3.9.18

सावधान ओशो को भी हाईजैक कर रहे हैं आयातित विचारधारा के लोग

आज एक मित्र ने आखिरकार ओशो को नक्सलवाद का पैरोकार बताने वाली पोस्ट डाली है भाई साहब ने उस पोस्ट का क्रिया कर्म उसके शीर्षक को बदल कर प्रस्तुत कर दिया बौद्धिक विपन्नता किस दर्जे तक पहुंच गई है इसका अंदाज आप स्वयं बताएं और जाने किस समाज का एक खास वर्ग कितना कुंठित सोचता है फिलहाल मैं इस पोस्ट को हूबहू यहां प्रकाशित कर रहा हूं ।
लेकिन इस प्रकाशन के पहले अपनी बात कह देना चाहता हूं की ओशो का यह प्रवचन जो मेरे गले पूरा-पूरा तो नहीं उतरा कुछ बिंदुओं पर सहमति है किंतु उन्होंने यह कहा कि 5000 साल से कोई क्रांति ही नहीं हुई है मैं नहीं मानता कि 5000 साल से इस विश्व विराट में कोई क्रांति नहीं हुई आजादी के लिए हुआ संघर्ष क्रांति ना थी तो क्या था निश्चित तौर पर ओशो को अपने इस भाषण में इस बात का स्मरण आ रहा होगा ठीक एक जगह ओशो यह कहते हैं की नक्सलाइट हमारी शत्रु नहीं है ओशो जब प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं तो लगता है की प्रेम की संपूर्ण परिभाषा ओशो में उतर आई है लेकिन जब नक्सलाइट समस्या को डिस्क्राइब करते हैं तो लगा कि नहीं यहां उसने कोई गलती की है समझने की यह समझाने की ऐसा कैसे हो सकता है कि नक्सलाइट समाज के दुश्मन ना हो नक्सलाइट समाज के दुश्मन है यह लगता है कि ऐसा माना जाता था की किसी समस्या के कारण अधिकारों के लिए जद्दोजहद के कारण कुछ कम पढ़े लिखे लोग जिन्हें आयातित विचारधारा ने बंदूक उठाने पर मजबूर कर दिया नए समाज विरोधी रास्ता अख्तियार किया मित्रों आप सब समझदार हैं जिसका परिणाम क्या हुआ जेएनयू से लेकर भीमा गांव तक का सफर यूं ही तो नहीं किया है इन लोगों ने समाज विरोधी हैं हिंसक है भारत की व्यवस्था प्रजातांत्रिक है उसे मजबूती देने के लिए आगे तो आते अपनी बात कहने के सरल सुगम शांतिपूर्ण रास्ते तो अपनाते फिर भला कैसे उनके अधिकारों का हनन होता आज के दौर में हम देखते हैं कि ब्यूरोक्रेट्स भी टॉप ब्यूरोक्रेट्स भी वह पुराना चोला उतार कर जिसमें वह साहब कहे जाते थे जन सेवक के रूप में सामान्यतः पब्लिक के सामने खड़े होते हैं ।
इतना ही नहीं भारतीय न्याय व्यवस्था जो मूलतः है हंबल है जनापेक्षि है  उस पर भरोसा है विश्वास है कि न्याय अवश्य मिलेगा मिलता भी है आपने देखा भी है समझा भी है संविधान के दायरे में जो भी बात होती है  उसकी उपेक्षा कर एक तीसरा रास्ता अपनाने वाले लोग समझने कि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था अपेक्षाकृत अधिक सुदृढ़ एवं प्रतिबद्धताओं से भरी पड़ी है अब जरूरत नहीं है बंदूक उठाने की जरूरत तो तब भी ना थी जब नक्सलवाद की शुरुआत हुई क्या जरूरत थी बंदूक की जगह उनका अध्ययन बढ़ाते उन्हें सुयोग्य बनाते उनमें एक समरसता का भाव पैदा करते तो क्या बुरा था यह प्रयोग तो कर लिया होता जेएनयू जैसी घटनाएं तो नहीं होती वह दौर मजदूरों के हित में बात करने का दौर था बात की भी गई सुना भी गया तब की व्यवस्था में संकीर्णता नहीं थी व्यापक सोच थी और विकास अनुक्रम में देश को इस तरह गुमराह किया है कि नक्सलवादी आंदोलन हिंसा का पर्याय बन चुका है बस्तर या कश्मीर से जुड़ चुका आंदोलन अलगाववाद की खतरे की घंटी है ।
