपने बच्चों का नाम पंजीकृत करा सकते हैं . कार्यशाला का संचालन श्री संजय गर्ग द्वारा किया जावेगा.  पंजीयन के आधार पर बच्चों को राजा मानसिंह तोमर के एक वर्षीय अभिनय डिप्लोमा परीक्षा में शामिल होने की पात्रता भी होगी .     

9.4.17

*बहू ने बनाई फिल्म सास और दादी सास से कराया अभिनय*


कलाकार के लिए उम्र मायने नहीं रखती जबलपुर के  मशहूर गायक आभास एवं संगीतकार में श्रेयस जोशी की 75 वर्षीय दादीजी श्रीमती पुष्पा जोशी इन दिनों मुम्बई में हैं । उनकी मौजूदगी का लाभ उठाया पौत्र वधू हर्षिता ने और बुजुर्गों की स्थिति पर एक भावात्मक शार्ट फिल्म बनाई ।  इस शार्ट फिल्म के निर्माण में हर्षिता ने घर के सदस्यों की मदद ली ।

यूट्यूब पर भावुक कर देने वाली इस फिल्म में घर के बुजुर्गों की पीडा को रेखांकित करने में सफलता पाने वाली बहू हर्षिता का कहना है - "शार्ट फिल्म जायका हमारी बुजुर्गों के प्रति सोच में बदलाव के लिए प्रेरित करेगी"
           यूट्यूब फिल्म को मात्र 8 घंटे में ही 1000 से अधिक दर्शकों का देखा जाना कथानक और स्क्रीन-प्ले की सुगढ़ता का परिचायक है ..
बधाई देते हुए एक दर्शक श्री अतुल कैशरे ने कहा कि -    हर्षिता जोशी द्वारा निर्देशित लघु फिल्म "जायका " यू ट्यूब पर देखी , बहुत पसंद आई । इसने मुंशी प्रेमचंद की कहानी " बूढी काकी " की याद ताजा कर् दी । यह फिल्म अत्यंत ही मार्मिक बनाई गई हैं । एक उम्रदराज महिला जो जीवन भर अपने बच्चो को लज़ीज़ व जायकेदार खाना खिलाती हैं वह बूढी होने पर किस तरह मसालेदार खाने के लिए तरसती हैं और अपने समय को याद कर् उसकी आंखें भर आती हैं । दोनों वक्त वही दलिया देख कर् उन्हें कोफ़्त होती हैं , उसका बेटा भी अपनी माँ पर ध्यान नही देता । अंततः बहू पसीज जाती हैं और अपनी सास को दिए जा रहे भोजन को स्वयं खाती हैं और अपने पति को प्रेरणा देती हैं ।
*
जायका* वस्तुतः घर घर की कहानी हैं , हर घर में बढ़े बूढ़े होते हैं , जो अपने बेटे - बहू द्वारा उन्हें परोसे जा रहे बेस्वाद भोजन खाने को खाने के लिए मजबूर रहते हैं । यह फिल्म प्रेरणा देती हैं क़ि जिस माँ ने हमे जीवन भर भोजन खिलाया हो क्या हम उनके लाचार होने पर उन्हें अच्छा व उनका मनपसन्द खाना नही दे सकते ? सभी तरह के परहेज़ का पालन करते हुए भी खाने के स्वाद को बनाया रखा जा सकता हैं । 
यह फिल्म प्रेरणादायक हैं और आज के परिवारों के लिए बहुत कुछ सन्देश देती हैं ।

Think about old aged mother father .... Emotional short film on old aged life. one old aged mother wants to eat some jaykedar food but she can't get it due to her old age  helth situation but   her daughter in law positively committed for her Emotions as wel as  feelings    changed  her husband's opinion about old aged mother-in-law... 
please must watch this short film on Indie Routes Films  
https://youtu.be/E4QkhaqbpY4

Short film by Harshita Shreyas Joshi
Please bless Harshita 
Artist : 
Son :- Ravindra Joshi
Sons wife :- Abha Joshi
Mother :- #Smt_Pusha_Joshi
Directed by :- Harshita Shreyah Joshi
Script :- #Ravindra_Joshi
Editor & Music : #Shreyas_Joshi



