10.8.14
बदतमीज़ भाईयों की कलाई पर राखी मत बांधना बेटियो..
सामाजिक संरचना इतनी अधोगत हो चुकी है
कि हम सामाजिक मूल्यों को स्तर नहीं दे पा रहे हैं. आज़ शाम रक्षा-बंधन की खरीदी के
लिये मैंनें बहुत सी बेटियों को समूह में खरीददारी करते देखा . मन न केवल खुश था
बल्कि अच्छा भी लगा हम चर्चा ही कर रहे थे कि बेटियां अब खुद निर्णय ले रहीं
हैं . देखो कितने साहस से भरी आज पावन त्यौहार की तैयारी में व्यस्त हैं. बात खत्म
हुई ही थी कि कुछ शोहदे तो नहीं थे पर हाई-स्कूल + के किशोर लग रहे थे.. बेटियों
पर छींटाकशी करते नज़र आए . ड्रायवर को वाहन धीमा चलाने का निर्देश देने पर उसने
गाड़ी धीमी क्या लगभग रोक ही दी. मेरा उन किशोरों को घूरना बस था कि वे
तितर-बितर हो गये. गुस्सा इतना भरा था कि मेरी कायिक भाषा प्रभावकारी बन गई
थी. यह घटना इतने अंदर तक समा गई कि इन किशोर शोहदों के घर जाकर इनकी बहनों से कह
दूं इन बदतमीज़ भाईयों की की कलाई पर राखी मत बांधना बेटियो..!!
वास्तव में यही एक उम्र होती है
जब बच्चों को अनुसाशित रखा जा सकता है किंतु बच्चों से लगातार सदसंवादों के अभाव
से किशोर वय की पुरुष संताने अपराध की ओर क़दमताल करती नज़र आती है. सरकार को चाहिये
छेड़छाड़ छीटाक़शी को भी संगीन अपराध की श्रेणी में रखा जाकर दंड देने का प्रावधान तय
कर दे. मेरा यह प्रस्ताव मेरे भावातिरेक का परिणाम है. तो फ़िर क्या
तरीक़ा होगा ताक़ि ऐसी घटनाओं पर नियंत्रण रखा जावे..
तरीक़ा कोई भी किशोरों को महिलाओं
विशेषरूप से किशोरीयों के विरुद्ध कायिक हिंसा के प्रयासों पर कठोर दांडिक
कार्रवाई के प्रावधान अवश्य हों. सार्वजनिक स्थानों को सी.सी कैमरों की ज़द में
बेहद आसानी से लाया जा सकता है. साथ ही सतत-वेबकास्टिंग के प्रयोग से भी ऐसे
कुत्सित प्रयासों पर रोक लग सकती है. आम नागरिक अपने किशोर होते बच्चों को अपने
रडार पर रखें. आप सोचेंगे कि यह कैसे संभव है.. ? वास्तव में
सतत संवाद एवं उनकी मित्रमंडली का बैकग्राऊंड जानना अत्यंत आवश्यक होगा . इससे
उनकी गतिविधियां सहज समझी जा सकतीं हैं. वरना बाल-अपराध खासकर यौन आधारित
बाल अपराध नहीं रुक सकते . मेरी राय में ये सर्व प्राथमिक ज़रूरत है वरना बाल-अपराध के लिये
बने क़ानून से राहत तो मिली पर अभी दिल्ली दूर है भाई...
7.8.14
राजेश पाठक जी की फेसबुक पोस्ट
साथियों
हिन्दू धर्म के प्रमुख त्यौहारों में से एक रक्षाबन्धन का त्यौहार आने वाला है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारतीय न्यूज ट्रेडर्स के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा है।
अगले 8-10 दिनों में हर न्यूज चैनल भारतीय बाजार में मिलने वाली हर मिठाई को दूध और मावा की मिलावट का प्रदर्शन करेंगे और साथ साथ ही कैडबरी चोकलेट और कोका कोला पेप्सी कंपनियां रिश्तों के भावनात्मक विझापन दिन रात हर चैनल पर प्रसारित करेंगी ।
मेरा हर भारतीय से निवेदन है कि रक्षाबन्धन के लेन देन में ऐसी वस्तुओं का प्रयोग करें जिनसे सीधा फायदा भारतीय उत्पादकों को हो जैसे फल, बिस्कुट,बेकरी प्रोडक्ट तथा अन्य स्थानीय उत्पाद
साथियों चलो इस बार हम सभी भारतीय मिलकर कैडबरी और कोका कोला-पेप्सी को जबरदस्त व्यापार घाटा और अपने भारतीय किसान और स्थानीय व्यापरियों को व्यापारिक फायदा पहुंचाए।
Ab apna bhartiye hone ka farz nibhao or is msg ko jyada se jyada share karo...
