12.1.17

लूट लाए थे मुफलिस दुकानें आज कपड़ों की – बाँट पाए न आपस में, सभी के सब कफ़न निकले !!


गिरह खोली गिने हमने, हमारे गम भी कम निकले
नमी क्यों आपकी आँखों में मेरे गम,  तो सनम निकले .
   
रोज़ बातें अंधेरों की,  फसानों के बड़े किस्से -
खौफ़ खाके जो तुम निकले, उसी दहशत में हम निकले .

किसी शफ्फाक गुंचे पे, यकीं बेहद नहीं करना
सिपाही कह रहे थे – “गुंचों में कई बार बम निकले ..!!”

लूट लाए थे मुफलिस, दुकानें आज कपड़ों की  
बाँट पाए न आपस में, सभी के सब कफ़न निकले !!

ख्वाहिशें पाल मत यारां , कोई  ग़ालिब नहीं है तू 
हज़ारों ख्वाहिशें हों और,  हर ख्वाहिश पे दम निकले ?
                         *गिरीश बिल्लोरे मुकुल”*







   

9.1.17

*संगीत कक्ष से उपजी एक कविता*


वहीं पे मैं जहां भी हारता हूँ
लिखा करता हूँ
किसी दीवार पे
मैं जीत लूंगा ...
जीतना मेरी ज़रूरत है..
ज़रूरत है ज़रुरत है..
मुझे ये ओहदे सितारे कुर्सियां
और दर्ज़ा कुछ नहीं भाता !
इन्हें जीत लेना –
सच मानिए मुझको नहीं आता..
कोई बच्चा जिससे मेरा
नहीं है कोई भी नाता ...
वो जब पर्दा हटाके मुस्कुराके . कहता है
. गुड मार्निग सर
तभी मुझको जीत का एहसास होता है..
चले आओ मेरे दफ्तर ये मंजर
हर रोज़ मेरे पास होता है.
देखकर मुझको बेहतर सुनाने की गरज से  
सिखाए  पाठ टीचर के बच्चे भूल जाते हैं ...
तभी हम उनमें अपनेपन का मीठा स्वाद पाते हैं
टीचर भी मुस्कुरातीं हैं ... बच्चे समझ जाते हैं..
सच कहो क्या जीत ऐसी आप पाते हैं..?


                                   *गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

7.1.17

बॉबी नाटक : छोटे परिवारों की बड़ी समस्या का सजीव चित्रण


बॉबी टीम का तआरुफ़ कराते आर्टिस्ट दलविंदर भाई नाट्यलोक के अध्यक्ष 
                 
मशहूर नाटक लेखक स्व. विजय तेंदुलकर द्वारा लिखित कथानक पर आधारित बाल-नाटक "बॉबी" का निर्माण  संभागीय बालभवन जबलपुर द्वारा श्री संजय गर्ग के निर्देशन में तैयार कराया गया है. जिसकी दो प्रस्तुतियां भोपाल में दिसंबर माह में की जा चुकीं है. 
जहाँपनाह की जहाँपनाह बॉबी
सुभद्रा कुमारी चौहान जी के गीतों से भरा
पूर्वरंग 
                  बॉबी  नौकरी पेशा माता पिता की इकलौती बेटी है जिसे स्कूल से लौटकर आम बच्चों की तरह माँ की घर से अनुपस्थिति बेहद कष्ट पहुंचाने वाली महसूस होती है. उसे टीवी खेल पढने लिखने से अरुचि हो जाती है. स्कूली किताबों के पात्र शिवाजी, अकबर बीरबल, आदि से  उसे  घृणा होती है.   इतिहास के के इन पात्रों की कालावधि याद करना उसे बेहद उबाऊ कार्य लगता है. साथ ही बाल सुलभ रुचिकर पात्र मिकी माउस, परियां गौरैया से उसे आम बच्चों की तरह स्नेह होता है. और वह एक फैंटेसी में विचरण करती है.  शिवाजी, अकबर बीरबल,  से वह संवाद करती हुई वह उनको वर्त्तमान परिस्थियों की शिक्षा देती है तो परियों गौरैया मिकी आदि के साथ खेलती है. अपनी पीढा शेयर करती है... कि उसे माँ और पिता के बिना एकाकी पन कितना पीढ़ा दायक लगता है.
फुदक चिरैया के साथ बॉबी

