7.1.13

कबाड़खाना ब्लाग की अनूठी प्रस्तुति

आज मन चाह रहा था कुमार गंधर्व को सुनूं सुनने को तलाश की गई तो 
कबाड़खाना ब्लाग की इस पोस्ट पर ठहर गया 


माया महाठगिनी हम जानी

निरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी.


केसव के कमला व्है बैठी, सिव के भवन भवानी.


पंडा के मूरत व्है बैठी, तीरथ में भई पानी.


जोगि के जोगिन व्है बैठी, राजा के घर रानी.


काहू के हीरा व्है बैठी, काहू के कौड़ी कानी.


भक्तन के भक्ति व्है बैठी, ब्रह्मा के बह्मानी.


कहै कबीर सुनो भाई साधो, वह सब अकथ कहानी



और अब सुनिये ये 

1.1.13

और शारदा महाराज खच्च खच्च खचा खच बाल काटने लगे बिना पानी मारे....

रायपुर के सैलून में प्रसिद्ध
लेखक ललित शर्मा 

सैलून में कटवाते कटवाते  जेब कटवाना अब हमें रास न आ रहा था। आज़कल सैलून वाले लड़के बड़ी स्टाइल से बाल काटतेजेब काटने की हुनर आज़माइश करने लगे हैं. हमारे टाइप के अर्ध बुढ़ऊ में अमिताभी भाव जगा देते है.. सर फ़ेसियल भी कर दूं..?, फ़ेसमसाज़  करूं ? स्क्रब  कर दूं ब्लीच   करूं.. किसी एक पे आपकी हां हुई कि आपकी जेब कटी.. किस्सा चार-पांच सौ पे सेट होता है. अपन ठहरे आग्रह के कच्चे इसी कच्चेपन से  मंथली बज़ट बिगड़ने लगा तो हमने भी एकदम तय कर लिया कि बाल तो घर में ही कटवाएंगे वो भी क्लासिक स्टाईल में. हम ने फ़ैमिली-बारबर शारदा परसाद जी से कटिंग कराएंगे वो भी अपने घर में. खजरी वाले खवास दादा की यादैं भी उचक उचक कर कहतीं भई, कटिंग घर में शारदा सेईच्च बनवाओ. सो हम ने शारदा जी को हुकुम दे डाला- हर पंद्राक दिन में हमाई कटिंग करना !
वो बोले न जी हम औजार लेके किधर किधर घूमेंगे वो तो मालिश वालिश तक ठीक है. 
 बिलकुल डिक्टेटर बन हमने फ़ैमिली-बारबर को हिदायत दी - शारदा तुम अस्तुरा-फ़स्तुरा, कैंची-वैंची" लेके आना अगले संडे .  
सा’ब जी-"जे काम न कहो अब , जमाना बदल गया  आप किस जमाने में हो. ?
हम हैं तो इसी जमाने में पर हमाई आदतें पुरानी हैं.. पटे पे बैठ के बनवाने की. 
शारदा बोले- हम बैठ के न बना पाँ  हैं.. ..पटा पै.. आ  तो जैं हैं हपता पंद्रा दिन मैं  मनौ कुरसी मंगा लय करौ  यानी  शारदा जी सशर्त हमसे  सहमत हो ही गए वैसे हमाई हजामत कई लोग बनाने का शौक रखते हैं कुछ अधीनस्त, कुछ वरिष्ट कुछ अशिष्ठ तो कुछ अपषिष्ठ.. लोग आजकल पता नई क्यों हज़्ज़ामी पे उतारूं हैं.पर हम बनवाना तो शारदा महाराज से चाहते हैं.     अब वे हर पखवाड़े हमारी हजामत बनाने आ जाते हैं.
