20.2.11

सुशील कुमार ने कहा :- पूर्णिमा वर्मन हो या सुमन कुमार घई जी , इनको साहित्य की अद्यावधि गतिविधियों की जानकारियाँ नहीं रहती।


सुशील कुमार ON SATURDAY, FEBRUARY 19, 2011 
                                 भईया ब्लॉग पर आकर सिर्फ़ गाल बजाने से कुछ नहीं होगा। आप कुछ साहित्यकारों जैसे डा. नामवर सिंह,  सर्वश्री राजेन्द्र यादवअशोक वाजपेयी,मंगलेश डबरालअरुण कमलज्ञानेन्द्रपतिनरेश मेहताएकांत श्रीवास्तवविजेन्द्रखगेन्द्र ठाकुर इत्यादि या आपको जो भी लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक-कवियों के नाम जेहन में हैंके नेट पर योगदान को बतायें और यहाँ चर्चा करें। पूरा खुलासा करें कि कौन-कौन सी चीजें नेट पर हिन्दी साहित्य में ऐसी आयी हैं जो अभिनव हैं यानि नूतन हैं और उन पर  प्रिंट के बजाय सीधे नेट पर ही काम हुआ है तभी आपके टिप्प्णी की सार्थकता मानी जायेगी और आपको ज्ञान-गंभीर पाठक माना जायेगा, केवल शब्दों की बखिया उघेरने और हवा में तीर चलाने से काम नहीं चलने को हैवर्ना "मैं तेरा तू मेरा"  यानि तेरी-मेरी वाली बात ब्लॉग पर तो लोग करते ही हैं। (आगे यहां से )
                        इस आलेख का औचित्य आपसे जानना चाहता हूं आपको चैट आमंत्रण भेजा है जिसे आपने स्वीकारा मै चाहता हूं कि आप वीडियो चैट के ज़रिये ब्लाग जगत के सामने आएं ताक़ि सब आपको जान सकें ? 
मुझे ब्लॉग या मिडिया से विरोध ही है! सुशील आगे कहते हैं :-" पूर्णिमा वर्मन हो या सुमन कुमार घई जी  ,  इनको साहित्य की अद्यावधि गतिविधियों की जानकारियाँ नहीं रहती।" .........। अविनाश वाचस्पति जी को ही ले लीजियेनेट पर समय देने को तैयार हैं अपनी स्वास्थ्य खराब करके भी टिप्पणी सवा एक बजे रात में जगकर लिखने की क्या जरुरत थी उन्हें? पर उन्होंने यह मुगलता पाल रखा है  कि हिन्दी पर बहुत अच्छा काम नेट में हो रहा है। जितने भी आप्रवासी वेबसाईट हैं सब मात्र हिन्दी के नाम पर अब तक प्रिंट में किये गये काम को ही ढोते  रहे हैंवे स्वयं कोई नया और पहचान पैदा करने वाला काम नहीं कर  रहे ,  कर सकते क्योंकि वह उनके क्षमता से बाहर है। पर ऐसा क्यों है, यही मूल चिंता का विषय है। 
                इस आलेख में के ज़रिये एक बात तो स्थापित हो गई नागफ़नी जवां हो चुकी है.  यानी एकदम जावां हुए कांटों से गुज़ारा करना होगा हमको अब यह तय शुदा है. मेरी नज़र में सुशील जी ने  चिट्ठाकारिता के स्वरूप पर चर्चा न करते हुआ एक भड़ास निकाल दी आपने.और तो और इससे राहत न मिली तो व्यक्तिगत आलोचना करते हुए उन पति-पत्नी की याद दिला दी  जो एक छत के नीचे न्यूनतम समझौते यानी केवल सात + सात =चौदह कसमों के सहारे एक-दूसरे के साथ रहतें हैं. फ़िर इन देहों की वज़ह से उत्पन्न पैदावार को सम्हालने की वज़ह से शेष ज़िंदगी गुज़ार देतें हैं. ज़िन्दगी खत्म हो जाती है एक दूसरे को गरियाते-लतियाते उनकी. अच्छा हुआ कि आपने चिंता करके  घरेलू -किस्म के व्यक्तित्व का परिचय दिया अब गेंद आपके पाले में है चिंता नहीं अपने निष्कासन पर चिंतन कीजिये. वैसे मुझे तो दु:ख ही हुआ आपके हटाये जाने पर. पर क्या करें ?
              अरे हां भूल ही गया था आपने जो लिखा उसका ओर छोर यानी सूत्र पकड़ने का प्रयत्न कर रहा हूं.... पर सच कहूं लगा कभी कभार तरंग मे लिखे गये आलेख (साहित्य नहीं) सूत्र हीन ही होते हैं. 
कुछ लाइने देखिये :-
  • मुझे ब्लॉग या मिडिया से विरोध ही है” इसका अर्थ क्या है..? वैसे इससे न तो ब्लाग खत्म होंगे न ही मीडिया. 
  • पूर्णिमा वर्मन हो या सुमन कुमार घई जी  ,  इनको साहित्य की अद्यावधि गतिविधियों की जानकारियाँ नहीं रहती।" .........। ”:- इसका भी अर्थ बताएं ज़रा.  
                      फ़िर अचानक बेचारे अविनाश पर आक्रमण ? खैर जो भी आपसी मामला हो आपलोग आपस में निपट लें नुक्कड़ पर "गोबर की थपाल" रखने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी .आपके अलावा हम लोग भी सदस्य हैं नुक्कड़  ब्लाग के  अगर अविनाश उद्दंड हैं आपकी नज़र में तो आप ने कौन सा ..?
अविनाश जी आपसे अनुरोध है कि इनके आलेख को माडरेट न करॆं लगे रहने दें नुक्कड़ पर अभी काफ़ी विमर्श करने हैं सुशील जी से शायद हिंदी ब्लागिंग का सुधार हो जाए 

