15.2.12

भोपाल वाली बुआ

भोपाल वाली बुआ..

कला बुआ वाला भोपाल
मामाजी वाला भोपाल
मेरा नहीं हम सबका भोपाल
जी हां.. गैस रिसी थी तबका भोपाल
जिसे निगला था
मिथाइल आइसो सायानाईट के
धुंएँ ने जो
समा गया गई थी
हवा के साथ
देहों में
जो  देहें
 निष्प्राण हो गयीं
जो बचीं वे ज़र्ज़र
आज भी कांपते हुए जी रहीं हैं
उनमें से एक हैं मेरी भोपाल वाली बुआ
जिसने देह में बैठे प्राण को आत्म-साहस के साथ
सम्हाले रखा हैं ,
बुआ रोज जन्मती  हैं
रोजिन्ना मारती है 

भोपाल वाली बुआ 
रो देती है.......
उन को याद  कर
शाह्ज़हानाबाद की आम वाली मस्जिद
के आसपास रहने वाली
सहेली आशा बुआ को,
अब्दुल चाचा,
जोजफ सतबीर को
यानी वो सब जिनकी
हैं अलग अलग इबादतगाहें
बुआ अब खिल खिला के हंसती नहीं है
उसके बिना शादियों में ढोलकी बज़ती नहीं है
बुआ तुम फ़िर बनना मेरी बुआ जनम जनम तक
अब बुआ जरजर शरीर को लेकर सबसे बातें करती है 
बहुत धीमे धीमें सुर निकलते हैं 
सच उस हादसे ने छीनी 
उनकी ओजस्विनी मूरत हम सबसे 
पर वो हमारे साथ हैं हादसे  के 
तीस बरस बाद तक
आत्मशक्ति को परिभाषित  करती
   

13.2.12

पाडकास्ट : जैसे तुम सोच रहे साथी

श्रीमति रचना बजाज के सौंजन्य से प्राप्त श्री विनोद श्रीवास्तव जी की एक रचना --
सुनिए  नकी  ही आवाज में ---



जैसे तुम सोच रहे साथी 

जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम।

पिंजरे जैसी इस दुनिया में, पंछी जैसा ही रहना है,
भर पेट मिले दाना-पानी,लेकिन मन ही मन दहना है।
जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे संवाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे आजाद नहीं हैं हम।

आगे बढ़नें की कोशिश में ,रिश्ते-नाते सब छूट गये,
तन को जितना गढ़ना चाहा,मन से उतना ही टूट गये।
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम।

पलकों ने लौटाये सपने, आंखे बोली अब मत आना,
आना ही तो सच में आना,आकर फिर लौट नहीं जाना।
जितना तुम सोच रहे साथी,उतना बरबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम।

आओ भी साथ चलें हम-तुम,मिल-जुल कर ढूंढें राह नई,
संघर्ष भरा पथ है तो क्या, है संग हमारे चाह नई।
जैसी तुम सोच रहे साथी,वैसी फरियाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम। 
विनोद श्रीवास्तव जी की रचना की सस्वर प्रस्तुति मुझे भी कुछ कहना है ब्लाग की स्वामिनि रचना बज़ाज द्वारा