हिन्दू धर्म के प्रमुख त्यौहारों में से एक रक्षाबन्धन का त्यौहार आने वाला है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारतीय न्यूज ट्रेडर्स के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा है।
अगले 8-10 दिनों में हर न्यूज चैनल भारतीय बाजार में मिलने वाली हर मिठाई को दूध और मावा की मिलावट का प्रदर्शन करेंगे और साथ साथ ही कैडबरी चोकलेट और कोका कोला पेप्सी कंपनियां रिश्तों के भावनात्मक विझापन दिन रात हर चैनल पर प्रसारित करेंगी ।
मेरा हर भारतीय से निवेदन है कि रक्षाबन्धन के लेन देन में ऐसी वस्तुओं का प्रयोग करें जिनसे सीधा फायदा भारतीय उत्पादकों को हो जैसे फल, बिस्कुट,बेकरी प्रोडक्ट तथा अन्य स्थानीय उत्पाद
साथियों चलो इस बार हम सभी भारतीय मिलकर कैडबरी और कोका कोला-पेप्सी को जबरदस्त व्यापार घाटा और अपने भारतीय किसान और स्थानीय व्यापरियों को व्यापारिक फायदा पहुंचाए।
Ab apna bhartiye hone ka farz nibhao or is msg ko jyada se jyada share karo...
6.8.14
आमिर खान साब -यूं तो हमाम में सब नंगे होते हैं पर भारत तुम्हारा हमाम नहीं बर्खुरदार
सुधि पाठको.. प्रस्तुत कथा सत्यघटना पर
आधारित है.. इसका किसी भी मृत व्यक्ति से अथवा उसकी भटकती आत्मा से कोई सरोकार
नहीं. जिन जीवित व्यक्तियों से इसका संबंध है..भी तो कोई संयोग नहीं.. जानबूझकर
मैं लिख रहा हूं ताकि सनद रहे वक़्त पर आम आए.. लेखक
|
समय समय पर हथकण्डे बाज़ लोगों की हरक़तें मंज़र-ए-आम हो जाया करतीं हैं. यक़ीनन लोग अपने किये को अमृत दूसरे के किये को विष्ठा ही मानते हैं. मुझे बेहद पसंद हैं आमिर खान उनकी अदद एक पिक्चर की बरस भर प्रतीक्षा करता हूं . ट्रांजिस्टर से अपनी लाज़ बचाते नज़र आए तो अपनी आस्था के किरचे किरचे मानस में घनीभूत हो गए . हमको लगा गोया हम नंगे फ़िर रहे हैं. अब भाई सल्लू मियां की छोड़ो वो तो सिल्वर स्क्रीन पर न जाने कितने बार बेहूदा दृश्य दिखा चुके हैं. वर्जनाओं के ख़िलाफ़ लामबंद होते ये कलाकार गोया इनके पास मौलिक रचनात्मकता समाप्त प्राय: हो चुकी है. जैसा प्रगतिशील आलोचक कहा करते हैं- "बाबा नागार्जुन के बाद विषय चुक गए हैं."
