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मंगलवार, मई 13, 2014

स्वतंत्रता को बीमारी मत बनाईये


साभार : पंजाब केसरी

  
आज़ मैं एक ऐसे मनोरोगी से मिला जिसे किसी की अधीनता स्वीकार्य नहीं. मेरे अधीनस्त अधिकारी है. उसे देखता हूं तो लगता है एक सपाट सा जीवन एक सपाट सी अभिव्यक्ति अतिसंवेदनशील उसे मिसफ़िट कहना ही होगा.  जो भी हो जितना भी पावन हो वह पर आज़ादी को वो बीमारी की तरह स्तेमाल कर रहा है मुझे ऐसा आभास हुआ . पिछले कई दिनों से मैं उनकी हरक़त का मुआयना कर रहा हूं. वो किसी न किसी से कोई न कोई पूर्वाग्रह पाले हुए हैं.  एक अधिकारी से अपेक्षा होती है कि वो अपने अधिकारिता वाले क्षेत्र में के दायित्व का निर्वाह करे . किंतु काम न करना तथा काम का दबाव आते ही स्वतंत्रता का बोध होना अपमे मानवाधिकार का हवाला देते हुए कार्य न करना कुल मिला कर स्वातंत्र्य को एक बीमारी की तरह जीने वाली स्थिति को प्रस्तुत करता है.
                  कुछ लोग अपनी बातों में कहा करते हैं ...    ये कि मुझे अब सहा नहीं जाता मेरी आदत ही यही है, मैं क्या करूं... शुद्ध देशी शब्दावली में इसे ठीठपन ही कहा जाएगा.. पर मेरी दृष्टि में इसे स्वतंत्रता के प्रति लोलुप होकर मनोरोगी हो जाना है.
                 घर से निकते ही हमारा सार्जवनिक जीवन शुरु हो जाता है. और अक्सर सार्वजनिक जीवन घात आघात को सहन करके ही सफ़लता पूर्वक जिया जा जाता है. कुछ लोग जो मानसिक रूप से अति संवेदनशील होते हैं तथा अपने सम्मान के लिये अधिक आसक्त होते हैं वे  घर में एवम  घर से बाहर, असफ़ल ही रहते हैं.  मेरी बेटी एक बार एक प्रतियोगिता में हार से गुमसुम नज़र आई अभिभावक के रूप मे हमारा हस्तक्षेप अत्यंत अनिवार्य था अस्तु  उसके चेहरे पर मुस्कान लाने एवमं उसे यह समझाने में हमें पहली बार बड़ी मशक्कत करनी पड़ी कि हर पराजय जीत की राह खोलती है.. अवसरों को तलाशने की ताक़त देती है. अब बेटी जीत और हार को एक ही तरीके से समभाव से ग्राह्य करती है.
                  किसी स्पर्धा अथवा युद्ध का  अंत "परिणाम" है जो हार, जीत कुछ भी होता है. अक्सर दोनों ही स्थितियों में मानसिक अवस्था उत्तेजित होती है. कायिक-भाषा में अज़ीबोग़रीब बदलाव नज़र आते हैं.  विजेता हर्षित होकर उत्तेजित होता है और पराजित लज्जित होकर कोई भी हार और जीत को खिलाड़ी भाव से ग्राह्य नहीं कर पाते .  
                    चुनाव प्रक्रिया को लें तो हम पाते हैं कि चुनाव अब  स्पर्द्धा न होकर युद्ध हैं..  जय- पराजय का एहसास होने मात्र से जिव्हा  पर समझदारी के अंकुश नहीं रह गए हैं वहीं प्रोवोग करने वालों की भीड़ भी सतत बढ़ रही है.. लोग नींच-ऊंच , क्या व्यक्तिगत लांछन तक लगाने से चूकते नहीं... यानी स्वतंत्रता को बीमारी की तरह भोगा जा रहा है.. क्यों नहीं हम गंभीर अपनी स्वतंत्रता को लेकर  यही सवाल कई दिनों से मेरे सर पर वैतालिक सवाल सा लदा है.. क्या कोई उत्तर है आपके पास .......... ? 

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