              बॉबी एक ऐसा चरित्र है जो हर उस परिवार का हिस्सा होता है जो माइक्रो परिवार हैं. जिसके माता पिता जॉब करतें हैं।  स्कूल से आने से लेकर शाम को माँ और पिता के लौटने तक वास्तविकता और स्वप्नलोक तक विचरण करने वाली बॉबी अपनी फैंटेसी  के बीच झूलती है. इस अंतर्द्वंद को बहुतेरे बच्चे झेलते हैं परंतु माता-पिता को इस स्थिति से बहुधा अनभिज्ञ रहते है।  बॉबी यानी श्रेया खंडेलवाल यह सिखाने समझाने में सफल रहीं।
             महानगरों की तरह   अब  मध्य-स्तरीय शहरों तक  संयुक्त परिवार के बाद तेज़ी से परिवारों का छोटा आकार होने  लगे हैं  तथा  उससे बालमन पर पड़ने वाले प्रभाव को प्रभावी तरीके से इस नाटक में उकेरा गया है.
मिकी चूहे के साथ नृत्य करती बॉबी

                           बालरंग निर्देशकों द्वारा बच्चों के ज़रिये ऐसे कथानक के मंचन का जोखिम  बहुधा काम ही उठाया होगा लेकिन संस्कारधानी के इस नाटक को देखकर अधिकांश दर्शकों की पलकें भीगी नज़र आईं थी   संस्कारधानी में बालरंग-कर्म की दिशा में कार्य करने वाले नाट्य-निर्देशक संजय गर्ग  एवम बालभवन जबलपुर के बालकलाकारों की कठिन तपस्या ही मानेंगे कि नाटक दर्शकों के मन को छूने की ताकत रख सका. 
मंचन की सफलता से भावविभोर बेटियाँ  

                 मुख्य पात्र बॉबी के चरित्र को जीवंत बनाने में बालअभिनेत्री श्रेया खंडेलवाल पूरे नाटक में गहरा प्रभाव छोड़तीं है. जबकि अकबर -प्रगीत शर्मा , बीरबल हर्ष सौंधिया, मिकी समृद्धि असाटी , शिवाजी -सागर सोनी, के अलावा पलक गुप्ता (गौरैया)  ने अपनी भूमिकाओं में प्रोफेशनल होने का आभास करा ही दिया।   इसके अलावा मानसी सोनी, मिनी दयाल, परियां- वैशाली बरसैंया, शैफाली सुहानी, आकृति वैश्य, आस्था अग्रहरी , रिद्धि शुक्ला, दीपाली ठाकुर, का अभिनय भी प्रभावी बन पड़ा था. 
बॉबी की नसीहत  फैंटेसी में बनी मित्र मंडली को  
                  नाटक की प्रकाश, ध्वनि एवम संगीत की ज़िम्मेदारी सुश्री शिप्रा सुल्लेरे सहित कु. मनीषा तिवारी , कुमारी महिमा गुप्ता,  के ज़िम्मे थी जबकि बाल गायक कलाकार - उन्नति तिवारी, श्रेया ठाकुर, सजल सोनी, राजवर्धन सिंह कु. रंजना निषाद, साक्षी गुप्ता, आदर्श अग्रवाल, परिक्षा राजपूत के गाये गीतों से नाटक बेहद असरदार बन गया था. 
अपने माता पिता को पाकर आया धीरज बॉबी को

      संभागीय बालभवन के संचालक ने बताया कि - "बच्चों से ऐसे विषय पर मंचन कराना बेहद कठिन काम है किन्तु निर्देशक  श्री संजय गर्ग इस नाटक के ज़रिए उन चुनिंदा लोगों में शुमार हो गए हैं जिनको भारत में ख्याति प्राप्त हुई है. भोपाल में समीक्षकों ने बॉबी नाटक को उत्कृष्ट बता कर पुनः  मंचन कराया था."

