15.3.12

बावरे-फ़क़ीरा की लांचिंग को चार बरस पूरे :गिरीश बिल्लोरे

१४ मार्च २००९ की शाम कुछ यादें

आराधना और प्रभू का आभार  
विकलागों की सेवा का संकल्प लेकर उसे पूरा करना उसे आकार देना अनुकरणीय है.मुझे बेहद प्रसन्नता है की सव्यसाची कला ग्रुप जबलपुर द्वारा जिस भक्ति एलबम “बावरे-फ़कीरा” का लोकार्पण किया जा रहा है सराहनीय कार्य है “-तदाशय के विचार दिनांक 14 मार्च 2009 को सायं:07:30 बजे स्थानीय मानस भवन में आयोजितभक्ति एलबम “बावरे-फ़कीरा” का लोकार्पण समारोह अवसर पर ईश्वर दास रोहाणी ने व्यक्त किये . कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री मुकेश गर्ग महानिदेशक संगीत संकल्प ने कार्यक्रम के उद्द्येश्य की सफलता के लिए समुदाय से अनुरोध किया जबकि अस्थि रोग विशेषज्ञ डाक्टर जितेन्द्र जामदार के बावरे-फकीरा एलबम टीम के सदस्यों आभास जोशी,गिरीश बिल्लोरे,श्रेयस जोशी,सहित सभी सदस्यों के कृतित्व पर प्रकाश डाला. डाक्टर जामदार का कथन था कि “गिरीश और ज़ाकिर हुसैन वो लोग हैं जो बैसाखियों से नहीं बैसाखियाँ उनसे चलतीं है.
जाकिर हुसैन 
बेहद अध्यात्मिक-उर्जा से परिपूर्ण वातावरण में एलबम का विमोचन कराने साईं बाबा बने एक बच्चे ने मशहूर पोलियो ग्रस्त गायक जाकिर हुसैन एवं आभास जोशी को मंच पर लाया गया . अतिथियों के अलावा बावरे फकीरा टीम के सदस्यों तथा श्रीमती पुष्पा जोशी श्री काशीनाथ बिल्लोरे की उपस्थिति में एलबम का विमोचन किया गया .
इस अवसर अंध-मूक-बधिर-विद्यालय के छात्र विशेष रूप से आमंत्रित थे .इस अवसर पर स्थानीय कलाकारों श्री चारु शुक्ला {मंडला},विदिशा नाथ .मृदुल.श्रृद्धा बिल्लोरे.अक्षिता ,आकाश जैन ,दिलीप कोरी ,राशि तिवारी.शेषाद्री अय्यर के अलावा आभास जोशी एवं वाइस आफ इंडिया द्वितीय के गायक श्री ज़ाकिर हुसैन तथा संदीपा पारे द्वारा मनोरंजक गीत-संगीत निशा स्वर बिखेरे . आयोजकों के अनुसार एलबम के विक्रय से संगृहीत राशि संस्था द्वारा व्यय किया जावेगा.वर्तमान में इस हेतु लाइफ लाइन एक्सप्रेस को सहयोग हेतु एलबम के प्रथम संस्करण से प्राप्त लाभांश राशि जिला प्रशासन जबलपुर को सौंपी जावेगी.
श्री युत  रोहाणी जी 
अचानक हाल में आभास का पीछे से प्रवेश  
आयोजन में उन व्यक्तियों को भी सम्मानित किया गया जिन्हौने वाइस आफ इंडिया प्रथम के दौरान आभास-जोशी-स्नेह मंच जबलपुर के आव्हान पर आभास जोशी के समर्थन में वातावरण निर्माण हेतु सहयोग किया. ,श्री रोहित तिवारी “हीरा”,प्रहलाद पटेल मित्र गरीब मदद संस्था संस्थापक अध्यक्ष ,गनपत पटेल,प्रमोद देशमुख,अशोक जैन सुप्रभात क्लब जबलपुर,,श्री रमेश बडकुल ,यशो,श्री पंकज भोज,दीपांशु दुबे,अनुराग वरदे,आभास जोशी स्नेह मंच ,जबलपुर डाक्टर संध्या जैन श्रुति ,डाक्टर प्रशांत कौरव,जितेन्द्र चौबे,आभास जोशी स्नेह मंच ,भोपाल,के संजय चौरे,आभास जोशी स्नेह मंच खंडवा योगेन्द्र जोशी,श्री गोविन्द दुबे,आभास के ज्योतिषी माधव यादव मनीष शर्मा,महावीर महिला मंडल महावीर कालोनी गुप्तेश्वर श्रीमती वन्दना जोशी,लता श्रीवास्तव,प्रवीणा टाक,सिमरन सूरी,कॅनॅडा से आए ब्लॉगर श्री समीर लाल,महिला परिषद् शिवनगर श्रीमती नीलम जैन ,श्रीमती आरती जैनमंजू जैन,समीर विश्वकर्मा,योगेश गोस्वामी नितिन अग्रवाल, को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया.







