19.7.13

ज्ञानरंजन जी के घर से लौट कर

              
 ज्ञानरंजन जी  के घर से लौट कर बेहद खुश हूं. पर कुछ दर्द अवश्य अपने सीने में बटोर के लाया हूं. नींद की गोली खा चुका पर नींद आयेगी मैं जानता हूं. खुद को जान चुका हूं.कि उस दर्द को लिखे बिना निगोड़ी नींद आएगी.  एक कहानी उचक उचक के मुझसे बार बार कह रही है :- सोने से पहले जगा दो सबको. कोई गहरी नींद सोये सबका गहरी नींद लेना ज़रूरी नहीं. सोयें भी तो जागे-जागे. मुझे मालूम है कि कई ऐसे भी हैं जो जागे तो होंगें पर सोये-सोये. जाने क्यों ऐसा होता है
          ज्ञानरंजन  जी ने मार्क्स को कोट किया था चर्चा में विचारधाराएं अलग अलग हों फ़िर भी साथ हो तो कोई बात बने. इस  तथ्य से अभिग्य मैं एक कविता लिख तो चुका था इसी बात को लेकर ये अलग बात है कि वो देखने में प्रेम कविता नज़र आती है :- 
प्रेम की पहली उड़ान  
तुम तक मुझे बिना पैरों 
के ले  आई..!
तुमने भी था स्वीकारा मेरा न्योता
वही  मदालस एहसास
होता है साथ    
तुम जो कभी कह  सकी 
हम जो कभी सुन  सके !
उसी प्रेमिल संवाद की तलाश में 
प्रेम जो देह से ऊपर
प्रेम जो ह्रदय की धरोहर  
उसे संजोना मेरी तुम्हारी जवाबदेही  
नहीं हैं हम पल भर के अभिसारी 
उन दो तटों सी जी साथ साथ रहतें हैं 
बीच  उनके जाने कितने धारे बहते हैं 
अनंत तक साथ साथ 
होता है  मिलने का विश्वास 
तुम जो निश्छल कल कल सरिता सी 
आज भी मेरे  
गिर्द 
भगौना भर कामना लेकर आतीं हो 
मुस्कुराती और फिर अचानक 
खुद को खुद की परिमिति में 
बाँध 
बाँध देती हो मुझे 
मेरी परिधि में 
जहां से शुरू होती है 
शाश्वत प्रीत यात्रा ....
सच  तुम निर्दयी नहीं हो .
   एक  विवरण जो ज्ञानरंजन जी ने सुनाया उसी को भुला नही पा रहा हूं वो कहानी बार बार कह रही है सबको बताओगे मुझे सबों तक ले चलो तो कहानी की ज़िद्द पर प्रस्तुत है वही ज़िद्दी कहानी
          “ एक राजा था, एक रानी थी, एक राज्य तो होगा ही .रानी अक्ल से साधारण, किन्तु  शक्ल से असाधारण रूप से सामान्य थी. वो रानी इस लिये थी कि एक बार आखेट के दौरान राजा बीमार हो गया. बीमार क्या साथियों ने ज़हर दे दिया मरा जान के छोड़ भी दिया. सोचा मर तो गया है भी मरा होगा तो   कोई जंगली जानवर का आज़ का भोजन बन जाएगा. बूढ़ी मां के लिये बूटियां तलाशती एक वनबाला ने उस निष्प्राण सी देह को देखा. वनबाला ने छुआ जान गई कि कि अभी इस में जीवन शेष है. सोचा मां की सेवा के साथ इसे भी बचा लूं पता नहीं कौन है . जी जाए तो ठीक जिये तो मेरे खाते में एक पुण्य जुड़ जाएगा . बूटी खोजी और बस उसे पिलाने की कोशिश  . शरीर के भीतर कैसे जाती बूटी बहुत जुगत भिड़ाती रही फ़िर  के ज़रिये बूटी का सत डाल दिया उसकी नाक में. इंतज़ार करती रही कब जागे और कब वो मां के पास वापस जाए . आधी घड़ी बीती थी कि राज़ा को होश ही गया. राजा ने बताया कि उसने शिकार की तलाश में भूख लगने पर आहार लिया था ,
वनबाला समझ गई की राजा खुद शिकार हुआ है . उसने कहा – ”राजन, आप अब यहीं रहें मैं आपके महल में जाकर पुष्टि कर लूं कि षड़यंत्र में जीते लोग क्या कर रहे हैं. आप मेरा ऋण चुकाएं. मेरी बीमार मां की सेवा करें. गांव से कंद मूल फ़ल लेकर राजधानी में बेचने निकली. वहां देखा राजभवन बनावटी शोक में  डूबा था. राजपुरोहित ने प्रधान मंत्री से सलाह कर राजा के मंद-बुद्धि भाई को राजा बना दिया था. सच्चे नागरिक उन सत्ताधारियों के प्रति मान इस कारण रख रहे थे क्योंकि उनने प्रत्यक्ष तया सत्ता तो छीनी थी. राजा के असामयिक नि:धन से जनता दु:खी थी. वनबाला ने राजपुरोहित और प्रधान-मंत्री के व्यक्तित्व का परीक्षण किया. ज़ल्द ही जान गई.. वे महत्वाकांक्षी विद्वान हैं. साथ हिंसक भी हैं.राजपुरोहित की पड़ताल में उस कन्या ने पाया कि राज़ पुरोहित तो राजा का वफ़ादार था अपनी पत्नि-पुत्री का ही . उसकी घरेलू नौकरानी बन के देखा था उसने पुरोहित पुत्री के सामने पत्नी पर कोड़े बरसाते हुए. पुत्री भी कम दु:खी थी. पिता की जूतियों से गंदगी साफ़ करती थी. पिता के वस्त्र भी धोती यानी हर जुल्म सहती. वन बाला समझ चुकी थी  जिस देश का विद्वान ही ऐसी हरकतें करे ,वहां जहां नारी का सम्मान हो वो देश देश नहीं नर्क हो जावेगा. बस अचानक एक रात बिना कुछ कहे पुरोहित की नौकरी से भाग के वन गई वापस. राज़ा को हालात बताए. और फ़िर राजा को साथ में शहर फ़िर ले आई अपने  प्रिय राजा को देख जनता में अदभुत जोश उमड़ गया. ससम्मान फ़िर राजा ने गद्दी पर बैठाया महल की कमान सम्हाली वनबाला ने फ़िर वो रानी बनी. ये थी वो कहानी जो कभी मां ने सुनाई ही- एक राजा था, एक रानी थी,यहीं से शुरु होती थी मां की कहानियां. मुझे नहीं मालूम था क्यों सुनाई थी सव्यसाची ने ये कहानी पर आज़ पता चला कि क्यों सुनाई थी.ये एक लम्बा सिलसिला है रुकेगा बहीं सब जानते हैं
                  इस कहानी का प्रभाव मेरे मानस पर गहरा है . पर जिसे नानी-दादी-मां कहानी नहीं सुना पातीं उसके हालत पर गौर करें एक कहानी ये भी है:-

