11.9.12

सत्य




ओह सत्य
जब जब तुम 
बन जाते लकीर 
तब बेड़ियों से जकड़ लेते हैं
तुमको...
जकड़ने वाले...!!
हां सच.. जब तुम गीत बन के 
गूंजते हो तब
हां.. तब भी 
लोग 
कानों में फ़ाहे 
ठूंसकर
खुर्द-बुर्द होने के गुंताड़े में 
लग जाते हैं.
हां सत्य 
जब भी तुमने मुखर होना चाहा
तब तब 
ये 
बिखरने से भयातुर 
दैत्याकार 
नाक़ाम कोशिशें करतें 
जब जब तुम प्रखर होते तब तब ये 
अपने अपने आकाशों से 
से आ रही तेजस्वी धूप को 
टेंट-कनातों से रोकते 
कितने मूर्ख लगते है न ..
सत्य ..!!  


8.9.12

गुरप्रीत पाबला नहीं रहे


श्री बी.एस.पाबला जी के सुपुत्र चिंरंजीव गुरप्रीत सिंह पाबला का आकस्मिक नि:धन के समाचार से जबलपुर के ब्लागर्स बेहद दुखी है .........स्तब्ध हैं ..................
              दिवंगत आत्मा की शांति के लिये ईश्वर से विनत प्रार्थना के साथ पाबला परिवार को इस अपूरणीय क्षति से व्युत्पन्न पीढ़ा को सहने की शक्ति प्रार्थना है.  