19.2.11

संगीता पुरी जी की कहानी मेरी जुबानी:अर्चना चावजी (पाडकास्ट)

साभार: "स्वार्थ"ब्लाग से
               आज इस व्‍हील चेयर पर बैठे हुए मुझे एक महीने हो गए थे। अपने पति से दूर बच्‍चों के सानिध्य में कोई असहाय इतना सुखी हो सकता है , यह मेरी कल्‍पना से परे था। बच्‍चों ने सुबह से रात्रि तक मेरी हर जरूरत पूरी की थी। मैं चाहती थी कि थोडी देर और सो जाऊं , ताकि बच्‍चे कुछ देर आराम कर सके , पर नींद क्‍या दुखी लोगों का साथ दे सकती है ? वह तो सुबह के चार बजते ही मुझे छोडकर चल देती। नींद के बाद बिछोने में पडे रहना मेरी आदत न थी और आहट न होने देने की कोशिश में धीरे धीरे गुसलखाने की ओर बढती , पर व्‍हील चेयर की थोडी भी आहट बच्‍चों के कान में पड ही जाती और वे मां की सेवा की खातिर तेजी से दौडे आते , और मुझे स्‍वयं उठ जाने के लिए फिर मीठी सी झिडकी मिलती। ( आगे=यहां ) संगीता पुरी जी की कहानी का वाचन करते हुए मैं अभिभूत हूं.


18.2.11

गौरैया तुम ये करो

एक खबर जागने की
तुम सुबह से ही
लेकर आ जाती हो
ये नहीं कहती तुम भी जागो
मुंडेर पर चहकना तुम्हारा
जगा देता है
सुनो अब से कुछ और देर
बाद बताने आया करो !
मुझे सोने दो जागते ही मुझे नहीं सुननी
वो गालियां जो
गांव की गलियों से शहर तक देतें हैं लोग
व्यवस्था वश एक दूसरे को
हां गौरैया तुम ये करो
उन जागे हुओं को जगा दो
उनको बता दो
मुझे चाहिये मेरे
मेरे पुराने गांव
मेरे  पुराने शहर
हां गौरैया तुम ये करो



17.2.11

एक मै और एक तू......हम बने तुम बने एक दूजे के लिए

हिंद-युग्म साधकों की साधना अंतरज़ाल के लिये एक अनूठा उपहार है. और जब मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिलता तो मैं सब कुछ छोड़कर पूरी लगन से काम करतीं हूं. मुझे ही नही सभी को हिंद-युग्म की प्रतीक्षा होती है. मिसफ़िट पर सादर प्रस्तुत है हिन्द-युग्म से साभार
 आवाज हिन्दयुग्म से ओल्ड इज़ गोल्ड श्रंखला---भाग 8 और 9-----
एक मै और एक तू---




