31.3.14

ठाकुर सा’ब का कुत्ता........ जो आदमी की मौत मरा

फ़ोटो साभार "इधर से"
             

  साले कुत्ते की मौत मरेगा.. !, उसे तो कुत्ते की मौत मरना चाहिये... अक्सर ये कोसन-मंत्र का उच्चारण रोजिन्ना सुनाई देता है. पर अगरचे कोसने वाले लोग हमारे ठाकुर साब से मिले होते तो  साले कुत्ते की मौत मरेगा.. !, उसे तो कुत्ते की मौत मरना चाहिये..किंतु  ठाकुर साब के कुत्ते की मौत नहीं.कारण साफ़ है कि ठाकुर साब का कुत्ता कुत्ता न होकर उनका पारिवारिक सदस्य बन चुका था.  वज़ह ठाकुर साब न थे वरन ठकुराइन जी की पारखी आंखें थीं . ये अलहदा बात है कि ठाकुर साब को चुनने में उनकी आंखें धोका खा गईं थीं पर इसका दोष  ठकुराइन जी का न था ... ठाकुर साब का चुनाव पारिवारिक इंतखाब था वोटें इन्ही सु.प्र. ठाकुर को मिलीं. चलिये ठाकुर साब को छोड़िये कुत्ते पर आते हैं..
         "यूं तो वो देसी कुतिया एवम सरकारी अफ़सर के विदेशी कुत्ते के मिलन का परिणाम यानी अर्ध्ददेशी नस्ल का  किंतु  उसे जैकी नाम देकर उसका अंग्रेज़ीकरण किया जाना श्रीमति ठाकुर का ही काम रहा होगा वरना एक मेव स्वामी होने का एहसास उनको कैसे होता. ठाकुर साब को वे सुनते हो, ये, वो, हां..जी... सर्वनामों से सम्बोधित करतीं थीं किंतु जैकी को पूर्ण स्नेह के साथ जैकी का सम्बोधन कर बुलाने वाली ठकुराइन ने अपने बगल वाले कमरे में एक बिस्तर जैसा कि आमतौर पर किशोरवय संधि पर आने वाले बच्चों के लिये बड़े घरों में होता है लगवा दिया.   
जब  ठकुराइन जी जैकी को लाईं थीं तब एक पालना एन उनके बाजू में लगा था. ठाकुर साब की मज़ाल क्या कि वे इस अगाध स्नेहिल वातावरण में निमिष मात्र बाधा उत्पन्न करते 
एक दिन ...
ठकुराइन- ए जी, सुनते हो..?
ठाकुर साब - वो ही तो काम है मेरा.. बोलो !
ठकुराइन- जैकी अब बड़ा हो चला है.. 
ठाकुर साब -  तो ?
ठकुराइन- उसे बाजू वाले कमरे में रखूंगी तुम अब बैठक के पीछे वाले कमरे को ड्रिंक्स-रूम बना लो !
ठाकुर साब (बुदबुदाए ) जो आदेश, हमारी दशा कुत्ते से बदतर हो चली है अब.. 
ठकुराइन- क्या कहा... ?
ठाकुर साब- कुछ नहीं .. हम कह रहे थे आखिर कुत्ता भी तो प्राणी ही होता है.. बताओ युधिष्टिर महाराज उसे स्वर्ग तक ले गए थे.. भाईयों को छोड़ कर.. हम तुम्हारे जैकी को एक कमरा नहीं दे सकते क्या.. ?
                           अर्वाचीन प्रसंगों पर पुरातन प्रसंगों की पुनरावृत्ति से माहौल कुछ सामान्य हुआ वरना ठाकुर साब की फ़ज़ीहत तो तय थी. समय के साथ  उम्र जरावस्था की ओर ले जा रही थी सभी को ठाकुर साब भी बेहद गर्व महसूस करने लगे जैकी पर जब उनने सुना कि अस्थाना साब ने कहा है कि - हे प्रभू, अगला जन्म अगर कुत्ते का देना हो तो मुझे ठाकुर साब का कुत्ता बना. क्या ठाठ हैं भाई उसके..  !!-
ठाकुर साब बताते हैं कि अस्थाना साब का यह वक्तव्य उनकी उम्र में बढ़ा देता है..!! . 
************
आज़ अचानक ठाकुर साब मिले बोले- जबलपुर जाओगे ..?
हम- हां, चलोगे क्या आप भी...?
            ठाकुर साब हमारी आल्टो में लद गए जबलपुर वापस आने के लिये.  रास्ते में हमसे पूछने लगे कि भई पिछले महीने छुट्टी पे थे क्या ? दिखाई नहीं दिये.
हम बोले - जी भंडारी हास्पिटल में थे हम , निमोनिया हो गया था. 
          बस अस्पताल निमोनिया बीमारी का सूत्र पकड़ कर  ठाकुर साब के मुंह से एक लम्बी एम. पी. थ्री फ़ाइल चालू हो गई.. ठाकुर साब शुरु हो गये .. हमारा जैकी भी निमोनिया की वज़ह से प्रभू को प्यारा हुआ. 