सतीश बिल्लोरे जिनने मेरा सपना
साकार किया 



प्रेस कांफ्रेंस 

दर्शक दीर्घा में ब्लागर्स 



संगीतकार श्रेयस जोशी 

आप यहां से पहुँचिये
बावरे फकीरा सुनने
"बावरे-फकीरा"
माँ स्व. प्रमिला देवी 
मेरी बिटिया श्रद्धा 

11.3.12

50 वर्ष पूर्व अरबवासियों के प्रति दृष्टि :डैनियल पाइप्स


डैनियल
पाइप्स





1962 में अत्यंत आकर्षक, चिकने आवरण पर 160 पृष्ठों की The Arab World शीर्षक की पुस्तक में तात्कालिक रूप में कहा गया, "कभी अत्यन्त समृद्ध और फिर पराभव को प्राप्त विस्तृत अरब सभ्यता आज परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। कुछ फलदायक अव्यवस्था प्राचीन जीवन की निश्चित परिपाटी को बदल रही है" ।
इस संस्करण ने इस बात का दावा किया कि इसकी तीन विशेषतायें आधी शताब्दी के बाद भी इसे समीक्षा के लिये बाध्य करती हैं। पहला, उस समय की उच्चस्तरीय अमेरिकी साप्ताहिक पत्रिका लाइफ ने इसे प्रकाशित किया जिसमें कि सांस्कृतिक केंद्रीयता निहित थी । दूसरा, एक सेवा निवृत्त विदेश मंत्रालय के अधिकारी जार्ज वी एलेन ने इसकी प्रस्तावना लिखी थी जिससे कि पुस्तक के मह्त्व की ओर संकेत जाता था। तीसरा, एक ख्यातिलब्ध ब्रिटिश पत्रकार, इतिहासकार और उपन्यासकर्ता डेसमन्ड स्टीवर्ट ( 1924 – 1981) ने इस पुस्तक को लिखा ।
द अरब वर्ल्ड अत्यंत प्रभावी रूप से दूसरे काल के समय को प्रस्तुत करता है; वैसे तो पूरी तरह अपने विषय को बहुत मधुर बनाकर नहीं रखा है लेकिन स्टीवर्ट ने सहज और शालीन भाव से अपनी बात रखी है जो कि आज के सबसे मुखर लेखक को भी चुप कर देगा। उदाहरण के लिये वे कहते हैं कि जब पश्चिमी पर्यटक अरब भाषी देशों में प्रवेश करते ही " अलादीन और अली बाबा के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जहाँ कि लोग उन्हें उनकी बाइबिल की व्याख्या की याद दिलाते हैं" अल कायदा के इस युग में उनकी भावना से किंचित मुठभेड की जा सकती है।
सबसे रोचक यह है कि इस पुस्तक से यह प्रदर्शित होता है कि किस प्रकार एक प्रमुख विश्लेषक भी बडे चित्र को पढने में गलती कर बैठता है।
जैसा कि इसके शीर्षक से स्पष्ट है कि पुस्तक की विषयवस्तु मोरक्को से इराक तक एक अरब जन का अस्तित्व है ऐसे लोग जो कि इस प्रकार परम्परा से आबद्ध हैं कि स्टीवर्ट ने पक्षी इसकी तुलना करते हुए लिखा है, " अरबवादियों की एक अलग सामान्य संस्कृति है जिसे वे इसे हमिंग पक्षी के घोंसले की भाँति चाह कर भी हर बार फेंक नहीं सकते" अरबवासियों द्वारा अपने देशों को एक रख पाने में असफल रहने के पिछले रिकार्ड की अवहेलना करते हुए स्टीवर्ट भविष्यवाणी करते हैं कि, " कुछ भी हो अरब संघ की शक्ति बनी रहेगी"। 1962 के बाद शायद ही ऐसा सम्भव रह सका कि अरबी भाषा ही केवल जन की परिभाषा कर सकी और इतिहास और भूगोल नकार दिये गये।