 हम बने तुम बने एक दूजे के लिए------
 

15.2.11

बाबूजी


(इस आलेख का प्रकाशन मेरे एक ब्लाग पर हो चुका है किंतु उस ब्लाग पर आवाज़ाही कम होने तथा पोस्ट में लयात्मकता के अभाव को दूर करते हुए यह पोस्ट पुन: सादर प्रेषित है  की ) 

बाबूजी उन प्रतीकों में से एक हैं जो अपनी उर्जा को ज़िंदगी के उस मोड़ पर भी तरोताजा रखते है जहां जाकर सामान्य लोग क्षुब्ध दिखाई देते हैं. हाल ही बात है  अरविन्द भाई को बेवज़ह फोटोग्राफी के लिए बुलवाया बेवज़ह . बेवज़ह इस लिए क्योंकि न तो कोई जन्म दिन न कोई विशेष आयोजन न ब्लागर्स मीट यानी शुद्ध रूप से  मेरी इच्छा  की पूर्ती ! इच्छा  थी  कि बाबूजी  सुबह सबेरे की अपने गार्डन वाले बच्चों को कैसे दुलारते हैं इसे चित्रों में दर्ज करुँ कुछ शब्द जड़ दूं एक सन्देश दे दूं कि :-''पितृत्व कितना स्निग्ध होता है " हुआ भी यही दूसरे माले पर  मैं और अरविन्द भाई उनका इंतज़ार करने लगे . जहां उनके दूसरे बच्चे यानी नन्हे-मुन्ने पौधे  इंतज़ार कर रहे थे दादा नियत समय पर तो नहीं कुछ देर से ही आ सके आते ही सबसे दयनीय पौधे के पास गए उसे सहलाया फिर एक दूसरे बच्चे की आसपास की साल-सम्हाल ही बाबूजी ने. यानी सबसे जरूरत मंद के पास सबसे पहले.यही संस्कार उनको दादा जी ने दिये होंगें तभी तो बाबूजी सबसे कमज़ोर पौधे की देखभाल सबसे पहले करतें हैं . ऐसे हैं बाबूजी.   जी सच सोच  रहें हैं आप सबके बाबूजी ऐसे ही होंगे होते भी  हैं हमारे परिवारों में बुज़ुर्ग धन-सम्पति से ज़्यादा कीमती होते हैं . बस सभी को आंखों से पट्टी उतारना ज़रूरी है अपने अपने बाबूजीयों को देखने के लिए एक पाज़िटिव विज़न चाहिये. बाबूजी को देखने के लिए बच्चे की नज़र चाहिये हम और आप मुखिया बन के तर्कों के  चश्में से  अपने अपने बाबूजी को देखेंते तो सचमुच हम उनको देख ही कहाँ पाते हैं. बाबूजी को पहले मैं भी तर्कों के  चश्में से देखता था सो बीसीयों कमियाँ नज़र आतीं थीं मुझे उनमें एक दिन जब श्रद्धा बिटिया, चिन्मय (भतीजे) की नज़र से देखा तो लगा सच कितने मासूम और सर्वत्र स्नेह बिखेरतें हैं अपने बाबूजी. सब के बाबूजी ऐसे ही तो होते हैं. बाबूजी के बड़े परिवार के अलावा 106 गमलों में निवासरत और इसी हफ़्ते मिट्टी से भरे बीस गमलों की साल सम्हाल के लिये इन्तज़ाम कर भी तय किया है बाबूजी ने . नौकर चाकर माली आदी सबके होते बाबूजी उनकी सेवा करते हैं. उनकी चिंता में रहते हैं हम भाइयों ने जब कभी एतराज़ किया तो महसूस किया बाबूजी पर उनकी रुचि के काम करने से रोकना उनको पीडा पंहुंचाना है. अस्तु हम ने इस बिंदु पर बोलना बंद कर दिया. जिस में वे खुश वो ही सही है. अपने बुज़ुर्गों को अपने सत्ता के बूते (जो उनसे और उनके कारण हासिल होती है) उनपर प्रतिबंध लगाना उनकी आयु को कम करना है.मेरे पचासी साल के बाबूजी खुश क्यों हैं मुझे शायद हम सबको इसका ज़वाब मिल गया है न !!

v  गिरीश बिल्लोरे मुकुल जबलपुर
बस थोड़ा सा हम खुद को बदल लें तो  लगेगा कि :-भारत में वृद्धाश्रम की ज़रुरत से ज़्यादा ज़रुरत है पीढ़ी की सोच बदलने की.

