सर, और सर के चम्मच जो सर के खाने के सहायक उपकरण होते हैं को मेरा हार्दिक सलाम मैं….. आपका दास जो आपको नहीं डालता घास,इसलिएक्योंकि आप कोई गधे थोड़े हैं॥ आप आप हैं मैं आपका दास इतना दु:साहस कैसेकरूँ हज़ूर । आप और आपका ब्रह्म आप जानिए मेरा तो एक ही सीधा सीधा एक हीकाम है.आपकी पोल खोलना . आपकीमक्कारियों की पाठशाला में आपको ये सिखाया होगा कि किस तरह लोगों को मूर्खबनाया जाता है..किन्तु मेरी पाठशाला में आप जैसों को दिगंबर करने का पाठबडे सलीके से पढाया गया मैंनें भी उस पाठ को तमीज से ही पढा है.तरकशका तीर कलम का शब्द सटीक हों तो सीने में ही उतरते हैं सीधे ॥ तो सर आपअपने स्पून सम्हाल के रखिये शायद ये आपके बुरे वक़्त में काम आ जाएँ ।परंतु ऐसा कतई नहीं . होगा सर आप अपने सर से मुगालता उतार दीजिए । कि कोईचम्मच खाने के अलावा कभी और उपयोग में लाया जा सकता है॥
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एक ऑफिस में बॉस नाम की चीज़ भेजी जाती है…..लोग समझते हैं कि बॉस ऑफिस चलाताहै। यहाँ आपको बता दूं - ऑफिस तो चपरासी जिसका नाम राजू आदि हों सकता है… वोही तो ऑफिस खोलता सुबह समय पर तिरंगा चढाता है। शाम उसे निकालता है … आवेदन लेता है साहब को बाबू के हस्ते आवेदन देता है । आवेदक को काम केरस्ते बताता है…! बेकार फ़ाइल जिससे कुछ उपजने की उम्मीद ना हों ऎसीनामुराद नास्तियों को बस्ते में सुलाता है।अब भैया ! आप हीबताओ न ! ऑफिस कौन चलाता है….?
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आप को इस बात को समझाता हूँ -”सरकार में लोग बाग़ काम करतें हैं काम होना तो कोई महत्वपूर्ण बात है हीनहीं महत्त्व तो काम नहीं हों तब दीखता है “अबदेखिए न….. दफ्तर में बाबूलाल की अर्जी के खो जाने का ठीकरा मैने जांच केबाद राजू भृत्य के सर फोड़ दिया बाबूलाल भी खुश हम भी खुश ।जिम्मेदारीतय करने जब लोग निकले हजूर पाया गया छोटी नस्ल के कर्मचारी दोषी हैं ।भैया दोषी वोही होता है जो सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार हों जैसे मेरा चपरासीराजू …!भैया ! देखा सबसे छोटा सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है ” देश में “बाकी आप खुद समझ दार हैं ……आगे क्या लिखूं …. आप समझ गए न ।
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तो भाई इस लम्बी कहानी में मैं हूँ,आपहैं हम सभी तो हैं… चालू रहेगा ये उपन्यास जो राग दरबारी वाले आई.ए.एस.कीतर्ज़ पर तो नही पर उनसे प्रभावित ज़रूर होगा अगर ये आपकी आत्म कथा है तोआन लाईन कमेन्ट दे देना शायद मेरे काम आ जायेगी
आपकी बात……ऊपर जो लिखा सो लिखा उसे भूल जाना वो तो यूँ ही लिख दियाकहानी शुरू होती हैअब सो सुन भाई साधौ ….टूटे फूटे घर में रहने वाला राजूचपरासी घर से परेशान होता तो भगवान् से अपने घर को सर्किट हाउस साबनाने की नामुरादअपील करता !
