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मार्च, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आफ्टर थिएटर डे

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कंजूस नाटक में बालभवन जबलपुर  के पूर्व छात्र अक्षय ठाकुर  की भूमिका बेहद प्रभावी रही.. इस युवा रंगकर्मी के उजले कल की प्रतीक्षा है. इस चंचल बालक ने खुद को रंगकर्म के जोखिम भरे काम में डाल दिया है. थियेटर से कलाकार ट्रान्सफार्म हो जाता है तो दर्शक में भी कम बदलाव नहीं होते. थियेटर बेहद जटिल विधा है जबकि फिल्म बेहद आसान .. आप मोटी मोटी फीस देकर पर्सनैलिटी को प्रभावी बनाने की कोशिश करलें तो भी वो रिजल्ट न मिलेगा जो तीन नाटकों में काम करने मिलता है . बस डायरेक्टर का खूसट होना ज़रूरी है. जो कठोर अनुशासन का पालन कराए. थियेटर के मामले में मेरा नज़रिया साफ़ है.. कि फिल्म से अधिक थियेटर प्रभावशाली होता है. सियासी लोग अपनी विचारधारा को विस्तार देने का ज़रिया थिएटर को बनाकर चुनौती देते हैं सवाल खड़े कर देतें हैं व्यवस्था के खिलाफ.... जबकि उनका "जन" से कितना लेना देना होता है इसका अंदाजा आप खुद ही लगा सकतें हैं. पर नई जमात बेहद सलीके से मानवता वादी नजर आ रही है. जबलपुर में परसाई जी की कहानियों पर आधारित नाटकों को खूब सपोर्ट मिला क्योंकि उनमें सटायर तत्व और मज़बूत रहा है पर समय के साथ ते

कैंसर से जूझ रहे गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर परिकर जी का मार्मिक सन्देश

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फेसबुक पर सदानंद गोडबोले जी की पोस्ट जो मूलत  पूर्व रक्षा मंत्री और गोवा के मुख्यमंत्री  जी का   मूल मराठी  सन्देश   :: अनुवादक  पुखराज सावंतवाडी की प्रस्तुति  कुमार निखिल द्वारा की जा रही है .  मनोहर परिकर जी कैंसर से जूझ रहे हैं , अस्पताल के विस्तर से उनका यह संदेश बहुत मार्मिक है , आप भी पढ़ें... " मैंने राजनैति क क्षेत्र में सफलता के अनेक शिखरों को छुआ ::: दूसरों के नजरिए में मेरा जीवन और यश एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं ::: ;::; फिर भी मेरे काम के अतिरिक्त अगर किसी आनंद की बात हो तो शायद ही मुझे कभी प्राप्त हुआ :::   आखिर क्यो ?  तो जिस political status जिसमें मैं आदतन रम रहा था ::: आदी हो गया था वही मेरे जीवन की हकीकत बन कर रह गई:: ; इस समय जब मैं बीमारी के कारण बिस्तर पर सिमटा हुआ हूं , मेरा अतीत स्मृतिपटल पर तैर रहा है ::: जिस ख्याति प्रसिद्धि और धन संपत्ति को मैंने सर्वस्व माना और उसी के व्यर्थ अहंकार में पलता रहा::: आज जब खुद को मौत के दरवाजे पर खड़ा देख रहा हूँ तो वो सब धूमिल होता दिखाई दे रहा है साथ ही उसकी निर्थकता बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा हूं:: ;