13.2.11

वही क्यों कर सुलगती है ? वही क्यों कर झुलसती है ?






वही  क्यों कर  सुलगती है   वही  क्यों कर  झुलसती  है ?
रात-दिन काम कर खटती, फ़िर भी नित हुलसती है .
न खुल के रो सके न हंस सके पल –पल पे बंदिश है
हमारे देश की नारी,  लिहाफ़ों में सुबगती  है !

वही तुम हो कि  जिसने नाम उसको आग दे  डाला
वही हम हैं कि  जिनने  उसको हर इक काम दे डाला
सदा शीतल ही रहती है  भीतर से सुलगती वो..!
 
कभी पूछो ज़रा खुद से वही क्यों कर झुलसती है.?

मुझे है याद मेरी मां ने मरते दम सम्हाला है.
ये घर,ये द्वार,ये बैठक और ये जो देवाला  है !
छिपाती थी बुखारों को जो मेहमां कोई आ जाए
कभी इक बार सोचा था कि "बा" ही क्यों झुलसती है ?

तपी वो और कुंदन की चमक हम सबको पहना दी
पास उसके न थे-गहने  मेरी मां , खुद ही गहना थी !
तापसी थी मेरी मां ,नेह की सरिता थी वो अविरल
उसी की याद मे अक्सर  मेरी   आंखैं  छलकतीं हैं.

विदा के वक्त बहनों ने पूजी कोख  माता की
छांह आंचल की पाने जन्म लेता विधाता भी
मेरी जसुदा तेरा कान्हा तड़पता याद में तेरी
उसी की दी हुई धड़कन इस दिल में धड़कती है.

आज़ की रात फ़िर जागा  उसी की याद में लोगो-
तुम्हारी मां तुम्हारे साथ  तो  होगी  इधर  सोचो
कहीं उसको जो छोड़ा हो तो वापस घर  में ले आना
वही तेरी ज़मीं है और  उजला सा फ़लक भी है !
        * गिरीश बिल्लोरे मुकुल,जबलपुर



अपने माता-पिता को ओल्ड-एज़-होम भेजने वालों  विनम्र आग्रह करता हूं कि वे अपने आकाश और अपनी ज़मीन को वापस लें आएं

देवाला=देवालय,पूजाघर,बा=मां, फ़लक=आसमान
प्रेम-दिवस पर विशेष "इश्क़-प्रीत-लव" पर

12.2.11

एक बार तो दे दो दिल से आशीर्वाद :- "पुत्रीवति भव:"