हम- जैकी..?
ठाकुर साब- हां हमारा कुत्ता.. 
       और बिना इस बात की परवाह किये ठाकुर साब की   एम. पी. थ्री फ़ाइल चालू .वो सब सुनाया जो पहले भाग में हम आपको बता चुके हैं. फ़िर शहपुरा आते ही चाय पीकर और तरोताज़ा हो बताने  लगे कि - भाई जैकी के इलाज़ पर दो लाख रुपया खर्च हो गया
हम- जैकी..का इलाज़ दो लाख.. 
ठाकुर साब- हां भई हां दो लाख ...
       एक सन्नाटा कुछ देर के लिये पसरा हमने ड्रायवर को देखा वो मुंह झुकाए हंस रहा था हम ने खुद पे काबू पाया हम उनकी चुप्पी तुड़वाने के लिये मुंह खोल ही रहे थे कि श्रीमान जी बोले- यार बिल्लोरे, क्या रोग न था उसे.. हार्ट अटैक , सुगर, बी.पी. सब कुछ तो था. बाकायदा रात बिरात डाक्टर एक फ़ोन पे हाज़िर हो जाते थे . उसके हार्ट का  आपरेशन तक करा डाला ..अरे हां उसको मोतिआ बिंद भी था. लेकिन मरा वो निमोनिया.. से..!!
निमोनिया से...?
                             हां उसके कमरे का ए सी ज़रा हाई था. तुम्हारी भाभी बाहर गईं थीं. कोई घर पर न था वैसे भी वो बीमार चल रहा था. नौकर चाकर में इत्ती अकल कहां.. ए सी तेज़ कर दिया (मैं मन में सोच रहा था कि नौकर चाकर अक्लवान रहे होंगे  तभी तो ईर्ष्यावश ऐसा किया उनने  )   बस दूसरे दिन से जैकी लस्तपस्त तुम्हारी भाभी को फ़ोन लगाया उस वक्त वो दार्जलिंग में थीं. प्रायवेट एयर टेक्सी से भागी भागी आईं .. मैं उस वक्त जबलपुर न आ सका वापस सरकारी नौकर की दशा तो तुम जानते ही हो.. पंद्रह दिन इलाज़ चला पर निमोनिया के लिये उस वक्त ऐसे इलाज़ भी तो न थे अब बताओ तुम पंद्रह दिन में ठीक हो गए न.. ?
         जी में आया कि ठाकुर साब को गाड़ी के बाहर ढकेल दूं.. पर बात बदलते हुये हम बोले- सा, कुत्ता ही था न काहे इतना परेशान थे.. आप लोग..?
    क्यों न होते, वो तो किसी ऐरे-गैरे का कुत्ता तो न था..  सु.प्र. ठाकुर का था. जानते हो एक बार उसका दिल  एक हमारे बड़े बाबू की कुतिया पे आ गया.. मैडम समझ गईं बोलीं गुप्ता जी को समझा दो कि वो रानी को बांध के रखें. वो आज़कल अपने दरवाज़े चक्कर लगाती है जैकी भी कूं कूं कर बाहर भागने को करता है. जब गुप्ता जी की कुतिया की हरकतें ज़्यादा बढ़ने लगीं तो हमने   उनका तबादला कर दिया.जिले से बाहर . और सुनो उस कुत्ते की खासियत ये थी कि जब हम पति-पत्नि लड़ाई झगड़ा करते तो वो हमारी तरफ़ मुंह कर गुर्राया करता था. क्या मज़ाल कि हमारे घर में कोई मेहमान किचिन में घुस जाए. केवल महाराजन को बिना ठकुराइन के किचिन में घुसने देता था.  नौकर चाकर अगर तिनका भी फ़ैंकने जाएं तो जैकी को दिखाना ज़रूरी होता था. 
       जब वो मरा तो ठकुराइन की गोद में उसके लिये इंसानों की तरह कर्मकांड करवाया.. अंतिम संस्कार के बाद पूरी क्रियाएं छैमाह तक.. 
               इस बीच हम जबलपुर आ चुके थे ठाकुर साब को उनके बताए अड्डे पे उतारा और फ़िर आज़ तक सोच रहें हैं कि - जैकी के मरने के बाद अंतिम संस्कार करने वाले ठाकुर साब ने मुंडन कराया था कि नहीं.. या वे पितृपक्ष में उसके नाम की धूप डालते हैं कि नहीं. अगली बार फ़िर जैकी को लेकर ठाकुर साब को उकसाऊंगा. अनुत्तरित सवालो के ज़वाब ज़रूर मिलेंगे......... क्योंकि ठाकुर साब एक बड़ी लम्बी चटाई बिछाते हैं. कोशिश करूंगा कि वे गया जी जाकर कुत्ते का अंतिम श्राद्ध कर दें.    