भारत की संप्रभुता के साथ छेड़छाड़ होती है और एक गुप्त एजेंडा जारी रहता है जिसमें एक कोशिश होती है कि भारत को कमजोर सांप और सपेरों के देश के रूप में साबित किया जाता है ऐसा करने से आपकी सियासी हसरतें तो पूरी हो सकती हैं लेकिन ध्यान रहे यह उन लोगों का अपमान है जो भारतीय अर्थव्यवस्था को उच्चतम स्थान पर ले जाने के लिए काम कर रहे हैं यह वह लोग हैं जो अपने घरों से हजारों हजार किलोमीटर दूर रहकर देश के लिए सम्मान और डॉलर दोनों कमा कर दे रहे हैं ध्यान रहे यह विकास इस देश का विकास ही नहीं है बल्कि यह समूची व्यवस्था का विकास है आप इसका विश्लेषण करेंगे कि देश का विकास और हो समूची व्यवस्था का विकास क्या है  अंतर आपको बता देना चाहता हूं देश का विकास जीडीपी नापा जोखा जा सकता है जबकि संपूर्ण व्यवस्था का विकास सामाजिक स्तर को बदलने का सूचक है  जिसे केवल वाइटल स्टेटिस्टिक्स के जरिए नापा जा सकता है ।
यहां ओशो ने जो कहा कि बदलाव स्वीकार करना चाहिए समाज में बदलाव स्वीकार किए हैं और उसी स्वीकारोक्ति के चलते भारत एक ऐसी मुकाम पर खड़ा हुआ है जहां से वह गर्व से अपना सिर ऊंचा उठा सकता है ।
 तो मित्रों देखिए ओशो ने क्या कहा है अपने प्रवचन में और इस प्रवचन से पूरी तरह सहमत होना ना तो मेरी मजबूरी थी मैं सहमत भी नहीं और ना ही आप वर्तमान संदर्भों में सहमत होंगे जबकि भीमा गांव में जेएनयू में भारत तेरे टुकड़े होंगे के नारे लगाए जा रहे हो फेडरल स्टेट की धज्जियां उड़ाने कुछ बुद्धिजीवी आगे आ रहे हो ऐसी स्थिति में किसी भी नक्सलवाद को स्वीकारना विघटनकारी अलगाववाद को स्वीकारना या पाकिस्तान की तरह अच्छे और बुरे टेररिज्म को परिभाषित करना स्वीकार योग्य नहीं अस्तु आप अपनी राय अवश्य दें कोशिश कर रहा हूं यह कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं है यह बताने की जरूरत इसलिए है कि यह भारतीय समाज से जुड़ा वह मुद्दा है जिससे आइंदा नस्लों का जीवन स्तर सुरक्षित रहेगा भारतीय परिवेश में डेमोक्रेसी के अलावा किसी भी चीज को स्वीकार नहीं किया जा सकता और ना ही हम ऐसे किसी प्रयास को स्वीकार करने की अनुमति एक लेखक के रूप में देंगे हमारी ड्यूटी है कि हम आपको सतर्क कर दें आपको लड़खड़ाने ना दे आप को संभाल ले हमारे विषय जब तक मानवता है तब तक सजीव है जीवंत हैं हमारी ड्यूटी है कि हम किसी भी स्थिति में हिंसा को अस्वीकार करें और भारत के महान ऐश्वर्य को पुनर्स्थापित करें बुरा लगेगा आयातित विचारों को कि मैं यह क्या कह रहा हूं भारतीय