8.4.17

विजातीय विवाहों पर उग्रता क्यों



भारतीय संवैधानिक आस्था पर प्रहार करना कोई हितकारी कदम तो नहीं हैं. फिर ऐसी क्या वज़ह है  कि कुछ जातियां अपने अस्तित्व इज्ज़त  को बचाने के नाम पर  अंतर्जातीय विवाह पर बेहद हंगामा कर रहे हैं  ..?
विवाह क्या है.......... वेदों  में वर्णित वंशानुक्रम को आगे ले जाने के लिए बनाई गई सांस्थानिक  व्यवस्था  ही विवाह के रूप में अधिमान्य हैं परन्तु मुझे अब तक कन्या की जाति के सन्दर्भ में कोई आज्ञा देखने को नहीं मिली. अपितु मनु स्मृति में जिन विवाहों का उल्लेख मिला वो 8 प्रकार के हैं
एक विवरण अनुसार इस लिंक  ( http://www.ignca.nic.in/coilnet/ruh0029.htm) मौजूद विवरण अनुसार विवाह के बारे में स्पष्ट किया गया है और ये आप सब जानते ही होगें
1.     ब्राह्म : इसमें कन्या का पिता किसी विद्वान् तथा सदाचारी वर को स्वयं आमंत्रित करके उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कन्या, विधि- विधान सहित प्रदान करता था।
2.     दैव : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कर किसी ऐसे व्यक्ति को विधि- विधान सहित प्रदान करता था, जो कि याज्ञिक अर्थात् यज्ञादि कर्मों में निरत करता था।
3.     आर्ष : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता यज्ञादि कार्यों के संपादन के निमित्त ( शुल्क के रुप में नहीं ) वर से एक या दो जोड़े गायों को देकर विधि- विधान सहित कन्या को उसे समर्पित करता था।
4.     प्राजापत्य : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता योग्य वर को आमंत्रित कर "तुम दोनों मिलकर अपने गृहस्थधर्म का पालन करो' ऐसा निर्देश देकर विधि- विधान के साथ कन्यादान किया करता था।
5.     आसुर : कन्या के बांधवों को धन या प्रलोभन देकर स्वेच्छा से कन्या प्राप्त करने की प्रक्रिया को "आसुर' विवाह कहा जाता था।
6.     गांधर्व : इसमें कोई युवक- युवती स्वेच्छा से प्रणयबंधन में बंध जाते थे। अथवा यदि कोई सकाम पुरुष किसी सकामा युवती से मिलकर एकांत में वैवाहिक संबंध में प्रतिबद्ध होने का निर्णय कर लेता था, तो इसे भी गांधर्व विवाह कहा जाता था।
7.     राक्षस : इस प्रकार के विवाह में विवाह करने वाला व्यक्ति कन्या के अभिभावकों की स्वीकृति न होने पर भी, उन लोगों के साथ मार- पीट करके रोती- बिलखती कन्या का बलपूर्वक हरण करके उसको अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करता था।
8.     पैशाच : सोई हुई या अर्धचेतना अवस्था में पड़ी अविवाहिता कन्या को एकांत में पाकर उसके साथ बलात्कार करके उसे अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करने का नाम "पैशाच' विवाह कहलाता था ।
उपर्युक्त प्रकार के आठों विवाहों में से प्रथम चार प्रशस्त, समाज एवं धर्म सम्मत माने जाने के कारण सामान्यतः आर्य वर्गीय लोगों में सर्व सामान्य रुप से प्रचलित थे। किंतु शेष चार, जैसा कि इनके जातीय नामों से प्रतीत होता है, तत्तत् आर्येतर वर्गीय जन समुदायों में प्रचलित रहे, यथा "आसुर' असुर वर्गीय लोगों में , "गांधर्व' गंधर्व जातीय लोगों में, "राक्षस' एतद् वर्गीय लोगों में तथा "पैशाच' पिशाच कहे जाने वाले लोगों में वधू प्राप्ति की सर्वसामान्य प्रचलित प्रथा रही होगी। किंतु ऐसा लगता है कि कालांतर में आर्यों के प्रसार तथा इन लोगों के संपर्क में आने के कारण पारस्परिक अंतर्प्रभाव से आर्यों में भी यदा- कदा इन विधियों से वधू प्राप्त कर ली जाने लगी थी।