  दुनियां जहान  को गरियाते रहे पुराने दिनों की याद दिलाई उनको.. बाम्हन-नाई के अंतर्संबंधों पर एक अच्छा सा भाषण पिलाया कि भाई राजी हो गये. बोले ठीक है सा’ब आऊंगा  . अब पखवाड़े के पखवाड़े शारदा परसाद उसरेठे जी हमाई हजामत बनाने आते हैं. दुनियाँ  जहान के समाचार हम हासिल कर लेते हैं. वैसे शारदा हरीराम नहीं हैं. पर जो दुनियां-जहान में चल रहा है उन सारी खबरों पर शारदा जी की पैनी नज़र होती है. उनका अपना नज़रिया भी होता है जैसे मोदी सा’ब के लिये पी एम की कुर्सी फ़िट है कि उनको बड़ी होगी या छोटी पड़ेगी अन्ना के बिना केज़रीवाल का क्या होगा. क्रेन बेदी की हैसियत क्या होगी.. अमिताभ को सन्यास के लिये न उकसाया जाना उनके मन को खल रहा है. .. बोल रहे थे-"सचिन ने क्या बिगाड़ा लता जी आशा जी आड़वानी (वे आडवानी को आड़वानी जी बोलते हैं. ) और खासकर अमिताभ बच्चन (जो उनकी नज़र में  खूब कमा रहे है) को हटने की नही बोलते बेचारे सचिन को सचिन के पीछे फ़ालतुक में पड़ी है जनता  " यह कहते उनके चेहरे पर काटजू भाई सा’ब वाला भाव था.कुछ ऐसी ही बाते  बाक़ायदा हमसे शेयर करते हैं.
                  हमारे बाल कुछ ज़्यादा कड़े थे. पानी लगाने से भी नर्म न पड़े सो शारदा ने युक्ति निकाली . वो विषय छेड़े कि हमको गुस्सा आए और गुस्सा इतना कि हमारे रोयें स्टैंडअप हों........और  उनका
काम सरल हो जाए.
बोले "सा’ब सुना है गैस की कीमत सरकार गिराने वाली है..?"
उनका सरकार बोलना था कि हमारा रोयां-रोयां  खड़ा हो गया और भाई शारदा ने खच्चखच्च खचाक दाईं तरफ़ के बालों को निपटा कर दिया.
शारदा दाई बाजू के बाल काटते हुए..
    अब बारी थी बाईं तरफ़ के बालों की. इस बार भाई ने फ़िर शहर में बढ़ती अराजक यातायात व्यवस्था को निशाना बनाया मुये रोयों पर कोई असरईच्च न हुआ.
शारदा - साब जी जे बाल और गीले करूं..?
हम- क्यों.. इत्ती ठंड में गीले पे गीला किये जा रहे हो ? मरवाना है क्या... शारदा हमाई हालत ठंड में जानते हो अस्थमा का दौरा पड़ जाएगा समझे ....?
शारदा- "बाल कड़े हैं.."
हम- ’वो तो जनम जात कड़े हैं..
शारदा बाएं बाजू के बाल काटते हुए..
शारदा-"..............?"(बिन बोले मानो कह गया - सुअर के जैसे..! )
उसकी अनकही बात को हम ताड़ गये थे हमने प्रति प्रश्न किया - दाईं तरफ़ के काटे थे वो कैसे कट गये ?
शारदा-"वो कड़े थे पर खड़े थे .. !"
हम- "तो ?"
शारदा-"सा’ब, का बताएं.."
     तभी श्रीमति जी घर के भीतर से चिल्लाईं - बच्चों की फ़ीस भरना है, बिजली का बिल देना है कल तुम रुक जाना डिंडोरी न जाना .. इसी बीच बास का फ़ोन आ गया ... कल पहुंच रहे हो न आफ़िस.... ?
 बस क्या था हमारे रोयें रोयें में तनाव भर गया......... और शारदा महाराज खच्च खच्च खचा खच बाल काटने लगे बिना पानी मारे...........