2.1.17

BRAND NEW YEAR

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
Nights are Dark,
but Days are Light,
Wish your Life will always be Bright.
So don’t get Fear Coz,
God Gift us a “BRAND NEW YEAR”
*HAPPY NEW YEAR 2017* 
:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

31.12.16

समय चक्र हूँ आऊंगा, लौट तुम्हारे गाँव ।।

न मैं बीता हूँ कभी , नया बरस क्या मीत ?
बँटवारा तुमने किया, यही तुम्हारी रीत ।।
पंख नहीं मेरे कोई, कहाँ हैं  मेरे पाँव -
समय चक्र हूँ आऊंगा, लौट तुम्हारे गाँव ।।
एक सिंहासन के लिए, मत कर गहन प्रयास
सहज राज मिल जाएगा, दिल में रहे मिठास
जिनके मन कुंठा भरी, जले भरम की आग
ऐसे सहचर त्यागिये - न रखिये अनुराग ।।
नए वर्ष की मंगल कामनाएं

25.12.16

मुझे रियलस्टिक फ़िल्में ही पसंद हैं जैसे ... दंगल,

यूँ तो मुझे फ़िल्में देखना सबसे कष्टदाई काम लगता है. क्योंकि बहुधा फ़िल्में रियलिटी से दूर फैंटेसी में ले जातीं हैं. परन्तु हालिया रिलीज़ फिल्म दंगल की आन लाइन टिकट बुक कराने मेरी बेटी ने एमस्टर्डम से पूछा तो सबसे पहले मैंने उसके कथानक की जानकारी ली . फिर कथानक सुनकर कर  यकायक मुझे कामनवेल्थ गेम्स की महिला कुश्ती में भारत की  असाधारण विजय का समाचार धुंधला सा याद आया. किसी अखबार में विजेता गीता के पिता के जूनून की कहानी याद आई पर बस इतनी की एक पिता ने अपनी बेटियों को लड़कों के साथ भी कुश्ती के मुकाबले में खड़ा किया .जो सामाजिक परम्पराओं को तोड़ने की पहल थी. हिन्दी पट्टी वाले राज्यों में  हरियाणा जैसे प्रांत की स्थिति बेटियों के मामले लगभग सामान ही है. और वहां से आयकानिक रास्ते निकल पड़ें तो तय है बदलाव करीब है. आज जब  की फिल्म दंगल देखी तो लगा लम्बी लड़ाई लड़नी होती है बदलाव के लिए . 
यहाँ पाठकों से पूरी शिद्दत से कहना चाहता हूँ कि आप फिल्म  दंगल अवश्य देखिये. आपकी सोच अवश्य बदलेगी. और अगर  #Geeta_Phogat (गीता फोगट)   की बायोपिक Dangal को देखकर भी नज़रिया न बदला तो कुछ भी न बदल पाएगा.. सभी को  अपना विज़न बदलना ही होगा. खुद के लिए जैसा भी जितना भी सोचो कोई हर्ज़ नहीं पर किसी को कमजोर साबित करने की कोशिशों में मत लगे रहा करो .........                          Amir Khan का विज़न हमेशा व्यापक रहा है.. बहुधा लोग समानता के हिमायती नहीं होते. 
दंगल बायोपिक देखने के बाद मुझे जीवन का हर वो दृश्य क्रमश: सामने से गुज़रता आया जो मुझे एहसास कराने के लिए सामने होता था कि मैं औसत से कम हूँ. बेशक ये है पर औसत से कम होने के मायने क्या हैं.. ?
ये एक बड़ा सवाल है. कठोर परिश्रम से लक्ष्य को साधना बेहद कठिन है . और ये तब अधिक जिल्लतों भरा होता है जब कि आप पुरातन से प्रतिष्ठित मान्यताओं को तोड़ने पर आमादा हों. एक तो मान्यता टूटतीं नहीं दूजे आपको आम सहमति तो क्या आप बदलाव की वज़ह से उपेक्षा और तिरस्कार भोगतें हैं. महावीर फोगट उन में से एक मिसाल है. ऐसे चरित्र कम ही नज़र आते हैं वर्ना सामान्य तौर पर "जैसी बहे बयार पीठ पुनि तैसी कीजे" का अनुशरण करते हैं. बायोपिक तो एक बहाना है ...... मुद्दा तो यह है कि समानता के लिए बदलाव को कोई स्वीकारता क्यों नहीं.. स्वीकारे न तो भी मुझे कोई एतराज़ नहीं  ऐसे प्रयोग आप जारी रखिये ऐसे कथानक आपको बदलाव के लिए आत्मशक्ति देते हैं. यदि आप बदलाव न भी करें तो कम से कम बदलाव लाने वाले को अपमानित करना भी भूल जाएंगे . 

     

Wow.....New

धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...