उनकी विषयवस्तु की दूसरी महत्वपूर्ण चीज इस्लाम है। स्टीवर्ट लिखते हैं कि इस सामान्य आस्था ने मानवता को नयी ऊँचाइयों की ओर पहुचाया है और यह " शांतिवादी ना होकर भी इसका मुख्य शब्द सलाम या शांति है" वे इस्लाम को एक " सहिष्णु धर्म मानते हैं" और अरबवासियों को परम्परागत रूप से " सहिष्णु आक्रांता" और " सहिष्णु स्वामी मानते हैं"। मुसलमानों ने यहूदियों और ईसाइयों के साथ सहिष्णुता पूर्वक व्यवहार किया" । वास्तव में तो अरबवासियों की सहिष्णुता एक संस्कृति तक फैल गयी। सहिष्णुता के प्रति स्टीवर्ट की इस दृष्टि से वे आग्रहपूर्वक लेकिन अयुक्तिपूर्ण ढंग से इस्लामवाद की अभिव्यक्ति को नकार देते हैं, जो उनकी नजर में, " एक पुरानी पीढी की चीज है जिसके प्रति नयी पीढी में कोई आकर्षण नहीं है"। संक्षेप में स्टीवर्ट इस्लामवाद के आरम्भ से आधुनिक काल तक इसकी सर्वोच्चता को लेकर इसके बारे में कुछ भी नहीं जान सके।
तीसरी महत्वपूर्ण चीज अरबवासियों का आधुनिता के प्रति प्रतिबद्धता : " आश्चर्यों में से एक यह है कि बीसवीं शताब्दी के अरब मुस्लिमों ने आधुनिक विश्व के परिवर्तनों को स्वीकार किया है" । सउदी अरब और यमन को छोड्कर हर स्थान पर उन्हें मिला कि, " अरब आधुनिकता दिखाई देने वाली शक्ति है" (इसलिये परिवर्तन की हवा मेरा पहला शब्द है) । महिलाओं के प्रति उनकी एकांगी चिंता पढने वाले को सन्न कर देती है: " हरम और इसके मनोवैज्ञानिक स्तम्भ बीसवीं शताब्दी में आये हैं"। आर्थिक मामलों में महिलायें लगभग पुरुषों के बराबर हैं। वे वही देख रहे हैं जो वह चाहते हैं और वास्तविकता से उनके ऊपर कोई असर होता नहीं दिखता ।
अपनी व्यापक दृष्टि के आशावाद को जारी रखते हुए स्टीवर्ट को लगता है कि अरब भाषी अपने प्राचीन काल से बाहर आने को प्रतिबद्ध हैं। वह सातवीं शताब्दी के बारे में लिखते हैं जिस प्रकार कि अब कोई भी साहस नहीं कर सकेगा विशेष रूप से जार्ज ड्ब्ल्यू बुश की इराकी मह्त्वाकाँक्षा और बराक ओबामा के लीबिया के खतरनाक मिशन के बाद। "पहले चार खलीफा ब्रिटेन के विलियम ग्लैडस्टोन की भाँति लोकतांत्रिक थे यदि अमेरिका के थामस जेफरसन की भाँति नहीं तो," स्टीवर्ट तो यह भी दावा करते हैं कि " अरब सभ्यता पश्चिमी संस्कृति का भाग है न कि पूर्वी संस्कृति का" इसका अर्थ कुछ भी हो ।
पचास वर्ष पूर्व इस्लाम के सम्बंध में जानकारी कितनी कम थी कि लाइफ पत्रिका के दो दर्जन कर्मचारी पुस्तक के सम्पादकीय स्टाफ के रूप में एक चित्र पर इस गलत सूचना के साथ अंकित थे कि इस्लाम की तीर्थयात्रा " प्रत्येक वर्ष बसंत में होती है" ( हज प्रत्येक वर्ष के कैलेंडर के आरम्भ होने से 10 या 11 की तिथि को होता है)
किसी के पूर्वाधिकारी की भूलों का प्रभाव होता है। मेरे जैसे विश्लेषक को आशा करनी चाहिये कि डेसमन्ड स्टीवर्ट और लाइफ की भाँति अस्पष्टता ना हो ताकि समय व्यतीत होने के साथ बुरे रूप में न देखा जाये। इसलिये निश्चित रूप से मैं इतिहास इस भाव से पढता हूँ कि व्यापक दृष्टि बने और तात्कालिक अवधारणाओं तक सीमित न रहे । 2062 में यह बतायें कि मैं कैसा कर रहा हूँ ।