31.12.12

महिलाओं को ही करने होंगे खुद के सम्मान के प्रयास: बी.पी.गौतम

बी.पी.गौतम
स्वतंत्र पत्रकार
0
8979019871 
सृष्टि का विस्तार हुआ, तो पहले स्त्री आई और बाद में पुरुष। सर्वाधिक सम्मान देने का अवसर आया, तो मां के रूप में एक स्त्री को ही सर्वाधिक सम्मान दिया गया। ईश्वर का कोई रूप नहीं होता, पर जब ईश्वर की आराधना की गयी, तो ईश्वर को भी पहले स्त्री ही माना, तभी कहा गया त्वमेव माता, बाद में च पिता त्वमेव। सुर-असुर में अमृत को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया, तो श्रीहरि को स्त्री का ही रूप धारण कर आना पड़ा और उन्होंने अपने तरीके से विवाद समाप्त कर दिया, मतलब घोर संकट की घड़ी में स्त्री रूप ही काम आया। देवताओं को मनोरंजन की आवश्यकता महसूस हुई, तो भी उनके मन में मेनका व उर्वशी जैसी स्त्रीयों की ही आकृति उभरी। रामायण काल में गलती लक्ष्मण ने की, पर रावण उठा कर सीता को ले गया, क्योंकि स्त्री प्रारंभ से ही प्रतिष्ठा का विषय रही है, इसी तरह महाभारत काल में द्रोपदी के व्यंग्य को लेकर दुर्योधन ने शपथ ली और द्रोपदी की शपथ को लेकर पांडवों ने अपनी संपूर्ण शक्ति लगा दी, जिसका परिणाम या दुष्परिणाम सबको पता ही है, इसी तरह धरती की उपयोगिता समझ में आने पर, धरती को सम्मान देने की बारी आई, तो उसे भी स्त्री (मां) माना गया। भाषा को सम्मान दिया गया, तो उसे भी स्त्री (मात्र भाषा) माना गया। आशय यही है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही देवता और पुरुष, दोनों के लिए ही स्त्री महत्वपूर्ण रही है। स्त्री के बिना जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। मां, पत्नी, बहन या किसी भी भूमिका में एक स्त्री का किसी भी पुरुष के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है। बात पूजा करने की हो या मनोरंजन की, ध्यान में पहली आकृति एक स्त्री की ही उभरती है, इसलिए विकल्प स्त्री को ही चुनना होगा कि वह किस तरह के विचारों में आना पसंद करेगी। वह लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, सीता, अनसुइया, दुर्गा, काली की तरह सम्मान चाहती है या मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी पर थिरकते हुए मनोरंजन का साधन मात्र बन कर रहना चाहती है। 
पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित पढ़ी-लिखी या इक्कीसवीं सदी की अति बुद्धिमान स्त्रीयों को यह भ्रम ही है कि उनके किसी तरह के क्रियाकलाप से पुरुष को कोई आपत्ति होती है। पुरुष को न कोई आपत्ति थी और न है, क्योंकि उसका तो स्वभाव ही मनोरंजन है, वह तो चाहेगा ही कि ऐसी स्त्रीयों की भरमार हो, जो उसे आनंद देती रहें, मदहोश कर सकें। खैर, समस्या यह है कि विचार और व्यवहार से स्त्री पाश्चात्य संस्कृति को आत्मसात करना चाहती है और बदले में पुरुष से प्राचीन काल की भारतीय स्त्री जैसा सम्मान चाहती है। परंपरा और संस्कृति से भटकी आज की स्त्री चाहती है कि शॉर्ट टी शर्ट और कैपरी में लच्छेदार बाल उड़ाते हुए तितली की तरह उड़ती फिरे, तो उस पर कोई किसी तरह का अंकुश न लगाये। पुरुषों जैसे ही वह हर दुष्कर्म करे। सिगरेट में कश लगाये, बार में जाये और देर रात तक मस्ती करे, लेकिन पुरुष बदले में सावित्री जैसा सम्मान भी दे। क्या यह संभव है? 