11.2.12

राजकाज

संस्थानों के दीमक आगामी अंक में तब तक इस व्यंग्य को देखिये
साभार : दखलंदाजी.काम 
से इस पन्ने से 
         सरकारी आदमी हर्फ़-हर्फ़ लिखे काम करने का संकल्प लेकर नौकरी में आते हैं सब की तयशुदा होतीं हैं ज़िम्मेदारियां उससे एक हर्फ़ भी हर्फ़ इधर उधर नहीं होते काम. सरकारी दफ़तरों के काम काज़ पर तो खूब लिक्खा पढ़ा गया है मैं आज़ आपको सरकार के मैदानी काम जिसे अक्सर हम राज़काज़ कहते हैं की एक झलक दिखा रहा हूं.                            
        सरकारी महकमों  में अफ़सरों  को काम करने से ज़्यादा कामकाज करते दिखना बहुत ज़रूरी होता है जिसकी बाक़ायदा ट्रेनिंग की कोई ज़रूरत तो होती नहीं गोया अभिमन्यु की मानिंद गर्भ से इस विषय  की का प्रशिक्षण उनको हासिल हुआ हो.                        
               अब कल्लू को ही लीजिये जिसकी ड्यूटी चतुर सेन साब  ने वृक्षारोपण-दिवस” पर गड्ढे के वास्ते  खोदने के लिये लगाई थी मुंह लगे हरीराम की पेड़ लगाने में झल्ले को पेड़ लगने के बाद गड्डॆ में मिट्टी डालना था पानी डालने का काम भगवान भरोसे था.. हरीराम किसी की चुगली में व्यस्तता थी सो वे उस सुबह “वृक्षारोपण-स्थल” अवतरित न हो सके जानतें हैं क्या हुआ..हुआ यूं कि सबने अपना-अपना काम काज किया कल्लू ने (गड्डा खोदा अमूमन यह काम उसके साब चतुर सेन किया करते थे)झल्ले ने मिट्टी डालीपर पेड़ एकौ न लगा देख चतुर सेन चिल्लाया-ससुरे  पेड़ एकौ न लगाया कलक्टर साब हमाई खाल खींच लैंगे काहे नहीं लगाया बोल झल्ले ?“
चतुरसेन :- औ’ कल्लू तुम बताओ , ? झल्ले बोला:-साब जी हम गड्डा खोदने की ड्यूटी पे हैं खोद दिया गड्डा बाक़ी बात से हमको का मामूल  ?”
कल्लू:-का बताएं  हज़ूरहमाई ड्यूटी मिट्टी पूरने की है सो हम ने किया बताओ जो लिखा आडर में सो किया हरीराम को लगाना था पेड़ लाया नहीं सो का लगाते जिसकी ड्यूटी बोई तो लाता और लगाता बो नईं आया  उससे पूछिये सरकार ! 
         “कल्लू दादा स्मृति समारोह” के आयोजन स्थल पर काफ़ी गहमा गहमीं थी सरकारी तौर पर जनाभावनाओं का ख्याल रखते हुए इस आयोजन के सालाना की अनुमति की नस्ती से सरकारी-सहमति-सूचना” का प्रसव हो ही गया जनता के बीच उस आदेश के सहारे कर्ता-धर्ता फ़ूले नहीं समा रहे थे. समय से बडे़ दफ़्तर वाले साब ने मीटिंग लेकर छोटे-मंझौले साहबों के बीच कार्य-विभाजन कर दिया. कई विभाग जुट गए  कल्लू दादा स्मृति समारोह” के सफ़ल आयोजन के लिये कई तो इस वज़ह से अपने अपने चैम्बरों और आफ़िसों से कई दिनों तक गायब रहे कि उनको इस महत्वपूर्ण राजकाज” को सफ़ल करना है. जन प्रतिनिधियों,उनके लग्गू-भग्गूऒंआला सरकारी अफ़सरों उनके छोटे-मंझौले मातहतों का काफ़िला दो दिनी आयोजन को आकार देने धूल का गुबार उड़ाता आयोजन स्थल तक जा पहुंचा. पी आर ओ का कैमरा मैन खच-खच फ़ोटू हैं रहा था. बड़े अफ़सर आला हज़ूर के के अनुदेशों को काली रिफ़िलर-स्लिप्स पर ऐसे लिख रहे थे जैसे वेद-व्यास के  कथनों गनेश महाराज़ लिप्यांकित कर रहे हों. छोटे-मंझौले अपने बड़े अफ़सर से ज़्यादा आला हज़ूर को इंप्रेस करने की गुंजाइश तलाशते नज़र आ रहे थे. आल हज़ूर खुश तो मानो दुनियां ..खैर छोड़िये शाम होते ही कार्यक्रम के लिये तैयारियां जोरों पर थीं. मंच की व्यवस्था में  फ़तेहचंद्रजोजफ़और मनी जीप्रदर्शनी में चतुर सेन साब,बदाम सिंगआदिपार्किंग में पुलिस वाले साब लोगअथिति-ढुलाई में खां साबगिल साबजैसे अफ़सर तैनात थे. यानी आला-हज़ूर के दफ़्तर से जारी हर हुक़्म की तामीली के लिये खास तौर पर तैनात फ़ौज़. यहां ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इतने महान कर्म-निष्ठअधिकारियों की फ़ौज तैनात है कि इंद्र का तख्ता भी डोल जाएगा वाक़ई. इन महान सरकारीयों” की सरकारियत” को विनत प्रणाम करता हूं .
                                                             