7.9.12

स्वतंत्रता और हिंदी : आयुषि असंगे

                      स्वतंत्रता और हिंदी विषय स्वयमेव एक सवाल सा बन गया है.  15 अगस्त 1947 के बाद हिंदी का विकास तो हुआ है किंतु हिंदी उच्च स्तरीय रोजगारीय भाषा की श्रेणी में आज तक स्थापित नहीं हो सकी. जबकि तेज गति से अन्य अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं का विकास हुआ है उतनी ही तेजी से  स्वतंत्रता के पश्चात  हिंदी भाषा की उपेक्षा की स्थिति सामने आई है. जिसका मूल कारण है हिंदी को रोजगार की भाषा के रूप में आम स्वीकृति न मिलना. विकाशशील राष्ट्रों में उनके सर्वागीण विकास के लिये  भाषा के विकास को प्राथमिकता न देना एक समस्या है. हिन्दी ने आज जितनी भी तरक्की की है उसमें सरकारी प्रयासों विशेष रूप से आज़ादी के बाद की सभी भारत की केन्द्रीय सरकारों का योगदान नगण्य है. आज जहाँ विश्व की सभी बड़ी भाषायें अपनी सरकारों और लोगों के प्यार के चलते तरक्की कर रहीं है वहीं विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा हिन्दी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. 26 जनवरी 1950 को जब भारतीय संविधान लागू हुआ तब हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया. पहले 15 साल तक हिन्दी के साथ साथ अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा दिया गया, यह तय किया गया कि 26 जनवरी 1965 से सिर्फ हिन्दी ही भारतीय संघ की एकमात्र राजभाषा होगी. 15 साल बीत जाने के बाद जब इसे लागू करने का समय आया तो तमिलों के विरोध के चलते प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हे यह आश्वासन दिया कि जब तक सभी राज्य हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप मे स्वीकार नहीं करेंगे अंग्रेजी भी हिन्दी के साथ साथ राजभाषा बनी रहेगी. इसका अर्थ यह था कि अब अनंतकाल तक अंग्रेजी ही इस संघ की असली राजभाषा बनी रहेगी जबकि इसकी अनुवाद की भाषा हिन्दी उसी पिछली कुर्सी पर बैठी रहेगी.
आज आज़ादी के 62 वर्ष बीत जाने के बाद भी वही स्थिति बनी हुई है और हिन्दी को सच्चे अर्थों मे राजभाषा बनाने का कोई ठोस प्रयास सरकार की ओर से नहीं किया गया है. भारत सरकार ने हिन्दी के अनुसार भारत को तीन क्षेत्रों मे बाँटा है क क्षेत्र,ख क्षेत्र और ग क्षेत्र.
क क्षेत्र में - उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, हरियाणा और अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह आते है, संविधान के अनुसार केन्द्र सरकार को इन प्रदेशों से संबंधित सारा काम सिर्फ हिन्दी में ही करना होगा पर 1% मूल काम (अनुवाद नहीं) भी हिन्दी मे नहीं किया जाता.
हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह जैसे राज्य तो अपना सारा काम ही अंग्रेजी मे करते हैं, जबकि यहाँ हिन्दी का ना तो कोई विरोध है न ही हिन्दी जानने वाले लोगों की कमी. सबसे अजीब स्थिति तो हिमाचल प्रदेश और हरियाणा की है जो राज्य सिर्फ भाषाई आधार पर पंजाब से अलग हुये थे, आज जहाँ पंजाब का सारा काम पंजाबी मे किया जा रहा है वहीं उस से अलग हुये यह प्रदेश अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं.