धार्मिक सिद्धांतों व नीतियों का दायरा पूरी तरह समाप्त हो गया है और अब हम लोकतांत्रिक प्रणाली के दायरे में रह रहे हैं, जहां सभी को समानता का अधिकार मिला हुआ है, जिससे स्त्री या पुरुष अपने अनुसार जीवन जीने को स्वतंत्र हैं, पर स्त्रीयों को यह विचार करना ही चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने उन्हें क्या से क्या बना दिया? सम्मान की प्रतीक स्त्री आज सिर्फ भोग का साधन मात्र बन कर रह गयी है, जिसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण विज्ञापन कहे जा सकते हैं। आवश्यकता नहीं है, तो भी प्रत्येक विज्ञापन में अर्धनग्न स्त्री नजर आ ही जाती है, क्योंकि उसे ही कोई आपत्ति नहीं है और वह भी स्वयं को ऐसे ही दिखाना चाहती है, तो एक पुरुष जब उस स्थिति में आपको देख रहा है या भोग रहा है, तो आपके बारे में मानसिकता भी वैसी बन ही जायेगी, इसीलिए स्त्री का सम्मान घट रहा है और निरंतर घटता ही रहेगा, तभी सृष्टि के प्रारंभ में ही स्त्री के लिए सामाजिक स्तर पर नीतियों और सिद्धांतों का कठोर दायरा बनाया गया था, क्योंकि स्त्री जितनी श्रेष्ठ विचारों वाली होगी, उसके संपर्क वाला पुरुष स्वत: ही श्रेष्ठ विचारों वाला हो जायेगा। यही बात है कि स्त्री के आचरण में समय के साथ जैसे-जैसे परिवर्तन आता गया, वैसे-वैसे पुरुष के विचारों में विकृति आती चली गयी, जो आज सर्वोच्च शिखर की ओर अग्रसर होती नजर आ रही है।
इसलिए अपने सम्मान के साथ अपना अस्तित्व बनाये और बचाये रखने के लिए स्त्री को ही पहल करनी होगी। अपने विचार और आचरण में गुणवत्ता लानी ही होगी, अन्यथा सिर्फ और सिर्फ भोग की एक वस्तु मात्र बन कर रह जायेगी। पुरुष की बात की जाये, तो उसे तो भोगने में सदैव आनंद की अनुभूति हुई है और होती भी रहेगी, क्योंकि उसके विचारों में गुणवत्ता पैदा करने वाली मां अब कम ही दिखाई देती है। इच्छाओं को सीमित करने वाली सुनीति जैसी पत्नी भी चाहिए, पर अधिकांशत: सुरुचि जैसी पत्नियां नजर आने लगी हैं, जिनके संपर्क में आया पुरुष राजा उत्तानपात की तरह ही भटकता जा रहा है और दुष्कर्म को भी शान से कर रहा है। ईमानदारी, सच और न्याय की स्थापना के साथ, अपने स्वाभिमान व अस्तित्व लिए भी स्त्री को परंपरा और संस्कृति की ओर लौटना ही होगा, क्योंकि निरंतर गर्त में जा रहे, इस समाज को अन्य कोई रोक भी नहीं सकता।
दिल्ली में हाल-फिलहाल हुई बलात्कार की घटना और पीड़ित लड़की के निधन को लेकर देश भर में आक्रोश का वातावरण बना हुआ है। व्यवस्था को निर्दोष करार नहीं दिया जा सकता, लेकिन सिर्फ व्यवस्था को ही दोषी ठहराने और व्यवस्था को कोसने से ही कुछ ठीक नहीं होने वाला। महिलाओं को सामाजिक स्थिति मजबूत करने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। वस्तु वाली छवि से बाहर निकल कर स्वयं को प्रभावशाली नागरिक बनाना होगा। महिलाओं को भोग की वस्तु बनाए रखने वाले माध्यमों के विरुद्ध महिलाओं को ही आवाज उठानी होगी, क्योंकि पुरुष लिंग भेद मिटाने की दिशा में स्वयं कभी प्रयास नहीं करेगा, इसलिए व्यवस्था और पुरुष प्रधान समाज को कोसने की बजाये, स्वयं के चरित्र निर्माण की दिशा में महिलाओं को ही गंभीरता से कार्य करना होगा। महिलायें स्वयं को वस्तु के दायरे से बाहर निकालने में सफल हो गईं, तो उनकी सामजिक स्थिति में स्वतः सुधार हो जायेगा। 