19.3.14

छै: नारे चऊअन...या नौ छक्के चऊअन....?

 कोई न उठा था उस दिन इस बच्चे को एसी कोच में 
सफ़ाई करते रोकने से .. टी. वी. वाले सियासी विषय
 इससे अधिक गम्भीर हैं क्या..
                       सैपुरा (शहपुरा-भिटौनी) में मन्नू सिंग मास्साब की हैड मास्टरी  वाले बालक प्राथमिक स्कूल में एडमीशन लिया था तबई से हम चिंतनशील जीव हूं. रेल्वे स्टेशन से तांगे से थाने के पीछे वाले स्कूल में टाट पट्टी पर बैठ पढ़ना लिखना सीखते सीखते हम चिंतन करना सीख गए. पहली दूसरी क्लास से ही  हमारे दिमाग में चिंतन-कीट ने प्रवेश कर लिया था.  चिंतनशील होने की मुख्य वज़ह हम आगे बताएंगे पहले एक किस्सा सुन लीजिये        एक दिन  रजक मास्साब हमसे पूछा - कै छक्के चौअन....?
 चिंतन की बीमारी
              चिंतनशील होने के कारण हम एक घटना पर चिंतनरत थे इसी वज़ह उस वक़्त दूनिया (पहाड़ा) दिमाग़ में न था .  पाकिस्तान से युद्ध का समय था पड़ौसी कल्याण सिंह मामाजी ने मामी को डाटा - ब्लेक आउट आडर है तू है कि लालटेन तेज़ जला रई है गंवार .. बस उसी सोच में थे कि कमरे के भीतर जल रहे लालटेन और ब्लेकआऊट का क्या रिश्ता हो सकता है.. कि मामा जी ने मामी की भद्रा उतार दी . मामाजी इतने गुस्से में थे कि वो मामी की शिकायत लेकर मां के पास आए और बोले- इस गंवार को बताओ दीदी, इंद्रा गांधी बोल रईं थी कि जनता मुश्किल समय में हमारा साथ दे और ये है कि.. मां हंस पड़ी उल्टे कल्याण मामा की क्लास लेली - पागल तुम हो पाकिस्तान का घुसपैठिया विमान एक तो शहपुरा-भिटौनी तक आ नहीं सकता. दूसरे आ भी गया तो उसे कल्याण तेरे घर के लालटेन की लाइट कैसे दिखेगी बता रेल्वे क्वार्टर में पक्की छत है कि नईं चल जा भाभी को अब ऐसे न झिझकारना. दिमाग में सवाल उठ रहे थे कि पाक़िस्तान का जहाज़ लालटेन ब्लैक आऊट जे सब क्या है.. चलो आज़ मास्साब से पूछूंगा . कि यकायक एक आवाज़ ठीक सर के ऊपर से हमारी खोपड़ी में जा टकराई - गिरीश, कै छक्के चौअन....?    
मेरा ज़वाब था - छै: नारे चऊअन...!!
                            मास्साब- हम पूछ कछु रए तुम बता कछु रए..सो रए का .  सटाक एक चपत गाल पै आंखन में आंसू मन में उदासी लिये हम सही उत्तर देने के बावज़ूद सोचने लगे  ये मास्साब लोग चपतियाने का मौका नहीं तज़ते .  