                 एक बात जो मुझे बरसों से चुभ रही है जो शक्तिवान है उसे भगवान मान लेतें हैं शक्ति बहुधा मूर्खों के हाथों में पाई जाती है. जिनकी आंखों में तो विज़न नहीं ही होती है होता मानस में रचनात्मकता. एक दिन एक मूर्ख ने भरी सभा में कंधे उचका-उचका केपाप-पुण्यकी परिभाषा खोज़ रहा था.कुछ मूर्ख भय वश उत्तर भी खोजने लगे कुछ ने दिये भी उत्तर शक्ति शाली था सो नकार दिया उसने . उसे आज़ भी उसी उत्तर की तलाश है इसी खोज-तपास में वह जो भी कर रहा होता है एक सैडिस्ट की तरह करता है. यदी कहीं कोई भगवान है तो ऐसों को समझ दे बेचारा पाप-पुण्य के भेद क्यों खोजे………शायद मां से उसे ऐसी कहानियां सुनी होंगीं जो उसे जीवन के भेद बताती. इसका दूसरा पहलू ये है कि उसे मालूम है जीना भी एक कला है वो एक कलाकार. वो कलाकार जो हंस की सभा में हंस बनके शब्दों का जाल बुनता है कंधे उचकाता है और ऐसे काम करता करता है मनोवैग्यानिक-नज़रिये से केवल एक सैडिस्ट ही कर सकता है. इस किरदार को फ़िर कभी शब्दों में उतारूंगा आज़ के लिये बस इतना ही   
यश भारत 

