14.5.14

मेरे करुणाकर बुद्ध तुमको कोटिश: नमन

तस्वीर क्रमांक दो
तस्वीर क्रमांक एक

 आध्यात्मिक-दर्शन ने समकालीन सामाजिक आर्थिक  जीवन शैली को परिवर्तित कर विश्व को जो दिशा दी है उसे वर्तमान संदर्भ में देखने की कोशिश कर रहा हूं संभवतया मुझसे आप असहमत भी हों..  किन्तु बुद्ध को जितना जाना समझा एवम बांचा है उसके आधार पर बुद्ध मेरी दृष्टि  करुणाकर हैं. उनका आध्यात्मिक चिंतन जीव मात्र के लिये करुणा से भरा है. बुद्ध ने आक्रमण को जीवन में अर्थ हीन माना . शाक्य और कोली विवाद के कारण परिव्राज़क बने बुद्ध का तप और फ़िर दिव्यानुभूतीयां इस बात का प्रारंभिक प्रमाण है कि युद्ध विहीन विश्व  की अवधारणा का सूत्रपात करुणाकर बुद्ध ने राजसुख त्याग के किया . इसा के 483 और 563 ईस्वी पूर्व जन्मे करुणाकर बुद्ध का अनुशरण सामरिक तृष्णा वाले राष्ट्रों के लिये अनिवार्यत: विचारणीय है. युद्ध से व्युत्पन्न परिस्थितियां विश्व को अधोपतान की ओर ले जाएंगी यह सत्य है. युद्ध अगले निर्माण का आधार कभी हो ही नहीं सकता. मेरी दृष्टि में युद्ध  चाहे वो धर्म की प्रतिष्ठार्थ हो अथवा राज्य के विस्तार के लिये अस्वीकार्य होना ही चाहिये. 
तस्वीर क्रमांक तीन 
       आप ऊपर की तस्वीरें देखिये तस्वीर क्रमांक दो में देखिये सांची में हम सब लोग बैठकर महिलाओं के लिये सटीक और कारगर कार्यक्रमों की रणनीति तैयार कर रहे थे एक गिलहरी हम सबके इर्दगिर्द घूमती कभी डायरी के पन्ने चखने की कोशिश करती कभी किसी को छूकर जाती कुल मिलाकर निर्भीक होकर हमारे बीच थी . दो-तीन घंटे तक हम सबके साथ खेलती मानो कह रही थी कि यह शांति निलय परिसर है यहां मैं तुम हम सब शांत चित्त हो रचनात्मक हो जाते है.. बस आज़ और कल को इसी की ज़रूरत है..  
       शांति के लिये राज्य को प्रजातंत्र के ढांचे में ढाला गया किंतु हमारी लिप्सा ने प्रजातंत्र को भी रणभूमि में बदल दिया . बुद्ध के वैराग्य का आधार भी आपसी संवाद था ... इस कथा से सब कुछ स्पष्ट होगा
  • एक ऐसी घटना घटी जो शुद्धोदन के परिवार के लिये दुखद बन गयी और सिद्धार्थ के जीवन में संकटपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी । शाक्यों के राज्य की सीमा से सटा हुआ कोलियों का राज्य था । रोहणी नदी दोनों राज्यों की विभाजक रेखा थी । शाक्य और कोलिय दोनों ही रोहिणी नदी के पानी से अपने-अपने खेत सींचते थे । हर फसल पर उनका आपस में विवाद होता था कि कौन रोहिणी के जल का पहले और कितना उपयोग करेगा । ये विवाद कभी-कभी झगड़े और लड़ाइयों में बदल जाते थे । जब सिद्धार्थ 28 वर्ष के थे, रोहणी के पानी को लेकर शाक्य और कोलियों के नौकरों में झगड़ा हुआ जिसमें दोनों ओर के लोग घायल हुये । झगड़े का पता चलने पर शाक्यों और कोलियों ने सोचा कि क्यों न इस विवाद को युद्ध द्वारा हमेशा के लिये हल कर लिया जाये । शाक्यों के सेनापति ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के प्रश्न पर विचार करने के लिये शाक्यसंघ का एक अधिवेशन बुलाया और संघ के समक्ष युद्ध का प्रस्ताव रखा । सिद्धार्थ गौतम ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और कहा युद्ध किसी प्रश्न का समाधान नहीं होता, युद्ध से किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी, इससे एक दूसरे युद्ध का बीजारोपण होगा । सिद्धार्थ ने कहा मेरा प्रस्ताव है कि हम अपने में से दो आदमी चुनें और कोलियों से भी दो आदमी चुनने को कहें । फिर ये चारों मिलकर एक पांचवा आदमी चुनें । ये पांचों आदमी मिलकर झगड़े का समाधान करें । सिद्धार्थ का प्रस्ताव बहुमत से अमान्य हो गया साथ ही शाक्य सेनापति का युद्ध का प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया । शाक्यसंघ और शाक्य सेनापति से विवाद न सुलझने पर अन्ततः सिद्धार्थ के पास तीन विकल्प आये । तीन विकल्पों में से उन्हें एक विकल्प चुनना था (1) सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेना, (2) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिए राजी होना, (3) फाँसी पर लटकना या देश निकाला स्वीकार करना । उन्होंने तीसरा विकल्प चुना और परिव्राजक बनकर देश छोड़ने के लिए राज़ी हो गए । (साभार विकी पीडिया)
    ॐ शांति शांति शांति