अपील तो सब करतें हैं सबकी अपील अलाऊ हो ये कैसे संभव है .सर्किट हाउस जब अच्छे-अच्छों को को लुभा सकता है तो वो राजू को क्यों नहीं लुभासकता . आपको याद होगा अब्राहम लिंकन को सफ़ेद-घर पसंद आया वो अमेरिका केसदर बने थे न.? यदि वे सपना देख सकते हैं तो अपने राजू ने देखा तो क्याबुरा किया।
आजकल मेरे शहर के कई लोग मुझसे पूछ रहें हैं “भाई, क्या नया कुछ लिखा “जींख़ूब लिख रहा हूँ …!क्या ..गद्य या गीत …?अपुन को उपर से नीचे सरकारी अफसर हुआ देख उनके हरी लालकाली सारी मिर्चियां लग गईँ … कल्लू भैया हमसे पूछ बैठे:-” क्या चल रहा है ?”
हमारे मुँह से निकल पड़ा जो दिल में था , हमने कहा-”भाई,आजकल हमारी बास से खट पट चल रही है…वो शो- काज लिख रहे हैं और अपन उसका ज़बाव !”
ये तो आप राज काज की बात कर रहे हो… मैं तोआपकी साहित्य-साधना के बारे मैं पूछ रहा .?
मैंनें कहा - “भाई,साहित्य औरजीवन के अंतर्संबंधों को पहचानों “लोग बाग़ मेरी बात में कुंठा को भांपतेकन्नी काटते । हमने भी लोगों के मन की परखनली में स्प्रिट लैंप की मदद सेउबलते रसायन को परखा , अब जो हमको साहित्य के नाम पे चाटता तो अपन झट रागसरकारी गाने लगते , जो सरकारी बात करता उसको हम साहित्यिक-वार्ता में घसीट लेते.
कोई अपने दर्द के अटैची लेकर आता मेरे पास तो मैं अपनी मैली-कुचैली पोटली खोलने की कोशिश करता !इससे - वो लोग मेरे पास से निकल जाते कुछतो समझने लगे जैसे मैं बदबू दार हूँ…!”और अपन बेमतलब के तनाव से दूर..!!
हजूर ! रजनीश और गिरीश दौनों ही एक ही शहर के पर्यावरण से सम्बंधित हैं…अब देखिए ! सामर्थ्यकी चाबी को लेकर ओशो दिमागी तौर पर लगभग बेहद उत्साहित हो जाते थे । अपने राम भी ऐसे लोगों को जो "सामर्थ्यकी चाबी " लेकर पैदा हुए मामू बना देते हैं , जेइच्च धंधा है अपुन का….!
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ओशो से अपना गहरा नाता रहा है वो वक्ता थे अपन भी वक्ता है डेरों प्रमाण हैं इसके खूब शील्डैं जीतीं थीं हमने उषा त्रिपाठी के संग डी एन जैन कालेज के लिए भैया धूम थी अपनी उनदिनों ओशो के लगभग 25 साल बाद .जब हम अपने वज़न से भारी रजत वैजयंती लेकर आए ....प्राचार्य .प्रोफेसर .विनोद अधौलिया जी रो पड़े थे पिता स्व.भगवत शरण जी को याद करके .जी उस दौर में मेरी तरक्की सदाचार के लिए मेरेगुरुदेवों ने आशीर्वाद दिए थे. माँ-बाबूजी भी मुझे लेकर चिंतनरत होते .
सब कुछ बड़ों के आशीर्वाद से ही घटा है जीवन में . अफसरी मिली भले छोटी नस्ल के बड़ी भी मिलतीतो क्या वही सब कुछ करता जो आज कर रहा हूँ.