18.7.13

मिड डॆ मील व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन की दरकार

मिड डॆ मील व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन की दरकार से अब इंकार बेमानी होगा.

मिड-डे मील से 22 बच्चों की मौत, 

के बाद व्यवस्था में अगर कोई परिवर्तन न हुआ तो बेशक कुछ और हादसे हमारे सामने होंगे. स्कूलों मे मिड डॆ मील के लिये मौज़ूदा व्यवस्था निरापद कदापि इस वज़ह से नहीं कही जा सकती क्योंकि गुणवत्ता और स्वच्छ्ता इसके सबसे महत्वपूर्ण बिंदू हैं  जिन पर नज़र रखना सहज नहीं है. खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में.   देश की सर्वोच्च अदालत के निर्देश के बाद  लागू  इस व्यवस्था में सरकारों ने काफ़ी अधिक कोशिशें कीं हैं पर आप देखेंगे कि सरकारी मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम में स्तरीय गुणवत्ता और स्वच्छ्ता को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं. यहां स्वयम जागरूक जनता भी व्यवस्था की अनदेखी की दोषी है. ऐसा नहीं है कि सरकार ने ”सु्रक्षा के तौर तरीके न सुझाए होंगे ” परन्तु निचले स्तर तक गुणवत्ता और स्वच्छ्ता के मापदण्डों को हू बहू लागू किया जाना कठिन है.
गुणवत्ता और स्वच्छ्ता के मापदण्डों की अनदेखी का परिणाम है बिहार. मूल रूप से मिड डे मील व्यवस्था को निरापद बनाने के लिये ज़रूरी है कि सरकारें केवल स्वच्छ्ता और गुणवत्ता से क़तई समझौता न करे. वरना बिहार का यह मन्ज़र आम हो जाएगा. सरकारों को इसकी गुणवत्ता बनाए रखने के लिये ज़रूरी है कि व्यवस्था पर सूक्ष्म चिंतन करे
            व्यवस्था में सुधार के सुझाव

  1.  निरापद एवम सुरक्षित पाक़शाला - किसी भी खाद्य पदार्थ के निर्माण के लिये निरापद एवम सुरक्षित पाक़शाला का होना अनिवार्य है. जिसके अभाव में स्तरीय आहार व्यवस्था की कल्पना करना एक स्वप्न मात्र है.
  2.  स्वच्छता एवम गुणवत्ता -  स्वच्छता एवम गुणवत्ता के संदर्भ में आमूल-चूल परिवर्तन बेहद आवश्यक है. कठोर नियमों को लचीला बनाते हुए प्रूडॆंट-शापिंग प्रणाली को महत्व देने की ज़रूरत है. आहार निर्माण के लिये वांछित  कच्चे माल की खरीददारी  जिला अथवा अनुभाग स्तर पर किसी खाद्य-विशेषज्ञ  की मदद लेकर ही की जानी चाहिए .साथ ही पाकशाला में स्वच्छता के मापदंडों की अनदेखी भी ऐसी घटनाओं की आवृत्ति करा सकती हैं .  
  3.  सामाजिक दखल -  समुदाय की सकारात्मक दखल के बगैर व्यवस्था में सुधार की अपेक्षा भी बेमानी है.समुदाय के पाजिटिव व्यक्ति अच्छी तरह से कार्य करने का  प्रेशर बना सकते हैं .
  4.  खाद्य-अपमिश्रण क़ानून के तहत सतत कार्रवाई करना भी ज़रूरी है.
  5. प्रबंधकीय ज्ञान  .का अभाव भी इस अव्यवस्था के लिए ज़वाबदेह है. जिसे दूर करना आवश्यक है. 
  6. उत्तरदायित्व निर्धारण .सामूहिक रसोई के प्रबंधन से लेकर हर छोटी बड़ी व्यवस्था में उत्तरदायित्व का पूर्व से निर्धारण आवश्यक है .