13.5.14

स्वतंत्रता को बीमारी मत बनाईये


साभार : पंजाब केसरी

  
आज़ मैं एक ऐसे मनोरोगी से मिला जिसे किसी की अधीनता स्वीकार्य नहीं. मेरे अधीनस्त अधिकारी है. उसे देखता हूं तो लगता है एक सपाट सा जीवन एक सपाट सी अभिव्यक्ति अतिसंवेदनशील उसे मिसफ़िट कहना ही होगा.  जो भी हो जितना भी पावन हो वह पर आज़ादी को वो बीमारी की तरह स्तेमाल कर रहा है मुझे ऐसा आभास हुआ . पिछले कई दिनों से मैं उनकी हरक़त का मुआयना कर रहा हूं. वो किसी न किसी से कोई न कोई पूर्वाग्रह पाले हुए हैं.  एक अधिकारी से अपेक्षा होती है कि वो अपने अधिकारिता वाले क्षेत्र में के दायित्व का निर्वाह करे . किंतु काम न करना तथा काम का दबाव आते ही स्वतंत्रता का बोध होना अपमे मानवाधिकार का हवाला देते हुए कार्य न करना कुल मिला कर स्वातंत्र्य को एक बीमारी की तरह जीने वाली स्थिति को प्रस्तुत करता है.
                  कुछ लोग अपनी बातों में कहा करते हैं ...    ये कि मुझे अब सहा नहीं जाता मेरी आदत ही यही है, मैं क्या करूं... शुद्ध देशी शब्दावली में इसे ठीठपन ही कहा जाएगा.. पर मेरी दृष्टि में इसे स्वतंत्रता के प्रति लोलुप होकर मनोरोगी हो जाना है.
                 घर से निकते ही हमारा सार्जवनिक जीवन शुरु हो जाता है. और अक्सर सार्वजनिक जीवन घात आघात को सहन करके ही सफ़लता पूर्वक जिया जा जाता है. कुछ लोग जो मानसिक रूप से अति संवेदनशील होते हैं तथा अपने सम्मान के लिये अधिक आसक्त होते हैं वे  घर में एवम  घर से बाहर, असफ़ल ही रहते हैं.  मेरी बेटी एक बार एक प्रतियोगिता में हार से गुमसुम नज़र आई अभिभावक के रूप मे हमारा हस्तक्षेप अत्यंत अनिवार्य था अस्तु  उसके चेहरे पर मुस्कान लाने एवमं उसे यह समझाने में हमें पहली बार बड़ी मशक्कत करनी पड़ी कि हर पराजय जीत की राह खोलती है.. अवसरों को तलाशने की ताक़त देती है. अब बेटी जीत और हार को एक ही तरीके से समभाव से ग्राह्य करती है.
                  किसी स्पर्धा अथवा युद्ध का  अंत "परिणाम" है जो हार, जीत कुछ भी होता है. अक्सर दोनों ही स्थितियों में मानसिक अवस्था उत्तेजित होती है. कायिक-भाषा में अज़ीबोग़रीब बदलाव नज़र आते हैं.  विजेता हर्षित होकर उत्तेजित होता है और पराजित लज्जित होकर कोई भी हार और जीत को खिलाड़ी भाव से ग्राह्य नहीं कर पाते .  
                    चुनाव प्रक्रिया को लें तो हम पाते हैं कि चुनाव अब  स्पर्द्धा न होकर युद्ध हैं..  जय- पराजय का एहसास होने मात्र से जिव्हा  पर समझदारी के अंकुश नहीं रह गए हैं वहीं प्रोवोग करने वालों की भीड़ भी सतत बढ़ रही है.. लोग नींच-ऊंच , क्या व्यक्तिगत लांछन तक लगाने से चूकते नहीं... यानी स्वतंत्रता को बीमारी की तरह भोगा जा रहा है.. क्यों नहीं हम गंभीर अपनी स्वतंत्रता को लेकर  यही सवाल कई दिनों से मेरे सर पर वैतालिक सवाल सा लदा है.. क्या कोई उत्तर है आपके पास .......... ? 

11.5.14

ब्लाग सेतु एग्रीगेटर शोध छात्र केवलराम की सफ़ल कोशिश









ब्लागसेतु एक ऐसा नया एग्रीगेटर है जो भारतीय भाषाओं के चिट्ठों के लिये अत्यंत उपयोगी साबित होना तय है . अब से पहले आप जो पार पांच बरस पूर्व से ब्लाग लिख रहे हैं जानते ही होंगे कि हिंदी ब्लागिंग को प्रोत्साहित करने में -
• चिट्ठाजगत.इन • ब्लॉगवाणी • दो सबसे मशहूर एग्रीगेटर थे  मह्त्वपूर्ण अवदान रहा है.  हिंदी के पाठकों तक ब्लाग्स यानी चिट्ठों को पहुंचाना एग्रीगेटर का कार्य होता है. किन्तु काफ़ी श्रमसाध्य एवम खर्चे का मामला होता है.ऐसा नहीं है कि इन दो ब्लाग एग्रीगेटर्स के पहले कुछ न था हिन्दी ब्लागिंग के लिये   नारद हिन्दीब्लॉग्स.ऑर्ग चिट्ठा विश्व • आदि एग्रीगेटर्स का योगदान रहा है जो पाटकों को हिंदी ब्लाग तक भेजने का का काम करते थे.  में "हिन्दी चिट्ठे एवम पाडकास्ट" मेल बाक्स में ताज़ा चिट्ठों की सूचना जारी कर रहा है. चिट्ठाजगत एवम ब्लागवाणी के विकल्प के रूप में दिल्ली के श्री कनिष्क कश्यप ने ब्लागप्रहरी की शुरुआत की .
  इनमे पूर्वोक्त वर्णित वेबसाईट्स के अलावा भी अक्षर ग्राम नेटवर्क के स्वयमसेवी लोगों ने पाठकों तक हिंदी ब्लागस भेजने की कोशिशें की हैथ ही साथ हिंदी में ब्लागिंग के लिये प्रोत्साहित किया 
                       इंडीब्लागर एक मशहूर एग्रीगेटर है जो इन सबसे हटकर ब्लागर्स मीट, ब्लाग का स्टेट्स , पुरस्कार आदि कि सुविधाएं प्रदान करता है. 