एक तो रामचरन  तांगेवाले बड़े प्यार से अपने एन अपने बगल में बिठाते थे जो घोड़े के दक्षिणावर्त्य के एकदम समक्ष का हिस्सा उस पर घोड़े को वायु-विकार की बीमारी थी . हमसे पीछे बैठने वालों तक घोड़े के दक्षिणावर्त्य से निकसी हर हास्यस्पद ध्वनियां सहज सुनाई देती थी उस पर रामचरन बच्चों को नेक सलाह देते थे.... घोड़ा पादे तो हंसियो मति.. बाक़ी बच्चे चिल्लाते थे .. नईं तो चाचा.. दाद हो जाएगी न... फ़िर तांगे में बच्चों की खिलखिलाहट गूंजती . अपुन का हाल तब बुरा हो जाता था.. न तो हंस पाते न रो पाते न गुस्सा कर पाते ..ये सब घटनाएं दिमाग पर असर करतीं थीं . जमादारिन के बच्चे को न छूने की हिदायतें.. ? मामी को हमेशा डांट मिलना, पुरुष रेल कर्मियों का दारू पीकर जलवा बिखेरना.. ये सब अजीब लगता था 
    औरतें तब भी रोतीं थीं.. बच्चे आज भी पन्नी बीनते हैं. ट्रेन में पौंछा मारते हैं चाय पिलाते हैं... गाली भी खाते हैं.. बताओ भाई.. किसी विदेशी को "गली का करोड़पति कुत्ता" बनाने का आमंत्रण देती इस व्यवस्था के बारे में कितना चिंतन करतें हैं हम आप शायद बहुत कम .. इस आलेख के साथ लगी फ़ोटो में एक बच्चे को हमने ए.सी. कोच में पौंछा लगाते देखा. हम विचलित थे.. आज़ ये तस्वीर पुराने फ़ोल्डर में नज़र आई सोशल साईट पर भी दे डाली.. एक महाशय का कमेंट मिला "यही धंधा है इनका...
सहानुभूति के लिए अथवा चंद लाइक पाने के लिए फोटो भले ही लगा दीजिये... ऐसे हजारों बच्चे, जवान, बूढ़े और विकलांग हैं जिनके लिए भारतीय रेल जीवन रेखा है और ये वहीँ से कमाते हैं...
मैं जब रेवाड़ी से दिल्ली अप-डाउन करता था तब कम से कम दस ऐसे भिखारी जैसी शक्लों को जानता था जो ऐसे ही दरिद्र बनकर शाम को पांच-सात सौ कमाकर जाते हैं...
"
             हम लोग इतने नैगेटिव हो गए हैं कि सिर्फ़ विरोध करते हैं  केवल विरोध से  आत्म चिंतन की सकारात्मकता शून्य हो जाती है . कुंठा के बिरवें रोंपना कहां तक ठीक है.. अगर  आप को मेरा विचार पसंद नहीं तो मेरी सोच और सकारात्मक सोच बदल दूंगा क्या.. लोग जिसे धंधा कह कर छुटकारा पाना चाहते हैं वे क्या खाक राष्ट्रवादी होंगे..!! खैर बेचारे क्या जानें कि उनकी नज़र में इन धंधेबाज बच्चों की वज़ह से ही उनका घर चलता है.. ! 

17.3.14

सखियां फ़िर करहैं सवाल- रंग ले अपनई रंग में..!! (बुंदेली प्रेम गीत )

नीरो नै पीरो न लाल

रंग ले अपनई रंग में ..!!
*********
प्रीत भरी पिचकारी नैनन सें मारी
मन भओ गुलाबी, सूखी रही सारी.
हो गए गुलाबी से गाल
रंग ले अपनई रंग में ..!!
*********
कपड़न खौं रंग हौ तो रंग   छूट  जाहै
तन को रंग पानी से तुरतई मिट जाहै
सखियां फ़िर करहैं सवाल-
रंग ले अपनई रंग में..!!
*********
प्रीत की नरबदा मैं लोरत हूं तरपत हूं
तोरे काजे खुद  सै रोजिन्ना  झगरत हूं
मैंक दे नरबदा में जाल –
रंग ले अपनई रंग में..!!

