18.6.10

पाबला जी की सराहना करें हम

हिन्दी ब्लाग एग्रीगेटर में एक और एग्रीगेटर को  पाकर सभी प्रसन्न हैं
आईये मैं आप हम-सब मिलकर इसका स्वागत करें इस प्रयास के लिये पाबला जी को एक बार फ़िर बधाईयां
चित्र साभार : कार्टून-टुडे

14.6.10

दिलीप जी का गीत सुनिये अर्चना चावजी के सुरों में

भोपाल त्रासदी का ये चित्र देखा और मन विचलित हो गया..दिलीप भाई ने .इससे ही प्रेरित होकर ये रचना लिखी...

थी कभी छत पर मेरे कुछ धूप आकर तैरती...
और नीचे छाँव भी थी सुस्त थोड़ी सी थकी...
छाँव के कालीन पर नन्हा खिलौना रेंगता...
कुछ उछलती कूदती साँसों को मुझपे फेंकता...

हाँ वो बचपन था कभी कुछ झूमता कुछ डोलता...
आँख मून्दे मुँह सटाये मुझसे क्या क्या बोलता....
फिर तभी आवाज़ कोई खनखनाते प्यार की...
कुछ तो ख़ाले धूप मे क्यूँ खेलता तू हर घड़ी...

फिर मेरी उंगली पे चादर थी कई लटका गयी...
प्यार ममता आज फिर नीयत मेरी भटका गयी...
फिर तभी वो घूमते पहिए वहाँ आकर रुके...
चूमने मुन्ने को दो लब थे ऊँचाई से झुके...

फिर धरी थी हाथ उसके चमचमाती कुछ खुशी...
फिर उतरकर लाड़ ने मासूमियत थी गोद ली...
फिर किवाडो मे छिपे जा प्यार के पंछी सभी...
मैने भी थोडा उचक्कर एक ठंडी साँस ली...

पेड़ था पीपल का इक मैं जाने कबसे था खड़ा...
पर बगल के लाल घर ने था सदा बाबा कहा...
हाँ बहू ही थी मेरी वो नित्य आकर पूजती...
बंधनों मे बाँध कर कुछ मांगती कुछ पूछती...

रात अपनी डाल से सहला रहा था छत वही...
बह रही ममता हृदय से देख कुछ पाया नही...
देखते ही देखते था इक धुआँ सा छा गया...
आज फिर हैवान कोई रंग अपना पा गया...

देखते ही देखते सब सत्य यादें बन गये...
वो हँसी खाँसी मे बदली और सन्नाटे हुए....
लाल सूरज तो उगा पर चादरें फीकी हुई...
सामने थी प्यार की तस्वीर वो बिखरी हुई....

छाँव के कालीन के नीचे ही वो रखे गये...
याद मे उनकी उन्ही पे पात सब गिरते रहे...
आज मैं बस खोखला सा एक मृत कंकाल हूँ...
याद का धन हूँ संजोए फिर भी मैं कंगाल हूँ...

धूप ने भी छाँव को अब घर निकाला दे दिया...
कल सुना हैवान ने भी कुछ निराला कह दिया...
वो हज़ारों ख्वाब जो बिखरे यही पर धूल मे...
कल हज़ारों मे ही सारे मैय्यतों पर बिक गये...

इंसाफ़ की मूरत ने पट्टी और कस कर बाँध ली...
राजनेता गीदड़ों ने भी है चुप्पी साध ली....
आज फिर इंसान की कीमत कहीं पर लग गयी...
और जाने आँख कितनी, राह तक तक थक गयी...

लाश को क्या बेचते हो, याद ये बेचो ज़रा...
इस ज़मीन के खोल अंदर झाँक कर देखो ज़रा...
हो भले कुछ हड्डियाँ या राख हो अंदर बची...
                                                ढूँढती इंसाफ़ को वो आँख अब भी है खुली
अर्चना जी की आवाज़ में अब सुनिये यह गीत

मेरी आवाज़ में अब सुनिये: मन बैठा विजयी सा रथ में !!

इश्क-प्रीत-लव:
पर प्रकाशित गीत मेरी आवाज़ में सुनना चाहेंगे जो इन सभी सुधि पाठकों भाया :निलेश  माथुर जी,संगीता स्वरुप ( गीत ), दिव्या जी ,राम त्यागीजी , विनोद कुमार पांडेय जी,अमिताभ मीत जी,अजय कुमार जी ,दिलीपभाई ,डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक ,म  वर्मा जी ने आप को भी पसन्द आयेगा तय है 

12.6.10

एक गीत.....................पॉड्कास्ट.......

मेरे प्रयास को सराहने केलिए मै आप सभी श्रोताओं  की आभारी हूँ.....आगे भी सहयोग मिलता रहेगा इसी कामना के साथ .............आपके सुझावों का स्वागत है.........
आज प्रस्तुत है................

 
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री जी की इस रचना को आप यहाँ पढ सकते हैं.................
http://uchcharan.blogspot.com/

10.6.10

एक लघुकथा....................पॉड्कास्ट.........

नमस्कार..............‘‘मिसफ़िट:सीधीबात‘‘ पाडकास्टर के रूप में मेरी पहली कोशिश  .............................आज इस ब्लॉग पर ये मेरा पहला प्रयास है ...................सुझाव सादर अपेक्षित है.........
आज सुनिए....... दीपक"मशाल" की लिखी एक लघुकथा................शीर्षक है ------"दाग अच्छे हैं"............. आप इसे यहाँ पढ सकते हैं

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