ख क्षेत्र में - महाराष्ट्र, गुजरात, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, जैसे क्षेत्र हैं, जहाँ हिन्दी का कोई विरोध नहीं है, संविधान के अनुसार इन प्रदेशों से संबंधित सारा काम केन्द्र सरकार को हिन्दी में ही करना होगा पर मूल पत्रों के साथ अंग्रेजी अनुवाद भी राज्य विशेष के माँगने पर उपलब्ध करवाया जायेगा पर स्थिति कमोबेश क क्षेत्र जैसी ही है.ग क्षेत्र मे बाकी सारे राज्य आते हैं और इनके संबंध मे तो केन्द्र सरकार हिन्दी के बारे में सोचती तक नहीं
                                       आज़ादी के बाद हिंदी को व्यापार की भाषा का दर्ज़ा न देना भी उसके विकास के प्रयासों पर विराम लगाता है. पर इससे उलट लेखक एवम पत्रकार श्री प्रमोद भार्गव का मानना उत्साहित कर रहा है वे अपने एक लेख में ओबामा के हिंदी के विकास में सहयोग को उल्लेखित करते हुए लिखतें हैं कि-
                               “    आम और खास आदमी की बोलचाल से लेकर जरुरत की भाषा हिन्दी है। जरुरत की इसी ताकत के बूते हिन्दी हाट - मण्डी, बाजार और हाइवे की भाषा बनी हुई है। यही आधार उसे विश्व में बोलचाल के स्तर पर दूसरी श्रेणी की भाषा बनाता है। इसी वजह से पूरी दुनिया में फैले हर तीसरा आदमी हिन्दी बोल व समझ सकता है। इन्हीं खूबियों के चलते अमेरिकी राष्टपति बराक ओबामा ने हिन्दी की वास्तविक ताकत को समझा और अपने देश की शालाओं में हिन्दी के पठन-पाठन के लिए जरुरी धनराशि उपलब्ध कराई। बहुसंख्यक आबादी की भाषा की यह बाहरी ताकत है। हिन्दी की अंदरुनी ताकत में अमेरिका के अतंराष्टीय स्तर पर व्यापारिक हित और आतंकवादी खतरों के बीच आंतरिक सुरक्षा के हित भी अंतनिर्हित हैं। बावजूद इसके फिलहाल हिन्दी इस शक्ति के साथ नहीं उबर रही की उसमें ‘ज्ञान का माद्दा’ है ? जब तक हिन्दी इस माद्दे से परिभाषित नहीं होगी देश-दुनिया में वह बगलें ही झांकती रहेगी।
         ओबामा सरकार अमेरिकी स्कूलों में हिन्दी पढ़ाये जाने के लिए जरुरी धन मुहैया करा रही है। अमेरिका को लग रहा है कि हिन्दी देश को आर्थिक मंदी से उबारने और राष्टीय सुरक्षा के लिए कवच साबित हो सकती है। इसके पूर्व इस दृष्टि से केवल चीनी और अरबी भाषाओं का ही बोलबाला था। अमेरिका में आतंकवादी हमले के बाद भय पैदा करने वाले इंटरनेट संदेशों की आमद बड़ी है। बड़ी संख्या में ये संदेश हिन्दी और उर्दु में होते हैं। स्वाभाविक है दोनों ही भाषाएं आम अमेरिकी नागरिक नहीं जानता। इसीलिए अमेरिका की सेना में इस समय सबसे ज्यादा हिन्दी व उर्दु के अनुवादकों की मांग है। जिससे यह साफ हो सके की जो संदेश आ रहे हैं उनमें अमेरिका की आतंरिक सुरक्षा से जुड़ा खतरा तो नहीं हैं। इस भय से अमेरिका इतना भयभीत है कि भाषा के अनुवादकों  को उनने छह माह के भीतर अमेरिकी नागरिकता दे देने का भी प्रलोभन दिया हुआ है। इस कारण यह राय भी बनती है की हिन्दी की महत्ता जरुरत की भाषा के साथ भय की भाषा बनने के कारण भी बढ़ रही है।
     कुल मिलाकर जो भाषा अपने देश में न तो पूरी तरह व्यापार की भाषा बन सकी न ही कानून अथवा रोजगार की भाषा न बन सकी उसके विकास के लिये दुनियां के दादा अमेरिका की तत्परता एक महत्वपूर्ण एवम चिंतनीय संदेश है.
 ( हिंदी पखवाडे के अवसर पर स्नातक विद्यार्थी आयुषि असंगे का आलेख इस  आलेख में हिंदी विक्कीपीडिया सामग्री प्राप्त की गई है. )