30.12.12

मीडिया कुरीतियों से समाज को सजग करे :गोपाल प्रसाद

गोपाल प्रसाद
                मीडिया का नैतिक कर्तव्य है की समाज में फैली हुई कुरीतियों से समाज को सजग करे, देश और समाज के हित के लिए जनता को जागरूक करे ; परन्तु ऐसा लगता है की धन कमाने की अंधी दौड़ में लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ अपनी सभी मर्यादाओं को लाँघ रहा है। सभी समाचार पत्रों में संपादक प्रतिदिन बड़ी-बड़ी पांडित्यपूर्ण सम्पादकीय लिख कर जनमानस को अपनी लेखनी की शक्ति से अवगत करते हैं परन्तु व्यावहारिक रूप में ऐसा लगता है की पैसा कमाने के लिए सभी कायदे कानूनों को तक पर रख दिया गया है . सभी समाचारपत्रों में अश्लील एवं अनैतिक विज्ञापनों की भरमार है , जिससे समाज के लोग गुमराह होते हैं . समाचारपत्र केवल एक लाइन लिखकर लाभान्वित हो जाता है . क्या कभी किसी समाचारपत्र ने ऐसे विज्ञापनों की सत्यता को जांचने की कोशिश की ? क्या ऐसे अश्लील और अनैतिक विज्ञापनों को समाचारपत्रों में छपने भर से वह अपनी जिम्मेवारी से मुक्त हो सकता है? 
ऐसे बहुत से विज्ञापन हैं जिनमें कोई पता नहीं होता , केवल मोबाईल नंबर दे दिया जाता है क्योंकि लाख कोशिश करने के बाबजूद भी ऐसे विज्ञापनदाताओं ने अपना पता नहीं बताया। इस तरह की कई शिकायतें थाने में दर्ज भी कराई गई है , परंतु उस पर कारवाई नहीं के बराबर होता है। ऐसे विज्ञापनदाता जनता से धन ऐंठकर चम्पत हो जाते हैं। क्या इनके दुराचार में मीडिया भी बराबर का भागीदार नहीं है? संपादक को चरित्रवान एवं देश व समाज के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए , तभी उनके सम्पादकीय की गरिमा का आभास जनमानस को हो सकेगा और उनके विद्वता का लाभ देश और समाज को मिल सकेगा। 
आज सामाजिक पतन के लिए काफी हद तक मीडिया भी जिम्मेदार है . यदि इन्टरनेट की बात छोड़ दें तो, इस प्रकार के गुमराह करने वाले विज्ञापनों से की जाने वाली कमाई से देश में और खासकर महानगरों में बलात्कार जैसी घटनाएँ नहीं होंगी तो और क्या होगा? 
पच्चीस बर्ष पहले भी जब पंजाब केसरी समाचारपत्र में विदेशी महिलाओं के अश्लील फोटो छपते थे तो कई सजग पाठकों ने इसका विरोध भी किया था परन्तु यह आज तक जारी है। खास बात यह है कि बहुत से लोग केवल इसी कारण इस समाचारपत्र को पसंद करते हैं . अब तो प्रायः सभी अखबार यही कर रहे हैं। खेद की बात है कि हर आदमी धनवान बनना चाहता है , चाहे उसके लिए समाज और देश को कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। जब हम निर्मल बाबा और दूसरे धर्म के ठेकेदारों , भ्रष्ट नेताओं को कोसते हैं ,तो संपादक मंडल को भी अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है कि हम क्यों पेड़ न्यूज़ और भ्रामक विज्ञापन के द्वारा चंद लोगों के लाभ के लिए 
समाज के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं? समाज के कई भद्र कुलीन व्यक्ति इन धोखेबाज लोगों के शिकार होते हैं, परन्तु अपनी बदनामी से बचने के लिए आवाज नहीं उठाते, आवश्यकता है कि जनहित में छद्म ग्राहक बनकर इनकी गतिविधियाँ जानकर उसका भंडाफोड़ करने के लिए सजग लोग अग्रसर हों। क्या संपादक मंडल राष्ट्रहित में लिंगवर्धन , मसाज पार्लर , महिलाओं से दोस्ती जैसे भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगाने का भरसक प्रयास करेगे?

 गोपाल प्रसाद स्वतंत्र पत्रकार एवं आरटीआई एक्टिविस्ट उनसे सम्पर्क हेतु मेल कीजिये  gopalprasadrtiactivist@gmail.com sampoornkranti@gmail.com 

29.12.12

क्यों कि मर चुका हूं बेटी लोग कहते हैं मैं आज़ाद हूं

तुम कौन हो
क्या हो
जानता नहीं फ़िर भी
आज तुम्हारे लिये
मेरे अश्रु मेरे बे़बस चेहरे पर
अचानक हौले हौले
सरकते-सरकते   सूख जाते हैं
एक लक़ीर सी खिंचती है हृदय पर
जब सोचता हूं कि
उस निर्दयी सुबह ने
तुमको अचानक क्यों दिया था ये दर्द
शायद बेबस तब भी था ..
दूर खड़ा निहारता तुमको
नि:शब्द तब भी शोक मग्न था
आज भी शोकमग्न हूं ...!!

शोकाकुल बने रहना मेरी नियति है
बेटी करूं भी क्या........
अपने ही देश में समझौतों की खुली दुकानों में जा  मैने भी
किये हैं.....
चुपचाप सहने के
चुप रहने के सौदे
व्यवस्था के खिलाफ़ कुछ भी बोलना
मेरे बस में क्यों नहीं है
क्यों कि मर चुका हूं बेटी
लोग कहते हैं मैं आज़ाद हूं
पर अर्ध-सत्य है..
सत्य तुम जानती हो बेटी
क्योंकि मैं सिर्फ़ शोक मग्न हूं
शायद इस बार न मना सकूं..
नये वर्ष का हर्ष..
_________________________________________
                  दामिनी के लिये श्रृद्धांजलियां 
_________________________________________