पुरातन साहित्यिक संदर्भों से पता चलता है कि वैदिकोत्तर काल में आर्य वर्गीय लोगों में भी इन विधियों से वधू- प्राप्त करने की परंपरा, विरल रुप में ही सही, प्रचलित हो चली थी। फलतः कट्टरपंथी आर्य स्मृतिकारों को इन्हें भी सामाजिक मान्यता प्राप्त वैवाहिक संबंधों की सूची में स्थान देना पड़ा, यद्यपि नैतिक आधार पर इनमें से विशेषकर आसुर तथा पैशाच विधियों की निंदा की गयी तथा उनका परिहार किये जाने की सम्मति दी जाती रही ।
 अगर किसी अध्ययनशील सुधिजन इससे अतिरिक्त कोई जानकारी हो अवश्य देने की कृपा कीजिये.
*जहां तक वर्त्तमान में  बच्चों द्वारा किये जाने वाले  विजातीय  विवाहों का प्रश्न है अमान्य नहीं हो सकते पर विवाहों को लेकर   समाज की दृष्टिकोण प्रथक प्रथक हैं*
1.     निजी छोटे  व्यावसायिक युवक से विवाह न करने पर विजातीय विवाह को मान्यता
2.     दिव्यांग (लडके/लड़की) से विवाह करने पर विजातीय विवाह को मान्यता
3.     अधिक उम्र के लडके लड़की का विवाह अन्य जाति में होने पर मौन सहमति
4.     विधवा / तलाकशुदा / परित्यक्ता  के पुनर्विवाह अन्य जाती में विवाह को मान्यता देती है जातियां
5.     मनोनुकूल विवाह जो उपरोक्त 4 श्रेणियों से भिन्न हो जिसे सामान्य स्थिति में किया विवाह कहा जाता है  केवल उस पर ही विमर्श करना तथा खाप पंचायतों की मानिंद माता- पिता तक को सांस्कृतिक सामाजिक अधिकारों से वंचित करने का मुहिम छेड़ देना सामाजिक विसंगति है . जबकि सामान्यत: उनका माता-पिता का  दोष न होकर बाह्य परिस्थियों की वज़ह से ऐसे विवाह होते हैं जिसे हम  शैक्षिक  सामाजिक एवं रोजगारीय परिस्थियां कहेंगें .
फिर एक बात तय है की न तो हम न ही हमारे निर्णय संवैधानिक व्यवस्था को लांघ सकते हैं तो फिर क्यों हम विजातीय विवाह को लेकर इतने उग्र होते जा रहे हैं. केवल विवाह से न तो सांस्कृतिक मूल्यों रक्षा होती है न ही उग्रता से.
अगर हम विजातीय विवाहों के खिलाफ हैं तो  हमें केवल इतना समझना है कि हम उग्रता छोड़ कर एक ऐसे सांस्कृतिक समागम की परिस्थितियाँ विकसित करलें जिसकी तलाश में युवा वर्ग है. युवाओं (लडके / लड़कियों ) को ये बोध करा सकें कि जिस खुलेपन से वे बाहरी दुनिया में जीवन साथी तलाश रहें हैं उससे अधिक समझदारी से हम अपने सामाजिक परिवेश में रह कर वहीं से अपने योग्य वर या वधू का चयन कर सकतें हैं.
सुधिजन....... वैसे एक बात कह दूं कि –“शांत भाव से हम सोचें कि इतिहास में हज़ारों ऐसे उदाहरण हैं जिसमें राजाओं  ऋषियों ने तक ने विजातीय और विधर्मीय विवाह किये हैं सफल ही रहे हैं ”
“हम पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अनुगामी हम ये जान लें कि पुत्र से यदि वश परम्परा कायम रहती है तो विवाह के बाद पिता का वंश ही मान्य है न कि माता का तो वधु को अस्वीकारने की कोई वज़ह नहीं है ”
इसका आलेख का उद्देश्य सामाजिक  सांस्कृतिक  विश्लेषण मात्र है जो उग्रता में कदापि संभव नहीं उग्र विचारों से सांस्कृतिक सदभावना की स्थापना कदापि संभव नहीं .
       