क्या है ये एग्रीगेटर और क्यों ज़रूरी हैं..?

  चिट्ठों को एकत्र कर तत्काल पाठको तक प्रकाशन की सूचना जारी करने वाली साइटट्स को एग्रीगेटर कहा जाता है. इन्हैं हिंदी में संकलक नाम दिया गया है.   जिनका कार्य है ब्लागस अर्थात चिट्ठों को आम पाठकों तक पहुंचाना . यद्यपि गूगल से बेहतर सर्च इंजन कौन सा होगा पर हिंदी ब्लागिंग के लिये आप  किसी भी शब्द ज़रिये किसी आलेख पर पहुंचना चाहते हैं तो आपको ढेरों रिज़ल्ट मिलेंगे जिनमें वो सब शामिल होगा जो वर्जित है. अत: एग्रीग्रेटर चुनिंदा  पंजीकृत ब्लाग पाठकों तक पहुंचाते हैं.  . 
     ब्लागसेतु 
                           
शोध छात्र केवल राम ने अपनी परियोजना ब्लाग-सेतु पर काम करने के पूर्व सटीक सूक्ष्म कार्ययोजना तैयार की है, और वे पूरी तैयारी से इस काम के लिये मैदान में आए हैं.  उनके एग्रीगेटर पर अधिकतम पांच चिट्ठों के पंजीकरण की सुविधा होगी.  इस पर पाठको के पंजीकरण, वेबकास्टिंग, पाडकास्टिंग से जुड़े ब्लाग्स के लिये सुविधा मुहैया कराई जा रही है. एग्रीगेटर में पाठकों के लिये पृथक से इंतज़ाम होंगे .साथ ही विभिन्न स्टेटस काउंटर्स द्वारा वेबसाइट्स पर होने वाली गतिविधियों को लाइव दिखाया जावेगा. शोधछात्र केवलराम जी बताते हैं कि -" हम फ़ुलप्रूफ़ प्लानिंग के साथ इस परियोजना पर काम कर रहें हैं .. इससे जुड़ कर एग्रीगेटर को ब्लागर्स समृद्ध कर सकते हैं.दस दिन पूर्व से शुरु इस एग्रीगेटर  से ब्लॉग सेतु ब्लॉग एग्रीगेटर में 48 ब्लॉगर और 92 ब्लॉग पंजीकृत हैं और इन ब्लॉगों की कुल पोस्ट संख्या 13634  है
 आप भी जुढ़िये नियम एवम शर्तें ये रहीं ::: "नियम एवम शर्तें "
·          सबसे पहले चिट्ठाकार उस प्लेटफॉर्म का चयन करें जिस पर आप ब्लॉग लिखते हैं.
·          जिस ब्लॉग को आप जोड़ना चाहते हैं सबसे पहले http:// के साथ उस ब्लॉग का लिंक/यूआरएल यहाँ दर्ज करें, फिर शीर्षक लायें पर क्लिक करें. आपके ब्लॉग का शीर्षक और उसके निर्माण की तिथि से सम्बंधित जानकारी स्वतः ही चिट्ठाकार को प्राप्त हो जाएगी.
·          अब चिट्ठाकार को अपने ब्लॉग के प्रकार का चयन करना है. इसमें हमने दो श्रेणियां बनायीं है :
·          पहली श्रेणी के अंतर्गत व्यक्तिगत ब्लॉग को रखा गया है. एक ही द्वारा लिखे जाने वाले ब्लॉग को इस श्रेणी में दर्ज कर सकते हैं.
·          दूसरी श्रेणी के अंतर्गत सामूहिक ब्लॉग को रखा गया है. ऐसे ब्लॉग जिनका मोडरेटर कोई एक ब्लॉगर है, लेकिन इन ब्लॉगों में कई ब्लॉगर सदस्य हैं और वह इन ब्लॉगस पर अपनी पोस्टें डाल सकते हैं.
·          जिस ब्लॉग को आप ब्लॉग सेतु से जोड़ने जा रहे हैं उस ब्लॉग पर आपके द्वारा लिखी गयी पहली पोस्ट की तारीख दिए हुए स्थान पर भरें और फिर तारीख की जांच करें पर क्लिक करें.
·          जब  चिट्ठाकार के ब्लॉग की पहली तारीख सत्यापित हो जायेगी, तब ही चिट्ठाकार ब्लॉग को जमा करने का बटन दिखेगा. लेकिन इससे पहले  चिट्ठाकार  को अपने ब्लॉग की श्रेणी का भी चयन करना है, जो कि बहुत महत्वपूर्ण है.
·          अगला चरण आपकी ब्लॉग श्रेणियों का है. यह चिट्ठाकार के ब्लॉग के लिए सबसे महत्वपूर्ण चरण है. यहाँ  चिट्ठाकार  को थोडा समय देना है और बहुत ध्यान से अपने ब्लॉग को उस श्रेणी में जोड़ना है, जिस पर आप ज्यादा लिखते हैं. इसमें मुख्य श्रेणी के बाद उप श्रेणी का चुनाव करना है और अगर उस उप श्रेणी की कोई और उप श्रेणी होगी तो वह भी चिट्ठाकार  को दिख जायेगी. ब्लॉग की श्रेणी इस सूची में नहीं है तो आप हमें सूचित कर सकते हैं. हम उस श्रेणी को भी जोड़ने का प्रयास करेंगे. यह ध्यान रहे कि ब्लॉग सेतु के मुख्य पृष्ठ पर ब्लॉग पाठकों को आपके ब्लॉग की पोस्ट उप-श्रेणी में ही दिखाई देगी. जिससे उसे उस श्रेणी से सम्बंधित और ब्लॉगों तक पहुँचने में आसानी होगी.
·          ब्लॉगसेतु ब्लॉग एग्रीगेटर पर एक चिट्ठाकार अधिकतम पांच ब्लॉग जोड़ सकता है .
·          विशेष :- ब्लॉगसेतु में जोड़े गए हर ब्लॉग और उस पर आने वाली पोस्ट पर नजर रहेगी, अगर कोई ब्लॉग या पोस्ट ब्लॉगिंग के मानकों के अनुसार सही नहीं पाया जाता है तो उस ब्लॉग और पोस्ट से सम्बन्धित सभी प्रकार के निर्णय का अधिकार ब्लॉगसेतु टीम के पास सुरक्षित है.