               मुझे मंच के पास वाले साहब लोग काफ़ी प्रभावित कर रहे थे. इनके चेहरे पे वो भाव थे जैसे बैल गाड़ी के नीचे चलने वाला कालू कुत्ते के चेहरे पर किसी कहानी में सुने गए. हुआ यूं कि गाड़ीवान को रात भर में एक गांव से दूसरे गांव अनाज ले जाना था. गाड़ीवान ने अपने हीरा-मोती नामके बैलों को हिदायत दी –“रे रात भर में रामपुर का जंगल पार कराना समझे ”
      तीसरे प्रहर आंख लग गई थी गाड़ीवान की जब जागा तो भोर की सूचना देने वाला तारा निकल आया था. गाड़ी चल रही थी हीरा-मोती सम्हल सम्हल के चल रहे थे अपने मालिक नींद में दखल न हो इस गरज़ से धीरे-धीरे गाड़ी खैंच रहे हीरा-मोती को गाड़ीवान ने तेज़ चलने के लिये डपट के हिदायत दी.. मालिक की नींद खुली देख कालू झट गाड़ी पे उच्चक के आया बोला- मालिक ससुरे हीरा मोती रात भर सोये..
तो गाड़ी किसने खींची..
कालू-“हज़ूर.. हमने और कौन ने बताओ...? ”
                                               अब फ़तेहचन्द जी को लीजिये बार बार दाएं-बाएं निहारने के बाद आला हज़ूर के ऐन कान के पास आके कुछ बोले. आला हज़ूर ने सहमति से मुण्डी हिलाई फ़िर तेज़ी से टेण्ट वाले के पास गये .. उसे कुछ समझाया वाह साहब वाह गज़ब आदमी हैं आप और आला-हज़ूर के बीच अपनत्व भरी बातें वाह मान गए हज़ूर के मुसाहिब” हैं आप की क्वालिटी बेशक 99% खरा सोना भी शर्मा जाए.  आपने कहा क्या होगा बाक़ी अफ़सरान इस बात को समझने के गुंताड़े में हैं पर आप जानते हैं आपने कहा था आला-हज़ूर के ऐन कान के पास आकर सरदस कुर्सियां टीक रहेंगी. मैं कुर्सी की मज़बूती चैक कर लूंगा..आला-हज़ूर ने सहमति दे ही दी होगी. 
               जोज़फ़  भी दिव्य-ज्ञानी हैं. उनसे जिनका भी सरोकार  पड़ा वे खूब जानतें हैं कि "रक्षा-कवच" कैसे ओढ़ते हैं उनसे सीखिये मंच के इर्दगिर्द मंडराते मनी जी को भी कोई हल्की फ़ुल्की सख्शियत कदाचित न माना जावे. अपनी पर्सनालटी से कितनों को भ्रमित कर चुकें हैं . 
               आला-हज़ूर के मंच से दूर जाते ही इन तीनों की आवाज़ें गूंज रही थी ऐसा करो वैसा करोए भाई ए टेंट ए कनात सुनो भाई का लोग आ जाएंगे तब काम चालू करोगे ए दरी   भाई जल्दी कर ससुरे जमीन पे बिठाएगा का .. ए गद्दा ..
  जोजफ़ चीखा:-अर्रए साउंडइधर आओ जे का लगा दियामुन्नी-शीला बजाओगे..अरे देशभक्ति के लगाओ. और हां साउण्ड ज़रा धीमा.. हां थोड़ा और अरे ज़रा और फ़िर   मनी जी की ओर  मुड़ के बोला इतना भी सिखाना पड़ेगा ससुरों को “ 
 तीनों अफ़सर बारी-बारी चीखते चिल्लाते निर्देश देते  रहे टैंट मालिक रज्जू भी बिलकुल इत्मीनान से था सोच रहा था कि चलो आज़ आराम मिला गले को . टॆंट वाले मज़दूर अपने नाम करण को लेकर आश्चर्य चकित थे  जो दरी ला रहा वो दरी जो गद्दे बिछा रहा था वो गद्दा .. वाह क्या नाम मिले . 
        कुल मिला कर आला हज़ूर को इत्मीनान दिलाने में कामयाब ये लोग जैक आफ़ आल मास्टर आफ़ ननवाला व्यक्तित्व लिये  इधर से उधर डोलते  रहे इधर उधर जब भी किसी बड़े अफ़सर नेता को देखते सक्रीय हो जाते थोड़ा फ़ां-फ़ूं करके पीठ फ़िरते ही निंदा रस में डूब जाते . 
 फ़तेहचंद ने मनी जी से दार्शनिक भाव सहित पूछा :यार बताओ हमने किया क्या है..?
जवाब दिया जोजफ़ और मनी जी ने समवेत स्वरों में ;”राजकाज 
फ़तेहचंद – यानी  राज का काज हा हा 