सलमा अंसारी
                   एक बार तो दे दो  दिल से आशीर्वाद :- "पुत्रीवति भव:" दिल से आवाज़ क्यों नहीं निकलती क्या वज़ह है किन संस्कारों ने जकड़ी हैं आपकी जीभ ऐसा आशीर्वाद देने में क्यों नही उठते हाथ आपके कभी ? क्यों मानस पर छा जाता है लिंग  भेदी पर्दा ? इन सवालों के ज़वाब अब तो खोज लीजिये सरकार . क्या आप के मन में इस बयान से भी तनिक हलचल पैदा नहीं हो सकी लड़की को पैदा होते ही मार देना... . कितनी आर्त हो गई होगी यह मां इस बयान को ज़ारी करते हुए. मोहतरमा सलमा अंसारी का यह बयान हल्के से लेना हमारी भूल होगी. वास्तव में जब कलेजों में दर्द की लक़ीरें बिजली की तरह दौड़तीं हैं तब ही उभरीं हैं कराहें इसी तरह की. मुस्लिम औरतों के तालीम की वक़ालत करने वाली इन मोतरमा के दिल में हिंदुस्तान की नारियों के लिये दर्द ही नज़र आ रहा है मुझे तो. उनके बयान में एक आह्वान और एक सुलगती हुई क्रांति का सूत्रपात दिखाई दे रहा है.
देश के उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी की पत्नी सलमा अंसारी के दिल में समाज के गरीब और पिछड़े लोगों के प्रति दर्द हैं। यही वजह है कि  उन्होंने 1998 में 'अल नूर फाउंडेशन' कायम किया। उनका यह फाउंडेशन गरीब और जरूरतमंद बच्चों को तालीम मुहैया कराने का काम करता है।  उत्तरप्रदेश में जन्मी सलमा का ज्यादातर वक्त विदेशों में बीता, क्योंकि उनके पिता संयुक्त राष्ट्र की सेवा में थे। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अंग्रेजी लिटरेचर की पढ़ाई की। (साभार:-दस्तक)
नज़्मों की बात से साभार 
             क्रांति जो भारत से लिंगभेद को ज़ड़ से हटा सकती है अगर सामाजिक स्तर से औरतों के समान अधिकार की यह क्रांति ने रफ़्तार पकड़ी तो तय है कि  भारत लिंगभेद मिटाने में में सबसे आगे होगा. भारत की आधी आबादी के लिये चिंतित होना ज़रूरी है . औरतें तालीम के अभाव में न रहें इस लिये केंद्र और राज्य सरकारों ने हर स्तर से प्रयास किये तो हैं पर हम ही हैं जो उसके पराये होने और लड़कों को वंश बेल बढ़ाने वाला माने बैठे हैं जबकि किसी भी धर्म ग्रंथ के किसी आख्यान में, ऋचाओं में, श्लोक में कहीं भी नारी को हेय नहीं माना है. यदि कोई उदाहरण हो तो बताएं भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जाने कब धीरे से औरतों के प्रति भेदभाव वाला पाठ शामिल हुआ समझ से परे है. विकास के परिपेक्ष्य में हमने औरतों की ताक़त का अनुमान ही नहीं लगाया.सदा यह कह के उसे नक़ारा कि "बेचारी महिला क्या करेगी ?"
वेब दुनियां से साभार 
वास्तव में यह सुन सुन के महिला-प्रजाति ने खु़द को कमज़ोर मान लिया. बरसों से  मेरी धारणा है कि दुनियां के सभी कामों में 90% काम औरत ही तो करती है. फ़िर कभी दैहिक-प्यास का शिकार, तो कभी सम्मान के लिये हत्या, कभी दहेज तो कभी रूढ़ियों की वेदी पर सुलगती औरतें क्यों क्या समाज ने कभीगौर से नही देखा अपनी बेटियों को जो घर से समाज तक कितना मान बढ़ातीं हैं  . उसका मूल्यांकन करिये उसकी क्षमता को जानिये. और दे दीजिये नवोड़ा-वधू को आशीर्वाद ! हां पूरे पवित्र मन से एक बार तो दे दो  दिल से कह दीजिये :- "पुत्रीवति भव:"
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और अंत में सुनिये सरस्वति वंदना :-
 सरस्वती वन्दना ----गिरीश पंकज जी के ब्लॉग सद्भावना दर्पण से
 आवाज़ : श्रीमति अर्चना चावजी 
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11.2.11

एक "हाड़ौती" गीत -दुर्गादान जी का...अनवरत से

अनवरत

उक्त ब्लॉग से की उक्त पोस्ट से ---गाया गीत आदरणीय दुर्गादान जी से क्षमायाचना सहित प्रस्तुत कर रही हूँ ."हाड़ौती" भाषा का ज्ञान न होने से गलतियाँ  हुई है,जिससे द्विवेदी जी ने अवगत कराया है ....पर अनुमति देने के लिए आभारी भी हूँ आदरणीय द्वय की.....
शीघ्र ही आदरणीय़ दुर्गादान जी की आवाज में भी सुना जा  सकेगा...द्विवेदी जी प्रयासरत हैं...तब तक के लिए इसे ही सुने -----



सच्चा शरणम --------    चलते रहने वाले हिमान्शु जी का ब्लॉग
उक्त ब्लॉग पर आप सुन सकते है "सखिया आवा उड़ि चली"








10.2.11

शारदे मां शारदे मन को धवल विस्तार दे



दिव्य चिंतन नीर अविरल  गति  विनोदित  देह  की !
छब तुम्हारी शारदे मां  सहज सरिता   नेह की !!
घुप अंधेरों में फ़ंसा मन  ज्ञान  दीपक बार   दे …!!
 शारदे मां शारदे मन को धवल  विस्तार दे
मां तुम्हारा चरण-चिंतन, हम तो साधक हैं अकिंचन-
डोर थामो मन हैं चंचलमोहता क्यों हमको  कंचन ?
ओर चारों अश्रु-क्रंदन,    सोच को विस्तार  दे…!!
शारदे मां शारदे मन को धवल  विस्तार दे
 अर्चना चावजी के सुरों में सुनिये यह वंदना दे




9.2.11

"भियाजी, काम की बड़ी-बड़ी मछली तो पानी क भित्तर मिलच !