17.7.13

...और अब वह सम्पादक हो : डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

                             
डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
आखिर वह सम्पादक बन ही गए। मुझसे एक शाम उनकी मुलाकात हो गई। वह बोले सर मैं आप को अपना आदर्श मानता हूँ। एक साप्ताहिक निकालना शुरू कर दिया है। मैं चौंका भला यह मुझे अपना आदर्श क्यों कर मानता है, यदि ऐसा होता तो सम्पादक बनकर अखबार नहीं निकालता। जी हाँ यह सच है, दो चार बार की भेंट मुलाकात ही है उन महाशय से, फिर मुझे वह अपना आइडियल क्यों मानने की गलती कर रहे हैं। मैं किसी अखबार का संपादक नहीं और न ही उनसे मेरी कोई प्रगाढ़ता। बहरहाल वह मिल ही गए तब उनकी बात तो सुननी ही पड़ी। 

उनकी मुलाकात के उपरान्त मैंने किसी अन्य से उनके बारे में पूँछा तो पता चला कि वह किसी सेवानिवृत्त सरकारी मुलाजिम के लड़के हैं। कुछ दिनों तक झोलाछाप डाक्टर बनकर जनसेवा कर चुके हैं। जब इससे उनको कोई लाभ नहीं मिला तब कुछ वर्ष तक इधर-उधर मटर गश्ती करने लगे। इसी दौरान उन्होंने शटर, रेलिंग आदि बनाने का काम शुरू किया कुछ ही समय में वह भी बन्द कर दिए और अब सम्पादक बनकर धन, शोहरत कमाने की जुगत में हैं। पढ़े-लिखे कितना है यह तो किसी को नहीं मालूम लेकिन घर-गृहस्थी, खेती बाड़ी का कार्य उन्हें बखूबी आता है। घर का आँटा, सरसों पिसाने-पेराने से लेकर मण्डी से सब्जी, आरामशीन से लकड़ी लाना आदि काम वह बखूबी करते हैं और घर के मुखिया द्वारा दिए गए पैसों में से अपने गुटखा आदि का कमीशन निकाल लेते हैं।
अब वह सम्पादक बन गए हैं। वह कर्मकाण्ड भी कर लेते हैं, मसलन हिन्दू पर्वों पर यजमानों के यहाँ जाकर पूजा-पाठ करवाते हैं। लोगों के अनुसार वह एक सर्वगुण सम्पन्न 40 वर्षीय युवक हैं। वह विजातियों के प्रति नकारात्मक रवैय्या अपनाते हैं और स्वजातियों को थोड़ा बहुत सम्मान देते हैं। वही अब सम्पादक बन गए हैं। वह वाचाल हैं न जानते हुए भी अगले के सामने इस तरह बोलेंगे जैसे वह हर क्षेत्र और विषय में पारंगत हों। वह बाल-बच्चेदार व्यक्ति हैं। पत्नी की डाँट भी खाते हैं। येनकेन-प्रकारेण पत्नी और बच्चों की जरूरतें पूरी करते हैं। इन सबके बावजूद वह कभी भी मेरे सानिध्य में नहीं रहे फिर भी मैं उनका आदर्श हूँ, यह मेरे लिए सर्वथा शोचनीय विषय है। 
वह जब मुझसे एकाएक मिले थे, उस समय शाम का वक्त था। मैं एक परिचित की दुकान पर बैठा था और वह पत्नी-पुत्र सहित खरीददारी करने आए थे। मैंने औपचारिकता वश पूँछ लिया कि आज कल क्या कर रहे हो तभी वह बोले थे कि आप मेरे आदर्श हैं अखबार का प्रकाशन शुरू कर दिया है और सम्पादक बन गया हूँ। पहले तो मुझे घोर आश्चर्य हुआ फिर अन्दर की बात अन्दर ही रखकर उनको बेस्ट काम्पलीमेण्ट्स