     
             
  





5.4.17

हममें राम नहीं है.. क्यों ?


हममें राम नहीं है.. क्यों ?
इस मुद्दे पर फिर  कभी विस्तार से बात होगी ,,,,,, अभी फिलहाल   मान लिया  राम का जन्म  ही नहीं हुआ था. अयोध्या में तो बिलकुल नहीं हुआ. पर एक बात तो तय है कि...  राम का जन्म नित होता है... हर जगह जहां आस्था है .... विश्वास है... उस अयोध्या में जहां मर्यादा का वातावरण हो ........ क्या हमने ऐसा वातावरण बना लिया है कि राम जन्म लें ..? 
शायद नहीं .. ! 
यानी हममें राम नहीं है.. पर  क्यों ? 
अगर राम हैं तो वो बालराम  हमारे मन मंदिर में तो क्या वो राम वहीं ठुमुक ठुमुक चल रहे हैं क्या किशोर युवा और फिर राजा राम के रूप में 
 क्या  रामराज्य लाएंगें..? 
जहां मर्यादित सांस्कृतिक वैभव होगा. आम नागरिक बिना ताला लगाए शान्ति से रह सकेंगें ..? 
 क्या हो  कि राम हममें अन्तर्निहित हों. राम हममें तब वास करेंगे जब हममें राम के अनुकूल वातावरण निर्माण की क्षमता आ जावेगी.
वास्तव में राम क्या है उस तत्व को समझने और समझाने की ज़रूरत है. 
आज हमारे  के पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हैं जो  कि  राम का लेशमात्र आभास भी कर पाए. हम आत्ममुग्ध हैं. त्रेता में ये न था जब राम का विशाल साम्राज्य भूखंड पर ही नहीं आत्माओं पर भी था. आज राम पर भी  संदेह है कि राम एक माईथ है . यानी कवियों की कल्पना में बसा एक चरित्र ...... लोग इसी तर्क के सहारे राम के जन्मस्थल को भी काल्पनिक स्थान मानतें हैं.
ये सब आयातित विचार धारा जनित एक सांस्कृतिक हमला है जो कई बरसों से जारी है. 
एक  आयातित विचारधारा ने न केवल राम के होने पर सवाल खड़े किये हैं वरन समूची आस्थाओं को सिरे से खारिज किया और बौद्धिक विलासी लोगों को ये पक्ष पसंद आया
        राम कृष्ण ताओ, आदि आदि सबको नकारने लगे.. ऐसे लोगों की संख्या आज भी दिन दूनी बढ़ रही है. राम की आराधना मात्र से साम्प्रदायिक हो जाने की पर्चियां चस्पा कर दी जातीं हैं हम पर हम राम विहीन हैं . क्योंकि हम मर्यादित नहीं हमने आयातित विचारों को स्वीकारा क्योंकि वो अधिक सुविधा जनक पाए गए . राम के जीवन दर्शन में क्या मिलता न विलासिता न भौतिकवादी सम्पन्नता . क्योंकि हमें जो भी करना है राम की तरह मर्यादित होकर यानी सदाचारी होकर तो हम विलासिता भरे जीवन से मोहताज़ होना होगा .
आयातित विचारधारा का उद्देश्य भारतीय सनातन की समाप्ति के खिलाफ वातावरण का निर्माण करना है ताकि हम छद्मयुद्ध का हिस्सा बने रहें. 
हे राम हममें राम भी नहीं है तो हम विजयी होंगे या विजित ये राम जान सकते हैं हम तो अब ये जान गए हैं कि हममें राम नहीं और जिनमें राम नहीं उनमें कुछ भी नहीं होगा.
तत्वबोध मोरे मन नाहीं 
तर्क युक्त बुधि समझ न पाहीं ।
किसी बिधि राम अइहैं मन द्वारा
कस प्रवाहमय चिन्तनधारा ।
कलजुग देह दूषित मन कुण्ठा 
प्रभू पर भी हम करें असंका ।।

23.3.17

पांच साल तक उलटे लटके रहो फिर विक्रम आएगा..