जी देर शाम रविवार 6 फरवरी 2011 को हरदा  पहुंच सका . जहां से अगली सुबह मुझे सपत्नीक खिरकिया रवाना होना  था. जहां स्वर्गीय श्री शिवानन्द जी चौरे मेरे साढू भाई के  त्रयोदशी संस्कार में शामिल होना था.छोटी बहन के बेटों ने घेर लिया. बहुत देर तक सोने न दिया, दुनियां जहान की बातें हुईं. ये अपने निक्की राम थे जो मामा के एन सामने ख्ड़े हो गये बोले :-”मामाजी. लीजिये फ़ोटो "

निक्की
फ़िर अन्य दो बेटे लकी,विक्की नेट,ब्लाग, माया कैलेण्डर, आदि पर देर तक बतियाते रहे.
दूसरे दिन सोचे समय से एक घंटे बाद हम किरिकिया पंहुंचे.  

कैलाश स्वर्गीय पिता जी के पिंड इंदिरासागर परियोजना के बैकवाटर क्षेत्र  के ले आया समर्पित करने त्रयोदशी की पूजन के बाद माँ नर्मदा  के भीतर प्रवाहित करने इससे जलचर लाभान्वित होंगे . 
ये जो दूर तक आप अथाह जल राशि देख रहे हैं न यहीं बसा करते थे कोई 250 गांव जिनमें थी आबादी, आबादी की आंखों मे थे सपने, सपने जो किसान के सपने थे, मज़दूर के सपने थे, पंडित,लोहार,सुतार, धीवर,सोनार, मास्टर,पोस्ट-मैन, चपरासी, किसी के भी थे थे ज़रूर. पुरखों की विरासत सम्हालते थे कुछ,  जो जमीनें खोट (वार्षिक-किराये ) देकर   जबलपुर भोपाल,इन्दौर, मुम्बई ( जिसे गांव आकर बेधड़क बम्बई बोलते थे ) में रोजगार हासिल किया था  उनके भी  तो सपने थे हर गर्मियों में गांव आकर घर की खोल-बंदी, कुल-देवी के पूजन, की जी हां इसी अथाह जल राशी में समा गये किंतु उन के मन से न निकल सकने वाली पीर दे गये. विकास की प्राथमिक शर्त ही विनाश है. जी हां यही सत्य है. देखो न कितने पसीने बहा के बनी थी सड़क सीधे खण्डुये (खण्डवा) जाती थी. यहीं तो रेलवे- लाइन हुआ करती थी . पर अब वो सड़क  जाती है वहां तक जहां तक दो पहिया मालिक बाइक धोकर नर्मदा को गंदा करने और फ़िर हाथ जोड़कर झूठी आस्था  का प्रदर्शन कर रहा है. 
ये शम्भू सिंग जी हैं साथी का इन्तज़ार कर रहे हैं शाम का चार बज चुका है. मछलियां जाल में फ़ंसने आ जाएंगी. पर साथी न आया तो हमने कहा:-’भाई, तुम, पास की मछलियां क्यों नहीं पकड़ते ?
"भियाजी, कंईं काम की नी हईं..! काम की बड़ी-बड़ी मछली  तो पानी क भित्तर मिलच !
बड़ी गहरी बात कह दी शम्भूसिंग ने. पर शायद ही कोई इस पर ध्यान देगा. सच सोचिये तो ज़रा  शम्भू सिंग जी सही कह रहें हैं न ?
  ये क्या हलवाई ? 
 अरे क्या कर रहे  हो भैया.ब्लास्ट हो जाएगा तो .?
"हमारा तो रोज़ का काम है." एक टंकी से दूसरी टंकी में गैस यूं ही शिफ़्ट करता है वो. जान पर खेल कर क़ानून को धता बताते हुए मन में आया कि डपट दूं. कैलास क्या सोचेगा मौसा जी मुझे सांत्वना देने आये हैं कि सिस्टम सुधारने   सो बस चुप रहा . वैसे भी किधर देखिये किसे सोचिये . क्या क्य सोचिये . ?
आज़ सुबह मामा ससुर साहब के साथ उनकी बनावाई धरमशाला में गया. हण्डिया. नर्मदा जयंति के दो दिन पूर्व  अवसर का लाभ उठाना ही था. ये रही  तस्वीर जो  बतातीं  नर्मदा-जयंति हम सिर्फ़ ढोंग करते हैं "नर्मदा-जयंति" मनाने का.  मेरे आग्रह के बावज़ूद वे युवक न माने नर्मदा को प्रदूषित करने बाइक धोने घुस ही गये माई के पल्लू से धोयेंगें अपनी बाइक. 