********

16.3.14

हमाई ठठरी बांधत बांधत बे सुई निपुर गये

रमपुरा वारे कक्का जू
                      रमपुरा वारे कक्का जू की का कहें दद्दा बे हते बड़े ताकत बारे . नाएं देखो तो माएं देखो तौ जिते देखो उतै... जो मिलो बा ई की ठठरी बांध देत हते .बूढ़ी बाखर के मालक कक्का जू खौं जे दिना समझ परौ के उनको मान नै भओ तौ बस तन्नक देर नईयां लगत है ठठरी बांधबे में. एक दिना में कित्तन की बांधत है  बे खुदई गिनत नईंयां गिनहैं जब गिनती जानै. न गिनती न पहाड़ा जनबे वारे कक्का रोजई ग्यान ऐसों बांटत फ़िरत हैं कि उनके लिंघां कोऊ लग्गे नईं लगत ...!!
    चुनाव नैरे आए तौ पार्टी ने टिकट दै दई और कक्का जू खौं खुलम्मखुला बता दओ कि  कोऊ की ठठरी न बांधियो चुनाव लौं. जा लै लो टिकट चुनाव लड़ लौ.. कोऊ कौ कछु कहियो मती, झगड़्बौ-लड़बौ बंद अब चुनाव लडौ़ समझे.. !
कक्का जू :- जा का सरत धर दई .. हमसे जो न हु है.. 
        पार्टी लीडर बोलो :- कक्का जू, तुम जानत नईं हौ, जीतबे के बाद तुमाए लाने मुतके मिल हैं.. सबकी बांध दईयो . रहो लड़बो-झगड़बो तो दरबार मैं जान खै माइक तोड़ियो, मारियो, कुर्सी मैकियो, जो कन्ने हो उतई करियो दद्दा मनौ जनता से प्यार-दुलार सै बोट तौ लै लो .
           कक्का जू  खौं कछु समझ परौ बस बे मान गए . नाम टी वी पै सुनखैं पेपरन मै देख कक्का जू बल्ली घांई उचकन लगे.  
                 डोल नगाड़े बजावा दए खूब जम खैं धूमधड़ाका भओ. कक्का की बाखर के आंगे लोग जुड़े .. धक्का मुक्की जूतम पैज़ार, नाच गाना , को विबिध-भारती टाईप कौ पंचरंगी कारक्रम देख बे ठठरी नै बांध सके कौनऊ की. 
जैंसे जैंसे बोट पड़बे की तारीक पास आन आन लगी कक्का जू खौं मुतके सीन दिखा दए जनता नैं. 
कोऊ बोलो कक्का.. लौंडोहीं गुण्डई सै मन भर गओ का . कक्का के मन में ऐंसी आग लगी कि कछु न पूछो..! मन मसोस के आ रह गए.. चुनाव न होते तौ बे तुरतई सबरे मौंबाज समझ जाते कि कक्का कया आयं.. मन मार खैं माफ़ी मांगी लोगन खौं अद्धी और नोट दिखान लगे .. लैबो तो दूर दूर सै देख के सबरे भाग गए. कक्का हो गए हक्का बक्का लगे मनई मन कोसबे चुनाव आयोग खौं.. ! कक्का की दसा देख चेला-चपाटी बोले -"कक्का जू कल हमाई मानों तुम हाथ जोड़िओ हम लट्ठ दिखाहैं.."
    कक्का मान गए... मनौ जनता हती कि कक्का खौं निपोरबे की जुगत लगाए बैठी .. अंगुली दिखाय के डपट दओ.. जनता नै . 
भई जा बात हती कि कल्लू की मौड़ी नै कालेज़ पढ़ाई करबे के बाद गांव खेड़न मैं "समझाऊ-कार्यक्रम" चला दओ . सरकारी दफ़तरन की मदद मिली फ़िर का भओ कि कक्का जू लोगन कौं ठठरियात रहे उनखौं पतई नैं लग पाओ कि जमानो बदल गओ .. एक मौड़ी उनखौं निपोरबे तैयार हो गई..  चुनाव भए.. बोटैं परीं.. कक्का निपुर गये.. न बे दरबार मे जा पाए न दरबारी-दंगल को हिस्सा बन पाए.. न सिरकारी भत्ता ले पाए.. 
  सच्ची बात जईया.. तुमौरे सुई न डरियो भैज्जा-भौजी.. कक्का काकी, टुरिया- मुन्ना हरौ, सब जाईयो जब बोटें परैं.
  इस आलेख में उल्लेखित चरित्र का किसी एक गांव, और कक्का जू से सम्बंध नहीं है. अगर ऐसी कोई वास्तविकता पाई जावे तो संयोग मात्र होगा . 
साभार :- राजस्थान निर्वाचन आयोग, जिला स्वीप-समिति डिंडोरी 