दिया। इसी बीच उनकी पत्नी और पुत्र ने सामान खरीद लिया था और वह भी औपचारिक रूप से बोले चलता हूँ सर। मैंने कहा ठीक है जावो ऊपर वाला तुम्हारा कल्याण करे। इतने से आपसी संवाद उपरान्त वह पत्नी-पुत्र समेत मोटर बाइक पर बैठकर चले गए। मैं भी कुछ देर तक अपने परिचित की दुकान पर बैठा जगमगाती रोशनी में हवा और रोशनी दोनों का लेता रहा, सोचा यदि शीघ्र वापसी करूँगा तो घर पर बिजली नहीं होगी अंधेरे में हैण्डफैन चलाना पड़ेगा। 
तभी दुकानदार ने कहा सर जी रात्रि के 9 बज गए हैं वह अपनी दुकान बढ़ाना चाहता है, साथ ही उसने यह भी बताया कि पावर सप्लाई आ गई है। मैंने कहा ठीक है डियर तुम अपनी दुकान बढ़ाओ, मैं भी चलता हूँ। फिर शब्बा खैर कहकर मैं वापस हो लिया। रात में भोजन करता नहीं, दो-एक गिलास द्रव पीकर रात बिताता हूँ, यदि मूड बना तो कुछ लिखता हूँ। सम्पादक जी की मुलाकात के उपरान्त लिखने का मूड हो आया सो यह आलेख आपके सामने है। सम्पादक जी मनुवादी व्यवस्था की उस जाति के जीव हैं, जो अपने को सर्वोच्च मानता है और अन्य सभी से सम्मान-आदर की अपेक्षा करता है जबकि अन्य जाति बिरादरी के लोग उनकी कौम से सम्मान पाना तो दूर नजदीक फटक पाने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं। 
हालांकि यदि पालिटिकल सिनेरियो देखा जाए तो उनकी नस्ल के नेता निम्न स्तर तक गिर कर वोटबैंक वाली पार्टियों के प्रमुखों की जी-हुजूरी करते हैं। छोड़िए भी कहाँ सम्पादक जी की बात और कहाँ जातीय पॉलिटिक्स की बात? सम्पादक जी को किसी ने समझा दिया है कि 10 से 25 प्रतियाँ फाइल छपवाकर शासकीय विज्ञापनों की मान्यता प्राप्त कर लो साथ ही खुद भी मान्यता प्राप्त पत्रकार बन जावोगे। फिर ऐशो-आराम की हर वस्तु तुम्हारे कदमों पर लोगों द्वारा न्यौछावर होती रहेगी। इसी गलत फहमी का शिकार बने सम्पादक जी एक साप्ताहिक समाचार-पत्र छाप रहे हैं और शासकीय मान्यता हेतु सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के कार्यालय का चक्कर लगा रहे हैं। 
इनके सलाहकार ने उन्हें बताया है कि सम्पादक बनने का कोई मापदण्ड नहीं है आप चोर, उचक्के, अपराधी न हों तो शासकीय मान्यता मिल जाएगी। बस आप का नाम थाने के रजिस्टर संख्या 8/10 में न अंकित हो। सम्पादक बनकर आपका रूतबा बुलन्द होगा, साथ ही पुलिस और प्रशासन में आपकी पैठ भी होगी और हर गलत-सही कार्य कराने में सक्षम हो जाओगे। अपने स्वजातीय सलाहकार की बातें मानकर उन जैसा कर्मठ व्यक्ति आखिरकार सम्पादक बन ही गया।

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विश्व का सबसे खतरनाक बुजुर्ग : जॉर्ज सोरोस

                जॉर्ज सोरोस (जॉर्ज सोरस पर आरोप है कि वह भारत में धार्मिक वैमनस्यता फैलाने में सबसे आगे है इसके लिए उसने कुछ फंड...