9.3.12

संस्कारधानी ने कायम की है मिसाल शालीन होली की :प्रभात साहू


  “संस्कारधानी ने कायम की है मिसाल शालीन होली की उसी की एक बानगी आज़ यहां देखने को मिल रही है , वैसे समय के साथ बदलते शहर में फ़ागुन के इस त्यौहार का स्वरूप बदल दिया है किंतु कुछ लोग आज़ भी संस्कृति के संरक्षण के लिये सतत प्रतिबद्ध है. हमलोग संस्था की कोशिश भी इसी दिशा में उठाया गया एक क़दम है. जिसकी जितनी भी सराहना की जाए कम होगी – तदाशय के विचार श्री प्रभात साहू महापौर जबलपुर ने गेटनम्बर चार के निवासियों के संगठन हमलोग के तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम में व्यक्त किये. इस अवसर पर कार्यक्रम के विशेष आमंत्रित पूर्व-महापौर श्री सदानन्द गोडबोले ने कहा-“एकता एवम सादगी का दस्तावेज बन रहे इस कार्यक्रम की जितनी भी सराहना की जाए कम होगी जहां कला एवम संस्कृति के रंग बिखेरे गये सादगी एवम पारिवारिक माहौल में जहां एक ओर दिवंगतों को स्मरण किया गया वहीं बुजुर्गों को सम्मानित कर युवाओं ने अनूठी मिसाल कायम की. गेट नम्बर चार निवासियों के संगठन “हमलोग ” द्वारा होलिका-दहन की शाम को रंगारंग बना कर होली को और यादगार बना दिया.  कार्यक्रम का शुभारम्भ दिवंगत एड.स्व.श्री जगदीश तिवारी जी के स्मरण के साथ हुआ,तदुपरांत श्री पी.लाल ,श्री काशीनाथ बिल्लोरे , श्री रमेश चंद्र गौर , डा.मलय शर्मा, श्री टी.पी.अग्निहोत्री, श्री प्रमोद कुमार अग्रवाल , श्री एस. के. श्रीवास्तव, डा.रामकृष्ण रावत,श्री एम. के. सोनी एवम श्री गणपत पटेल का अभिनन्दन किया गया. द्वितीय चरण में सुप्रसिद्ध गायक   शेषाद्रि-अय्यर का गायन   एवम स्थानीय कलाकार श्रद्धा बिल्लोरे, आयुषि चौबे मयूर चौबे कनिष्का सोनी ने गीत तथा श्री आशीष चतुर्वेदी (हास्य-प्रस्तुतियां)मुस्कान चतुर्वेदी (नृत्य) की प्रस्तुतियां दीं.
                                   

श्रीयुत मलय की अध्यक्षता इरफ़ान झांस्वी के संचालन में सम्पन्न कवि-सम्मेलन में में  सुश्री अम्बर-प्रियदर्शी,इरफ़ान झांस्वी, डा०विजय तिवारी”किसलय”, आशुतोष “असर”,विनोद अवस्थी,अभय तिवारी, गिरीश बिल्लोरे, श्रीमति मनीषा सोनी,प्रणव पण्डया ,ने देर रात तक हास्य-व्यंग्य एवम श्रृंगार रस से लबालब कविताएं प्रस्तुत कीं.कार्यक्रम के आयोजन में उज्जवल चौबे,श्री अरविंद वर्मा,  सजल चौबे, अखिल श्रीवास्तव”डब्बू”,राजेश जैन, श्री वीरेंद्र चौबे,श्री सतीष बिल्लोरे, संतुल शर्मा, जितेंद्र चौबे,एड. राहुल जैन श्री सुनील जैन, हरप्रीत सिंह आहूजा,मोहित जैन,हरीश शामदासानी,एल.पी.नामदेव का सहयोग उल्लेखनीय रहा . 
प्रभात साहू

आज बसंत की रात गमन की बात न करना :गोपालदास नीरज़

वसंत का श्रृंगारी स्वरूप कवि मन को प्रभावित न करे ..!-असंभव है.. हर कवि-मन  कई कई भावों बगीचे से गुज़रता प्रकृति से रस बटोरता आ कर अपने लिखने वाले टेबल पे रखी डायरी के खाली पन्ने पर अपनी तरंग में डूब कर लिख लेता है गीत..नज़्म...ग़ज़ल.. यानी.कविता  उकेरता है शब्द-चित्र . जो दिखाई भी देतें हैं सुना भी जाता है उनको .. अरे हां.. गाया भी तो जाता है.. गीत सुरों पे सवार हो कर व्योम के विस्तार पर विचरण करता है .. बरसों बरस.. दूर तक़ देर तलक... इसी क्रम में नीरज जी की एक रचना अपने सुर में पेश कर रही हूं..
 


आज बसंत की रात
गमन की बात न करना
धूल बिछाए फूल-बिछौना
बगिया पहने चांदी-सोना
बलिया फेंके जादू-टोना
महक उठे सब पात
हवन की बात न करना
आज बसंत की रात…….
बौराई अमवा की डाली
गदराई गेंहू की बाली
सरसों खड़ी बजाये ताली
झूम रहे जलजात
शमन की बात न करना
आज बसंत की रात……..
खिड़की खोल चंद्रमा झांके
चुनरी खींच सितारे टाँके
मना करूँ शोर मचा के
कोयलिया अनखात
गहन की बात न करना
आज बसंत की रात…….
निंदिया बैरन सुधि बिसराई
सेज निगोड़ी करे ढिठाई
ताना मारे सौत जुन्हाई
रह-रह प्राण पिरत
चुभन की बात न करना
आज बसंत की रात……
ये पीली चूंदर ये चादर
ये सुन्दर छवि, ये रस-गागर
जन्म-मरण की ये राज-कँवर
सब भू की सौगात
गगन की बात न करना
आज बसंत की रात……..
__________________
गीतकार : गोपालदास नीरज़,स्वर : अर्चना चावजी,
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5.3.12

