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25.8.17

डेरा सच्चा सौदा कि झूठा सौदा : सलिल समाधिया

सलिल समाधिया 
डेरा सच्चा सौदा कि झूठा सौदा
अब हम सब कौवे कायें-कांव-कांव करने लगेंगे... घरों के ड्राइंग रूम में , चाय- पान के टपरों में , बार, रेस्टॉरेंट में बैठकर...
गुरमीत राम-रहीम को गालियां बकेंगे ,..उनके भक्तों को मूर्ख कहेंगे और चाय पी-पीकर, सिगरेटें फूँक- फूंककर , पान-खा- खाकर.. खूब कोसेंगे.. सरकार, राजनीति, मीडिया सभी को .
लेकिन खुद का डेरा और झूठा सौदा कभी नहीं देखेंगे। ..हममे से कोई भी सच्चा सौदा के भक्तों से अलग है क्या ??
बस इतना ही है की अभी तक हमारे गुरु और भगवान पर आंच नहीं आई है। ...
आएगी.. तो हम भी यही करेंगे... ??
बात ये नहीं है कि राम-रहीम क्या है ,कि रामपाल क्या है....बात ये है कि हम क्या हैं ??
हम क्यों जाते हैं इन डेरों पे ?? .. क्या हम भक्त हैं , सत्य-पिपासु हैं , क्या हैं ??
जो बात लिख रहा हूँ , जानता हूँ कि 100 में से 90 को बिलकुल नहीं पुसायेगी , ...चुभेगी .डंक मारेगी । क्यों ??
क्योंकि वो भी किसी न किसी गुरु या डेरा पर सज़दा कर रहा है
मैं हैरान... हूँ कि हमारे देश में हर 100 मीटर के दायरे में मंदिर ,मज़ार हैं सब ओर देव पुज रहे हैं। एक सामान्य शहर में औसतन पच्चीस हज़ार मंदिर होते हैं ..लेकिन हम लोग इतने बड़े भिखारी हैं कि वहां तो जाते ही हैं .. लेकिन रामपाल या राम-रहीम के पास भी जाते हैं ...अब या तो हमारा देवता बोगस है या या हमारी श्रद्धा नपुंसक है
हम इतने बड़े वाले " मँगने" हैं कि राम से नहीं मिल पाया तो रामपाल को पकड़ लेते हैं...
वेश्या की तरह हम गुरु और देव बदलते जाते हैं
..
यही कारण है कि एक शहर में अगर बीस हज़ार मंदिर हैं तो उसी शहर में दस हज़ार गुरु भी डेरा डाले हैं और सबका धंधा चल रहा है। ..
क्योंकि मंदिर भी अपने आप नहीं चलता उसके पीछे मंदिर का धंधा चलने वाले १० गुरुघंटाल डेरा डाले हैं
हम चाहते क्या हैं आखिर। ....
क्या .. ईश्वर? ...नहीं
क्या सत्य..??.......नहीं
ज्ञान..? ....नहीं
हम चाहते हैं.. ...पैसा ,
हम चाहते हैं ....सफलता, ..उपलब्धि,.. नौकरी,
हम चाहते हैं ...प्रमोशन,.. मुकद्दमे में जीत,.. बच्चे का भविष्य,.. स्वास्थ्य ..बेटी की शादी,.. कर्ज़े से मुक्ति,
हाँ चाहते हैं गाडी, मकान, शोहरत
हमारी सब प्रार्थनाओं का सार है-
सुख सम्पति घर आवे कष्ट मिटे तन का
दरअसल, हम बौड़म, बेवकूफों का एक बहुत बड़ा बाजार है
हम ऐसे कन्ज़ूमर हैं जिनके पास अभाव रूपी दौलत है
अशांति,बेचैनी, महत्वाकांक्षा की अपार सम्पदा है..
इसी पर नज़र गड़ाए हैं गुरु, मंदिरों के ट्रस्टी, आश्रमों के संचालक, ज्योतिषी, योग और आयुर्वेद बेचने वाले , जीवा और पतंजलि ....आदि आदि ...