हिंदी ब्लॉगिंग के बेहद उदीयमान हस्ताक्षर, न्यू मीडिया, तकनीक और साहित्य के बदलते स्वरूप और प्रभाव पर विशेष रूचि एवं अध्ययन, भारतीय साहित्य, संगीत और संस्कृति, धर्म और दर्शन से गहरा लगाव . विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन !
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10.5.14

"जिस तरह हंस रहा हूँ मैं पी के अश्क ए गम कोई दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े" कैफ़ी साहब को श्रृद्धांजली


कैफ़ी आज़मी साहब की लाइने हमारे हिंदुस्तान की सौ फ़ीसदी सच्ची तस्वीर है. 2002 आज़ ही के दिन यानी 10 मई को हमसे ज़ुदा हुए कैफ़ी आज़मी साहब तरक्क़ी पसंद शायर की फ़ेहरिश्त में सबसे अव्वल माने जाते हैं.
देखिये उनकी एक नज़्म -
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है,
आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी,
सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो,
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी ।  
   बेशक इस नज़्म की एक पंक्ति को देखिये
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक,
रात आँखों में खटकती है सियाह तीर लिए ।
      मज़दूरों की कड़ी मेहनत कल सुबह का इंतज़ार करती आंखों का ज़िक्र बड़े सलीके से किया है . फ़िर आपसी वैमनस्यता को रेखांकित करती ये नज़्म-
 ऐ सबा! लौट के किस शहर से तू आती है?
तेरी हर लहर से बारूद की बू आती है!
खून कहाँ बहता है इन्सान का पानी की तरह 
जिस से तू रोज़ यहाँ करके वजू आती है?
धाज्जियाँ तूने नकाबों की गिनी तो होंगी 
यूँ ही लौट आती है या कर के रफ़ू आती है?
अपने सीने में चुरा लाई है किसे की आहें
मल के रुखसार पे किस किस का लहू आती है !
      पाकीज़ा गांवों में कम अक्ल शहरों आने वाली हवाओं  पूछना भारतीय शायरी में ये नज़्म बेज़ोड़ और कालजयी बन पड़ी है. मसलन शायर वो सब कुछ देख लेता है जो अल्लाह यानी ईश्वर को मालूम होता है. उसे एहसास हो ही जाता है कि – कहीं कोई क्रोंच मारा गया है तब नज़्म जन्म लेती है, कविता जन्मती है ग़ज़ल गूंजती है.
          कैफ़ी साहब ने तीखा तंज़ किया है सियासत पर कुछ इस तरह
हाकिमे-शहर, ये भी कोई शहर है
मस्जिदें बन्द हैं, मयकदा तो चले
इसको मज़हब कहो या सियासत कहो
ख़ुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले  

इसी नज़्म में आम बोल चाल के शब्दों के प्रयोग से बहुत गहरी बात कह गए
इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा
आज ईंटों की हुरमत बचा तो चले
बेलचे लाओ, खोलो ज़मीं की तहें
मैं कहाँ दफ़्न हूँ, कुछ पता तो चले
        कैफ़ी साहब की इस नज़्म में हमेशा मौज़ूदा हालातों का ज़िक्र रहा है. ऐसे मंज़र हम सब देखते हैं पढ़ते हैं...  पर उनको नसीहत के रूप में शब्द देकर आकृति देना उम्दा साहित्यकर्म की बानगी होती है.. कैफ़ी साहब की शायरी कुछ यूं ही थी.
 बचपन में कभी जब बार मैने उनका गीत होके मज़बूर पहली बार समझ के साथ सुना तो लगा कि वाक़ई उम्दा शायरी में क्या क्या हो सकता है बस एहसास में आना ज़रूरी है उन सब घटनाक्रमों का .. अब आप ही सोचें इस स्थिति-गीत (सिचुएशन सांग) को कैसे महसूस किया होगा कैफ़ी साहब ने. अब के फ़िल्म निर्माता सच भाग्य विहीन या लालची जो चिकनी चमेलियां दिखा सुना कर उस पर न्यौछावर रुपयों को अपनी झोली भरते हैं. ये तो कोठों को प्रबंधित करने वालों जैसी हरक़त हुई.
  बहरहाल क्या फ़ायदा इन सब बातों से.. ज़िक्र कैफ़ी साहब का है तो वही करूंगा वरना अच्छी यादों को लोग ज़ल्द भुलाते देते हैं ...
कैफ़ी आज़मी की इस नज़्म पर एक नज़र
इक यही सोज़-ए-निहाँ कुल मेरा सरमाया है 
दोस्तो मैं किसे ये सोज़-ए-निहाँ नज़र करूँ
कोई क़ातिल सर-ए-मक़्तल नज़र आता ही नहीं
किस को दिल नज़र करूँ और किसे जाँ नज़र करूँ?
तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे
आशना मुझ से मगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं
ख़त्म है तुम पे मसीहानफ़सी चारागरी
मेहरम-ए-दर्द-ए-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं
अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं
दस्त-ओ-बाज़ू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी दहलीज़
आज सजदे वही आवारा हुए जाते हैँ
दूर मंज़िल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
लेके फिरती रही रास्ते ही में वहशत मुझ को
एक ज़ख़्म ऐसा न खाया के बहार आ जाती
दार तक लेके गया शौक़-ए-शहादत मुझ को
राह में टूट गये पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था
कह दिया अक़्ल ने तंग आके 'ख़ुदा कोई नहीं'