बूंद से नदी बन जाने की उत्कंठा


बेशक बूंदें ही रहीं होंगी
जिनने एकसाथ
 सोचा होगा-"चलो मैली चट्टानों को
रेतीली मटमैली ढलानों को
धो आते हैं..!!
ऊसर बंजर को हरियाते हैं !!
मर न जाएं प्यासे बेज़ुबान
चलो उनकी प्यास बुझा आतें हैं...!!"
कुछेक बोली होंगी- "हम सब मिलकर धार बनेंगी..
सारी नदियों से विलग हम उल्टी बहेंगी
उल्टे बहाव का कष्ट सहेंगी..?
न हम तो...!
तभी उनको कुछ ने डपटा होगा
एक जुट बूंदों ने बहना
शुरु किया होगा तब

हां तब
जब न हम थे न हमारी आदम जात
तब शायद कुछ भी न था
पर एक सोच थी
बूंदों में
एक जुट हो जाने की
बूंद से नदी बन जाने की उमंग और उत्कंठा ..!
लो ये वही नदियां हैं
जिनको कहते हैं हम नर्मदा या गंगा !!
नदियां जो धुआंधार हैं-
काले मटमैले पहाड़ों को धोती
तुमसे भी कुछ कह रहीं हैं
एकजुट रहो तभी तो चट्टानों के घमंड
तोड़ पाओगे ....
वरना ऐसे ही बूंद-बूंद ही मर    जाओगे..!!


3.3.12

जबलपुर सम्भाग अटल बाल मिशन का सम्भाग स्तरीय प्रशिक्षण



                         जबलपुर। बच्चों को कुपोषण से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से जिले स्तर पर अटल बिहारी बाजपेयी बाल आरोग्य एवं पोषण मिशन के तहत् जिला स्तरीय कार्य योजनाऐं तैयार कराई गयी । मिशन मोड में‘‘ कुपोषण से मुक्ति के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रम को प्रभावपूर्ण एवं परिणाम मूलक बनाने के उद्देष्य से संभाग स्तर पर 5-5 दिवसीय प्रशिक्षण सत्र संचालित किये जा रहे है । श्री एस.सी. चौबे संयुक्त संचालक महिला बाल विकास जबलपुर संभाग के मार्गदर्शन में आयोजित प्रथम सत्र में जबलपुर,मंडला,बालाघाट,सिवनी छिंदवाड़ा,नरसिंहपुर,कटनी जिलों के 47 प्रतिभागी प्रशिक्षण में शामिल है । विभाग के मैदानी अमले को प्रशिक्षण प्रदान करेंगे ।जबलपुर सम्भाग स्तरीय  ट्रेनिंग आफ़ ट्रेनर्स के पहले चरण में दिये गए प्रशिक्षण में क्लास रूम प्रशिक्षण के अलावा क्षेत्रीय भ्रमण, रोल-प्ले,समूह-चर्चा का भी प्रावधान किया गया था. 
        जबलपुर संभाग में आयोजित इन प्रशिक्षण सत्रों की उपादेयता को रेखांकित करते हुए संयुक्त संचालक श्री एस. सी चौबे ने बताया कि ‘‘ मिशन मोड में कुपोषण नियंत्रण एवं पोषण स्तर में सकारात्मक सुधार के उद्देश्य से नियमित रूप से पदस्थ अधिकारियों को मिशन मुख्यालय से प्राप्त अनुदे्शों के अनुरूप 5 दिवसीय प्रशिक्षण दिया जा रहा है। प्रशिक्षण सत्र के प्रभावी एवं सुचारू संचालन हेतु मेडिकल कालेज चिकित्सालय के डा. रवीन्द्र विश्नोई एवं डा.ए.आर.त्यागी भोपाल से राज्य प्रशिक्षक श्रीमति पुष्पा सिंह प्रशिक्षक के रूप में उपस्थित है। सुश्री डिंपल पोषण अधिकारी यूनिसेफ भोपाल भी प्रशिक्षक में उपस्थित रहीं । प्रशिक्षण कार्यक्रम  के प्रबंधन में श्री अभिनव गर्ग श्री निषांत दीवान सुश्री तरंग  मिश्रा, श्रीमति रीता हरदहा का सहयोग उल्लेखनीय है।

प्रवासी कथा साहित्य और स्त्री – डॉ. अनिता कपूर (अमरीका)