28.12.12

विश्व की हर मां को मेरा विनत प्रणाम



सव्यसाची स्व. मां 
      यूं तो तीसरी हिंदी दर्ज़े तक पढ़ी थीं मेरी मां जिनको हम सब सव्यसाची कहते हैं क्यों कहा हमने उनको सव्यसाची क्या वे अर्जुन थीं.. कृष्ण ने उसे ही तो सव्यसाची कहा था..? न वे अर्जुन न थीं.  तो क्या वे धनुर्धारी थीं जो कि दाएं हाथ से भी धनुष चला सकतीं थीं..?
 न मां ये तो न थीं हमारी मां थीं सबसे अच्छी थीं मां हमारी..! 
जी जैसी सबकी मां सबसे अच्छी होतीं हैं कभी दूर देश से अपनी मां को याद किया तो गांव में बसी मां आपको सबसे अच्छी लगती है न हां ठीक उतनी ही सबसे अच्छी मां थीं .. हां सवाल जहां के तहां है हमने उनको सव्यसाची   क्यों कहा..!
तो याद कीजिये कृष्ण ने उस पवित्र अर्जुन को "सव्यसाची" तब कहा था जब उसने कहा -"प्रभू, इनमें मेरा शत्रु कोई नहीं कोई चाचा है.. कोई मामा है, कोई बाल सखा है सब किसी न किसी नाते से मेरे नातेदार हैं.."
यानी अर्जुन में तब अदभुत अपनत्व भाव हिलोरें ले रहा था..तब कृष्ण ने अर्जुन को सव्यसाची सम्बोधित कर गीता का उपदेश दिया.अर्जुन से मां  की तुलना नहीं करना चाहता मैं क्या   कोई भी "मां" के आगे भगवान को भी महान नहीं मानता.. मैं भी नहीं... !                                   "मां"  तो मातृत्व का वो आध्यात्मिक भाव है जिसका प्राकट्य विश्व के किसी भी अवतार को ज्ञानियों के मानस में न हुआ था न ही हो सकता वो तो केवल "मां" ही महसूस करतीं हैं. दुनियां के सारे पुरुष क्या स्वयं ईश्वर भी मातृत्व का अनुभव नहीं कर सकते. मां शब्द ही माधुर्य, पवित्रता, और उससे भी पहले "पूर्णता का पर्याय" होता है. यानी मां में ही आप विराट के दर्शन पा सकते हैं. 
मां शब्द का अर्थ भी "स्वार्थ-हीन नेह" और जिसमें ये भाव है उसकी किसी से शत्रुता हो ही नहीं सकती.  जी ये भाव मैने कई बार देखा मां के विचारों में "शत्रु विहीनता का भाव " एक बार एक क़रीबी नातेदार के द्वारा हम सबों को अपनी आदत के वशीभूत होकर अपमानित किया खूब नीचा दिखाया .. हम ने कहा -"मां,इस व्यक्ति के घर नजाएंगे कभी कुछ भी हो इससे नाता तोड़ लो " तब मां ने ही तो कहा था मां ने कहा तो था .... शत्रुता का भाव जीवन को बोझिल कर देता है ध्यान से देखो तुम तो कवि हो न शत्रुता में निर्माण की क्षमता कहां होती है. यह कह कर  मां मुस्कुरा दी थी तब जैसे प्रतिहिंसा क्या है उनको कोई ज्ञान न हो .मर्यादा मे रहना सीखो 
मैने कह दिया था -मर्यादा गई राम के जमाने के साथ..
तब मैने मां के चेहरे पर मुस्कान देखी थी.. मुझे महसूस हुआ कि कितना गलत हूं
          मेरे विवाह के आमंत्रण को घर के देवाले को सौंपने के बाद सबसे पहले पिता जी को लेकर उसी निकटस्थ परिजन के घर गईं जिसने बहुधा हमारा अपमान किया करता . मां ने उस कुंठित रिश्तेदार को इतना स्नेह दिया कि  उसे अपनी भूलों का एहसास हुआ उसने  मां के चरणों को पश्चाताप के अश्रुओं से पखारा. वो मां ही तो थीं जिसने  उस एक परिवार को सबसे पहले सामाजिक-सम्मान दिया जिनको समाज ने अपनी अल्पग्यता वश समाज से अलग कर दिया था. मां चाहती थी कि सदा समभाव रखना ही जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य हो. 

