गिरह खोली गिने हमने, हमारे गम भी कम निकले
नमी क्यों आपकी आँखों में मेरे गम, तो सनम निकले .
रोज़ बातें अंधेरों की,
फसानों के बड़े किस्से -
खौफ़ खाके जो तुम निकले, उसी दहशत में हम निकले .
किसी शफ्फाक गुंचे पे, यकीं बेहद नहीं करना –
सिपाही कह रहे थे – “गुंचों में कई बार बम निकले ..!!”
लूट लाए थे मुफलिस, दुकानें आज कपड़ों की –
बाँट पाए न आपस में, सभी के सब कफ़न निकले !!
ख्वाहिशें पाल मत यारां , कोई ग़ालिब नहीं है तू –
हज़ारों ख्वाहिशें हों और, हर ख्वाहिश पे दम निकले ?
हज़ारों ख्वाहिशें हों और, हर ख्वाहिश पे दम निकले ?
*गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”*