मित्रो, सर्जक को जान लेना चाहिये कि सृजन के विषय समाप्त कदापि नहीं होते. इन नंगों को कालजयी ओर महान कलाकार कहा जाएगा उसकी पुष्टि होगी हज़ारों नज़ीरें पेश की जावेंगी. लोग शोध करेंगे. आदि आदि ... इस सबसे मेरा आपका सबका सरोकार है.. ये वो ज़मात है जिसका दी-ओ-धरम चुक गया है न कि विषय चुके हैं . विषय सदा मौज़ूद थे हैं और रहेंगे भी. आमिर भाई नंगे मत हो ... तुम्हारी अदाकारी से मैं बेहद प्रभावित था पर अब ..आपके इस रूप को देख कर अपने स्नेह से आपको वंचित करते हुए दु:ख हो रहा है. वास्तव में आपको अपनी पब्लिसिटी के लिये ये हथकंडा अपना शोभा नहीं देता. बकौल अशोक बाजपेई
आमिर आप बच्चे नहीं हैं ... मेरी बात समझ गए होगें.. न समझो तो भी आप जैसों से अपेक्षा भी क्या करें.. आप को "निशान-ए-पाकिस्तान" से नवाज़ा जाए या कोळ्ड ड्रिंक्स से नहलाया जावे हम तो आम लोग हैं.. हमें क्या.. "यूं तो हमाम में सब नंगे होते हैं पर भारत तुम्हारा हमाम नहीं बर्खुरदार"
मित्रो, सर्जक को जान लेना चाहिये कि सृजन के विषय समाप्त कदापि नहीं होते. इन नंगों को कालजयी ओर महान कलाकार कहा जाएगा उसकी पुष्टि होगी हज़ारों नज़ीरें पेश की जावेंगी. लोग शोध करेंगे. आदि आदि ... इस सबसे मेरा आपका सबका सरोकार है.. ये वो ज़मात है जिसका दी-ओ-धरम चुक गया है न कि विषय चुके हैं . विषय सदा मौज़ूद थे हैं और रहेंगे भी. आमिर भाई नंगे मत हो ... तुम्हारी अदाकारी से मैं बेहद प्रभावित था पर अब ..आपके इस रूप को देख कर अपने स्नेह से आपको वंचित करते हुए दु:ख हो रहा है. वास्तव में आपको अपनी पब्लिसिटी के लिये ये हथकंडा अपना शोभा नहीं देता. बकौल अशोक बाजपेई
फूल झरता है
फूल शब्द नहीं!
बच्चा गेंद उछालता है,
सदियों के पार
लोकती है उसे एक बच्ची!
बूढ़ा गाता है एक पद्य,
दुहराता है दूसरा बूढ़ा,
भूगोल और इतिहास से परे
किसी दालान में बैठा हुआ!
न बच्चा रहेगा,
न बूढ़ा,
न गेंद, न फूल, न दालान
रहेंगे फिर भी शब्द
भाषा एकमात्र अनन्त है! आमिर आप बच्चे नहीं हैं ... मेरी बात समझ गए होगें.. न समझो तो भी आप जैसों से अपेक्षा भी क्या करें.. आप को "निशान-ए-पाकिस्तान" से नवाज़ा जाए या कोळ्ड ड्रिंक्स से नहलाया जावे हम तो आम लोग हैं.. हमें क्या.. "यूं तो हमाम में सब नंगे होते हैं पर भारत तुम्हारा हमाम नहीं बर्खुरदार"
स्कूल से घर तक पीटे जा रहे कान्हा – जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बदलाव की पहल :संजय स्वदेश
महाभारत काल में कान्हा रस्सी से बांधे गए हैं। बच्चों को घरों में
बांध कर रखने, उन्हें
मारने-पीटने की घटनाएं आज भी जारी है। एकल परिवारों में बच्चों की स्वछंदता समाप्त
हो चुकी है। उनसे हर क्षेत्र में अव्वल होने अपेक्षा बढ़ गई है। थोड़ी-थोड़ी बात पर
मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना घर-घर की बात हो चुकी है।
शिक्षा को मौलिक
अधिकार बनाने के बाद यहे बेहद जरूरी है कि बच्चों को हिंसा से संरक्षण का भी मौलिक
अधिकार मिले। इसके अभाव में भोले मन वाला बचपन घर और स्कूल में मानसिक व शारीरिक
रूप से पीड़ित है। देश दुनिया का कौन सा ऐसा देश है जहां बच्चों पर नियंत्रण के लिए
हिंसा का उपयोग नहीं किया गया है। भारत के पौराणिक कथाओं में तो इसके उदाहरण है।
भगवान श्रीकृष्ण अपनी नटखट कारनामों से माता यशोदा को इतना तंग करते हैं कि मां
कभी कान्हा को रस्सियों से बांध देती हैं, तो कभी ओखली में
बांध कर अनुशासित करने का प्रयास करती है। बच्चों को घरों में बांध कर रखने,
उन्हें मारने-पीटने की घटनाएं आज भी जारी है। पर चंचल बाल मन की