                    जननी ने बहुत अभावों में आध्यात्मिक-भाव और सदाचार के पाठ हमको पढ़ाने में कोताही न बरती. हां मां तीसरी हिंदी पास थी संस्कृत हिन्दी की ज्ञात गुरु कृपा से हुईं अंग्रेजी भी तो जानती थी मां उसने दुनिया   खूब बांची थी. पर दुनिया से कोई दुराव न कभी मैने देखा नहीं मुझे अच्छी तरह याद है वो मेरे शायर मित्र  इरफ़ान झांस्वी से क़ुरान और इस्लाम पर खूब चर्चा करतीं थीं . उनकी मित्र प्रोफ़ेसर परवीन हक़  हो या कोई अनपढ़ जाहिल गंवार मजदूरिन मां सबको आदर देती थी ऐसा कई बार देखा कि मां ने धन-जाति-धर्म-वर्ग-ज्ञान-योग्यता आधारित वर्गीकरण को सिरे से नक़ारा  आज मां  यादों के झरोखे से झांखती यही सब तो कहती है हमसे ,... सच मां जो भगवान से भी बढ़कर होती है उसे देखो ध्यान से विश्व की हर मां को मेरा विनत प्रणाम 
  


मां.....!!
छाँह नीम की तेरा आँचल,
वाणी तेरी वेद ऋचाएँ।
सव्यसाची कैसे हम तुम बिन,
जीवन पथ को सहज बनाएँ।।


कोख में अपनी हमें बसाके,
तापस-सा सम्मान दिया।।
पीड़ा सह के जनम दिया- माँ,
साँसों का वरदान दिया।।
प्रसव-वेदना सहने वाली, कैसे तेरा कर्ज़ चुकाएँ।।

ममतामयी, त्याग की प्रतिमा-
ओ निर्माणी जीवन की।
तुम बिन किससे कहूँ व्यथा मैं-
अपने इस बेसुध मन की।।
माँ बिन कोई नहीं,
सक्षम है करुणा रस का ज्ञान कराएँ।

तीली-तीली जोड़ के तुमने
अक्षर जो सिखलाएँ थे।।
वो अक्षर भाषा में बदलें-
भाव ज्ञान बन छाए वे !!
तुम बिन माँ भावों ने सूनेपन के अर्थ बताए !!
 

यशभारत जबलपुर में 

पास उसके न थे-गहने  मेरी मां , खुद ही गहना थी !
वही  क्यों कर  सुलगती है   वही  क्यों कर  झुलसती  है ?
रात-दिन काम कर खटती, फ़िर भी नित हुलसती है .
न खुल के रो सके न हंस सके पल –पल पे बंदिश है
हमारे देश की नारी,  लिहाफ़ों में सुबगती  है !
वही तुम हो कि  जिसने नाम उसको आग दे  डाला
वही हम हैं कि  जिनने  उसको हर इक काम दे डाला
सदा शीतल ही रहती है  भीतर से सुलगती वो..!
 
कभी पूछो ज़रा खुद से वही क्यों कर झुलसती है.?मुझे है याद मेरी मां ने मरते दम सम्हाला है.
ये घर,ये द्वार,ये बैठक और ये जो देवाला  है !
छिपाती थी बुखारों को जो मेहमां कोई आ जाए
कभी इक बार सोचा था कि "बा" ही क्यों झुलसती है ?तपी वो और कुंदन की चमक हम सबको पहना दी
पास उसके न थे-गहने  मेरी मां , खुद ही गहना थी !
तापसी थी मेरी मां ,नेह की सरिता थी वो अविरल
उसी की याद मे अक्सर  मेरी   आंखैं  छलकतीं हैं.
विदा के वक्त बहनों ने पूजी कोख  माता की
छांह आंचल की पाने जन्म लेता विधाता भी
मेरी जसुदा तेरा कान्हा तड़पता याद में तेरी
उसी की दी हुई धड़कन इस दिल में धड़कती है.

आज़ की रात फ़िर जागा  उसी की याद में लोगो-
तुम्हारी मां तुम्हारे साथ  तो  होगी  इधर  सोचो
कहीं उसको जो छोड़ा हो तो वापस घर  में ले आना
वही तेरी ज़मीं है और  उजला सा फ़लक भी है !