28.8.12

भई ये पेंटिंग नहीं रगड़े की पिच्च है..!!

कला साधना के लिये मशहूर शहर में अपने कलासाधक मित्र से पूछ बैठा- भई, क्या चल रहा है..?
सिगरेट का कश खींचते बोले- बस यूं ही फ़ाकाकशी में हूं. 
और ज़ीने का ज़रिया ..?
बस, अब मिल गया, 
क्या..? ज़रिया.. !
न, गिरीश भाई नज़रिया,
     "नज़रिया" शब्द का अर्थ लगाए हम उनसे विनत भाव से विदा लेकर कामकाज़ निपटाने चल पड़े. मुलाकात वाली बात भी आई गई हो गई कि एक दिन वही हमारे मित्र दरवाज़े ज़िंदगी के दर्द भरे गीतों का पोटला लेके पधारे. संग साथ ले आए आए अपनी बीवी को बोले भैया -कलाकारों का भारी शोषण है. अब तो हमारी ज़िंदगी दूभर हो गई..अब बताइये क्या खाएं 
अपन भी कृष्ण बन गये लगा साक्षात सुदामा पधारे हमारे द्वारे बस हमारे हुक़्म पर चाय पेश हुई.. हम भी करुणामय हो गये.उनकी बातें सुनकर  हमारी अदद शरीक़-ए-हयात ने कहा - कुछ मदद कीजिये इनकी  !
बस बीवी के आदेश को राजाज्ञा मान हम ने तय कर लिया इस मित्र की मदद तो करनी ही है. सो हमने कहा -भई पब्लिसिटी खाते से आपको हम अपनी सामर्थ्य अनुसार काम देते रहेंगें. आपसे बड़ा वादा तो नहीं पर हां थोड़े थोड़े काम आपके खाते में ज़रूर आएंगें.
          मित्र को काम दिया कुछ हजार भी दिये काम ठीक ठाक था सबको पसंद आया भाई की डिमांड हुई. एक दिन अचानक श्रीमान ने मुझसे कुछ कविताएं पोस्टर बनाने मांग उपकृत करने का नुस्खा आज़माया. हमने खूब टाला वो टस से मस न हुआ. दे दीं कुछ कविताएं.
  भाई ने आकाश में मछलियां उड़ाईं.. कुछ आड़ी तिरछी लक़ीरें खींची.. गनीमत है कि भाई ने समंदर में घुड़दौड़ का आयोजन चित्रित नहीं किया.
 एक दिन हुज़ूर हमाए घर पधारे आते ही चीखे ..गिरीश भाई   गिरीश भाई !
’चंद स्कैच लाया हूं....!’
..दिखाएं.. भाई
ये रहे.. और फ़िर मित्र ने बेतरतीब लम्बे बालों को जो बिना रिबन के आंखों के सामने आकर हिज़ाब बनने की की कोशिश कर रहे थे को मुंडी उचका के पीछे ढकेलते हुए बड़ी अदा से पेंटिंग्स का पिटारा खोला आर्ट क्या आकाश में मछलियां उड़ रहीं थीं, पानी में घोड़े चर रहे थे, एक औरत की तस्वीर जानते ही होंगे आप तथा कथित आर्टिस्ट जैसी बनाया करते है ठीक वैसी ही. एक सेब का चित्र बीच से काटा गया उसे एक पुरुष बड़े ध्यान से देखे जा रहा था.. यानी उनकी चित्रकला का अर्थ केवल यौनिक अंगों का चित्रण साबित कर रही थी पेंटिंग्स जी में आया कि उनको बता दें कि चित्र कारी क्या चीज़ है पर सोचा कि कौन किस्से को खींचे टालने की गरज़ से हमने  वाह वाह कर दी.  हम  उनके  उत्साह को ठण्डा नहीं करना चाहते थे और न ही  मक़बूलिया कल्ट जो उनने पहन रखी थी  उसे भी क्षति पहुंचाना चाह रहे थे इस लिये हमने कहा भई ये मछलियां उड़ने वाला कांसेप्ट बेहद नया है आपके कई स्कैच में इसे देखा है सो वे तपाक से बोले - "गिरीश भाई.. सच आप तो गद्य,पद्य,कविता, अकविता, आलेख यानी हर क्षेत्र में दखल रखते हैं आज़ जाना कि पैंटिंग्स के मामले में भी क्रिटिक्स वाला नज़रिया रखते है वाह ..! .. ये बाद कहकर बड़ी उदारता से हमारी कुछ मिनिट पहले दी दाद वापस की और बोले आपके यहां कोई पेंटिंग करता है क्या..?
                                         हम अचकचा गये हमने कहा-भाई, हमारी सात पुश्तों में कोई ऐसा नहीं हुआ पर आप ये कयास कैसे लगा रहें हैं..?
वे बोले - ये , (बालकनी  बाएं तरफ़ की दीवार की ओर इशारा कर बोले) वाह क्या चित्र है.. ज़रूर कोई न कोई पेंटिंग वाला है..आपके यहां.
हमें हंसी छूट पड़ी हमने कहा- भैये,ये कोई पेंटिग वेंटिग नहीं है.  कई दोस्त हमारे रगड़ा ( घिसी हुई तम्बाखू ) खाऊ कमेटी के मेम्बर हैं मेरी तरह उनमें से एक हैं जिनने पिच्च से यहीं.. हा हा हा                               भई ये पेंटिंग नहीं रगड़े की पिच्च है.
        यह सुन कर उनकी मक़बूलिया कल्ट ठीक वैसे उतरने लगी गोया घरों की दीवारों पर जमीं पुताई वाली परतें गिरतीं है या ये भी मान लीजिये कि बजरंग बली की प्रतिमा से सिंदूरी चोला छूटता है .
             आपके इर्द-गिर्द ऐसे कल्टधारी आर्टिस्ट और उनके उतरते कल्ट की तस्वीर आप महसूस करेंगे.. !आप यह भी महसूस करएंगे  कि  हम मनुष्यों के सबसे बड़ी खराबी है कि हम जितना प्रतिभावान होते नहीं उससे अधिक प्रतिभावान होने का दावा करतें हैं.हम कितने भी जतन से अपने हुलिये को सजाएं संवांरे पर जब पानी बरसता है तो हमारे शरीर का रोगन बह निकलता है. पता नहीं लोग दिखावे की दौड़ में क्यों दौड़ रहें हैं किसी भी चेहरे पर मौलिकता एवम सामान्य छवि क्यों नज़र नहीं आती ..?