14.3.14

होलिका - शक्ति सम्पन्न सत्ती : प्रजापति


हमारे महामानवों ने सभी तीज-त्यौहारों को पर्यावरण व स्वास्थ्य के लिए
शुरू किए हैं। होलिका दहन में पर्यावरण, आध्यात्मिक का गूढ़ रहस्य छिपा
हुवा है। होलिका दहन से पर्यावरण सुधार व शारीरिक स्वास्थ्य को लाभ होता
है। होलिका दहन से शक्ति सम्पन्न की नीति अनिति अपनाने से भस्म हो जाने
की शिक्षा मिलती है।
वर्तमान में कुड़ा-करकट इकट्ठा करके होलिका दहन करना नितान्त आवश्यक है।
होलिका दहन के समय दुषविचारों, दुष्कर्मों को जलाने व सत्कर्मों को
अपनाने की भावना रखनी चाहिये। होलिका दहन से विशेष तौर से महिलाओं को
शिक्षा लेनी चाहिये कि शक्ति सम्पन्न सत्ती होलिका भी असत्य का साथ देने
से जल जाती है। सत्य फिर भी जीवित रहता है।
हम वर्षों से पर्यावरण सन्तुलन व सुरक्षा का कार्य कर रहे हैं। जिसका गूढ
रहस्य है प्राणियों के स्वास्थ्य की रक्षा करना। स्वस्थ प्राणियों से
असीम शान्ति कायम हो सकेगी- प्रजापति
होली का दहन का प्रचलन कब से शुरू हुआ क्यों शुरू हुआ? इस बारे में अनेक
तरह के विचार प्रकाशित हो रहे हैं कई किवदन्तियां प्रकाशित होती है कई
ग्रन्थों में होलिका दहन के बारे में बहुत कुछ लिखा हुआ है साथ ही
देश-काल के अनुसार भी होलिका दहन के तौर-तरीके अलग-अलग हैं। हम इन सब
बातों की ओर न जाकर सीधे हमारे महामानवों द्वारा शुरू किये गये
तीज-त्यौहारों का प्रचलन पर्यावरण व स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभ के लिए शुरू
किया है उसी ओर विशेष ध्यान दिलाना चाहेगें साथ ही आध्यात्मिक गूढ़ रहस्य
के बारे में भी जानकारी देना चाहेगें। होलिका दहन-सर्दऋतु में कई कीटाणु
पैदा हो जाते है जो पर्यावरण व स्वास्थ्य को भारी क्षति पहुंचातें है ऐसे
में इन कीटाणुओं को नष्ट करने में ग्राम-नगर की सफाई को मध्यनजर रखते
हुवे होलिका दहन करना नितान्त आवश्यक है। होलिका दहन में जो भी
कूड़ा-करकट पड़ा होता है उसे जलाना चाहिये।
इस प्रकार शीत काल में जो कीटाणु पैदा होकर वनस्पति व प्राणियों को
नुकसान पहुंचाते है वे अनावश्यक कीटाणु जल जाते है और वह ग्राम, नगर की
एक तरह से सफाई पूर्णतः हो जाती है। लेकिन वर्तमान में इस प्रकार की
कार्यशैली अपनायी नहीं जा रही है प्रशासन भी किसी भी तरह की सफाई की ओर
विशेष ध्यान नहीं देता जबकि सरकार व प्रशासन को चाहिये कि प्रत्येक
तीज-त्यौहार पर ग्राम-कस्बा-नगर आदि को एक बार तो पूर्णतः स्वस्छ करें।
लोग घर की सफाई करके जो कुड़ा-करकट बाहर फैंकते है वह भी यूं ही बिखरा
पड़ा रहता है। इस प्रकार वर्तमान में जो होलिका दहन हो रहे हैं वह आडम्बर
के रूपक बन गये है।
होलिका दहन का आध्यामिक रहस्य
होलिका एक शक्तिसम्पन्न नारी थी जिसे वरदान प्राप्त था कि सत्य का साथ
देते रहने से तुम आग में भी नहीं जलोगी। लेकिन होलिका मूल बात भूल गई और
भूल गई यह भी कि भतीजा भी पुरूष की श्रेणी में ही आता है और इस प्रकार