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10.2.12

संस्थानों के दीमक : सरकारी कर्मचारी ज़रूर पढ़ें..

साभार: इंडिया रीयल टाइम
                                 हो सकता है कि किसी के दिल में चोट लगे शायद कोई नाराज़ भी हो जाए इसे पढ़कर ये भी सम्भव है कि एकाध समझेगा मेरी बात को.वैसे मुझे मालूम है अधिसंख्यक लोग मुझसे असमत हैं रहें आएं मुझे अब इस बात की परवाह कदाचित नहीं है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का सही वक्त पर सटीक स्तेमाल  कर रहा हूं. 
                      मुझे अच्छी तरह याद है बड़े उत्साह और उमंग से एक महकमें या संस्थान में तैनात हुआ युवा जब ऊलज़लूल वातावरण देखता है तो सन्न रह जाता है सहकर्मियों के कांईंयापन को देख कर . इसमें उस नेतृत्व करने वाले का भी उल्लेख करूंगा जो चापलूसी और चमचागिरी करने वालों से घिरा रहने वाला "बास" भी शामिल होता है. मुझे मालूम है कि नया नया कर्मी बेशक एक साफ़ पन्ने की तरह होता है जब वो संगठन में आता है लेकिन मौज़ूदा हालात उसे व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बना देते हैं. 
एक स्थिति जो अक्सर देखी जा सकती है नव प्रवेशी पर कुछ सहकर्मी अनाधिकृत रूप उस पर डोरे डालते हैं अपनापा की नकली शहद चटाते हुए उसे अपनी गिरफ़्त में लेने की कोशिश भी करते हैं. वहीं "बास-द्रोही" तत्व उसे अपने घेरे में शामिल करने की भरसक कोशिश में लगा होता है. मै ऐसे लोगों को संस्थान/आफ़िस/संगठन दीमक कहना पसंद करूंगा.. जो ऐसा कर सबसे पहले "संगठन" के विरुद्ध कार्यावरोध पैदा करते हैं. 
            कुछ तत्वों का और परिचय देता हूं जो निरे "पप्पू" नज़र आएंगे पर भीतर से वे शातिर होते हैं अक्सर ऐसे तत्व केवल अपने आप के बारे में ही चिंतन करते रहते हैं. पर कहते हैं न पास तो केवल पप्पू ही होता है.. पास होते रहते हैं. वे किसी के हरे में शामिल होते और न ही सूखे में. पर शातिर तो इतने कि अपने स्वार्थ के पीछे किस षड़यंत्र में शामिल हो जाएं आप जान भी न पाओगे. 