अच्छा ..इधर देश में जैसे ही एक मध्यम वर्ग पैदा हुआ ... नव धनाढ्य , अंग्रेजी बोलने वाला ...
फैशनेबल,...टेक्नोफ्रेंडली,... फ़र्ज़ी इंटेलेक्चुअल लोगों का ...तो वहां तुरंत ही उनको फंसाने के लिए नए फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले धंधेबाज बाबाओं ने भी अपना जाल फेंका
अब हम लीचड़ लोग,.. सदियों के गुलाम, हमारे लिए तो अंग्रेजी वैसे भी हाई-फाई चीज़ है.. तो अंग्रेजी में ज्ञान और धर्म की बात करने वाले के तो हम तलवे ही चाटने लगते हैं.. ...तो उग आये फलां फाउंडेशन।..ढिकां.. .धाम। ..अब चूँकि साउथ वालों की अंग्रेजी ज्यादा अच्छी होती है तो इसीलिए साऊथ से एक-एक करके अंग्रेजी डां बाबा उगना शुरू हो गए ... ताकि हाई सैलरी पैकेज वाले आईटी स्टूडेंट्सरूपी " नए भक्त " न छूटने पाएं।
लेकिन छोड़िये हम मूरख,.. लीचड़, बोर, लैन्डु-लपाडु लोग क्या सत्य को जानेंगे ..
जानना तो छोड़िये ..कभी सत्य को जानने की जिज्ञासा भी पैदा कर पाएंगे अभी दूर की कौड़ी है
अभी तो "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा "का देश "अथातो धन इच्छा" बना रहेगा बहुत वर्षों तक ..
भूख हमें है नहीं ईश्वर की ...लेकिन भोजन खूब कर रहे हैं ईश्वर का.. इसीलिए अजीर्ण हुआ जा रहा है... अपच हो गई है धर्म की... मस्तिष्क में सड़ रहा है... ये बिना भूख का भोजन ,और अध्यात्म की उल्टियां कर रहे हैं हम लोग ...
गाय की पूजा करेंगे लेकिन कुत्ते को पत्थर मारेंगे
जिन जानवरों की धार्मिकता संदिग्ध हो उन्हें काटकर खाएंगे
एक ओर वृक्ष की पूजा करेंगे लेकिन उसी वृक्ष को काटकर ,जलाकर उसपर मांस भूंजेंगे
ज़मीन घेरने के लालच से घर के पिछवाड़े या सामने मंदिर बनाएंगे और फिर वहां त्याग और अपरिग्रह का देवता स्थापित हो जायेगा...
पूरा देश पुराण, भागवत की कथाओं से सराबोर है कथा वाचक पांडित्य के दम्भ से दमक रहे हैं और सुनाने वाले भक्ति के मद से ...
यहाँ तर्क,मीमांसा, वैज्ञानिकता की बात मत कीजिये.. मार डालेंगे आप को
यहाँ तो हम घर से दफ्तर जाते 50 मुर्दा मंदिरों को सर झुकायेंगे और 50 जीवित आत्माओं को गाली बकेंगे
जिसको जितनी कहानियां याद हैं वो उतना बड़ा पंडित है
अभी तो बहुत वर्षों तक राम- रहीमों का डेरा चलना है बॉस
सब लोग ज़ोर से अपने-अपने गुरुओं की जयजयकार करो
अब सब लोग अपने गुरुओं के पक्ष में खूब तर्क देना... okay
और सिद्ध करना की बाकी का तो पता नहीं... लेकिन हमारे गुरु की बात ही कुछ और है
लेकिन ध्यान रहे ...हमारी जिज्ञासा है की नहीं ये कभी मत देखना
हमें सत्य की प्यास है की नहीं सोचना भी मत। ..नहीं तो .... हाथ में आ जायेगी
तो शुतुरमुर्गों। ..स्वयं में ही विराजमान उस परम के अथाह समुन्दर से मुंह छिपा लो
और गुरु और डेरों में मुंह छिपा लो
स्वयं का दीपक कभी मत बनना
अज्ञान का डेरा डेल रहो
यही तुम्हारे लिए सच्चा सौदा है

27.10.08

हमारे समूह का ओशो : सलिल समाधिया और धन को तरसाती धन तेरस


धन को तरसता पूंजी-बाज़ार और जबलपुर जैसे कस्बाई शहर 500 के आसपास कारों का बिकना.एक अजीबोगरीब अर्थशास्त्रीय संरचना को देखकर आप भौंचक न हों समयांतर में इस आर्थिक संरचना को आप समझ पाएंगे की कहीं यह महामंदी एक आर्टिफीशियल तो नहीं ?