      

9.5.14

बरगद पीपल नीम सरीखे , तेज़ धूप में बाबूजी !!



किसी के बाबूजी बूढ़े कभी भी नहीं हो सकते अगर उनको उनके बुढ़ापे का एहसास न कराया जाए. मेरे  बाबूजी श्रीयुत काशीनाथ बिल्लोरे उन लोगों की तरह हैं जो कभी बूढ़े नहीं होते यक़ीन न आए तो मेरे मित्रों से जानिये यही सच है. 84 बरस पहले  बाबूजी का जन्म नर्मदांचल के सिराली गांव में हुआ. कुशाग्र तो थे  कई नौकरियां तैयार थीं उनको अपनाने.. वैसे भी वो दौर लम्बी कतारों वाला न था रेवेन्यू में टाइम पास करने बाबू हो गए पर रास न आई नौकरी .. दादाजी रेवेन्यू के पटवारी थे बाबूजी उससे हट के कुछ बनना चाहते थे. रेल विभाग में सहायक स्टेशन मास्टर भर्ती हो गए.   हरदा के इर्दगिर्द की  जमीने उस दौर में इतना सोना उगला नहीं करतीं थीं जितना कि अब पंजाब की मानिंद उगल रहीं हैं. दादाजी भी चाहते थे कि लड़का सरकारी नौकर हो जाए खेती किसानी में क्या रखा है.. मेरे ताऊ जी स्व. पुरुषोत्तम बिल्लोरे, एवम स्व. ताराचंद बिल्लोरे जबलपुर आ चुके थे अपनी अपनी ज़मीने तलाश लीं थीं. आज़ादी के बाद दादाजी स्व. गंगाबिशन बिल्लोरे की तेज़तर्रार किंतु कर्मठ लाइफ़ स्टायल का असर था बाबूजी सहित उनके सात बेटों पर ... सबके सब एक से बढ़कर एक पुरुषोत्तम दादाजी रेलवे में ड्रायवर हो गए, फ़िर किसी आकस्मिक बीमारी के चलते कचहरी में रीडर हो गए. ताराचंद्र जी कलेक्टोरेट में क्लर्क उसके बाद वो वकालत के पेशे में आ गये. , शिवचरन जी संटिंग मास्टर, स्व. रामशंकर जी मस्त मौला किसी नौकरी को नौकरी की तरह नहीं करने वाले अफ़सर पर गुस्सा आया तो वापस बड़े ताऊ के पास ... हाज़िर मुझे ये नौकरी पसंद नहीं का छोटा सा डायलाग डिलीवर कर देते थे. यानी अब तुम मेरे लिये नया जाब खोजो .. .. बरसों ये धंधा जारी रहा . नौकरियां रेवड़ी सी मिला करतीं थीं.. पर बार बार हाथ जोड़ना ताऊ जी को रास न आया सो रामशंकर दादा को गांव वापस भेजा खेती बाड़ी सम्हालो .. भाईयों में बाबूजी पांचवे क्रम पर आता है. छटे उमेश नाराय़ण बिल्लोरे रंगकर्मी कला साधक, लेखक, संगठक व्हीकल में क्लर्क हुए. सबसे छोटे आर्डिनेंस में . यानी सूरज के सातों अश्व से सातों भाई क्रमश: बड़े संयुक्त परिवार में एक  सूत्र में बंधे रहे . इन सात जनकों की  हम 17 संतानों को आज़ तक मालूम नहीं कि पारिवारिक कभी सम्पत्ति को लेकर किसी में कोई अनबन हुई हो .  हां कभी कभार कोई तनाव हुआ भी तो अगले ही दिन खत्म . हमको हमारा परिवार बहुत छोटा नज़र आता था जब पूरा कुनबा जुड़ता तो लगता था कि हां अब हम पूरे हैं.  अब एक परिवार का मामला है तब  कौटौम्बिक परिवार का स्वरूप अब नज़र नहीं आता. बाबूजी को भी अक्सर सबके बीच रहने की आदत है..
 
 स्व. गुहे जी
 इस  बार बाबूजी ने सख्त आदेश दिया मेरा जन्म-दिन ज़्यादा जोर शोर से न मनाएं .. दरअसल   मामला ये था कि वे अपने एक मित्र को मिस कर रहे थे    स्व. मांगीलाल जी गुहे जी अभिन्न मित्र थे उनके  जिनके निधन के बाद बाबूजी कुछ उदास से रहने लगे हैं. बस सतीश भैया ने बड़ी चतुराई बाबूजी को सरप्राइज़ दिया . दिन में उनके हम वयों को होटल पंचवटी गौरव में बुलवाया बिना बाबूजी को बताए. बाबूजी को लेकर आना कठिन था सो शातिराना तरीके से भतीजी डा. आस्था और मैं उनको मंदिर में दर्शन कराने के बहाने ले गये .. फ़िर कहा - बाबूजी , कुछ खाते हैं होटल में और बस पंचवटी गौरव में मेरे उमेश काकाजी ने बाहर आगवानी की वहां बाबूजी के साथी पहले से ज़मा थे खूब खुश हुए सब दोपहर बाबूजी जन्म दिन  आध्यात्मिक तरीके से मनाया   कांफ़्रेंस हाल में नर्मदा अर्चना के बाद स्वस्ति बाबूजी का पुष्पाभिषेक किया गया "महामृत्युंजय मंत्र"  के साथ .
बाबूजी के साथ मेरे बड़े भैया श्री हरीश बिल्लोरे का जन्म दिन भी होता है शाम को घर पर फ़िर से हुआ एक आयोजन .....