शरारत भला कहां छुटती है। बच्चों की सहज पृवृत्तियां जब माता-पिता या शिक्षक के
लिए भारी लगने लगती है तो उनका धैर्य टूट जाता है। वे बच्चों की बाल मनोवृत्ति
समझने के इतर उस पर नियंत्रण के लिए हिंसा का रुख अख्तियार कर लेते हैं। जैसे-जैसे
समाज विकसित हुआ, एकल परिवार बढ़े। बच्चे एकल परिवार में ही
सीमित रहने लगे। उनकी स्वछंदता समाप्त हो गई है। माता-पिता की अपेक्षाओं ने सब कुछ
कठोर अनुशासन में बांध दिया है। हर क्षेत्र में बच्चों से परिणाम अव्वल होने
अपेक्षा बढ़ गई है। अपेक्षाओं के विपरित होने पर बच्चों के साथ हिंसा आम हो चुकी
है। मतलब घर-घर में कान्हा के कान मरोड़ जा रहे हैं। वे पीटे जा रहे हैं। आधुनिक
भारत के स्कूलों में अनुशासन का पाठ मार से ही शुरू होती थी।हालांकि जागरूकता बढ़ने
के बाद भी हाल के वर्षों में स्कूल में बच्चों को पिटने की घटनाएं कम हुई हैं,
लेकिन इससे प्रकरण थाने तक पहुंचने लगे हैं। लिहाजा, शिक्षकों में दंड का भय बढ़ा है। पहले ये मामले थाने तक पहुंचते ही नहीं
थे। बच्चों को पीटना शिक्षकों का अघोषित अधिकार था। पीटे जाने के बाद भी बच्चे
माता-पिता से इसकी शिकायत नहीं करते थे। उल्टे उनके मन में इस बात का भय होता था
कि कहीं शिकायत पर घर में फिर पिटाई न हो जाए। घर की चाहरदिवारी में अपनों से
हिंसा के शिकार होने वाले मामले विशेष स्थितियों में ही थाने तक पहुंचते हैं। घर
के अपने बच्चों को पिटते हैं तो यह अनुशासन की सीख होती है, और
स्कूल में शिक्षक यही कदम उठाता है तो यह अपराध होने लगा है। पर घर हो या स्कूल,
बच्चों पर कहीं भी हिंसा है तो अपराध ही। इसी हिंसा को रोकने के लिए
सरकार कड़े कानूनों का नया खाका तैयार कर रही है। यह निश्चय ही सराहनीय और स्वागत
योग्य कदम है। सरकार जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2000 की जगह नए
कानून पर काम कर रही है। पुराने कानूनों के स्थान पर सरकार जुवेनाइल जस्टिस (केयर
ऐंड प्रोटेक्शन आॅफ चिल्ड्रन) बिल 2014 पेश करने की तैयारी
है। नए कानूनों को सरकार ने बच्चों के अधिकारों और अंतरराष्टÑीय कानूनों को ध्यान में रखकर तैयार किया है। माता-पिता या अभिभावकों या
शिक्षकों को अब बच्चों को पीटना या उनकी गलतियों के लिए कोई सजा देना या किसी तरह
से प्रताड़ित करना भारी पड़ेगा। बच्चों के खिलाफ ऐसा व्यवहार करने पर आने वाले सालों
में पांच साल तक के लिए जेल की सजा हो सकती है।
करीब
दो वर्ष पहले आई यूनिसेफ के एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के तमाम विकासशील
देशों में बच्चों को अनुशासित करने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है। ऐसा उनके
अपने ही घरों में होता है। यह हिंसा शारीरिक, मानसिक
या भावनात्मक किसी भी तरह की हो सकती है। दुनिया भर में 2 से
14 साल के आयुवर्ग के हर चार में तीन बच्चों को अनुशासित
करने के लिए किसी न किसी तरह की हिंसा का सहारा लिया जाता है। इसी तरह हर चार में
तीन बच्चे मनोवैज्ञानिक हिंसा या आक्रामकता के शिकार होते हैं, जबकि हर चार में से दो बच्चों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने के लिए शारीरिक सजा
दी जाती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि दुनिया के 33 देशों
के निम्न व मध्यम आय वर्ग वाले परिवारों में 2 से 14 साल की आयुवर्ग के बच्चों पर ऐसी हिंसा हुई, जिसमें
उनके माता-पिता या अभिभावक शामिल थे। भारत में यही हालात है। यहां घर से लेकर
स्कूल तक बच्चे हिंसा से पीड़ित हैं।
भारत
के शिक्षा दर्शन में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले चिंतक महर्षि अरविंद अपने एक लेख