           संगठन में कार्यरत कर्मियों में कुछ ऐसे होते हैं जो बेचारे बड़ी तन्मयता से काम करते रहते हैं वे ही सदा  अत्यधिक दायित्वों  से लादे गये होते हैं. इनका प्रतिशत कमोबेश पांच-दस से ज़्यादा कभी नहीं होता. पर नब्बे फ़ीसदी मक्कारों का बोझा इन जैसों ने ही उठाया है. सच मानिये  अगर संगठनात्मक दायित्व निर्वहन पर शोध हो तो  आप इसकी पुष्टि करता हुआ रिज़ल्ट ही पाएंगे. 
           सहकर्मियों  की एक महत्वपूर्ण नस्ल को  अनदेखा करना बेहद नुकसान देह होगा जो बड़ी ही सादगी से आपकी किसी भी बात को "चुगली के रूप में कहीं भी पेश कर सकतें हैं  लोगों को यहां खुले तौर पर गाली देने से उम्दा परिभाषित करना उचित समझता हूं.ये जीव मैं उन नरों-मादाओं की औलाद होते हैं  जो एक सहवास के समय अपने अपने  अलग अलग विपरीत लिंगी आईकान्स के खयालों में खोये होते हैं और दैहिक परिस्थिवश ऐसा भ्रूण कंसीव हो जाता है जो आगे चलकर चुगलखोर-व्यक्तित्व के रूप में निखार पाता है. 
            आप सोच रहें होंगे बड़ा दिलाज़ला आदमी हूँ जो गालियां भी बड़े ही धूर्त चुगलखोरों के जनकों  को दे रहा है.. हकीकत में ऐसा करना इस वज़ह से भी ज़रूरी है ताकि आइना देख लें वे  जो  मक्कारियों  से बाज़ नहीं आते . की उनके बारे में लेखकों के विचार क्या हैं. 
     अब लोगों में एक विचार तेज़ी से पनपता दिखाई देता है जो उत्पादन संस्थानों /संगठनों के लिए घातक है वो प्रांतीय जातीय,क्षेत्रीय एवं अब शैक्षणिक तथा काडर गत समीकरण . प्रांतीय,जातीय,क्षेत्रीय समीकरण तो सामाजिक एवं  राजनैतिक कारणों से उपजाते हैं किन्तु शैक्षणिक एवं काडर के बिन्दु नए दौर का संकट है. आप  इसे समझने के,लिए किसी आफिस में जाएं तो  आप सहज ही समझ जाएगें. मेरे एक मित्र (?) ने सरे आम एक मीटिंग में बयान जारी कर दिया की वो सर्वाधिक शिक्षित है किन्तु संगठन में उसे वांछित स्थान नहीं मिला . अपने कार्य-दायित्व  और स्वयं घोषित प्रतिभा के बीच गहन अंतर के   नैराश्य भरे लोग समाज को क्या दे रहे हैं उत्तर होगा केवल "नैगेटीविटी"

क्रमश: अगले अंक तक ज़ारी " जो लोग बास है वे तैयार रहें "