असत्य का साथ देकर जल गई और सत्य जीवित रह गया।
होलिका दहन से महिलाओं को शिक्षा
आज दहेज लोभी भेडि़ये अबोध कमजोर महिलाओं को निर्ममता से जला रहे हैं ऐसी
परिस्थितियों में आज की महिलांए होलिका की तरह दृढ़ निष्ठावान चरित्र
वाली होकर शक्ति सम्पन्न बनकर सत्य का साथ देती रहे तो उसे प्रताडि़त
करने व जलाने का दुःसाहस करने वाले खुद जलकर भस्म हो सकते हैं।
होलिका की भस्मी से पिडोलिया पूजन
होलिका दहन की भस्म से दूसरे दिन बालिकांए पिण्डोलिया बनाकर सोलह दिन तक
पूजती है इसका महज यही कारण है कि होलिका एक महान शक्तिसम्पन्न सत्ती थी
और सत्ती की भस्मी का पूजन करते हुवे यह विचार करते रहना चाहिये कि
होलिका की तरह हम भी महान शक्ति सम्पन्न बने और जो गलती सत्ती होलिका ने
की थी वह गलती हम नही करें।
इस प्रकार के विचार होलिका दहन के समय भी अपनाने चाहिये।
ज्वारा बोने व पूजन करने के गूढ़ रहस्य
होलिका दहन से स्वाभाविक तौर से धुआं उठता है और अग्नि से कई
कीटाणु-जीवाणु मरते है इस प्रकार वातावरण शुद्ध तो होता है परन्तु फिर भी
दुषित धुएं का भी कुप्रभाव रहता है ऐसे समय में घर पर ज्वारा बोने से
दुषित वायु का प्रभाव कम हो जाता है।
ज्वारा का विसर्जन
ज्वारा को पानी में विसर्जन करना चाहिये ताकि पानी की पौष्टिकता बढ़े या
फिर ज्वारा को पीस कर रस निकाल कर पी लेना चाहिये।
प्राचीन काल में तो पानी में डालने की प्रथा थी परन्तु वर्तमान में
ज्वारा को कुड़े करकट में फैंक दिया जाता है इस प्रकार बेशकीमती चीज को
फैंककर पर्यावरण को नुकसार पहुंचाया जा रहा है। अतः इस प्राचीन परम्परा
का महत्व समझते हुवे पर्यावरण पे्रमी वर्ग की महिलाओं पुरूषों को पहल
करनी चाहिये।
अब जरा सोचिये कि जो महामानवों ने हमारे तीज-त्यौहारों में जो प्रथा शुरू
की थी उनमें आज बढ़ते प्रदूषण में दोष आ जाने पर और अधिक प्रदूषण को
बढावा मिल रहा है। अतः हमें अभी से पर्यावरण व स्वास्थ्य को लाभ में रखते
हुवे तीज-त्यौहारों में जो खान-पान बनाने का महामानवों ने रिवाज शुरू
किया था उन्ही पकवानों को मध्यनजर रखकर पकवान बनाने चाहिये। इस प्रकार कम
खर्च में हम बढ़ते प्रदूषण को रोकने में पूर्णतः सक्षम होगें। अब हम
चेतावनी भी देना चाहेगें कि आज प्रदूषण का साम्राज्य हर क्षेत्र में
विकराल रूप धारण कर चुका है और जिसमें मानसिक प्रदूषकों की संख्या बढ़ती
जा रही है जिस कारण आज चारों ओर अशान्ति ही अशान्ति व अन्धकार का भविष्य
बन गया है इसे समाप्त करना है तो एक मात्र इसका उपाय है पाक्षिक खेजड़ा
एक्सपे्रस, प्रकृति शक्ति पीठ द्वारा चलाये गये घर-घर तुलसी पौघ लगाओ
अभियान को सफल बनाना।
अतः घर-घर तुलसी पौध लगाओ अभियान को सफल बनाईये और असीम, सुख- शान्ति
वैभवशाली बनिये। तथा तुलसी पौध का दान करे तुलसी पौध दान से सभी प्रकार
के कष्ट दूर होते है यह दान श्रेष्ठतम पवित्र दान है। -प्रजापति

Wow.....New

धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...