बुज़ुर्गों के बिना घर रेगिस्तान लगता है..










बरगद पीपल नीम सरीखेतेज़ धूप में बाबूजी
मां के बाद नज़र आते हैं , “मां ही जैसे हैं बाबूजी ..!!
अल्ल सुबह सबसे पहले , जागे होते बाबूजी-
अखबारों में जाने क्या बांचा करते रहते हैं
दुनिया भर की बातों से जुड़े हुए हैं बाबूजी ..!!
साल चौरासी बीत गए जाने  क्या क्या देखा है
बात चीत न कर पाएं हम  घबरा जाते बाबूजी..!!
जाने कितनी पीढ़ा भोगी होगी जीवन में
उसे भूल अक्सर उस बिसर मित्रों संग हैं मुस्काते बाबूजी ..!!
चौकस रहती आंखें उनकी,किसने क्या क्या की गलती
पहले डांटा करते थे वे, अब समझाते हैं बाबूजी...!!



8.5.14

बटवारे के बाद के बटवारे और भारतीय वोटर


    
   बटवारे के बाद रोज होते बटवारों को  बटवारे देख खुद लौह पुरुष सहित सभी शहीद दु:खी हो बेकल होते ही होंगे . अंग्रेज़ो से हमने कुछ सीखा हो या न सीखा हो पर एक बात हमारे सियासत दां ज़रूर घुट्टी के साथ पी चुके हैं  बाक़ायदा धर्म, जाति, वर्ग, का बंटवारा करने से न तो लज़्ज़ित होते हैं न ही उनमें अब कोई शर्म बाक़ी रह गई है. 
             बड़े मज़े ले लेकर वोटों को रिझाने में बड़े सुनियोजित तरीक़े से किसी भी हिस्से को (जो मूलरूप भारतीय होता है ) भारत से अलग करने में गुरेज़ नहीं करते. सियासीयों का ये शगल तब और परवान चढ़ता है जब जब इलेक्शन क़रीब होते हैं. भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था की ये सबसे दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति है. अब जबकि देश का वोटर अधिक जागरूक और समझदार हो रहा है उसे अपने वोट का अर्थ अब महसूस हो चुका है तब आने वाले आम इंतिखाब में ये हथकंडे शायद ही काम आएं . क्योंकि वोटर जान चुका है कि सच्चाई क्या है. क्यों उसकी रगों पर हाथ फ़ेरा जाता है.. ? वो गाली गलौच भरे भाषणों जिसमे ऊंच नीच, हनीमून, जैसे सर्वथा वर्जित शब्दों का उल्लेख होता है को सिरे से नकार रहा है क्यों कि अब अधिसंख्यक भारतीय वोटर कुर्सी दौड़ के हर हथकंडे से वाकिफ़ है. .
       पिछले दिनों इलेक्शन के दौरान डिंडोरी की सभा में एक पार्टी का प्रचारक नेता सवाल कर रहा था -"जब गाय इनकी माता है तो बोले बैल से इनका नाता क्या होगा..?" बताईये भला ऐसी बेवकूफ़ी भरी बातों का अर्थ क्या है क्या ऐसे मूर्ख वक्ताओं के प्रति वोटर ने क्या सोचा होगा ? जी हां सारे के सारे वोटर जो सभा में जमा किये गये थे.. खुसर फ़ुसर करने लगे.. यानी जिसे सबसे बड़ा बेवकूफ़ समझा जा रहा है सियासित में वो अपनी अक्ल का नमूना दिखा ही देगा. 
          इलेक्शन के रिज़ल्ट जो भी हों लिख के रख लीजिये ज़नता न्याय करेगी .. कौन जीतेगा कितना जीतेगा ये इतर मुद्दा है प्रिणाम साफ़ साफ़ बता देंगें भारत को सिगमेंट्स में बांटना कितना ग़ैर ज़रूरी और बेवकूफ़ी भरा क़दम है.... 







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1.5.14

मई दिवस पर विशेष : दुनिया भर के मज़दूरो

साभार भारत कोश 

साभार : स्टार न्यूज़ एजेंसी 
मई दिवस या 'मजदूर दिवस' या 'श्रमिक दिवस' 1 मई को सारे विश्व में मनाया जाता है। 'मई दिवस' के विषय में अधिकांश तथ्य उजागर हो चुके हैं, फिर भी कुछ ऐसे पहलू हैं, जो अभी तक अज्ञात है। कुछ भ्रांतियों का स्पष्टीकरण और इस विषय पर भारत तथा विश्व के बारे में कम ज्ञात तथ्यों को उजागर करने की आवश्यकता है। यह उल्लेखनीय है कि 'श्रमिक दिवस' का उदय 'मई दिवस' के रूप में नहीं हुआ था। वास्तव में अमरीका में श्रमिक दिवस मनाने की पुरानी परम्परा रही है, जो बहुत पहले से ही चली आ रही थी। मई दिवस भारत में 15 जून, 1923 ई. में पहली बार मनाया गया था।

