भारतीय संवैधानिक आस्था पर प्रहार करना कोई हितकारी कदम तो नहीं हैं. फिर ऐसी
क्या वज़ह है कि कुछ जातियां अपने अस्तित्व
इज्ज़त को बचाने के नाम पर अंतर्जातीय विवाह पर बेहद हंगामा कर रहे हैं ..?
विवाह क्या है.......... वेदों में
वर्णित वंशानुक्रम को आगे ले जाने के लिए बनाई गई सांस्थानिक व्यवस्था
ही विवाह के रूप में अधिमान्य हैं परन्तु मुझे अब तक कन्या की जाति के
सन्दर्भ में कोई आज्ञा देखने को नहीं मिली. अपितु मनु स्मृति में जिन विवाहों का
उल्लेख मिला वो 8 प्रकार के हैं
एक विवरण अनुसार इस लिंक ( http://www.ignca.nic.in/coilnet/ruh0029.htm) मौजूद विवरण अनुसार
विवाह के बारे में स्पष्ट किया गया है और ये आप सब जानते ही होगें
1. ब्राह्म : इसमें कन्या का पिता किसी विद्वान् तथा सदाचारी
वर को स्वयं आमंत्रित करके उसे वस्रालंकारों से सुसज्जित कन्या, विधि- विधान सहित प्रदान करता था।
2. दैव : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता उसे
वस्रालंकारों से सुसज्जित कर किसी ऐसे व्यक्ति को विधि- विधान सहित प्रदान करता था, जो कि याज्ञिक अर्थात् यज्ञादि कर्मों में निरत करता था।
3. आर्ष : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता यज्ञादि
कार्यों के संपादन के निमित्त ( शुल्क के रुप में नहीं ) वर से एक या दो जोड़े
गायों को देकर विधि- विधान सहित कन्या को उसे समर्पित करता था।
4. प्राजापत्य : इस प्रकार के विवाह में कन्या का पिता योग्य
वर को आमंत्रित कर "तुम दोनों मिलकर अपने गृहस्थधर्म का पालन करो' ऐसा निर्देश देकर विधि- विधान के साथ कन्यादान किया करता था।
5. आसुर : कन्या के बांधवों को धन या प्रलोभन देकर स्वेच्छा से
कन्या प्राप्त करने की प्रक्रिया को "आसुर' विवाह कहा जाता था।
6. गांधर्व : इसमें कोई युवक- युवती स्वेच्छा से प्रणयबंधन में
बंध जाते थे। अथवा यदि कोई सकाम पुरुष किसी सकामा युवती से मिलकर एकांत में
वैवाहिक संबंध में प्रतिबद्ध होने का निर्णय कर लेता था, तो इसे भी गांधर्व विवाह कहा जाता था।
7. राक्षस : इस प्रकार के विवाह में विवाह करने वाला व्यक्ति
कन्या के अभिभावकों की स्वीकृति न होने पर भी, उन लोगों के साथ मार- पीट करके रोती- बिलखती कन्या का
बलपूर्वक हरण करके उसको अपनी पत्नी बनने के लिए विवश करता था।
8. पैशाच : सोई हुई या अर्धचेतना अवस्था में पड़ी अविवाहिता
कन्या को एकांत में पाकर उसके साथ बलात्कार करके उसे अपनी पत्नी बनने के लिए विवश
करने का नाम "पैशाच' विवाह कहलाता था ।
उपर्युक्त प्रकार के आठों विवाहों में से प्रथम चार प्रशस्त, समाज एवं धर्म सम्मत माने जाने के कारण सामान्यतः आर्य वर्गीय
लोगों में सर्व सामान्य रुप से प्रचलित थे। किंतु शेष चार, जैसा
कि इनके जातीय नामों से प्रतीत होता है, तत्तत् आर्येतर
वर्गीय जन समुदायों में प्रचलित रहे, यथा "आसुर'
असुर वर्गीय लोगों में , "गांधर्व'
गंधर्व जातीय लोगों में, "राक्षस'
एतद् वर्गीय लोगों में तथा "पैशाच' पिशाच
कहे जाने वाले लोगों में वधू प्राप्ति की सर्वसामान्य प्रचलित प्रथा रही होगी।
किंतु ऐसा लगता है कि कालांतर में आर्यों के प्रसार तथा इन लोगों के संपर्क में
आने के कारण पारस्परिक अंतर्प्रभाव से आर्यों में भी यदा- कदा इन विधियों से वधू
प्राप्त कर ली जाने लगी थी।
पुरातन साहित्यिक संदर्भों से पता चलता है कि वैदिकोत्तर काल में आर्य वर्गीय
लोगों में भी इन विधियों से वधू- प्राप्त करने की परंपरा, विरल रुप में ही सही, प्रचलित हो चली
थी। फलतः कट्टरपंथी आर्य स्मृतिकारों को इन्हें भी सामाजिक मान्यता प्राप्त
वैवाहिक संबंधों की सूची में स्थान देना पड़ा, यद्यपि नैतिक
आधार पर इनमें से विशेषकर आसुर तथा पैशाच विधियों की निंदा की गयी तथा उनका परिहार
किये जाने की सम्मति दी जाती रही ।
अगर किसी अध्ययनशील सुधिजन इससे
अतिरिक्त कोई जानकारी हो अवश्य देने की कृपा कीजिये.