ऐसा माना जाता है की साहित्य समाज का दर्पण होता है फिर चाहे वो भारतीय समाज हो या अपनाये हुए देश का समाज हो. प्रवासी भारतीयो की सोच भारत में हो रही गतिविधियों से भी संचालित होती है, और यह संचालित सोच प्रवासी लेखन में बखूबी दिखाई भी देती हैं, फिर चाहे वो कोई भी विधा हो. प्रवासी कथा साहित्य जिसका रंग-रूप भारत के पाठकों के लिए एक नयेपन का बोध देता है, कारण है,  प्रवासी कथा साहित्य में अपने अपनाए हुए देश के परिवेश, संघर्ष, विशिष्टताओं, रिश्तों और उपलब्धियों पर जानी -माने प्रवासी कथाकारों ने अपने लेखन के द्वारा एक भिन्न समाज से परिचय करवाया है। विषय समाज की ठोस समस्याओं से जुड़े होते हैं और नारी चरित्रों एवं परिवेश के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों और अन्याय का अनावरण भी किया जाता है। प्रवासी के लिए यह आसान नहीं होता कि वह अपने अपनाए हुए देश की संस्कृति, सभ्यता और रीति-रिवाज से पूरी तरह जुड़ पाए। उनकी जड़ें अपनी मातृभूमि, संस्कारों एवं भाषा से जुड़ी होती हैं। और जहां तक स्त्री की बात आती है तो सभी धर्मों और देशों में नारी का रुतबा हमेशा से दोयम दर्जे का रहा है। जो प्रवासी  रचनाकारों  की कथाओं में भी झलकता है.
प्रवासी कथा-साहित्यकारों में ऐसे बहुत से नाम है, जिनकी रचनाओं को पढ़कर आप बखूबी अनुमान लगा लेंगे कि आज भी विदेशों में रहते हुए भी वे दुनिया को भारतीय चश्में से देखते हैं, इसीलिए उनका लेखन नयेपन के बावजूद भी पाठक के दिल के करीब होता है और मन को छू जाता है.  अमरीका में विगत 25 वर्षों से रह रही जानी मानी कथाकार सुधा ओम ढींगरा जी के कहानी संग्रह, ‘कौन सी ज़मीन अपनी’, में यह कहानी
‘क्षितिज से परे’, पाठक को वाकई सोचने पर मजबूर कर देती है कि, औरत ही हमेशा त्याग की मूरत बनी रहे ,पुरुष चाहे भारत की जमीं पर रहता हो या विदेशी जमीं पर. कहानी की नायिका, सारंगी जो सिर्फ सत्रह साल की उम्र में अपने पति सुलभ के साथ कैनेडी एयरपोर्ट पर डरी -सहमी -सी उतरी थी और अमेरिका में पहले ही दिन उसके पीऍच.डी उम्मीदवार पति ने उसे ‘बेवकूफ़’ कह कर पुकारा था और चार पढ़े -लिखे और अच्छे कैरियर वाले बच्चों की माँ होने के बावजूद चालीस साल तक उसका पति उसे बेवकूफ़ कह कर पुकारता रहा, सारंगी त्याग और सहिष्णुता की देवी बनी सारे कर्तव्य चुपचाप निभाती रही। अंत में वह फैसला करती है कि उसे अपने पति को तलाक देना होगा, उसका पति अभी भी चालीस साल पहले की मानसिकता में जी रहा है.  दसवीं पास सारंगी , जिसने हर रोज़ पराये देश में संघर्ष किया, सोच और समझ दोनों में बहुत आगे निकल गई है. वह अब  और अपने पति से जुड़ी  नहीं रह सकती. उसकी प्राथमिकताएँ बदल गई है. सारी ज़िम्मेदारी  का निर्वाह करने के बाद आज वो आखिरकार हिम्मत जुटा पायी है…कि अपने आसमान की तलाश उसे करनी ही होगी, जहाँ वो उम्र के पड़ाव को भी पछाड़  सकती है. चूंकि कोई भी कहानी रिश्तों और समस्याओं की तर्कसम्मत प्रस्तुति होती है इसी कारण कहानी में समस्याओं का हल प्रस्तुत करने के लिए  लेखिका ने विदेशों में रह रहे भारतीयों ख़ास कर महिलाओं के बारे में एक गलतफहमी को दूर करने का सफल प्रयास किया है । अमरीका कि प्रसिद्ध लेखिका रचना श्रीवास्तव जी को विदेश जाकर जो माहौल दिखा, उसमे वो कहती है कि,  हम स्त्रियों की दशा थोड़ी कष्टप्रद होती है. भारतीय संस्कार और यहाँ के वातावरण में तालमेल बैठाना कठिन होता है. बहुत समय लगता है अपने आपको इस माहौल में ढालने के लिए. कभी किसी महिला का दर्द शब्दों में ढल कर कविता या कहानी का रूप ले लेता हैं. भारतीय समाज और विदेशी समाज की धारणाएँ अलग होते हुए भी …..