8.2.12

व्यवस्था की सरिता के तटों की गंदगी साफ़ करते रहिये


                                    " मैं जानता हूं कि मैं तुम्हैं श्रद्धांजलि न दे पाऊंगा तुम जो मेरे अंत की प्रतीक्षा में बैठे लगातार घात पे घात किये  जा रहे हो.. मैं पलटवारी नहीं फ़िर भी तुम्हारा भी अंत तय है.. सच मैं तुम्हारी देह-निवृति के पूर्व हृदय से तुम्हारी आत्मा की शांति के लिये परमपिता परमेश्वर से आराधना रत हूं...!!"
                       अक्षत ने अपनी प्रताड़ना से क्षुब्ध होकर ये वाक्य बुदबुआए कि उसकी सहचरी समझ गई कि आज फ़िर अक्षत का हृदय किसी बदतमीज़ी का शिकार हुआ है. सहचरी ने अपनी मोहक अभिव्यक्ति से बिना किसी सवाल के अमृतलाल वेगड़ की सद्य प्रकाशित किताब "तीरे-तीरे नर्मदा" उसके पास रख दी जिसके अंतिम पृष्ठ पर अंकित था ये वाक्य-"अगर सौ या दो सौ साल बाद कोई एक दंपती नर्मदा परिक्रमा करता दिखाई दे पति के हाथ में झाड़ू हो और पत्नि के हाथ में टोकरी और खुरपी; पति घाटों की सफ़ाई करता हो और पत्नी कचरे को ले जाकर दूर फ़ैंकती हो और दौनों वृक्षारोपण भी करते हों,तो समझ लीजिये कि वे हमीं हैं-कान्ता और मैं "
आप ऐसी न बनें 
                         परकम्मा वासी लेखक कला साधक बेगड़ जी की नई किताब हाथ आते ही अक्षत ने पठन आरंभ कर दिया. रोज की तरह आज़ सहचरी वीणा ने नहीं पूछा-"चाय पियोगे क्या..? और बिना सवाल किये चाय टोस्ट भुने हुए नमकीन मखाने सामने रख दिये"  
            मौसम ने बेईमानी से फ़िर जाड़ा सामने ला दिया.मौसम को कोसने से बेहतर था कि फ़ुल स्वेटर डाल ली जाए शाम की तीर सी ठंडी हवा से निज़ात तो मिलेगी. वीणा जान चुकी थी कि मक्कार अफ़सर ने आज़ फ़िर किसी मसले पर   अक्षत को आहत किया होगा. तनाव से मुक्ति के उपाय उसे मालूम थे जो खुद उसने ईज़ाद किये थे वो चाहती थी कि अक्षत "क्षत" न हो.
        अक्षत की तरह हज़ारों-हज़ार लोग होंगे जो दिन रात अपने इर्द-गिर्द बजबजाती मक्कारियों की सड़ांध से तनाव से भर जाते होंगे कितनों की शामें बरबाद होती हैं . आप अगर बास हैं तो आफ़िस में वातावरण को हल्का बनाएं. बास के रूप में आफ़िस में कामकाज की सरस धारा के बहाव में अवरोध न बनें.. शंकालु और ईर्षालू न बने .. आपको याद होगी वो कहानी जिसमें एक मातहत अपने खूसट बास की तस्वीर पर दफ़्तर से बाहर निकल कर जूते मारता था.. और भड़ास  इसी तरह से निकालता था. 
      पिछले दिनों एक संस्था की कांफ़ैंस में एक मातहत ने यह कह कर शीर्षस्थों को भौंचक कर दिया-"सर, बेहतर होगा कि हम जैसे हैं वैसे ही रहें हमारी अब आस्था ही उठ चुकी है..!" 
        एक संगठन के लिये सबसे दुर्भाग्य की बात इससे बड़ी और क्या होगी कि उसका एक हिस्सा इतना क्षुब्ध हो जाए कि  उसकी आस्था ही खत्म हो जाए ....यह तथ्य किसी अराजक व्यवस्था के खिलाफ़ एक आवाज़ है. उस साहसी कर्मी को  "सर झुका कर सलाम" करना लाज़िमी होगा  पर उनके लिये जो व्यवस्था को अराजकता देते हैं जो शायद इनमें.. उनमें.. तुममें... मुझमें... उगा है या ऊग रहा है को लानत भेजिये.. यानी बेगड़ दम्पती की तरह व्यवस्था की सरिता के तटों की गंदगी साफ़ कीजिये .. यह काम बरसों बरस जारी रखना है...  

ख़बर नवीसों की नज़र में खबर है..?