संस्कृति सामाजिक  समानता की दिशा में अपने कदम बढ़ा चुकी है व्यवस्था का भी भरपूर सहयोग मिल रहा है ऐसी स्थिति में हम नक्सलवाद की परिभाषा को ओशो के सहारे सिद्ध करने की बेवकूफी भरी कोशिश ना करें मित्रों अब देखें ओशो का वह भाषण जिसे सनसनीखेज शीर्षक के साथ मेरे मित्र ने लगाया है और मैं उस मित्र को क्षमा करता हूं लेकिन इस निर्देश के साथ कि कोई भी विचारधारा जो रक्त पात की ओर जाए हिंसा को बढ़ावा दें अमान्य है लग रहा है चाहे उसे आप कोई भी परिभाषा दें
*"नक्सल एक तीव्र रिएक्शन है, जो बिलकुल जरूरी था।*
इसलिए जितने हम जिम्मेवार हैं नक्सलाइट पैदा करने के लिए, उतने वे बेचारे जिम्मेवार नहीं हैं। वे तो बिलकुल निरीह हैं। उनको मैं जरा भी जिम्मा नहीं देता। मैं निंदा के लिए भी उनको पात्र नहीं मानता, क्योंकि निंदा उनकी करनी चाहिए जिनको रिसपोन्सिबिल, जिम्मेवार मानूं।
हम इररिसपोन्सिबिल हैं।
( यहाँ ओशो ने प्रतिक्रिया को भाषित करने के प्रयास किये  हैं पर इनके लिए कौन सा टूल उपयोगी होगा इस बात को प्रवचन में शामिल न किया ओशो ने । स्वाभाविक के संवाद में कोई बात छूट भी जाती है चलेगा प्रवचन है इसे प्रवचन ही मानूँगा ।)
हमने पांच हजार वर्ष से जरा भी क्रांति नहीं की है, जरा भी नहीं बदले हैं, एकदम मर गये हैं। तो इस मरे हुए मुल्क के साथ कुछ ऐसा होना अनिवार्य है। लेकिन वह शुभ नहीं है।

और उसको अगर हमने क्रांति समझा तो खतरा है।
रिएक्शनरी हमेशा उल्टा होता है और आप जो कर रहे हैं उससे उल्टा करता है। रिएक्शनरी वहीं होता है, जहां हमारा समाज होता है। सिर्फ उल्टा होता है। वह शीर्षासन करता है। हम जो यहां कर रहे हैं, वह उसका उल्टा करने लगता है।

जिस जगह आप हैं, उससे गहरा वह कभी नहीं जा सकता है, क्योंकि आपका वह रिएक्शन है। अगर आपने मुझे गाली दी और मैं भी तुरंत गाली देता हूं तो आपकी और मेरी गाली एक ही तल पर होनेवाली है, क्योंकि उसी तरह मैं भी गाली दे रहा हूं तो मैं भी गहरा नहीं हो सकता, गहरा हुआ नहीं जा सकता। गहरे होने के लिए भारत में नक्सलाइट कुछ नहीं कर पायेगा।
(एक सत्य है असहमति की गुंजाइश उस काल के परिपेक्ष्य में न होगी आज है जब भारत तेरे टुकड़े होंगे कि गूंज सुनाई देती है ।)
नक्सलाइट सिर्फ सिम्पटमैटिक हैं - सिम्पटम, बीमारी के लक्षण हैं।
बीमारी पूरी हो गयी है और अब नहीं बदलते तो यह होगा। यानी यह भी बहुत है, यह भी मेरी दृष्टि में।
लेकिन अगर तुम नहीं बदलते हो और इसके सिवाय तुम कोई रास्ता नहीं छोड़ते हो, अगर क्रांति नहीं आती तो यह प्रतिक्रिया ही आयेगी।
(ओशो यहां जटिल हैं कदाचित कंफ्यूज भी ।)
अब दो विकल्प खड़े होते हैं मुल्क के सामने--या तो क्रांति के लिए तुम एक फिलॉसफ़िक रूट, वैचारिक आयाम की बात करो और क्रांति को एक व्यवस्था दो और क्रांति को एक सिस्टम दो और क्रांति को एक क्रिएटेड फोर्स बनाओ।