        * गिरीश बिल्लोरे मुकुल,जबलपुर

26.12.12

स्व. श्री हीरालाल गुप्त “मधुकर” स्मृति समारोह सम्पन्न


२४ दिसम्बर १९९७ से  निरंतर जारी श्री हीरालाल गुप्त मधुकर स्मृति समारोह का आयोजन  हीरालाल गुप्त मधुकर स्मृति समिति एवम सव्यसाची कला ग्रुप  के तत्वावधान में  ड्रीमलैण्ड फ़नपार्क जबलपुर में दिनांक २४ दिसम्बर २०१२ को आयोजित किया गया.  कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ अधिवक्ता एवं पूर्व उप महाधिवक्ता उच्च न्यायालय मध्यप्रदेश श्री आदर्श मुनि त्रिवेदीजी ने की जबकि  मुख्य अतिथि के रूप में  श्री कृष्ण कान्त चतुर्वेदी पूर्व निदेशक कालिदास अकादमी ,मध्य प्रदेश उपस्थित थे.  15 वर्ष पूर्व प्रारम्भ किये गए "स्वर्गीय हीरा लाल गुप्त स्मृति पत्रकारिता सम्मान " से इस वर्ष वरिष्ठ पत्रकार श्री चैतन्य भट्ट को सम्मानित किया गया. कार्यक्रम में प्रो. एच. बी. पालन,विनोद शलभयशोवर्धन पाठकइरफ़ान झांस्वी, डा. अजित वर्मा, श्री महेश मेहदेले, संजय पारे, अरुण टेमले सहित बड़ी संख्या में साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रतिनिधि, साहित्यकार, पत्रकार उपस्थित थे.                सव्यसाची स्वर्गीया श्रीमती प्रमिला बिल्लोरे स्मृति सम्मान से इस बार संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं मध्य प्रदेश के जाने माने उद्घोषकराष्ट्र स्तरीय सामाजिक पत्रिका "सनाढ्य संगम" के यशस्वी संपादक साहित्यकार श्री राजेश पाठक "प्रवीण" को नवाजा 
                        संस्कारधानी की भावना के अनुरूप इस कार्यक्रम में हम स्वर्गीय रामेश्वर गुरु जी को भी स्मरण किया जाना इस कार्यक्रम की की विशेषता थी.स्व. श्री गुरु के दामाद श्री श्याम बिहारी चतुर्वेदी ने स्व. रामेश्वर गुरु जी व्यक्तित्व पर विचार व्यक्त किये.
           कार्यक्रम के आरम्भ में दिवंगत मां सव्यसाची प्रमिला देवी बिल्लोरे एवम स्वर्गीय हीरालाल गुप्त मधुकर जी के चित्रों पर पुष्पांजली अतिथियों एवम उपस्थित व्यक्तियों द्वारा किया .
    कार्यक्रम की शुरुआत वरिष्ट पत्रकार मोहनशशि की अभिव्यक्ति से हुई जिन्हौने जबलपुर में स्व. हीरालल गुप्ता जी की समकालीन पत्रकारिता में पवित्रतासादगीव्यापक विचारशीलता को रेखांकित किया.  
         इस अवसर पर सृजन सम्मान से सम्मानित श्री अमरेंद्र नारायण पूर्व सेक्रेट्री जनरल एसिया पेसिफ़िक टेक्नोकम्यूनिटि ने कहा –“बरसों देसी-विदेशी भूमि पर सेवा देने के बाद मुझे जबलपुर में वापसी को जबलपुर ने जिस तरह स्वीकारा है उसे उससे स्पष्ट हो जाता है कि जबलपुर वास्तव में अपने संस्कारधानी नाम के अनुरूप संस्कारवान है और रहेगी भी
         स्व. श्री हीरालाल गुप्त मधुकर स्मृति पत्रकारिता सम्मान से समादरित श्री चैतन्य भट्ट ने प्राप्त सम्मान को गरिमामय सम्मान निरूपित करते हुए कहा कि  अदभुत चरित्र के धनी थे स्व. गुप्त जी उनका सानिध्य मात्र से सादगी और सच्चरित्र होना स्वभाविक था.      
 अध्यक्षीय उदबोधन में श्री आदर्श मुनि त्रिवेदी ने कहा-संस्कारवान पीढ़ी्यां ही अपने पूर्वजों की स्मृतियां अक्षुण्य रखतीं हैं. जबलपुर की तासीर भी यही है. इस तरह के आयोजनों से उन  आदर्शों
की प्राण-प्रतिष्ठा को कायम किया जा सकता जो सामाजिक समरसता को जीवित रखते हैं.
       मां सव्यसाची प्रमिला देवी बिल्लोरे स्मृति सम्मान से सम्मानित श्री राजेश पाठकप्रवीण ने कहा- मेरे जीवन का मार्मिक क्षण है जबकि मुझे मेरी मां का स्नेह मिल रहा है.
             कार्यक्रम में अतिथियों का स्वागत श्री सतीष बिल्लोरेश्री अरविंद गुप्ता  डा. विजय तिवारी किसलयबसंत मिश्राराजीव गुप्ता,श्री राजकुमार अग्रवाल ने किया. कार्यक्रम का संचालन गिरीश बिल्लोरे ने तथा आभार अभिव्यक्ति श्री विजय तिवारी द्वारा की गई 

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