27.8.12

अंतर्राष्ट्रीय ब्लागर मीट लखनऊ में

खबरिया चैनल आज़तक के संस्थापक एस.पी.सिंह का भावपूर्ण स्मरण किया गया



मुंबई । दिल्ली हो या मुंबई आधुनिक भारतीय पत्रकारिता के महानायक और हिंदी न्यूज़ चैनल 'आजतक' के संस्थापक संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी एस.पी सिंह को चाहने वाले और मानने वाले हर जगह है. एस.पी.सिंह स्मृति  समारोह मुंबई में आयोजित किया गया तो यहाँ भी उनके चाहने वाले और साथ काम कर चुके पत्रकार पहुंचें. उनसे जुडी यादों को बांटा. उन्हें याद किया और भावुक भी हुए. 
वरिष्ठ पत्रकार विश्वनाथ सचदेव ने एस.पी सिंह को याद करते हुए कहा कि उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि वे आने वाले कल को पहचानने की कोशिश करते थे और उसी हिसाब से नए - नए प्रयोग करते थे. उनके टेलीविजन के सफ़र पर बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि आजतक ने एस.पी को जो पहचान दी वह अद्वितीय है. बुलेटिन के अंत में एस.पी कहते थे, यह थी खबरें आजतक, इंतज़ार कीजिये कल तक और लोग इंतज़ार करते थे. 
एस.पी. सिंह के ज़माने में आजतक के मुंबई ब्यूरो में कार्यरत नीता  कोल्हटकर ने एस.पी को याद करते हुए कहा कि अंग्रेजी माध्यम से होते हुए भी वे मुझे आजतक में लेकर आये. लेकिन उन्होंने कहा कि पंडिताना हिंदी को भूल जाओ. सरल, सहज और आम लोगों की भाषा का इस्तेमाल करो. एस.पी की खासियत के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि आने वाले दिनों में लोगों को क्या पसंद आनेवाला है, इसकी उन्हें बहुत अधिक समझ थी. वे व्यक्तिगत चीजों को परे रखकर पत्रकारिता करते थे और बहुत दिल से बुलेटिन की एंकरिंग करते थे. 
सीएनबीसी-आवाज़ में कार्यरत आलोक जोशी ने एस.पी.सिंह के साथ आजतक में बिताये लम्हों को याद करते हुए कहा कि एस.पी की पारखी नज़र थी. उन्हें सब पता होता था कि क्या होने वाला है. लेकिन एक संपादक की तरह वे डराते नहीं थे. समाज और पत्रकारिता के अलावा बिजनेस भी समझते थे. लेकिन मैनेजमेंट का किसी तरह का दबाव पत्रकारों पर नहीं पड़ने देते थे. अपनी इन्हीं खूबियों की वजह से वे इतने बड़े आयकॉन बने कि पत्रकारिता में बहुत सारे लोग खींचे चले आये.
आजतक के मुंबई ब्यूरो के प्रमुख साहिल जोशी ने कहा कि एस.पी.सिंह के बुलेटिन को देखकर ही हम जैसे लोगों के अंदर यह ज़ज्बा पैदा हुआ कि हम भी हिंदी के पत्रकार बन सकते हैं. एस.पी सिंह के बुलेटिन को देखकर ही हम जैसे लोगों ने हिंदी सीखी. साहिल जोशी ने एक दिलचस्प किस्सा बताते हुए कहा कि, ' मुझसे एक बार किसी दर्शक ने पूछा कि आप भी उसी चैनल में काम करते हैं न , जिसमें दाढ़ी वाले पत्रकार खबरें पढ़ते हैं. यह 2004 की बात है.  मुझे लगा कि शायद ये दीपक चौरसिया के बारे में बात कर रहे हैं. लेकिन उस दर्शक ने कहा की नहीं, वो दूसरे दाढ़ी वाले, एस.पी सिंह.'
पूरा आलेख यहां उपलब्ध है "मीडियामोरचा