में कहते हैं कि शिक्षक राष्टÑ निर्माण के वे
माली हैं जो अपनी मेहनत से इसकी नींव को सींचते हैं। दुर्भाग्य देखिए, आज 21वीं सदी में न ऐसे मेहनत व धैर्य वाले शिक्षक
हैं और न गुरुकुल जैसी शिक्षा परंपरा। सब कुछ बदला-बदला। अंतराष्टÑीय स्तर के स्कूल और शिक्षा पद्धति। इसके बाद भी राष्टÑीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के आंकड़ों के अनुसार हाल के वर्षों में बच्चों
के साथ स्कूलों में होने वाले दुर्व्यवहार, यौन शोषण,
शारीरिक प्रताड़ना के मामलों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है।
करीब
सात साल पहले 2007 में केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय ने
अपने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में बताया था कि स्कूल जाने वाला हर दूसरा बच्चा किसी
ने किसी तरह से शारीरिक या मानसिक हिंसा का शिकार हो रहा है। करीब दो दशक पहले
बच्चों को स्कूल छोड़ने का सबसे बड़ा कारण शिक्षकों द्वारा पीटे जाने का भय होता था।
जब स्कूल से बाहर रहने वाले बच्चों केआंकड़ें बढ़े तो सरकार ने मिड डे मिल के माध्यम
से भीड़ बढ़ा दी। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को नई पीढ़ी आ चुकी है, उसने पुराने शिक्षकों की तरह मारपीट कर पढ़ाना छोड़ पढ़ाने से ही मुंह मोड़
लिया है। इसके बाद भी आए दिन किसी स्कूल में बच्चों के पीटे जाने की घटनाएं आ ही
जाती है। ऐसी घटनाएं अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों से आती हैं। ऐसे मामलों में प्रकरण
भी वहीं दर्ज हुए हैं। जब मारपीट से बच्चे की हालत ज्यादा खराब हुई और अभिभावकों
ने इसकी सुध ली। निजी स्कूलों में बेहतर शिक्षा के लिए मोटी फीस देकर बच्चों को
पढ़ाने वाले अभिभावक सचेत हैं। लिहाजा, निजी स्कूलों में काफी
हद तक शारीरिक हिंसा की घटनाएं कम हुर्इं है। लेकिन सरकारी स्कूलों में हालत सरकार
भरोसे ही है।
आलेख मूल रूप से यहां प्रकाशित है
"स्कूल से घर तक पीटे जा रहे कान्हा – जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बदलाव की पहल :संजय स्वदेश "
संजय स्वदेश वरिष्ट पत्रकार हैं और दैनिक अखबार हरी भूमि में कार्यरत हैं ! मोबाइल-09691578252
संजय स्वदेश वरिष्ट पत्रकार हैं और दैनिक अखबार हरी भूमि में कार्यरत हैं ! मोबाइल-09691578252
28.7.14
काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!
मृत काग |
काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!
छोटी
बिटिया श्रृद्धा ने स्कूल से लौटकर मुझसे पूछा.. पापा- “कागद ही के कारने वृथा
जीवन गंवाय..!” का अर्थ विन्यास कीजिये.. मैने दार्शनिक भाव से कहा – बेटी यहां
कागज के कारण जीवन व्यर्थ गंवाने की बात है.. शायद कागज रुपए के लिये प्रयोग किया
गया है.. ?
बेटी ने फ़िर पूछा- “काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!”
अब फ़िर से बोलिये.. इसका अर्थ क्या हुआ..
हतप्रभ सा मैं बोल पड़ा – किसी ऐसी घटना का विवरण है जिसमें
कौआ दही के कारण जीवन खो देता है..
गदही |
बेटी ने बताया कि आज़ स्कूल में एक कहानी सुना कर टीचर जी ने
इस काव्य पंक्ति की व्याख्या की. कहानी कुछ यूं थी कि एक दही बेचने वाली के दही
वाले घड़े में लालची कौआ गिर के मर गया. महिला निरक्षर थी पर कविता करना जानती थी
सो उसने अपने मन की बात कवित्त में कही- “काग
दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” इस पंक्ति को दुहराने लगी . फ़िर राह पर किसी पढ़े
लिखे व्यक्ति से उक्त पंक्ति लिपिबद्ध कराई..
