7.2.12

ग़ज़ल:ज़िंदगी


From भारत-ब्रिगेड
कभी स्याह रात कभी माहताब ज़िंदगी
इक अर्से से मुसलसल बारात -ज़िंदगी
तेरी बज़्म , तू बेखबर मैं बेख़बर....
इक ऐसी ही सुहाग-ए-रात "ज़िंदगी"
बाद अर्से के मिला यार मेरा-
तब उफ़नके रुके ज़ज़्बात ज़िंदगी..
बाद मरने के कहोगे मेरे...
धुंये के बुत से थी मुलाक़ात ज़िंदगी..
न पूछ इस उससे कैसे जियें इसको ..
बहुत हसीन है जी ले चुपचाप-ज़िंदगी !!

2 टिप्‍पणियां:

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

मस्त गजल है दादा
इसे सुर में भी ढालिए
हमारा कहा ना मानो
दादी का कहना मानिए

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

गुनगुनाने लगा मैं इसे पढ़कर.

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