17.8.11

इतिहास तमाशबीनों का नहीं होता…. ..अविनाश दास


   मेरे नेटिया मित्र अविनाश दास ने अपनी बात में सभी को सजग कर दिया कि किसी भी स्थिति में तमाशबीन महत्व हीन हो जाते हैं इतिहास के लिये.. अविनाश की बात के पीछे से एक ललकार सुनाई दे रही है कि... आंदोलन यानी बदलाव के लिये की गई कोशिश कमज़ोर न हो..
यह किसी आंदोलन में विश्‍वास करने या न करने का समय नहीं है। समय है, इस उबाल को व्‍यवस्‍था के खिलाफ एक सटीक प्रतिरोध में बदल देने का । जिन्‍हें अन्‍ना से दिक्‍कत है, वे अन्‍ना का नाम न लें, लेकिन सड़क पर तो उतरें । जिन्‍हें लोकपाल-जनलोकपाल से दिक्‍कत है, वे इस जनगोलबंदी को एक नयी दिशा देने के लिए तो आगे बढ़ें। इतिहास तमाशबीनों का नहीं होता….” अविनाश का कथन एक वास्तविकता है.
अनपढ़ ग़रीब तबका जिसे ये बात समझने का सामार्थ्य नहीं रखता पर वो ये बात जानता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ़ एक जुट होना ज़रूरी है ऐसा जैसे आज़ादी के वक़्त हुआ था वही सब हो रहा है. गांधी सहित सभी समकालीन आईकान्स के संदेशों में क्या था यही न कि :-अंग्रेज़ों से मुक्ति के लिये एकता ज़रूरी है बस इसी संदेश ने एक तार में पिरो दिया लोग गोलबंद हो गए.. और शुरु हो गया परदेशियों को भगाने का अभियान.
सूरत वाली नेटिया मित्र से मिली खबर में पता चता चला कि रविशंकर भी दूसरी पारी के लिये सहयोगियों को बुला रहें हैं. यानी सिलसिला जारी रहेगा. रुकेगा नहीं. सवाल तो ये भी होंगे कि (कदाचित हैं भी ) : क्या अन्ना के जनलोक पाल बिल से तस्वीर बदल जाएगी..?’
सच तो ये है कि अन्ना एण्ड कम्पनी के बिल से तस्वीर बदलने न बदलने पर परिसंवाद से ज़्यादा ज़रूरत इस बात को समझ लेने की है कि:-अब जनता भ्रष्ट आचरण से मुक्ति चाहती है..! इतना ही काफ़ी है. इस गोलबंदी में जो तस्वीर उभर के आ रही है उससे साफ़ है कि- आंदोलित किया नहीं जा रहा बल्कि भारत के उजले कल की तस्वीर देखने वाली आम जनता को रास्ता मिल गया.इतना ही काफ़ी था . उसे (जनता को ) न तो अन्ना ने भड़काया न केजरीवाल ने उकसाया, किरण बेदी और रविशंकर जी का हाथ है इसमें.. बस इतना जानिये ये आवाज़ बरसों से दिल में गूंज रही थी.. खासकर मध्यम वर्ग के जो मुखर हो गई है अब.
            संसद को क़ानून बनाने के अधिकार की बात को आधार बनाया गया जनता के इस आंदोलन के संदर्भ में. सही है तो ये भी सही है कि प्राप्त अधिकार जेबी घड़ी नहीं हो सकते. एक पिता अगर अपनी संतान को प्राकृतिक अधिकार प्राप्त होने के बावज़ूद उपेक्षित करे तो पिता के खिलाफ़ की गई बग़ावत को रोकना असंभव है. 
            मेरी नज़र में जो भी चल रहा है  अन्ना वर्सेस सरकार जैसा कोई भी झगड़ा नहीं है बल्कि एक जनजागरण है एक सिंहनाद है एक हुंकार है जो देर सबेर सामने आती ही . 

1 टिप्पणी:

अन्तर सोहिल ने कहा…

आपकी आखिरी पंक्तियों से शत-प्रतिशत सहमत
आखिर सहनशीलता की भी सीमा होती ही है।

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