कल जब मुझे धन को तरसाती तेरस के अवसर पर टेलीफोन कंपनियों ,व्यावसायिक प्रतिष्ठानों,और अमीर मित्रों ने “धन-तेरस ” की शुभकामनाएं दीं तो मुझे लगा आज़कल आमंत्रण के तरीके कितने अपने से हो गए हैं चलो किसी एक प्रतिष्ठान पे चलें सो फर्निचर वाले भाई साहब की दूकान पे पहुंचा जो मुझे जानता था । यानी की उसे मालूम था कि मैं ओहदेदार हूँ सो मुझे देखते ही सपने सजाने लगा मैंने पूछा : भई,पलंग ……….?
मेरे पीछे चिलमची लगा दिए गए पलंग दिखाने पूरी इस हिदायत के साथ कि :-”भई,घर में जाएगा पलंग बिल्लोरे जी कस्टमर नहीं हैं हमाए मित्र “
मालिक के मित्र के रूप में हमको 5000/_ से 50000/_ वाले एक से एक पलंग दिखाए गए सबकी विशेषताएं गिनें गईं और हर बार कहा साब “फ़िर आप सेठ जी के मित्र हैं हम कोई ग़लत चीज़ थोड़े न बताएंगे “
हम ठहरे निपट गंवार सो हमको घर में पड़े पुराने पलंग की याद आ गयी आनन् फानन हम बोल पड़े :-यार जैन साब,पिछले बार जो पलंग हम ले गए थे तीन साल पहले उसको वापस ले लो डिफरेंस दे देता हूँ ?
ये पूछते ही मेरा रेपो रेट धडाम से नीचे । कुछ कस्टमर मुझे घूर के देखने लगे । एक महिला जिनको मैं अच्छी तरह से जानता था कि वे किस अफसर की बीवी हैं मुझे लगभग घूर रहीं नज़र आयीं जैसे उनके मुंह में मछली के स्वादिष्ट व्यंजन के साथ मछली का काँटा आ गया हो । हमारे प्रति दुकान के सारे लोगों का नज़रिया ही बदल गया ।
मनीष शर्मा,जहाँ रहतें हैं वहाँ की सुन्दरता देखने कालेज के दिनों में हमारा खूब आना जाना हुआ करता था वहीं उसी गली में चौरे फुआजी जब तक रहे तब तक अपन बच्चे थे जब वे रिटायर होकर हरदा के वाशिंदे हुए तो अपन कालेज में आ गए थे और मित्र अरविन्द सेन के घर आने जाने लगे .बिना डरे श्रीनाथ की तलैया के नुक्कड़ पे चाय के टपरे से “गंजीपुरा के चूढ़ी मार्केट के अनिद्य सौन्दर्य का रसास्वादन करते निगाहें से “
हम मित्रों को वो दिन याद आ ही जाते हैं आवारा गर्दी के वे दिन और अपनी बेवकूफ़ियों पे ठहाका लगाते हम लोग अब उन दिनों को याद करते हैं . क्या सही कहा है पंडित केशव पाठक ने
” ये आई जवानी वो छाई जवानी ,
जवानी,- के दरिया की जिसमें रवानी !!