पढ़े लिखे
व्यक्ति ने कुछ यूं लिखा – “कागद ही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!”
फ़िर राह में एक अन्य पढ़े लिखे व्यक्ति से भेंट हुई, जिससे उसने लिखवाया ,
दूसरे व्यक्ति ने यूं लिखा.. “का गदही के कारने वृथा जीवन गंवाय..? ”
कागद |
समय की वास्तविकता यही है..विचार मौलिक नहीं रह पाते हैं. सब अपने अपने नज़रिये से विचार करते हैं.. जिसके पास मौलिक विचार हैं वो उनको विस्तार देने में असफ़ल है और जिनके पास मौलिक चिंतन ही नहीं है वे किसी ज़रिये से भी प्राप्त विचारों को अपने तरीके से गढ़ कर विस्तार दे रहे हैं. यही है आज़ के दौर का यथार्थ. जिसे देखिये वो अपनी दुम्दुभी बज़ाने के चक्कर नें मन चाहे विचार परोस रहा है. बस शब्दों हेर फ़ेर वाला मामला है. अर्थ बदल दीजिये.. लोगों को ग़ुमराह कर अपना उल्लू सीधा कर लीजिये .. सब के सब जाने किस जुगाड़ में हैं. क्या हो गया है युग को जिसे देखिये वो कुतर्कों की ठठरी पर अमौलिक चिंतन की बेजान देह ढोने को आमादा हैं. न तो समाज न ही तंत्र के स्तंभ.. सब के सब एक्सपोज़ भी हो रहे हैं कोई ज़रा कम तो कोई सुर्खियों में . मित्रो.. दुनिया अब "गदही" सी लगने लगी है..
ऐसी गदही में मैं क्यों क्यों इनवाल्व होने चला मिसफ़िट हूं क्यों न कहूं.. - “का गदही के कारने वृथा जीवन गंवाय..? ”
26.7.14
संघर्ष का कथानक : जीवन का उद्देश्य
संघर्ष का कथानक जीवन का पर उद्देश्य होना चाहिये ऐसा मैं महसूस करता हूं.. आप भी यही
सोचते
होगे
न.. सोचिये अगर न सोचा हो तो . इन दिनों मन अपने इर्द-गिर्द एवं समाज़ में घट रही
घटनाओं से सीखने की चेष्टा में हूं.. अपने इर्द गिर्द देखता हूं लोग सारे जतन करते
दिखाई देते हैं स्वयं को सही साबित करने के. घटनाएं कुछ भी हों कहानियां कुछ भी हों पर एक एक बात तय है कि अब लोग आत्मकेंद्रित अधिक हैं. मैं मेरा,
मुझे, मेरे लिए, जैसे
शब्दों के बीच जीवन का प्रवाह जारी है.. समाप्त भी इन्हीं शब्दों के बीच
होता है. ज़रूरी है पर एक सीमा तक. उसके बाद सामष्टिक सोच आवश्यक होनी चाहिये. सब जानतें हैं स्टीफ़न हाकिंग को किसी से छिपा नहीं है ये नाम . वो इन बंधनों से मुक्त जी रहा है.. जियेगा भी अपनी मृत्यु के बाद निरंतर .. कबीर, सूर, यानी सब के सब ऐसे असाधारण उदाहरण हैं.. ब्रेल को भी मत भूलिये.. मैं ये सचाई उज़ागर करना चाहता हूं कि -"संघर्ष का कथानक : जीवन का उद्देश्य हो "..
संघर्ष का अर्थ पारस्परिक द्वंद्व क़दापि नहीं बल्कि तपस्या है.. संघर्ष आत्मिक संबल का स्रोत भी है.. !