25.8.12

" दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन


लाइफ़-स्टाइल में बदलाव से ज़िंदगियों में सबसे पहले आधार-भूत परिवर्तन की आहट के साथ कुछ ऐसे बदलावों की आहट सुनाई दे रही है जिससे सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है. कभी लगता था मुझे भी कि सामाजिक-तानेबाने के परम्परागत स्वरूप को आसानी से बदल न सकेगा . किंतु पिछले दस बरसों में जिस तेजी से सामाजिक सोच में बदलाव आ रहे हैं उससे तो लग रहा कि बदलाव बेहद निकट हैं शायद अगले पांच बरस में... कदाचित उससे भी पहले .कारण यह कि अब "जीवन को कैसे जियें ?" सवाल नहीं हैं अब तो सवाल यह है कि जीवन का प्रबंधन कैसे किया जाए. कैसे जियें के सवाल का हल सामाजिक-वर्जनाओं को ध्यान रखते हुए खोजा जाता है जबकि जीवन के प्रबंधन के लिये वर्जनाओं का ध्यान रखा जाना तार्किक नज़रिये से आवश्यक नहीं की श्रेणी में रखा जाता है.जीवन के जीने के तौर तरीके में आ रहे बदलाव का सबसे पहला असर पारिवारिक व्यवस्थापर खास कर यौन संबंधों पड़ता नज़र आ रहा है. बेशक विवाह नर-मादा के व्यक्तिगत अधिकार का विषय है पर अब पुरुष अथवा महिला के जीवन की व्यस्तताओं के चलते उभरतीं दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन का अधिकार भी मांगा जावेगा कहना कोई बड़ी बात नहीं. वास्तव में ऐसी स्थिति को मज़बूरी का नाम दिया जा रहा है.फ़िलहाल तो लव-स्टोरी को वियोग जन्य हेट स्टोरी में बदलते देर नहीं लगती .  किंतु आने वाला कल ऐसा न होगा.. जहां तक आने वाले कल का आभास हो रहा है वो ऐसा समय होगा जो " दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन" को एक अधिकार के रूप में स्वीकारेगा. दूसरा पक्ष ऐसे अधिकार की मांग के प्रति सकारात्मक रुख अपनाएगा. उसका मूल कारण "सर्वथा दूरियां एवम व्यस्तता जो अर्थोपार्जक कारण जनित होगी"
यह कोई भविष्यवक़्तव्य नहीं है न ही मैं भविष्य वक्ता हूं... वरन तेजी से आ रहे बदलाव से परिलक्षित हो रही स्थिति का अनुमान है. यह ऐसा बदलाव होगा जिसे न तो हमारी सामाजिक-नैतिक व्यवस्था रोकेगी और न ही खाप पंचायत जैसी कोई व्यवस्था इसे दमित कर पाएगी. कुल मिला कर इसे  बल-पूर्वक नहीं रोक सकता.
सामाजिक व्यवस्था द्वारा जनित परम्परागत वर्जनाओं के विरुद्ध सोच और शरीर का एक साथ खड़ा होना भारतीय परिवेश में महानगरों, के बाद नगरों से ग्राम्य जीवन तक गहरा असर डाल सकता है.
आप हम भौंचक इस विकास को देखते रह जाएंगें. सेक्स एक बायोलाजिकल ज़रूरत है उसी तरह अपने पारिवारिक "समुच्चय में रहना" सामाजिक व्यवस्था है. आर्थिक कार्य का दबाव सबसे पहले इन्ही बातों को प्रभावित करेगा. तब दम्पत्ति बायोलाजिकल ज़रूरत को पूरा करते हुए पारिवारिक समुच्चय को भी बनाए रखने के लिये एक समझौता वादी नीति अपनाएंगें. हमारा समाज संस्कृति की बलात रक्षा करते हुए भी असफ़ल हो सकता है . ऐसे कई उदाहरण समाज में व्याप्त हैं..बस लोग इस से मुंह फ़ेर रहे हैं.
पाश्चात्य व्यवस्था इस क़दर हावी होती नज़र आ रही है कि किसी को भी इस आसन्न ब्लैक होल से बचा पाना सम्भव नज़र नहीं आ रहा. हो सकता है मैं चाहता हूं कि मेरा पूरा आलेख झूठा साबित हो जाए जी हां परंतु ऐसा तब होगा जबकि जीवनों में स्थायित्व का प्रवेश हो ... ट्रक ड्रायवरों सा यायावर जीवन जीते लोग (महिला-पुरुष) फ़्रायड को तभी झुठलाएंगे जबकि उनका आत्म-बल सामाजिक-आध्यात्मिक चिंतन से परिपक्व हो पर ऐसा है ही नहीं. लोग न तो आध्यात्मिक सूत्रों को छू ही पाते हैं और न ही सामाजिक व्यवस्था में सन्निहित वर्जनाओं को. आध्यात्म एवम सामाजिक व्यवस्था के तहत बहुल सेक्स अवसरों के उपभोग को रोकने नैतिकता का ज्ञान कराते हुए संयम का पाठ पढ़ाया जाता है ताकि एक और सामाजिक नैतिकता बनी रहे दूसरी ओर यौन जनित बीमारियों का संकट भी जीवनों से दूर रहे, जबकि विज्ञान कंडोम के प्रयोग से एस.टी.डी.(सेक्सुअली-ट्रांसमीटेड-डिसीज़) को रोकने का परामर्श मात्र देता है.

आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा कि दो दशक पहले बच्चे ये न जानते थे कि माता-पिता नामक युग्म उनकी उत्पत्ति का कारण है. किंतु अब सात-आठ बरस की उम्र का बच्चा सब कुछ जान चुका है. यह भी कि नर क्या है..? मादा किसे कहते हैं.. ? जब वे प्यार करते हैं तब “जन्म”-की घटना होती है. दूसरे शब्दों में कहें तो वे शारिरिक संपर्क को प्यार मानते हैं.
सामाजिक व्यवस्था पाप-पुण्य की स्थितियों का खुलासा करतीं हैं तथा भय का दर्शन कराते हुए संयम का आदेश देतीं हैं वहीं दूसरी ओर अत्यधिक अधिकाराकांक्षा तर्क के आधार पर जीवन जीने वाले इस आदेश को पिछड़ेपन का सिंबाल मानते हुए नकार रहे हैं .. देखें क्या होता है वैसे सभी चिंतक मानस मेरी अनुभूति से अंशत: ही सही सहमत होंगे.......

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विश्व का सबसे खतरनाक बुजुर्ग : जॉर्ज सोरोस

                जॉर्ज सोरोस (जॉर्ज सोरस पर आरोप है कि वह भारत में धार्मिक वैमनस्यता फैलाने में सबसे आगे है इसके लिए उसने कुछ फंड...