 एक चैनल  ने कहा चीलों को बूचड़खानों में खाने का इंतज़ार रहा. बूचड़खानों को बरसों से लायसेंस का इंतज़ार था. मिल जाते तो ? चील भूखे न रहते अवैध बूचड़खाने बंद न होते  ... 
बूचड़खानों को वैध करने की ज़िम्मेदारी और गलती  किसकी थी. शायद कुरैशी साहब की जो बेचारे सरकारी दफ्तर में बूचड़खाने को लायसेंस दिलाने चक्कर काट रहे थे...और सरफिरी व्यवस्था ने उनको तब पराजित कर दिया होगा..?
काम कराने के लिए हम क्यों आज भी नियमों से जकड़ दिए जातें हैं . कुछ दिनों से एक इंटरनेट के लल्लनटॉप चैनल के ज़रिये  न्यूज़ मिल रही है कि गरीबों के लिए  राशनकार्ड बनवा लेना उत्तर-प्रदेश में आसान नहीं है..! ......... दुःख होता है.. दोष इसे दें हम सब कितने खुद परस्त हैं कि अकिंचन के भी काम न आ पाते हैं ... दोष देते हैं.. सरकारों पर जो अफसर, क्लर्क, चपरासी के लिबास में हम ही चलातें हैं. क्यों हम इतने गैर ज़िम्मेदार हैं.    
आप सब  तो जानतें ही हैं कि रागदरबारी समकालीन सिस्टम का अहम सबूती दस्तावेज है.. स्व. श्रीलाल शुक्ल जी ने खुद अफसर होने के बावजूद सिस्टम की विद्रूपता को सामने लाकर आत्मचिंतन को बाध्य किया... !  
कल कविता दिवस पर बच्चों  से वार्ता के दौरान हमने बताया था कि- जिस तरह लोग साहित्य को पढ़ रहे हैं वो तरीका ठीक नहीं. आज एक और एहसास हुआ जिस तरह लोग सथियों को पढ़ रहे हैं आजकल वो भी तरीका ठीक नहीं ?”
तो फिर ठीक क्या है.. ठीक जो है वो ये कि हम अपनी अध्ययनशीलता को तमीज़दार बनाएं. चाहे वो किताब पढ़ने का मुद्दा हो या दुनिया के कारोबार का. दौनों  को पढ़ने का सलीका आना चाहिए.
दुनिया भर के खुशहाल देशों की आज एक लिस्ट जारी हुई जिसमें भारत को शोधकर्ताओं नें 117वें स्थान पर रखा है. रखना लाजिमी है... जब आम और  ख़ासवर्ग दोनों की समझदारी तेल लेने बाज़ार गई हो नौ मन तेल ज़रूरी है खुशियाली की राधा जी तभी न नाचेंगी...अब खरीददार ही कन्फ्यूज़ है तो तेल खरीदा भी न जाएगा न राधा जी नाचेंगी ये तय है.
“...........ऐसा क्यों..?
भाई ऐसा इस लिए क्योंकि न तो हमको  दुनिया को पढ़ने की तमीज है और न ही टेक्स्ट को..!
आप यह दावा कैसे कर सकतें हैं ...?”
 “भाई हम ठहरे दो कौड़ी के लेखक .. हम तो कुछ भी कह सकतें हैं. अरे जब नेता जी की जुबां पर लगाम नहीं टीवी पर चिकल्लस करने वालों में तहजीब नहीं तो हम और क्या लिखें अच्छा लिखेंगे तो आप हमको बैकवर्ड कहोगे अच्छा आपको पढ़ना नहीं अब बताओ भैया कल एक मोहतरमा ने फेसबुक पर बलात्कार के के खिलाफ ऐसी पोस्ट लिखी जैसे वे किसी विजय वृत्तांत का विश्लेषण कर रहीं हों..उनके लिखने का मकसद अधिकतम पाठक जुटाना था न कि समाज को सुधार लाने के लिए उनकी कलम चली.
           अब बताओ एनडीटीवी वालों ने अवैध  बूचड़खाने को चीलों की भूख से जोड़ा तो कौन सा गलत किया. प्रजातंत्र है सीधे को उलटा साबित करो फिर जब दुनिया दूसरे मुद्दों पर विचार करने लगे तो उस उलटे को सीधा साबित कर दो. यानी विक्रम का मुंह खुलवाओ और फुर्र से वैताल सरीखे आकाश मार्ग से जा लटको किसी पेड़ पर.
पांच साल तक उलटे लटके रहो फिर विक्रम आएगा..  तब तुम उसका मुंह खुलवाना वो बोला कि तुमको उलटे लटकने का शौक पूरा करने का मौका मिल जाएगा.. 
      मुद्दा ये नहीं कि हम किसी डेमोक्रेटिक सिस्टम में कोई समस्या है मुद्दा तो ये है कि हम सिस्टम को खुद पढ़ रहे हैं या कोई हमको पढ़वा रहा है. डेमोक्रेटिक सिस्टम को अगर हम पढ़ ही रहें हैं तो हमारे अध्ययन का तरीका क्या है..?
टी वी पर चैनल्स पर  रोज बहुत तीखी बहसें हमें पढ़ा रहीं हैं.. हम असहाय से उसे ही पढ़ रहे हैं . हमारे पास न तो आर्थिक चिंतन हैं न ही सामाजिक सोच....... चंद  जुमले याद हैं जो वाट्सएप से फेसबुक से मिले हैं फिर शाम को टीवी चैनल्स का शास्त्रार्थ ............! 