  मेरी पीड़ा देख मामा ससुर ने तय कर लिया कि इस बार वे कम से कम इस घाट पर तो बाइक का आना जाना रोकने बेरियर लगवा ही देंगे. पर साबुन से नहाने वाले उस दादा को वे रोक पाने में असमर्थ महसूस कर रहे हैं. 
हां एक बात और एक वानर सेना बना ली है सेना तट के पास का कूड़ा-प्लास्टिक-पन्नी बीनती है उसे जलाती भी है 
मामा जी की वानर-सेना
नर्मदा जयन्ति पर विषेश आलेख में विस्तार से विवरण तक के लिये विदा दीजिये 


5.2.11

पद-जात्रा


सर्किट-हाउस
अध्याय दो
 Novel By :-Girish Billore Mukul,969/A-II,Gate No.04 ,Jabalpur M.P.

                 जुगाड़,इंतज़ाम,व्यवस्था, कानून की ज़द में न हो तो भी क़ानून की ज़द में लाकर करो यही है सरकारी चाकरी का सूत्र हैं. इन सूत्रों का प्रयोग करते जाइये नौकरी करते जाइये. ये शिक्षा दे रहे थे तहसीलदार जो अपने समकक्ष अधिकारीयों को अधीनस्त समझते थे,राजस्व विभाग के ये साहब अपने आप को सरकार की सगी औलाद और अन्य विभाग के अफ़सरों और कर्मचारियों को सरकार की सौतेली औलाद मानने वाले ये तहसीलदार साब तो क्या इनका रीडर भी अपने इलाके के अन्य विभागों को अपनी जागीर मानता है .इसी बातचीत के दौरान टेबल पर रखा फ़ोन मरघुल्ली आवाज़ में कराहा. बड़े घमंड से फ़ोन उठाया गया यस सर ,जी सर, ओ के सर , और फ़िर सर सर ! जी इसके अलावा किसी ने कुछ नहीं सुना. फ़ोन बंद करके तहसीलदार बोला - सी०एम साब हैलीकाप्टर से इसी हफ़्ते भ्रमण पर हैं. एस०डी०एम० साब मीटिंग लेंगें आप आ जाना गुरुवार को .बी०डी०ओ० बोला : जी,ज़रूर बाकियों ने हां में हां मिलाई. चाय-पानी के बाद सभा बर्खास्त हो गई. पौने पांच बज चुके थे सबकी तन्ख्वाह जस्टीफ़ाईद हुई सब निकल पड़े अपने अपने बंगलों में. बंगले क्या बाहर से बूचड़ खाने नज़र आते थे. बरसों से उसी पीले रंग से रंगे जाते थे वो भी दीवाली के बाद. जब टेकेदार की बाल्टी-कूची से  जिला और सब डिवीजन लेबल तक को पीला किया जा चुका होता था.बचा खुचा रंग पावर के हिसाब से सबसे पहले तहसीलदार, फ़िर नायब, फ़िर बी०डी०ओ० फ़िर बचा तो बाक़ी सबके बंगलों में कूची फ़ेरने की रस्म अदा हो जाया करती थी.  
                  गुरुवार को खण्ड स्तर के सारे अधिकारी सरकार के दरबार में पहुंच गये. तहसीलदार यानी रुतबेदार के आफ़िस में एस०डी०एम० कलैक्टर  साब के नुमाइंदे के तौर पर पधारे. आई०ए०एस०थे सो डाक्टर,एस०डी०ओ०पी०,थाना प्रभारी, परियोजना अधिकारी, कृषि-अधिकारी, बी०ई०ओ० सब बिफ़ोर टाईम. गुरुवार को भी दाढ़ी बना के भागते चले आये. वरना गुरुवार को न तो नाई की दूकान की तरफ़ झांकते और न ही सेविंग किट की याद ही करते . डा०मिश्रा आते ही बोले :- गुरुवार, को सेविंग करना पड़ा बताओ. नौकरी में धरम-करम सब चट जाता है
गुप्ता बी०डी०ओ० बोला:-’अरे, जित्ते अधर्म हम करतें है, उसका प्रायश्चित, कर लेंगें रिटायर होकर..?