मुक्तिबोध की ब्रह्मराक्षस का शिष्य, कथा को आज के सन्दर्भों में समझाने की कोशिश करना ज़रूरी सा होगया है । मुक्तिबोध ने अपनी कहानी में साफ़ तौर पर लिखा था की यदि कोई ज्ञान को पाने के बाद उस ज्ञान का संचयन,विस्तारण,और सद-शिष्य को नहीं सौंपता उसे मुक्ति का अधिकार नहीं मिलता । मुक्ति का अधिकारक्या है ज्ञान से इसका क्या सम्बन्ध है,मुक्ति का भय क्या ज्ञान के विकास और प्रवाह के लिए ज़रूरीहै । जी , सत्य है यदि ज्ञान को प्रवाहित न किया जाए , तो कालचिंतन के लिए और कोई आधार ही न होगा कोई काल विमर्श भी क्यों करेगा। रहा सवाल मुक्ति का तो इसे "जन्म-मृत्यु" के बीच के समय की अवधि से हट के देखें तो प्रेत वो होता है जिसने अपने जीवन के पीछे कई सवाल छोड़ दिये और वे सवाल उस व्यक्ति के नाम का पीछा कर रहेंहो । मुक्तिबोध ने यहाँ संकेत दिया कि भूत-प्रेत को मानें न मानें इस बात को ज़रूर मानें कि "आपके बाद भी आपके पीछे " ऐसे सवाल न दौडें जो आपको निर्मुक्त न होने दें !जबलपुर की माटी में केशव पाठक,और भवानी प्रसाद मिश्र में मिश्र जी को अंतर्जाल पर डालने वालों की कमीं नहीं है किंतु केशवपाठक को उल्लेखित किया गया हो मुझे सर्च में वे नहीं मिले । अंतरजाल पे ब्लॉगर्स चाहें तो थोडा वक्त निकाल कर अपने क्षेत्र के इन नामों को उनके कार्य के साथ डाल सकतें है । मैं ने तो कमोबेश ये कराने की कोशिश की है । छायावादी कविता के ध्वजवाहकों में अप्रेल २००६ को जबलपुर के ज्योतिषाचार्य लक्ष्मीप्रसाद पाठक के घर जन्में केशव पाठक ने एम ए [हिन्दी] तक की शिक्षा ग्रहण की किंतु अद्यावासायी वृत्ति ने उर्दू,फारसी,अंग्रेजी,के ज्ञाता हुए केशव पाठक सुभद्रा जी के मानस-भाई थे । केशव पाठक का उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद..">उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद..[०१] करना उनकी एक मात्र उपलब्धि नहीं थी कि उनको सिर्फ़ इस कारण याद किया जाए । उनको याद करने का एक कारण ये भी है-"केशव विश्व साहित्य और खासकर कविता के विशेष पाठक थे " विश्व के समकालीन कवियों की रचनाओं को पड़ना याद रखना,और फ़िर अपनी रचनाओं को उस सन्दर्भ में गोष्टीयों में पड़ना वो भी उस संदर्भों के साथ जो उनकी कविता की भाव भूमि के इर्द गिर्द की होतीं थीं ।समूचा जबलपुर साहित्य जगत केशव पाठक जी को याद तो करता है किंतु केशव की रचना धर्मिता पर कोई चर्चा गोष्ठी ..........नहीं होती गोया "ब्रह्मराक्षस के शिष्य " कथा का सामूहिक पठन करना ज़रूरी है। यूँ तो संस्कारधानी में साहित्यिक घटनाओं का घटना ख़त्म सा हो गया है । यदि होता भी है तो उसे मैं क्या नाम दूँ सोच नहीं पा रहा हूँ । इस बात को विराम देना ज़रूरी है क्योंकि आप चाह रहे होंगे [शायद..?] केशव जी की कविताई से परिचित होना सो कल रविवार के हिसाबं से इस पोस्ट को उनकी कविता और रुबाइयों के अनुवाद से सजा देता हूँ
सहज स्वर-संगम,ह्रदय के बोल मानो घुल रहे हैं
शब्द, जिनके अर्थ पहली बार जैसे खुल रहे हैं .
दूर रहकर पास का यह जोड़ता है कौन नाता
कौन गाता ? कौन गाता ?
दूर,हाँ,उस पार तम के गा रहा है गीत कोई ,
चेतना,सोई जगाना चाहता है मीत कोई ,
उतर कर अवरोह में विद्रोह सा उर में मचाता !