साभार: इस ब्लाग से
                  फ़रवरी का महीना आते ही बादलों ने आकाश छोड़ दिया और एकाध दिन के बाद पत्तों ने बिना किसी पूर्व नोटिस के पेड़ों का साथ छोड़ दिया. कुल मिला कर बसंत ने दस्तख दे दी अचानक आए मौसमी बदलाव पे किसी अखबार ने कहा-"उफ़ निरंकुश पारा बिना बताए अचानक ऊपर उठ गया "
पढ़ने वालों को लगा होगा कि बदतमीज़ पारे को इतनी भी तमीज़ नहीं कि   ससुरा पारा उस  अखबार के मेज-वासी खबर नसीब  की नज़र में कोई गुस्ताखी कर चुका हो.
                एक दौर था कि कोई अच्छी बात खबर बनती थी. और अब जब तक तीन-चार साल का बच्चा आपके बाजू में बैठा पोर्न का अर्थ न पूछने लगे  तब तक हज़ूर खबरिया चैनल चिल्ला चिल्ला के बताते रहेंगे-"कर्नाटक का मंत्री पोर्न क्लिप देखते पाया गया.."
बात पंद्रह बरस पुरानी है  कुत्ता एक आदमी को काट चुका था दूसरे की ओर भागा तभी एक आम आदमी ने कुत्ते के मालिक को चिल्लाकर खबर दी -"ज़नाब,अपने कुत्ते को सम्हालिये वरना...."
मालिक ने झट पुकारा-’भोलू, वापस आ ..’
भोलू तो धर्मराज के ज़माने का वफ़ादार था वापस आया दुम हिलाई.. मालिक ने हर आदमी से माफ़ी मांगी जिसे भोलू ने काटा था उसका तो इलाज़ भी कराया.. बात सहजता से निपट गई.. मालिक को कुत्ते की परवरिश का तौर तरीक़ा समझ में आ गया.
       पंद्रह बरस बाद एक पावर-फ़ुल मालिक के कुत्ते के काटने से कई बच्चे घायल हुए खबर न थी उस डेस्क-ब्रांड खबरची के लिये मैने कहा -"भईये.. ऐसी खबर तुमको छापना तो चईये.."
  "ये तो रोजिन्ना की बात है मुकुल बाबू कुत्ते की प्रकृति ही काटना है आपके मुहल्ले में किसी इंसान ने किसी कुत्ते को काटा हो तो बताओ छाप देता हूं..!!"
              अज़ीबोगरीब मापदण्ड हो गये हैं.. खबरवालों के लिये कल ही की तो बात है... नर्मदा जयंति मनाने वालों में वे शुमार न थे जो बारहों महीने बिना कैमरामैन के बग़ैर ग्वारीघाट के तटों को जितना हो सकता है साफ़ करतें हैं. वे भाषण नहीं देते वे गीत एलबम भी नहीं बनाते.. हां सच है वे किसी फ़ोटोअग्राफ़र से फ़ोटो भी नहीं खिंचवाते वे तो सुबह से शाम तक रोटी का इंतज़ाम करते हैं शाम होते होते "माई के घाट" पर हमारे-आपके द्वारा फ़ैलाई गंदगी को साफ़ कर आते हैं..
    बूढ़े किसन से हमने पूछा -"दादा, दूसरों का कचरा आप इस उम्र में काहे उठाते हो..?"
       किसन ने कहा था-"कचरा दूसरे का हो तो हो माई तो अपनी है न.. बाबू...?"
  अक्सर विज़न के अभाव में ऐसी कोशिशें नेपथ्य में चली जाती हैं..
                लोग आज़ सकारात्मकता देख भी नहीं पाते
      

7.2.12

ग़ज़ल:ज़िंदगी


From भारत-ब्रिगेड
कभी स्याह रात कभी माहताब ज़िंदगी
इक अर्से से मुसलसल बारात -ज़िंदगी
तेरी बज़्म , तू बेखबर मैं बेख़बर....
इक ऐसी ही सुहाग-ए-रात "ज़िंदगी"
बाद अर्से के मिला यार मेरा-
तब उफ़नके रुके ज़ज़्बात ज़िंदगी..
बाद मरने के कहोगे मेरे...
धुंये के बुत से थी मुलाक़ात ज़िंदगी..
न पूछ इस उससे कैसे जियें इसको ..
बहुत हसीन है जी ले चुपचाप-ज़िंदगी !!

Wow.....New

विश्व का सबसे खतरनाक बुजुर्ग : जॉर्ज सोरोस

                जॉर्ज सोरोस (जॉर्ज सोरस पर आरोप है कि वह भारत में धार्मिक वैमनस्यता फैलाने में सबसे आगे है इसके लिए उसने कुछ फंड...