फिल्म रेड की पटकथा में लेखक की भूल

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फिल्म रेड की पटकथा में लेखक   ने   आयकर छापे के नियम को देखा नहीं ये तो नहीं मालूम पर अगर आप आयकर अधिनियम की पूरी जानकारी नहीं रखते तो मुश्किल अवश्य हो सकती है. अगर छापा पडा तो .. भगवान न करे की हम आप   आयकर छिपाएं और छापे की नौबत आए.,. पर मिडिल क्लास .. नंगा क्या नहाएगा क्या निचोये गा साब ... ?   1. आयकर अधिकारी बिक्री के लिए रखे गए माल को जब्त नही कर सकते हैं बल्कि वे केवल इसको अपने दस्तावेजों में नोट जरूर कर सकते हैं ,  साथ ही स्टॉक में रखे माल की भी सिर्फ एंट्री कर सकते हैं. यह राहत घोषित और अघोषित दोनों तरह के स्टॉक के लिए लागू होती है. 2.  आयकर अधिकारी किसी ऐसी नकदी को जब्त नही कर सकते हैं जिसका पूरा लेखा जोखा उस कंपनी या आदमी के पास मौजूद है. 3.  आभूषण जो कि स्टॉक के रूप में रखे गए हैं और संपत्ति कर रिटर्न में उनको जोड़ा गया है तो उन्हें भी जब्त नही किया जा सकता है. 4.  यदि कोई करदाता सम्पत्ति कर जमा नही कर रहा है तो   हर विवाहित स्त्री  500  ग्राम सोना रख सकती है ,  हर अविवाहित स्त्री 250  ग्राम सोना और हर आदमी 100  ग्राम तक सोना अपने पास रख सकते हैं.   यदि इस

रेड फिल्म की दादी पुष्पा जोशी की जिंदादिली से चमका उनका सितारा ....!!

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किसी ख़ास मुकाम पर पहुँचने के लिए कोई ख़ास उम्र, रंग-रूप, लिंग, जाति, धर्म, वर्ग का होना ज़रूरी नहीं जिसके सितारे को जब बुलंदी हासिल होनी होती है तब यकबयक हासिल हो ही जाती है. ये बात साबित होती है जबलपुर निवासी होसंगाबाद में सामान्य से परिवार जन्मी  85 वर्षीय बेटी श्रीमती पुष्पा जोशी के जीवन से . हुआ यूं कि उनके मुंबई निवासी पुत्र रवीन्द्र जोशी { जो कवि संगीतकार, एवं कहानीकार हैं, तथा हाल ही में बैंक से अधिकारी के पद से रिटायर्ड हुए हैं}  की कहानी ज़ायका से . श्री जोशी की कहानी “ज़ायका” उनकी पुत्र वधु हर्षिता श्रेयस जोशी, ने निर्देशित कर तैयार की जिसे  आभास-श्रेयस  यूँ ही यूट्यूब पर पोस्ट कर  दी. एक ही दिन में ३००० से अधिक दर्शकों तक  यूट्यूब के ज़रिये पंहुची फिल्म को बेहतर प्रतिसाद मिला. उसी दौरान फिल्म रेड की निर्माता कम्पनी के सदस्यों ने देखी . और जोशी परिवार को खोज कर रेड में अम्मा के किरदार के निर्वहन की पेशकश की . दादी यानी श्रीमती जोशी जो जबलपुर से मायानगरी  बैकबोन में दर्द का इलाज़ कराने पहुँची थी ने साफ़ साफ़ इनकार कर दिया. निर्माता राजकुमार गुप्ता एवं परिवार के समझाने पर बमुश्किल र

चेहरा नहीं दिल बोलता है ....!!

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चेहरा नहीं दिल बोलता है ....!! और दिल  जब भी...  दिल से बोलता है ...  तब बुत मुस्कुरातें हैं ... तितलियाँ मंडरातीं हैं... हज़ारों हज़ार स्वर लहरियां ... वीणा   तारों से छिटककर बिखरतीं ......... पुरवैया – पछुआ हवाओं में .. घुल जातीं हैं ...!! हाँ तब जब चेहरा नहीं दिल बोलता है ....!! दिल जब बोलता है बरसों के दबे कुचले छिपे छिपाए एहसासों का ज्वालामुखी फूटता है ... कहते हुए कि- अब और नहीं ... अब और नहीं ...!! ठहर जाते हैं  आघाती हाथ ...  क्रूर आँखें डर जाती हैं...! "तख़्त-ओ-ताज़" सम्हालते हाथ ..  चेहरा नहीं दिल बोलता है ....!!