(तत्समय के लिए समीचीन बात आज के माहौल के सर्वथा विपरीत है रहा क्रांति के सिस्टम को विकसित करने का ओशो किससे अपेक्षा कर रहें हैं । क्रांति के स्वरूप को सिस्टमेटिक कैसे किया जाता है इसकी प्रविधि क्या है ढांचा कैसा हो ? इस सवालों पर भी ओशो मौन थे । )
अगर नहीं बनाते हो तो अब यह होगा यानी नक्सलाइट जो हैं वे हमारी वर्तमान समाज-व्यवस्था के दूसरे हिस्से हैं। ये दोनों जाने चाहिए। सोसायटी भी जानी चाहिए और उसका रिएक्शन भी जाना चाहिए, क्योंकि यह बेवकूफी ही थी सोसायटी का साथ देना।
(मान लिया कि एक सिस्टम क्रांति के लिए तैयार होना था न हुआ तो क्या मुद्दे बदलना था नक्सलियों को यदि हां तो क्यों )
ये जो घटनाएं हैं, ये इसी के पार्ट एंड पार्सल, सहज परिणाम हैं।
आमतौर से ऐसा लगता है कि नक्सलाइट दुश्मन हैं। मैं नहीं मानता कि वे दुश्मन हैं। वे इसी सोसायटी के हिस्से हैं, इसी सोसायटी ने उसे पैदा कर दिया है। इसने गाली दी है तो उसने दुगुनी गाली दी है, बस इतना फर्क पड़ा है। मगर यह माइंड, चित्त इसी से जुड़ा हुआ है। यह सोसायटी गयी तो वह भी गया। अगर यह नहीं गयी, तो वह भी जानेवाला नहीं है। यह बढ़ता चला जाएगा।
(सोसायटी को ज़िम्मेदार ठहराया है बात सही है परंतु आज स्थिति वैसी नहीं फिर भी बंदूकों का मोह क्यों नहीं छोड़ते नक्सली )
अब मेरा कहना यह है कि क्रांतिकारी के सामने दो सवाल हैं।
ठीक विचार करनेवाले के सामने दो सवाल हैं।
वह यह कि या तो सोसाइटी में क्रांति आये - सृजनात्मक रूप में - और नहीं आ पाती है तो नक्सलाइट विकल्प रह जायेगा। और वह कोई सुखद विकल्प नहीं है। वह सुखद भी नहीं है, गहरा भी नहीं है, जरा भी गहरा नहीं है।

वह उसी तल पर है, जहां हमारा समाज है। वह सिर्फ रिएक्शन कर रहा है, वह जरूरी है। यह मैं नहीं कहता कि बुरा है तो गैर-जरूरी है। बुरा है, नहीं हो, ऐसी हमें व्यवस्था करनी चाहिए। और वह व्यवस्था हम तभी कर पायेंगे जब हम पूरी सोसाइटी को बदलेंगे।
नक्सलाइट को हम रोक नहीं पायेंगे, उनको रोकने का सवाल ही नहीं है।
पूरी सोसाइटी उसे पैदा कर रही है, इसका जड़ होना उसको पैदा कर रहा है, इसके न बदलने की आकांक्षा उसको पैदा कर रही है, इसका पुराना ढांचा उसको पैदा कर रहा है, यह ढांचा पूरी तरह गया तो इसके साथ नक्सलाइट गया।
नक्सलाइट एक संकेत है, जो बता रहा है कि सोसाइटी इस जगह पहुंच गयी कि अगर क्रांति नहीं होती तो यह होगा। और अब यह सोसाइटी को समझ लेना चाहिए। वह पुराना ढांचा तो नहीं बचेगा।
या तो क्रांति आयेगी या यह ढांचा जायेगा।
ये दो चीजें आ सकती हैं और अगर आप मर्जी से लायें तो क्रांति आयेगी, अगर आप सोचकर लायें तो क्रांति आयेगी, विचार करके लाएं तो क्रांति आयेगी और अगर आप क्रांति न लायें, इसके लिए जिद में रहें कि नहीं आने देंगे तो यह विचारहीन प्रतिक्रिया आयेगी।
-ओशो
भारत : समस्याएं व समाधान
प्रवचन नं. 1 से संकलित

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