अमरीका में 'मजदूर आंदोलन' यूरोप व अमरीका में आए औद्योगिक सैलाब का ही एक हिस्सा था। इसके फलस्वरूप जगह-जगह आंदोलन हो रहे थे। इनका संबंध 1770 के दशक की अमरीका की आज़ादी की लड़ाई तथा 1860 ई. का गृहयुद्ध भी था। इंग्लैंड के मजदूर संगठन विश्व में सबसे पहले अस्तित्व में आए थे। यह समय 18वीं सदी का मध्य काल था। मजदूर एवं ट्रेंड यूनियन संगठन 19वीं सदी के अंत तक बहुत मज़बूत हो गए थे, क्योंकि यूरोप के दूसरे देशों में भी इस प्रकार के संगठन अस्तित्व में आने शुरू हो गए थे। अमरीका में भी मजदूर संगठन बन रहे थे। वहाँ मजदूरों के आरम्भिक संगठन 18वीं सदी के अंत में और 19वीं सदी के आरम्भ में बनने शुरू हुए। मिसाल के तौर पर फ़िडेलफ़िया के शूमेकर्स के संगठन, बाल्टीमोर के टेलर्स के संगठन तथा न्यूयार्क के प्रिन्टर्स के संगठन 1792 में बन चुके थे। फ़र्नीचर बनाने वालों में 1796 में और 'शिपराइट्स' में 1803 में संगठन बने। हड़ताल तोड़ने वालों के ख़िलाफ़ पूरे अमरीका में संघर्ष चला, जो उस देश में संगठित मजदूरों का अपनी तरह एक अलग ही आंदोलन था। हड़ताल तोड़ना घोर अपराध माना जाता था और हड़ताल तोड़ने वालों को तत्काल यूनियन से निकाल दिया जाता था।

कार्य समय घटाने का मांग
अमरीका में 18वें दशक में ट्रेंड यूनियनों का शीघ्र ही विस्तार होता गया। विशिष्ट रूप से 1833 और 1837 के समय। इस दौरान मजदूरों के जो संगठन बने, उनमें शामिल थे- बुनकर, बुक वाइन्डर, दर्जी, जूते बनाने वाले लोग, फ़ैक्ट्री आदि में काम करने वाले पुरुष तथा महिला मजदूरों के संगठन। 1836 में '13 सिटी इंटर ट्रेंड यूनियन ऐसासिएशन' मोजूद थीं, जिसमें 'जनरल ट्रेंड यूनियन ऑफ़ न्यूयार्क' (1833) भी शामिल थी, जो अति सक्रिय थी। इसके पास स्थाई स्ट्राइक फ़ंड भी था, तथा एक दैनिक अख़बार भी निकाला जाता था। राष्ट्रव्यापी संगठन बनाने की कोशिश भी की गयी यानी 'नेशनल ट्रेंड्स यूनियन', जो 1834 में बनायी गयी थी। दैनिक काम के घंटे घटाने के लिए किया गया संघर्ष अति आरम्भिक तथा प्रभावशाली संघर्षों में एक था, जिसमें अमरीकी मजदूर 'तहरीक' का योगदान था। 'न्यू इंग्लैंड के वर्किंग मेन्स ऐसासिएशन' ने सन 1832 में काम के घंटे घटाकर 10 घंटे प्रतिदिन के संघर्ष की शुरुआत की।
श्रमिकों की सफलता
1835 तक अमरीकी मजदूरों ने काम के 10 घंटे प्रतिदिन का अधिकार देश के कुछ हिस्सों में प्राप्त कर लिया था। उस वर्ष मजदूर यूनियनों की एक आम हड़ताल फ़िलाडेलफ़िया में हुई। शहर के प्रशासकों को मजबूरन इस मांग को मानना पड़ा। 10 घंटे काम का पहला क़ानून 1847 में न्यायपालिका द्वारा पास करवाकर हेम्पशायर में लागू किया गया। इसी प्रकार के क़ानून मेन तथा पेन्सिल्वानिया राज्यों द्वारा 1848 में पास किए गए। 1860 के दशक के शुरुआत तक 10 घंटे काम का दिन पूरे अमरीका में लागू हो गया।

प्रथम पार्टी का गठन

प्रथम मजदूर राजनीतिक पार्टी सन 1828 ई. में फ़िलाडेल्फ़िया, अमरीका में बनी थी। इसके बाद ही 6 वर्षों में 60 से अधिक शहरों में मजदूर राजनीतिक पार्टियों का गठन हुआ। इनकी मांगों में राजनीतिक सामाजिक मुद्दे थे, जैसे-
10 घंटे का कार्य दिवस
बच्चों की शिक्षा
सेना में अनिवार्य सेवा की समाप्ति
कर्जदारों के लिए सज़ा की समाप्ति
मजदूरी की अदायगी मुद्रा में
आयकर का प्रावधान इत्यादि।
मजदूर पार्टियों ने नगर पालिकाओं तथा विधान सभाओं इत्यादि में चुनाव भी लड़े। सन 1829 में 20 मजदूर प्रत्याशी फ़ेडरेलिस्टों तथा डेमोक्रेट्स की मदद से फ़िलाडेलफ़िया में चुनाव जीत गए। 10 घंटे कार्य दिवस के संघर्ष की बदौलत न्यूयार्क में 'वर्किंग मैन्स पार्टी' बनी। 1829 के विधान सभा चुनाव में इस पार्टी को 28 प्रतिशत वोट मिले तथा इसके प्रत्याशियों को विजय हासिल हुई।