कौन गाता ? कौन गाता ?
है वही चिर सत्य जिसकी छांह सपनों में समाए
गीत की परिणिति वही,आरोह पर अवरोह आए
राम स्वयं घट घट इसी से ,मैं तुझे युग-युग चलाता ,
कौन गाता ? कौन गाता ?
जानता हूँ तू बढा था ,ज्वार का उदगार छूने
रह गया जीवन कहीं रीता,निमिष कुछ रहे सूने.
भर न क्यों पद-चाप की पद्ध्वनि उन्हें मुखरित बनाता
कौन गाता ? कौन गाता ?
हे चिरंतन,ठहर कुछ क्षण,शिथिल कर ये मर्म-बंधन ,
देख लूँ भर-भर नयन,जन,वन,सुमन,उडु मन किरन,घन,
जानता अभिसार का चिर मिलन-पथ,मुझको बुलाता .
कौन गाता ? कौन गाता ?
काफ़ी हाउस में मित्रों के बीच हुई चर्चा के संपादित अंश आपसे शेयर करना चाहता हूँ
" धर्मदेव", और राहुल राज , के मामलों के बीच झूलता है एक सवाल की क्या मेरा देश भी कबीलियाई संरचना की , ओर जाने तैयार है..........? यदि हाँ तो इसकी सीधी जिम्मेदारी किसकी है । कल ही मित्र मंडली के साथ हुई चर्चा में
में साफ़ हुआ की हरेक उस विषय को सियासत से दूर दूर रखना अब ज़रूरी हो गया है जो पूर्णत: सामाजिक हों ....!
यानी सियासत ओर सियासियों को सामाजिक बिन्दुओं से दूर ही रखना ज़रूरी है ताकि कोई भी लालसा सामाजिक-संरचना को असामाजिक स्वरुप न दे सके । इस के लिए ज़रूरी है यानी ऐसे इन जैसे ,लोगो को जो अदूरदर्शी हैं को सामाजिक सरोकारों से परे रखना ही होगा। समाज विज्ञानी विश्व विराट के उत्कर्ष की सोच लेकर अपना अध्ययन सार साहित्य को देता है जबकि राजनीतिक पृष्ठ पर ऐसा कदापि नहीं है । सभी खजानो को लूटने इन हथकंडों की आज़माइश पे लगातार आमादा होते हैं । ओशो की सोच ,इस समय समयानुकूल ही है:-" लोग भय में जी रहे हैं, नफरत में जी रहे हैं, आनंद में नहीं। अगर हम मनुष्य के मन का तहखाना साफ कर सकें... और उसे किया जा सकता है। ध्यान रहे, आतंकवाद बमों में नहीं हैं, किसी के हाथों में नहीं है, वह तुम्हारे अवचेतन में है। यदि इसका उपाय नहीं किया गया तो हालात बदतर से बदतर होते जाएँगे। और लगता है कि सब तरह के अंधे लोगों के हाथों में बम हैं। और वे अंधाधुंध फेंक रहे हैं। हवाई जहाजों में, बसों और कारों में, अजनबियों के बीच... अचानक कोई आकर तुम पर बंदूक दाग देगा। और तुमने उसका कुछ बिगाड़ा नहीं था।" गंभीरता से देखिए सत्य के दर्शन सहज ही हो जाएंगे आतंक किसी भी रूप में हो देश के लिए ही नहीं समूची मानवता के लिए "शोक का कारण है"
मानवता का विकास करने के लिए किसी पंथ,जाति,भाषा,धर्म,क्षेत्र,वर्ग की ही प्रगति चाहने वाला कतई उपयोगी नहीं है। उसे उसके अधिकारों से वंचित कर देने में कोई बुराई भी नहीं है।
जिस देश में ऐसे तत्व सर्वोच्च संरक्षण दाता मानें जाते हों जो समूह ओर स्थान विशेष के हिता चिन्तक हों वो देश कभी सच्चे विकास को पा न सकेगा ये तय शुदा है।
मित्र चर्चा में एक बात और खुलकर सामने आयी जिसमें मित्र ये कहते पाए गए कि :"प्रजातंत्र के स्वरुप पर पुनर्विचार हो " इस सम्बन्ध में आगे कुछ कहना ठीक नहीं कहते हुए एक मित्र ने कहा -'भई, हमने कहा न अधिकारों से वंचित कर दिया जावे , ?
