17.10.11

क्या आपके फ़ादर अली ने भी कभी पहनी है ऐसी घड़ी..?


भास्कर से साभार 

  बूचड़खाने से चीखते पुकारते कटते पशुओं की सी स्थिति हो चुकी है गोया हमारे चिंतन के लिये विषय चुक से गए हों  अपने इर्द-गिर्द देखिये कोई मौन-दृढ़ता युक्त व्यक्तित्व आपको क़तई नज़र न आएंगें. हम किसे सच मानें किसे झूठ इतना तक सामर्थ्य शेष नहीं रहा . कारण कारण क्या है बताते शर्म आती है सच जानना है तो जान ही लो :-"हम एक मानसिक दीवालियेपन वाले दौर में आ चुकें हैं !" सूचनाऒं की बौछार को हम सत्य मान लेते हैं. 
हमारी नज़र में हम उम्दा हैं बाक़ी सब बाक़ी सब दोयम दर्ज़े के . यानी सरो-पा नैगिटिविटि . दस बरस पहले एक दम्पत्ति दीवाली की खरीदी के वास्ते पास के शहर से आई थी. उन दिनों वीडियो-गेम्स का बड़ा चलन था. स्टेटस सिंबल बढ़ाने किये जाने वाले यत्नों में  सपूत के लिये वीडियो-गेम खरीदता जोड़ा  आपस में बतिया रहा था गुप्ता जी के बेटे के पास जो है उससे बेहतर है न ये . गुप्ता जी उनका सहकर्मी या पड़ौसी था. पेशे से अफ़सर ये लोग वाक़ई आपसी स्पर्द्धा में बच्चों तक को घसीट लेते है .गुप्ता जी के बेटे से बेहतर वीडियो-गेम उनके पास होना क्यों ज़रूरी है इस बात की पतासाजी करने की गरज़ से हमने बेवज़ह बात शुरु करदी पर्सनालिटी से हम सामान्य हैं सो हमने ही उनको अभिवादन किया बेरुखी से बमुश्किल नमस्कार का ज़वाब देने वाले उस अफ़सर से हमने बताया कि हम कौन हैं. तो ज़रा शर्मिंदा हुए बोले -"सर नाम तो सुना है आपका"
हम:-सुना नहीं पढ़ा होगा, हम तो मिसफ़िट आदमी हैं. बहरहाल आप से हमारी मुलाक़ात हुई है कहीं है न..?
वे :- जी, पिछले माह मिले थे न एडवोकेट जनरल के दफ़्तर में.
हम:- अर्र हां याद आया
                            मैं उनसे वहीं मिला था इस मुलाक़ात के पंद्रह दिन पहले पर वे मुझसे वह परिचय छिपाना चाह रहे थे कारण क्या था मुझे समझ में नहीं आ रहा था. बहरहाल उनसे मैने पूछ ही लिया :-सर, ये सब चीजें उधर भी तो मिल जातीं अच्छा किसी नातेदारी में आये होंगे..?
वे:-न जी बस श्रीमति जी चाह रहीं थीं जबलपुर में तफ़रीह हो जाए. उनको कुछ-साड़ियां दिलानी थीं, बच्चों के लिये गेम्स-वेम्स एकाध पिक्चर बस और क्या वरना हमारी ज़िंदगी  कोल्हू के बैल से कम कहां ?.
         बेचारा कोल्हू का बैल सोच भी वैसी ही हो गई उसकी...बताओ बछड़ों में प्रतिष्पर्द्धा के बीज बो रहा उसे क्या मालूम कि यही बेटा किसी दिन उसकी सांसे रोक देगा 
 हम:-भई, ये टीवी बच्चों को वो सब बता रही है जो हमको भी नहीं मालूम ..?
 वो :- भाई, साहब हमारा वो है न गुप्ता उस दिन जो फ़ाईल दिखा रहा था पडोस में रहता है उसके लड़के के पास समुराई का वीडियो गेम है, बेटा पूछ रहा था कि पापा आप के बास है क्या गुप्ता अंकल उनके पास सब कुछ जल्दी आ जाता है. 