यहाँ भी पुरुष सिर्फ अपने लिए ही जीता है…..इसकी मिसाल उनकी एक कहानी ‘पार्किंग’ है …जिसमे नारी पात्रों के जरिये रचना जी ने विदेशी समाज और भारतीय समाज की नारी के रिश्तों के प्रति सोच और त्याग को एक जैसा ही दर्शाया है, और पुरुष की स्वार्थी मानसिकता को भी. नायिका जूलिया का रूखा व्यवहार स्नेह को तब समझ आता है जब जूलिया उसे अपनी आपबीती सुनाती है कि, किस तरह वो पति के हाथों छली गयी है और बेटे का एक्सिडेंट ने उसे और भी तोड़ दिया है पर वो फिर भी जीती है बेटे की खातिर…..परिवेश कोई भी हो आज भी नारी ही चुपचाप सहती है परिवार और बच्चों की खातिर.
अमरीका में 30 वर्षों से प्रवासी होते हुए भी सुषम बेदी जी  भारतीय समाज की संस्कृति और रीति रिवाजों को भुला नहीं पायी, जहाँ आज भी स्त्री हर रस्मों-रिवाज़ को निभाने में पूरा सहयोग करती है. चूंकि इस कहानी में स्त्री विदेशी मूल की है, तो उसका एक अलग ही रूप दर्शाया गया है जो भारतीय स्त्री से कहीं भी मेल नहीं खाता, और उसकी पीड़ा नायक सहता है. सुषम बेदी जी की कहानी ‘अवसान’ में नायक शंकर अपने दोस्त दिवाकर का अंतिम संस्कार हिंदू रीति से करना चाहता है; परंतु उसकी अमेरिकी पत्नी हेलन चर्च में ही सारी औपचारिकताएं पूरी करना चाहती है. यहाँ नारी का दूसरा रूप दर्शाया है जो ‘पार्किंग’ कहानी की नायिका के बिलकुल विपरीत है, जबकि दोनों नायिकाएँ अमरीकी मूल की हैं. हेलन शंकर का साथ न देकर जिद पर अड़ी हैं ,जिसके चलते शंकर , पादरी की क्रिया खत्म होते ही गीता के श्लोकोच्चारण से अपने मित्र के अंतिम संस्कार की क्रिया को पूर्ण करता है और फिर वो कैसे बहुत संयत तथा हल्का महसूस करता है।
ब्रिटेन की शैल अग्रवाल जी  की कहानी ‘वापसी’ मे परंपरा तथा आधुनिकता के अन्तर्द्वन्द्व में फंसी नायिका पम्मी अपने घर-परिवार की मान-मर्यादा के लिए अपनी खुशियों तथा आकांक्षाओं का गला घोंट देती है। नारी को फिर त्याग की मूर्ति दिखाया है. उसके हिसाब से हित के लिए लिया गया निर्णय सौदा नहीं, त्याग होता है और वह कहती है कि मैं ही क्या हमारे यहाँ तो हजारों पम्मियाँ सदियों से ही करती आ रही हैं. नारी-हित की बातें करने वाले इस देश में बस यही होता आया है। पहले राधा-कृष्ण अलग किए जाते हैं ;फिर उनके मंदिर बना दिए जाते हैं…आदत डाल लो तो समुंदर में तैरती मछली भी खुशी-खुशी काँच के बॉल में तैरने लग जाती है।’ (पृ. 42) परंपरा तथा आधुनिकता के अन्तर्द्वन्द्व में फँसी पम्मी अंततः हेमंत के साथ जाने को तैयार हो जाती है और खास बात तो यह कि उसकी दादी भी उसकी वापसी के लिए अपनी सहर्ष सहमति देती है. कहानी के अंत को पढ़कर पुरानी पीढ़ी की नारी (दादी) को नये परिवेश में ढलते दिखाना कहीं न कहीं बदलते समाज का रूप है …चाहे धीरे धीरे ही सही.
नारी का एक विश्व प्रसिद्ध रूप कर्मठता का भी है, चाहे देशी धरती या विदेशी. महिला चाहे तो अपनी मेहनत और लगन से कुछ भी हासिल कर सकती है और यह लंदन की उषा राजे सक्सेना जी कहानी, ‘बीमा बीस्माट’ एक बिल्कुल नये कथानक से पाठकों को परिचित कराती है। कहानी एक शिक्षिका द्वारा एक अर्धविक्षिप्त बालक बीमा बीस्माट को एक जिम्मेवार ब्रिटिश नागरिक बनाने की कडी मेहनत, लगन और समर्पण को प्रस्तुत करती है।
