जबलपुर का गरबा फोटो अरविंद यादव जबलपुर |
जबलपुर का गरबा फोटो अरविंद यादव जबलपुर |
गुजरात के व्यापारियों एवं
प्रवासियों ने सम्पूर्ण भारत ही नहीं
बल्कि विश्व को अपनी संस्कृति से परिचित
कराया इतना ही नहीं उसे सर्व प्रिय भी बना दिया.
गरबा गुजरात से निकल कर भारत के सुदूर
प्रान्तों तथा विश्व के उन देशों तक जा पहुंचा है जहाँ भी गुजराती परिवार जा बसे
हैं , एक महिला मित्र
प्रीती गुजरात सूरत से हैं उनको मैंने कभी न तो देखा किंतु मेरे कला रुझान को परख
कर पहले आरकुट फिर फेसबुक पर मित्र बन
गयीं हैं ,जो मुझसे अक्सर गुजरात के सूरत, गांधीनगर, भरूच, आदि के बारे में अच्छी जानकारियाँ देतीं है . मेरे आज विशेष आग्रह
पर मुझे सूरत में आज हुए गरबे का फोटो सहजता से भेज दिए .
लेखिका गायत्री शर्मा बतातीं हैं कि "गरबों की शान पारंपरिक पोशाकों से चार-गुनी हो जाती है. इनमें महिलाओं के लिए चणिया-चोली
और पुरुषों के लिए केडि़या" गरबा
आयोजनों में देखी जा सकती है।
आवारा बंजारा ब्लॉग पर
प्रकाशित पोस्ट गरबा का
जलवा में लेखक ने स्पष्ट किया है :-" गुजरात
नौवीं शताब्दी में चार भागों में बंटा हुआ था, सौराष्ट्र,
कच्छ, आनर्ता (उत्तरी गुजरात) और लाट (
दक्षिणी गुजरात)। इन सभी हिस्सों के अलग अलग लोकनृत्य लोक नृत्यों गरबा, लास्या, रासलीला, डाँडिया रास, दीपक
नृत्य, पणिहारी, टिप्पनी और झकोलिया की
मौजूदगी गुजरात के सांस्कृतिक वैभव को मज़बूती प्रदान करती है ।
अब सवाल यह उठता है कि करीब करीब मिलती
जुलती शैली के बावजूद सिर्फ़ गरबा या
डांडिया की ही नेशनल या इंटरनेशनल छवि क्यों बनी। शायद इसके पीछे इसका – गरबे के
आकर्षक परिधान एवं नवरात्री पूजा-पर्व है।"
एक दूसरा सच यह भी है कि- व्यवसायिता का तत्व गरबा को
प्रसिद्द कर रहा है. फिल्मों में गरबे को , एवं चणिया-चोली केडि़या के आकर्षक उत्सवी
परिधान की मार्केटिंग रणनीति ने गरबे को वैश्विक
बना दिया है. "
दूसरी ओर अंधाधुंध व्यवसायिकता से नाराज
ब्लॉग लेखक संजीत भाई की पोस्ट में गरबे
की व्यावसायिकता से दूर रखने की वकालत की गई है. ,इस पर भाई संजय पटेल की
टिप्पणी उल्लेखनीय है कि "संजीत भाई;गरबा अपनी गरिमा और लोक-संवेदना खो चुका है । मैने तक़रीबन बीस बरस तक
मेरे शहर के दो प्रीमियम आयोजनो में बतौर एंकर शिरक़त की . अब दिल खट्टा हो गया
है. सारा तामझाम कमर्शियल दायरों में है. पैसे का बोलबाला है इस पूरे खेल में और
धंधे साधे जा रहे हैं.''