*जहां तक वर्त्तमान में बच्चों द्वारा
किये जाने वाले विजातीय विवाहों का प्रश्न है अमान्य नहीं हो सकते पर
विवाहों को लेकर समाज की दृष्टिकोण प्रथक प्रथक हैं*
1. निजी छोटे
व्यावसायिक युवक से विवाह न करने पर विजातीय विवाह को मान्यता
2. दिव्यांग (लडके/लड़की) से विवाह करने पर विजातीय विवाह को
मान्यता
3. अधिक उम्र के लडके लड़की का विवाह अन्य जाति में होने पर मौन
सहमति
4. विधवा / तलाकशुदा / परित्यक्ता के पुनर्विवाह अन्य जाती में विवाह को मान्यता
देती है जातियां
5. मनोनुकूल विवाह जो उपरोक्त 4 श्रेणियों से भिन्न हो जिसे
सामान्य स्थिति में किया विवाह कहा जाता है केवल उस पर ही विमर्श करना तथा खाप पंचायतों की
मानिंद माता- पिता तक को सांस्कृतिक सामाजिक अधिकारों से वंचित करने का मुहिम छेड़
देना सामाजिक विसंगति है . जबकि सामान्यत: उनका माता-पिता का दोष न होकर बाह्य परिस्थियों की वज़ह से ऐसे
विवाह होते हैं जिसे हम शैक्षिक सामाजिक एवं रोजगारीय परिस्थियां कहेंगें .
फिर एक बात तय है की न तो हम न ही हमारे निर्णय संवैधानिक व्यवस्था को लांघ
सकते हैं तो फिर क्यों हम विजातीय विवाह को लेकर इतने उग्र होते जा रहे हैं. केवल
विवाह से न तो सांस्कृतिक मूल्यों रक्षा होती है न ही उग्रता से.
अगर हम विजातीय विवाहों के खिलाफ हैं तो हमें केवल इतना समझना है कि हम उग्रता छोड़ कर एक
ऐसे सांस्कृतिक समागम की परिस्थितियाँ विकसित करलें जिसकी तलाश में युवा वर्ग है.
युवाओं (लडके / लड़कियों ) को ये बोध करा सकें कि जिस खुलेपन से वे बाहरी दुनिया
में जीवन साथी तलाश रहें हैं उससे अधिक समझदारी से हम अपने सामाजिक परिवेश में रह
कर वहीं से अपने योग्य वर या वधू का चयन कर सकतें हैं.
सुधिजन....... वैसे एक बात कह दूं कि –“शांत भाव से हम सोचें कि इतिहास में
हज़ारों ऐसे उदाहरण हैं जिसमें राजाओं ऋषियों ने तक ने विजातीय और विधर्मीय विवाह किये
हैं सफल ही रहे हैं ”
“हम पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अनुगामी हम ये जान लें कि पुत्र से यदि वश
परम्परा कायम रहती है तो विवाह के बाद पिता का वंश ही मान्य है न कि माता का तो
वधु को अस्वीकारने की कोई वज़ह नहीं है ”
इसका आलेख का उद्देश्य सामाजिक
सांस्कृतिक विश्लेषण मात्र है जो
उग्रता में कदापि संभव नहीं उग्र विचारों से सांस्कृतिक सदभावना की स्थापना कदापि
संभव नहीं .