पता नहीं क्यों विश्व का मौलिक चिंतन किधर तिरोहित हो रहा है .. लोग इतने आत्ममुग्ध एवं स्वचिंतन मग्न हैं कि अच्छा स्तर पाकर भी दूषित होते जा रहे हैं . जहां तक धर्मों का सवाल है उनके मूल पाठों में व्यक्त अवधारणाओं से किसी को कोई लेना देना नहीं .. बस प्रयोग के नाम पर कुछ भी बेहूदा करने को आतुर .. सफ़लता के लिये सटीक , स्वच्छ पवित्र विकल्प खोजने चाहिये. ताक़ि उससे मिली सफ़लता यानी अभीष्ट परिणाम पवित्र हो. हथकंडों के सहारे हासिल सफ़लता को सफ़लता की श्रेणी में रखना बेमानी है. कुछ लोग अपनी सफ़लता के लिये भेदक-शस्त्रों का संधान करते हैं. वो अक्सर वर्गभेद,वर्णभेद, अर्थभेद, स्तरभेद, के रूप में सामने आता है.. इससे वर्ग-संघर्ष जन्म लेता है.. जो वर्तमान परिवेश में रक्तिम और वैमनस्वी युद्ध का स्वरूप ले रहा है.
मुझे तो आश्चर्य होता है लोग पंथ की रक्षार्थ सत्ता की रक्षा हेतु अपनाए जाने वाले हथकंडे अपनाते है. धर्म मरते नहीं, खत्म नहीं होते.. धर्मों की रक्षार्थ मनुष्य का ज़ेहादी होना अज़ीब सी स्थिति है. लोग मौलिक चिंतन हीनता के अभाव में मरे हुए से लगते हैं जो समझते हैं कि अमुक उनके धर्म की रक्षा करेगा. धर्म आत्मा का विषय है.. युद्ध का नहीं. इसे न तो ज़ेहाद से बचा सकते न ही रक्तिम आंदोलन से .. जो अमर है उसे बचाने की चिंता करना सर्वथा मूर्खता है. जो खत्म होता है वो धर्म नहीं वो पंथ है विचारधारा है.. जिसमें समकालीन परिस्थितिगत परिवर्तनों के साथ बदलाव स्वभाविक रूप से आते हैं. आलेख के प्रारंभ में मैने व्यक्तियों के उदाहरण देते हुये वैयक्तिक-उत्कर्ष के लिये संघर्ष की ज़रूरत की बात की थी.. आगे में धर्म पर चर्चा कर रहा हूं.. तो निश्चित आप आश्चर्य कर रहे होंगे. चकित न हों पंथ, धर्म, और उससे आगे आध्यात्मिक-चैतन्य तक सब आत्मा के विषय हैं.. मानस के विषय हैं. ये युद्ध या हिंसक संघर्ष से परे हैं. व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिये विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य के साथ बाधाओं से जूझना ही संघर्ष है.. जो जीवन का उद्देश्य है. विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य देश ही नही वरन समूचे ब्रह्माण्ड को अभूतपूर्व शांति देगा यह तय है. क्योंकि व्यष्टि एवं समष्टि में विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य की उपलब्धता सदैव मौज़ूद रहती है. हमें खुद को एवम सभ्यता को बचाना है तो हमें रचनात्मक विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य के मूल तत्वों का सहारा चाहिये. यही तो हमारे जीवन का उद्देश्य है.
पता नहीं क्यों विश्व का मौलिक चिंतन किधर तिरोहित हो रहा है .. लोग इतने आत्ममुग्ध एवं स्वचिंतन मग्न हैं कि अच्छा स्तर पाकर भी दूषित होते जा रहे हैं . जहां तक धर्मों का सवाल है उनके मूल पाठों में व्यक्त अवधारणाओं से किसी को कोई लेना देना नहीं .. बस प्रयोग के नाम पर कुछ भी बेहूदा करने को आतुर .. सफ़लता के लिये सटीक , स्वच्छ पवित्र विकल्प खोजने चाहिये. ताक़ि उससे मिली सफ़लता यानी अभीष्ट परिणाम पवित्र हो. हथकंडों के सहारे हासिल सफ़लता को सफ़लता की श्रेणी में रखना बेमानी है. कुछ लोग अपनी सफ़लता के लिये भेदक-शस्त्रों का संधान करते हैं. वो अक्सर वर्गभेद,वर्णभेद, अर्थभेद, स्तरभेद, के रूप में सामने आता है.. इससे वर्ग-संघर्ष जन्म लेता है.. जो वर्तमान परिवेश में रक्तिम और वैमनस्वी युद्ध का स्वरूप ले रहा है.