संजय जी की टिप्पणी एक हद तक सही किंतु
मैं थोडा सा अलग सोच रहा हूँ कि
व्यवसायिकता में बुराई क्या अगर गुजराती परिधान लोकप्रिय हो रहें है , और यदि
सोचा जाए तो गरबा ही नहीं गिद्दा,भांगडा,बिहू,लावनी,सभी को सम्पूर्ण
भारत ने सामूहिक रूप से स्वीकारा है केवल गरबा ही नहीं ये अलग बात है कि गरबा
व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के सहारे सबसे आगे हो गया ।
इन दिनों अखबार समूहों ने
भी गरबे को गुजरात से बाहर अन्य प्रान्तों
तक ले जाने की सफल-कोशिश की हैं ।
इंदौर
का गरबा दल
, मस्कट
में 2008 छा गया था. अब कनाडा, बेल्जियम, यूएसए, सहित विश्व के कई देशों में
लोकप्रिय हुआ तो यह भारत के लिए गर्व की
बात है ।
ये अलग बात है कि गरबे के
लिए महिला साथी भी किराए , उपलब्ध होने जैसे समाचार आने
लगे हैं ।
संजय पटेल जी की शिकायत जायज है. वे
गुजराती हैं पर गरबे के बदले स्वरुप से नाराज
हैं क्योंकि - "चौराहों
पर लगे प्लास्टिक के बेतहाशा फ़्लैक्स, गर्ल फ़्रैण्डस को चणिया-चोली की ख़रीददारी
करवाते नौजवान, देर रात को गरबे के बाद
(तक़रीबन एक से दो बजे के बीच) मोटरसायकलों की आवाज़ोंके साथ जुगलबंदी करते
चिल्लाते नौजवान, घर में माँ-बाप से गरबे में जाने की ज़िद करती जवान बेटियाँ और
के नाम पर लाखों रूपयों की चंदा वसूली, इवेंट मैनेजमेंट के चोचले रोज़ अख़बारों
में छपती गरबा कर रही लड़के-लड़कियों की रंगीन तस्वीरें, देर रात गरबे से लौटी
नौजवान पीढी न कॉलेज जा रही,न दफ़्तर,
उस पर डीजे की कानफ़ोडू आवाज़ें जिनमें से गुजराती लोकगीतों की मधुरता गुम है. मुम्बईया फ़िल्मी स्टाइल का संगीत, बेसुरा संगीत संजय पटेल जी की नाराज़गी की मूल
वज़ह है.
आयोजनों के नाम पर बेतहाशा भीड़...शरीफ़
आदमी की दुर्दशारिहायशी इलाक़ों के मजमें धूल,ध्वनि और
प्रकाश का प्रदूषण बीमारों, शिशुओं,नव-प्रसूताओं
को तकलीफ़ देता है. उस पर नेतागिरी के जलवे ।
मानों जनसमर्थन जुटाने के लिये एक राह खुल गई हो
नवरात्रों में देवी की आराधना ...वह
भक्ति जिसके लिये गरबा पर्व गुजरात से चल कर पूरे देश में अपनी पहचान बना रहा है
गायब है ।
देवी माँ उदास हैं कि उसके बच्चों को ये
क्या हो गया है....गुम हो रही है गरिमा,मर्यादा,अपनापन,लोक-संगीत।माँ तुम ही कुछ करो तो करो...बाक़ी
हम सब तो बेबस हैं !
न्यूयार्क के ब्लॉगर भाई चंद्रेश जी ने इसे अपने ब्लॉग Chandresh's IACAW Blog (The Original Chandresh), गरबा शीर्षक से पोष्ट छापी है जो देखने लायक है कि न्यूयार्क के भारत वंशी गरबा के लिए कितने उत्साही हैं
10 टिप्पणियां:
बढ़िया है एक आलेख में इतने आलेखों को सम्मलित कर लिया.
गरबा की विभिन्न जानकारी एक साथ देने का शुक्रिया -
- लावण्या
गरबा सुंदर समूह नृत्य है जो लोक जीवन से आया है। लेकिन इस व्यवसायिक युग ने हर वस्तु को बिकने योग्य बना दिया है।
Laavanyaa ji
Sameer ji
Adarniy Dinesh ji
Sadar Abhar
गिरीश जी हमने तो कल पहली बार गरबा और डांडिया देखा और उस पर आज एक पोस्ट भी लिखने वाले थे पर वीडियो जरा अपलोड ठीक से नही हो रहे थे इसलिए अब कल करेंगे ।
mamtaa jee mp3 link ye rahaa
http://www.esnips.com/adserver/?action=visit&cid=file_272f6300-bb7a-4cdf-a48c-af5cb00e5b30&url=/doc/272f6300-bb7a-4cdf-a48c-af5cb00e5b30/Dizzy-With-you-on-Esnips
pateekshaa rahegee
just writting on the same culture please read
G M Rajesh ji
THANKS FOR INFORMING IN ADVANCE
THANKS
बहुत ही बढिया लगा, आप ने तो गागर मे सागर भर दिया,लेकिन अब हमारे किसी भी लोग गीत मे या नाच मे पहले वाली पवित्रता नही रही, गरवा अगर लोक जीवन ओर सादा हो तो बहुत सुन्दर लगता है.
धन्यवाद
बहुत ही बढिया लगा, आप ने तो गागर मे सागर भर दिया,............. लोक जीवन ओर सादा हो तो बहुत सुन्दर लगता है.
sir badalate parivesh men sanskriti ko bachana kathin to hai par ham sab prayas se kyon choonke..
एक टिप्पणी भेजें