गौतम सचदेव की कहानी ‘आकाश की बेटी’ साधना नाम की स्त्री के त्यागपूर्ण तथा संघर्षमय जीवन की कथा है। घर-परिवार के सारे रिश्तों को तोड़कर व तमाम सुख-सुविधाओं को छोड़कर जिस देविंदर के प्यार के लिए साधना झूठ बोलकर इंग्लैंड चली जाती है, वहाँ जाने पर देविंदर द्वारा छली जाती है। देविंदर का रुखा व्यवहार तथा एक अन्य ब्रिटिश मेम शाइला से प्यार उसे तलाक के लिए मजबूर कर देता है। दूसरी शादी में भी उसे इसी प्रकार की समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। वह अपनी बेटी बबली को भी गँवा देती है। अपने घर के दालान में कबूतरों को दाना चुगाती साधना के जीवन में आई एक नई कबूतरी, जिसकी शरारतें कुछ-कुछ बबली से मिलती-जुलती हैं। अब साधना उसी के इंतजार में रहती है और उसी को जीने का सहारा मानकर खुश रहती है.
प्रवासी कथाकारों ने अपने साहित्य के जरिये स्त्री के हर रूप को शब्दों में बाँध बारीकी से दर्शाने के बहुत ईमानदारी से कोशिश की है. अमरीका की  ही एक और कहानीकार पुष्पा सक्सेना जी की कहानी ‘विकल्प कोई नहीं’, में माँ को बेटे के चले जाने के बाद , दर्द को छिपाकर सिर्फ बहू की आने वाली लंबी जिंदगी के बारे में सोच कर, बहू का बेटी की तरह कन्यादान करना और बहू का अतीत से बाहर न आ सकना , बारीकी से दिखाया है. और औरत का यह रूप जहाँ, वो सास से माँ बन कर फिर एक मार्गदर्शक के नाते बहू सौम्या को समझाना कि, ‘दूसरा पति ,पहले का विकल्प नहीं हो सकता’, नारी की बुद्धिमत्ता का  द्योतक है. और दूसरी तरफ बिलकुल इसके विपरीत लंदन के सुप्रसिद्ध कथाकार तेजेन्द्र शर्मा जी कि कहानी ‘देह की कीमत’, में अपने पति हरदीप को, जिसके साथ पम्मी ने सिर्फ 4-5 माह ही व्यतीत किए थे , जिसे वह विदेशी धरती जापान में खो चुकी है, उसके दुखों और भविष्य की परवाह न करते हुए, बीजी (सास) ऐसे विषम क्षणों में भी तिजारत और व्यावहारिक फायदे नहीं भूलती. बेटे की मौत के बाद मित्रों द्वारा चंदे के भेजे पैसे बहू को न मिल पाये, बल्कि घर में ही रहे, यह सोचकर वो अपने दूसरे बेटे से विधवा बहू पर चादर ओढ़ाने की बात करती है. औरत के ऐसे स्वार्थी चेहरे को तेजेन्द्र जी ने बड़ी ही कुशलता से उकेरा है. एक और प्रवासी कथा लेखिका उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ में औरत का बिलकुल अलग रूप देखने को मिलता है जो घर-गृहस्थी और बच्चों के कारण वर्षों पति से अलग रहती है और जब सेवानिवृत्त हो कर पति साथ रहने आता है तो सब कुछ बदला हुआ पाता है. यहाँ तक कि पत्नी भी साथ नहीं रह पाती, अंतराल प्यार खतम कर चुका होता है.
कैनेडा की  जानी मानी कथा लेखिका सुदर्शन प्रियदर्शिनी जी  ने अपनी कहानी ‘धूप’ के माध्यम से नारी के मन के  अंतरद्वंद्व को उकेरा है. जिसमे नायिका रेखा अमरीका की धरती पर कदम रखते हुई खुश है. समय के साथ उसे महसूस होता है की उसका पति बिलकुल अमरीकन बन चुका है और स्वार्थी भी. जैसे दूसरों की स्कीमों पर बने घरों में उम्र कट रही है. अपनी मनपसंद की चौखट कभी मिल ही नहीं पाएगी, इसलिए दूसरों के बनाए हुए साँचों में ढल और अपना नापतौल भूलने से पहले वह किस तरह से समझदारी और हिम्मत से फैसला लेती है. काबिले तारीफ है.
कुल मिला कर प्रवासी-साहित्य में कथाकारों ने अपनी पारखी नज़रों और पैनी कलम से स्त्री के संघर्ष ,त्याग, साहस और बुद्धिमता का ऐसा ख़ाका खीचने का प्रयास किया है, जिसमे देशी और विदेशी धरातल पर पाठकों को लाकर एक सवालिया निशान बना, उन्हे समाज में बदलाव लाने का न्योता देने का काम कर रहे हैं. देशी मिट्टी में देशी संस्कारों की सौंधी महक से सराबोर इन कहानियों से गुजरते हुए अपने देश, अपनी मिट्टी और अपनी संस्कृति के प्रति आस्था और विश्वास में बढ़ोतरी होती है।
- डॉ. अनिता कपूर

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