खानी ! के जिसकी हर एक मौजे,-तूफ़ान,
किया करती,पत्थर के दिल को भी पानी !!
[स्वर्गीय केशव प्रसाद पाठक,एम. ए.]
यहीं रहने वाले मनीष शर्मा को लेकर हम निकले सदर काफी हाउस के लिए गोरखपुर सेओशोको पकड़ना था !

सदर का काफी हाउस में
मनीष शर्मा जी और मेरे कामन मित्र सलिल समाधिया के साथ तय था आज का दिन कई पुराने हिसाब चुकाने थे इस धनतेरस को पड़े रविवार का फायदा उठाए बिना हम भी न रह सके सारे मसाले टच किए चर्चा मंडली ने उसमें प्रमुख मसला था “बावरे-फकीरा एलबम “की लांचिंग ।
मित्रों को मैंने बताया :- एक बरस से ज़्यादा टाइम खोटी करके आज जब भी मैं एलबम की लांचिंग की बात करता हूँ तो हमेशा कोई न कोई नकारात्मक कारण सामने आ जाता [ला दिया जाता..?] यहाँ तक ठीक है किंतु जब मस्तिष्क ने सारे एंगल से देखा तो लगा करता था -कहीं पप्पू फ़ैल न हो जाए ? तभी टी. वी . पर विज्ञापन गूंजा “पप्पू,पास हो गया ” सच,जिसे आप पप्पू समझ के माखौल उडातें हों तो सतर्क हो जाइए “पप्पू ही पास होते हैं !” किंतु अब जिस रात से मन ने संकल्प ले ही लिया कि चाहे कुछ भी हो हम तो कर गुज़रेंगेउस रात मैं गहरी नींद सोया .
दिवाली के बारे में सलिल भाई के विचार बिलकुल साफ़ हैं …..”मुझे बचपन से ही ये त्यौहार,………….! “क्योंकि यह केवल आत्म प्रदर्शन लक्ष्मी की वृद्धि के लिए किया जाने वाला त्यौहार है . गरीब के लिए इसमें केवल पीडा ही होती हैमुझे लगता है की कोई क्रिया यदि विध्वंसक प्रतिक्रया को जन्म दे तो मानिए क्रिया का उद्येश्य जो भी हो उसमें हिंसा का तत्व मौजूद है .
जबकि मनीष शर्मा जी का मानना था की -”हर त्यौहार के साथ एक अर्थ-तंत्र “संचालित होता है . जिससे जुड़े होते हैं रोज़गार .
उधर दो सेट युवक युवतियों के पधारने से काफी हाउस का मौसम रोमांटिक सा होता जा रहा था जोड़े दो थे फ़िर धीरी-धीरे जोड़े पे जोड़े “धूम एकधूम दोधूम तीन………………. “आते चले गए चालीस के पार वाले आहें भर रहे थे तो पचपन वालों नें तो समय को गरियाना शुरू कर दिया :-”क्या ज़माना आ गया है .बताओ………..?” उसका वो साथी जो मुफ्त-काफी का स्वाद ले रहा था बोला:-”क्या कहें भैयाज़माना ख़राब है “
समय आगे खिसक रहा था पहले आए दो जोड़े में से एक युवती आगे आकर पचपन वाले दादू के पास पहुँची दादू घबरा गए सोचने लगे इसने सुन ली लगता है उनकी बात .दादू,प्रणाम,पहचाना नहीं ?”
“……………………………?”
दादू,मैंअनुजा,आपके कजिन की बेटी मिलिए ये मेरे एम. डी. समीर जी ये दीपा,ये कौशिक दीपा के हसबैंड “
दादू जिस ऊंचाई से गिरे हैं हजूर हम तीनों मित्रों ने देखा ! जोडों के जाने के बाद दादू ने कहा “अनुजा समीर की जोड़ी कैसी रहेगी ?”
मुफ्त खोर साथी बोला :-”गज्जू से बात करो दादा,ये ठीक है, “
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दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं
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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...