           मुझे ताज़ुब हुआ उनके बेटे के सवाल पर गुप्ता जी के बेटे के पास वीडियो-गेम है और उनके बेटे के पास नहीं तो ओहदे की रौनक में कमीं नज़र आई शायद वे मानसिक दिवालिये पन की हद में हैं नहीं तो बेटे को समझा देते कि बेटे वीडियो-गेम किसी के बड़े या छोटे को मापने का स्केल नहीं. शायद वे अपनी बीवी के लिये भी साड़ियां इसी कारण दिला रहे  थे...... गुप्ता से कमज़ोर न दिखने के लिये उनको कितना खर्च करना पड़ा सच अफ़सरी बचाने, और दिखाने के लिये कितनी व्यवस्था जुटानी होती है. 
   दस बरस बाद  स्थिति और अधिक बद से बदतर दिखाई दे रही है लोग इस कदर विचारधारों के पीछे भाग रहे हैं  मानो कल वह विचारधारा मंहगी हो जाएगी पेट्रोल अथवा गैस के सिलेण्डरों की तरह. मानो कि खुद के व्यक्तित्व में कोई ठोस चिंतन न हो. आपको याद होगा लोग सरकारी नौकरी इस कारण पसंद करते थे कि उनका भविष्य सुरक्षित सुनिश्चित एवम रुतबे वाला है. गिनी घुटी पगार के साथ ऊपरी आमदनी की आकांक्षाएं ताक़ि कल का जीवन सुरक्षित हो लड़कियों  के अभिभावक ऐसा लड़का खोजते जो सरकारी नौकरी वाला हो .कुछ ऊपरी आमद हो  यानी सदाचारी हो  न हो . बेटे को भी डाक्टर इंजिनियर केवल उच्च आय वर्ग में लाने कि होड़ के अलावा कुछ न था. मेरे बड़े भाई मेरा कामर्स में दाखिला लेना जाने क्यों कुछेक क़रीबी नातेदारों के मन में मेरे या भैया दोयम भाव जगाता था उन दिनों. एक महिला नातेदार के पति की कलाई पर सजी  मंहगी रिस्टवाच बड़े भैया ध्यान देख रहे थे उनको ऐसा करते देख वे महिला नातेदार  कह उठी थी-क्या आपके फ़ादर अली ने भी कभी पहनी है ऐसी घड़ी..?
        बेशक हमारे पिता को मंहगी रिस्टवाच का कभी इंतज़ार न था वे तो उस घड़ी का इंतज़ार करते थे कि जब हम सफ़ल बनें. सफ़ल हैं हम मंहंगी रिस्टवाच वाली नातेदार के दिमागी दीवालिये पन पर हम ने संस्कारवश कोई टिप्पणी न की हमको मालूम था हमारा लक्ष्य जो मां बताया करती थी.    
लोग  भ्रष्टाचार का मूल तत्व है दिमागी दीवालिया पन यानी अंधी दौड़ दिखावा न्यूनतम ज़रूरतों से 
 . आगे सक्षमता हासिल कर लेने  की आकांक्षाएं
       यही भ्रष्टाचार अब खुद हमारा जीवन तबाह करने आमादा है तो हम अन्ना के पीछे हो लिये चीखने चिल्लाने लगे किंतु क्या वास्तविक बदलाव की अपेक्षा का भाव हमारे ज़ेहन में है नहीं तो पवित्र आंदोलन में गंदगी के साथ होकर न जुड़ें तो ही बेहतर होगा . जुड़ना है तो पूरे दिलो-दिमाग को मथ लीजिये सारी कालिमा को निकाल दीजिये बस इतना ही काफ़ी होगा. किसी भी विचारधारा को संयत भाव से समझिये अपने मौलिक चिंतन से उपजे नवनीत को जिसे अंतरआत्मा की आवाज़ पर  तय कीजिये कि आप स्वच्छ हाथों से पूजा करने जा      
                 मध्यवर्गीय जीवन बेतहाशा तनावग्रस्त एवम अकारण हीनता के भाव का शिकार है. खुद कम सोचता है किसी के सोचे पर अमल करता मध्य वर्ग एक अजीब सी जकड़न में है. हरेक पड़ौसी बदलाव के लिये बेवज़ह ज़द्दोज़हद  करता नज़र आ रहा है. कभी कभी तो क्रूरता पूर्ण तरीके तक स्तेमाल करता है.  

1 टिप्पणी:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से अधिक सफ़ेद क्यूँ...वाली सोच में जीने वाले लोग हमेशा कष्ट में रहते आये हैं और कष्ट में रहते आयेंगे...इनका सुधरना मुमकिन नहीं...

नीरज

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