एक दीर्घ मौन को तोड़ने काफी हाउस का बैरा बिल लेकर आ गया भुगतान के साथ चर्चा पर विराम लगना तय था सो लग भी गया...!
"खज़ाना" में सुबह छापे इस आलेख को यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ
दीपावलीकीधूमधामभरीतैयारीयोंमेंइसबारश्रीमतीगुप्तानेडेरोंपकवानबनाएसोचामोहल्लेमेंगज़बइम्प्रेशनडालदेंगीअबकेबरसबातहीबातमेंगुप्ताजीकोऐसापटायाकीयंत्रवतश्रीगुप्तानेहरवोसुविधामुहैय्याकराईजोएकवैभवशालीदंपत्तिकोकोआत्मप्रदर्शनकेलिएज़रूरीथा। इस "माडल" जैसीदिखनेकेलिएश्रीमतीगुप्तानेसाड़ी ख़रीदीगुप्ताजीकोकोईतकलीफनहुई । घरकोसजायासवारागया , बच्चोंकेलिएनएकपडेयानीदीपावलीकीरातपूरीसोसायटीमेंगुप्तापरिवारकीरातहोनीतयथी । चमकेंगीतोगुप्तामैडम,घरसजेगातोहमारीगुप्ताजीकासलोनेलगेंगेतोगुप्ताजीकेबच्चे , यानीयेदीवालीकेवलगुप्ताजीकीहोगीयेतयथा । समयघड़ीकेकाँटोंपेसवारदिवालीकीराततकपहुंचा , सभीनेतयशुदामुहूर्तपेपूजापाठकी । उधरसारेघरोंमेंगुप्ताजीकेबच्चेप्रसाद [ आत्मप्रदर्शन] पैकेटबांटनेनिकलपड़े । जहाँभीवेगएसबजगहवाहवाहकेसुरसुनकरबच्चेअभिभूतथेकिंतुभोलेबच्चेइनपरिवारोंकेअंतर्मनमेंधधकतीज्वालाकोनदेखसके । ईर्ष्यावशसुनीतिनेसोचाबहुतउड़रहीहैप्रोतिमागुप्ता ....... क्योंनमैंउसकेभेजेप्रसाद-बॉक्सदूसरेबॉक्समेंपैककरउसेवापसभेजदूँ .......... यहीसोचाबाकीमहिलाओंनेऔरनईपैकिंगमेंपकवानवापसरवानाकरदिएश्रीमतीगुप्ताकेघरयेकोईसंगठितकोशिशयानीकिसीव्हिपकेतहतनहोकरएकआंतरिकप्रतिक्रयाथी । जोसार्व-भौमिकसीहोतीहै। आज़कल आम है ............. कोई माने या न माने सच यही है जितनी नैगेटीविटी /कुंठा इस युग में है उतनी किसी युग में न तो थी और न ही होगी । इस युग का यही सत्य है। {इसयुगमेंक्रान्तिकेनामपरप्रतिक्रयावादकोक्रान्तिमानाजारहाहैजोहरऔरहिंसाकोजन्मदेरहाहै } दूसरे दिन श्रीमती गुप्ता ने जब डब्बे खोले तो उनके आँसू निकल पड़े जी में आया कि सभी से जाकर झगड़ आऐं किंतु पति से कहने लगीं :-"अजी सुनो चलो ग्वारीघाट गरीबों के साथ दिवाली मना आऐं