श्रमिक उत्सव
18 मई, 1882 में 'सेन्ट्रल लेबर यूनियन ऑफ़ न्यूयार्क' की एक बैठक में पीटर मैग्वार ने एक प्रस्ताव रखा, जिसमें एक दिन मजदूर उत्सव मनाने की बात कही गई थी। उसने इसके लिए सितम्बर के पहले सोमवार का दिन सुझाया। यह वर्ष का वह समय था, जो जुलाई और 'धन्यवाद देने वाला दिन' के बीच में पड़ता था। भिन्न-भिन्न व्यवसायों के 30,000 से भी अधिक मजदूरों ने 5 दिसम्बर को न्यूयार्क की सड़कों पर परेड निकाली और यह नारा दिया कि "8 घंटे काम के लिए, 8 घंटे आराम के लिए तथा 8 घंटे हमारी मर्जी पर।" इसे 1883 में पुन: दोहराया गया। 1884 में न्यूयार्क सेंट्रल लेबर यूनियन ने मजदूर दिवस परेड के लिएसितम्बर माह के पहले सोमवार का दिन तय किया। यह सितम्बर की पहली तारीख को पड़ रहा था। दूसरे शहरों में भी इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय त्योहार के रूप में मनाने के लिए कई शहरों में परेड निकाली गई। मजदूरों ने लाल झंडे, बैनरों तथा बाजूबंदों का प्रदर्शन किया। सन 1884 में एफ़ओटीएलयू ने हर वर्ष सितम्बर के पहले सोमवार को मजदूरों के राष्ट्रीय अवकाश मनाने का निर्णय लिया।7 सितम्बर, 1883 को पहली बार राष्ट्रीय पैमाने पर सितम्बर के पहले सोमवार को 'मजदूर अवकाश दिवस' के रूप में मनाया गया। इसी दिन से अधिक से अधिक राज्यों ने मजदूर दिवस के दिन छुट्टी मनाना प्रारम्भ किया।

मजदूर दिवस मनाने का निर्णय
इन यूनियनों तथा उनके राष्ट्रों की संस्थाओं ने अपने वर्ग की एकता, विशेषकर अपने 8 घंटे प्रतिदिन काम की मांग को प्रदर्शित करने हेतु 1 मई को 'मजदूर दिवस' मनाने का फैसला किया। उन्होंने यह निर्णय लिया कि यह 1 मई, 1886 को मनाया जायेगा। कुछ राज्यों में पहले से ही आठ घंटे काम का चलन था, परन्तु इसे क़ानूनी मान्यता प्राप्त नहीं थी; इस मांग को लेकर पूरे अमरीका में 1 मई, 1886 को हड़ताल हुई। मई 1886 से कुछ वर्षों पहले देशव्यापी हड़ताल तथा संघर्ष के दिन के बारे में सोचा गया। वास्तव में मजदूर दिवस तथा कार्य दिवस संबंधी आंदोलन राष्ट्रीय यूनियनों द्वारा 1885 और 1886 में सितम्बर के लिए सोचा गया था, लेकिन बहुत से कारणों की वजह से, जिसमें व्यापारिक चक्र भी शामिल था, उन्हें मई के लिए परिवर्तित कर दिया। इस समय तक काम के घंटे 10 प्रतिदिन का संघर्ष बदलकर 8 घंटे प्रतिदिन का बन गया।

भारत में 'मई दिवस'
कुछ तथ्यों के आधार पर जहां तक ज्ञात है, 'मई दिवस' भारत में 1923 ई. में पहली बार मनाया गया था। 'सिंगारवेलु चेट्टियार' देश के कम्युनिस्टों में से एक तथा प्रभावशाली ट्रेंड यूनियन और मजदूर तहरीक के नेता थे। उन्होंने अप्रैल 1923 में भारत में मई दिवस मनाने का सुझाव दिया था, क्योंकि दुनिया भर के मजदूर इसे मनाते थे। उन्होंने फिर कहा कि सारे देश में इस मौके पर मीटिंगे होनी चाहिए। मद्रास में मई दिवस मनाने की अपील की गयी। इस अवसर पर वहाँ दो जनसभाएँ भी आयोजित की गईं तथा दो जुलूस निकाले गए। पहला उत्तरी मद्रास के मजदूरों का हाईकोर्ट 'बीच' पर तथा दूसरा दक्षिण मद्रास के ट्रिप्लिकेन 'बीच' पर निकाला गया।सिंगारवेलू ने इस दिन 'मजदूर किसान पार्टी' की स्थापना की घोषणा की तथा उसके घोषणा पत्र पर प्रकाश डाला। कांग्रेस के कई नेताओं ने भी मीटिंगों में भाग लिया। सिंगारवेलू ने हाईकार्ट 'बीच' की बैठक की अध्यक्षता की। उनकी दूसरी बैठक की अध्यक्षता एस. कृष्णास्वामी शर्मा ने की तथा पार्टी का घोषणा पत्र पी.एस. वेलायुथम द्वारा पढ़ा गया। इन सभी बैठकों की रिपोर्ट कई दैनिक समाचार पत्रों में छपी। मास्को से छपने वाले वैनगार्ड ने इसे भारत में पहला मई दिवस बताया। फिर दुबारा 1927 में सिंगारवेलु की पहल पर मई दिवस मनाया गया, लेकिन इस बार यह उनके घर मद्रास में मनाया गया था। इस अवसर पर उन्होंने मजदूरों तथा अन्य लोगों को दोपहर की दावत दी। शाम को एक विशाल जूलुस निकाला गया, जिसने बाद में एक जनसभा का रूप ले लिया। इस बैठक की अध्यक्षता डा. पी. वारादराजुलू ने की। कहा जाता है कि तत्काल लाल झंडा उपलब्ध न होने के कारण सिंगारवेलु ने अपनी लड़की की लाल साड़ी का झंडा बनाकर अपने घर पर लहराया।

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