 मौलिकता हम से दूर है शायद जुमलों ट्वीटस - के सहारे हम राय बनाते हैं. हम सोचते हैं हम सही है पर आत्म चिंतन के लिए न तो हम तैयार हैं न ही हम अब उस लायक रह गए हैं. इसकी एक वज़ह है की हममें ज्ञान अर्जन की तमीज नहीं न तो हम टेक्स पढ़ पाते हैं.... और न ही स्थिति पढने की तमीज है.. मुझे भय है कि कहीं ऐसा न हो हम चेहरा बांचना भूल जाएं . 

14.3.17

या जोगी पहचाने फ़ागुन, हर गोपी संग दिखते कान्हा

फ़ागुन के गुन प्रेमी जाने, बेसुध तन अरु मन बौराना
या जोगी पहचाने फ़ागुन, हर गोपी संग दिखते कान्हा
रात गये नज़दीक जुनहैया,दूर प्रिया इत मन अकुलाना
सोचे जोगीरा शशिधर आए ,भक्ति भांग पिये मस्ताना
प्रेम रसीला, भक्ति अमिय सी,लख टेसू न फ़ूला समाना
डाल झुकीं तरुणी के तन सी, आम का बाग गया बौराना 
जीवन के दो पंथ निराले,कृष्ण की भक्ति अरु प्रिय को पाना 
दौनों ही मस्ती के  पथ हैं  , नित होवे है आना जाना--..!!
चैत की लम्बी दोपहरिया में– जीवन भी पलपल अनुमाना
छोर मिले न ओर मिले, चिंतित मन किस पथ पे जाना ?

8.3.17

*अनकही* 🦋women's day special


🦋 *अनकही* 🦋
*वह कहता था*
*वह सुनती थी* 
*जारी था एक खेल* 
*कहने सुनने का*
 
*खेल में थी दो पर्चियाँ*
*एक में लिखा था ‘कहो’*
*एक में लिखा था ‘सुनो’*
 
*अब यह नियति थी*
शरद कोकास 
*या महज़ संयोग*
*उसके हाथ लगती रही* 
*वही पर्ची*
*जिस पर लिखा था ‘सुनो’*
*वह सुनती रही*
 
*उसने  सुने आदेश*
*उसने सुने उपदेश*
*बन्दिशें उसके लिए थीं*
*उसके लिए थीं वर्जनाए*
*वह जानती थी* 
*कहना सुनना नहीं हैं*
*केवल हिंदी की क्रियाएं*
 
*राजा ने कहा ज़हर पियो*
*वह मीरा हो गई*
*ऋषि ने कहा पत्थर बनो*
*वह अहिल्या हो गई*
*प्रभु ने कहा घर से निकल जाओ*
*वह सीता हो गई*

*चिता से निकली चीख*
*किन्हीं कानों ने नहीं सुनी*
*वह सती हो गई*
 
*घुटती रही उसकी फरियाद*
*अटके रहे उसके शब्द* 
*सिले रहे उसके होंठ*
*रुन्धा रहा उसका गला*
 
*उसके हाथ कभी नहीं लगी*
*वह पर्ची*
*जिस पर लिखा था - ‘ कहो* ’

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