मुझे तो आश्चर्य होता है लोग पंथ की रक्षार्थ सत्ता की रक्षा हेतु अपनाए जाने वाले हथकंडे अपनाते है. धर्म मरते नहीं, खत्म नहीं होते.. धर्मों की रक्षार्थ मनुष्य का ज़ेहादी होना अज़ीब सी स्थिति है. लोग मौलिक चिंतन हीनता के अभाव में मरे हुए से लगते हैं जो समझते हैं कि अमुक उनके धर्म की रक्षा करेगा. धर्म आत्मा का विषय है.. युद्ध का नहीं. इसे न तो ज़ेहाद से बचा सकते न ही रक्तिम आंदोलन से .. जो अमर है उसे बचाने की चिंता करना सर्वथा मूर्खता है. जो खत्म होता है वो धर्म नहीं वो पंथ है विचारधारा है.. जिसमें समकालीन परिस्थितिगत परिवर्तनों के साथ बदलाव स्वभाविक रूप से आते हैं. आलेख के प्रारंभ में मैने व्यक्तियों के उदाहरण देते हुये वैयक्तिक-उत्कर्ष के लिये संघर्ष की ज़रूरत की बात की थी.. आगे में धर्म पर चर्चा कर रहा हूं.. तो निश्चित आप आश्चर्य कर रहे होंगे. चकित न हों पंथ, धर्म, और उससे आगे आध्यात्मिक-चैतन्य तक सब आत्मा के विषय हैं.. मानस के विषय हैं. ये युद्ध या हिंसक संघर्ष से परे हैं. व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिये विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य के साथ बाधाओं से जूझना ही संघर्ष है.. जो जीवन का उद्देश्य है. विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य देश ही नही वरन समूचे ब्रह्माण्ड को अभूतपूर्व शांति देगा यह तय है. क्योंकि व्यष्टि एवं समष्टि में विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य की उपलब्धता सदैव मौज़ूद रहती है. हमें खुद को एवम सभ्यता को बचाना है तो हमें रचनात्मक विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य के मूल तत्वों का सहारा चाहिये. यही तो हमारे जीवन का उद्देश्य है.
24.7.14
टमाटर के नाम खुला खत
डिंडोरी 24.072014
फ़्रीज़ की तस्वीर भेज रहा हूं.. ताकि आप को यक़ीन आ जाए... |
“असीम-स्नेह”
मैं डिंडोरी में तुम्हारे बिना जी रहा हूँ तुम्हारी कीमत यहां रुपये 80/- है.. मुम्बई दिल्ली मद्रास भोपाल यानी आएं-बाएं की खबरें खूब सुनी हैं बाकी सब ठीक ठाक है तुम महंगे हमारी क्षमता तुमको घर लाने की नहीं है तुम और प्याज भैया मिल के कुछ नीचे आ जाओ हमें तुम्हारी लज़ीज़ चटनी खाए बहुत दिन बीत गए आलू भैया को स्नेह कहिये जहां रहिये ज़रा सस्ते रहिये आप तीनों और नमक दादा सबका ध्यान रखेंगें ... आम आदमी ( केजरिया नहीं ) प्रजाति के लोग बेहद चिंतित है.. मोदी भैया को भी "प्रथम ग्रासे- मक्षिका पाते" के संकट से निज़ात दिलाइये.. हम जानते हैं आप सभी अर्थात- आप, आलू भैया, प्याज भैया,, नमक जी के मन में हम सबके प्रति दुरभाव नहीं.. बशीर चचा ने कहा ही है कि
"कुछ तो मज़बूरियां रहीं होंगी- यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता"
हमाई कही सुनी माफ़ करिये.. आपकी वज़ह से हमाए चेहरों पे रौनक रहती है... आप रूठे तो हमाई हालत न घर की होगी न घाट की..देखो दादा देखिये न आप के बिना हमारा-फ़्रीज़ कित्ता खाली हो गया है.
फ़ेसबुकर माननीय जगमीत सिंह जाली की ओर से आपका सम्मान |
भैया टमाटर जी.. हम कवि हैं हमने तय कर रक्खा है कि इत्ती बोर कविता सुनाएंगे सब्जी मंडी के सामने कि आप आदतन हम पर बरसेंगें और दुनिया हमको अचरज़ से और श्रीमति जी गर्व महसूस कर देखेंगी... जो भी हो.. आपको कवियों एवम कविताओं से गहरे अंतर्संबंधन का वास्ता .. आप नीचे आ जाएं.. सच हमारी करुण याचना पर ध्यान अवश्य दीजिये भैया जी..
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