   इनको मालूम नहीं चित्रगुप्त ने इनकी जीवनी में सिर्फ़ पाप ही पाप लिखे हैं. ये बेचारे तो सात जन्म तक प्रायश्चित करें तो भी नहीं पाप कटेंगें . पल पल बोले झूठ का पाप, दण्डवत का पाप,झूठी दिलासा का पाप, कमीशन-खोरी का पाप, पता नहीं क्या क्या लिख मारा चित्रगुप्त महाराज़ ने. ऊपर से बीवी को बच्चों को, बाप को,भाई को जाने किस किस को मूर्ख बनाने का पाप सब कुछ दर्ज़ किये जा रहें हैं चित्रगुप्त जी महाराज़.
                     खैर, छोड़िये चित्रगुप्त जी को जो करना है सो उनको करने देते है हम इन लोगों पे आते हैं जो देश के लिये ज़रूरी भी हैं और देश की मज़बूरी भी. सो सी०एम० साब ले गांव गांव पद जात्रा निकलवाई. तपती धूप में जनता के बीच किताब पड़ने की ड्यूटी लगाई. ताकि़ आम आदमी जाने कि कि उनको कैसे आगे आना है और  कैसे लाभ उठाना है. एक अधिकारी के हाथ में सौंपी गई थी वो किताब जिसे बांचना था. दल के दल गांव गांव जाते किताब बांचते फ़िरते. तहसीलदार के साथ जब परियोजना अधिकारी गया तो भौंचक रह गया ग्राम पिचौर  में पहुंचते ही पटवारी से व्हाया आर०आई० नायब फ़िर तहसीलदार बने शर्मा ने गांव के अंदर आते ही कोटवार के ज़रिये सरपंच को बुलावा भेजा. तब मोबाइल फ़ोन नही थे वरना पटवारी भी आधा फ़र्लांग जाने की तक ज़हमत न उठाता, जाना पड़ा बेचारे को पाजामा सम्हाला तेज़ कदमों से बुलावे के लिये रवाना हुआ क्या आवाज़ थी कोटवार की. चार खेत दूर तक पहुंच गई  गांव से दूर उस खेत तक जहां कल्लू पटेल मोटर से पानी दे रहा था… पुकार ये थी..”ओ कल्लू रै सिरपंच, तहसील साब बुलात है रे………..” रे को ठीक उसी तरह खींचा जैसे सियासी पार्टियां किसी मुद्दे को बेइंतहां खींचतीं हैं  .

     सरपंच चिल्लाया :-”आत हौं रे तन्नक ठैर तो जा  रे कुटवार तैं चल मैं आ रओ , फ़िर खेत की झाड़ियों की ओट में बैठ के शंका निवारण की जो लघु थी . नया-नया सरपंच था डरा कि कोई अपराध तो नहीं हो गया . वैसे उसने पहली कमीशन खोरी कर ली थी . स्कूल में रंगाई-पुताई,शौचालय बनाने के लिये बी०डी०ओ० दफ़्तर से मिले पांच हज़ार के चैक से चालीस परसेंट का वारा न्यारा सी०ई०ओ० दफ़्तर के पंचायत साब के मार्गदर्शन में हुआ. साठ परसेंट में काम हुआ. उसे भय था कि शायद तहसीलदार को भनक लग गई. आज़ उसी की जांच तो नहीं. इसी भय के मारे शंका हुई शंका लघु थी सो उसका निवारण खेत में ही कर लिया, सबके सामने कैसे करता बेचारा बताओ भला ?  
                                                  
                                       (निरंतर)

4.2.11

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों

साभार CM Q
गोपाल दास नीरज जी का गीत
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों
- गोपालदास "नीरज" (Gopaldas Neeraj)

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है |

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।

 




इस गीत को स्वरों में पिरोया है मिसफ़िट:सीधीबात की सहसंचालिका  पाडकास्टर अर्चना चावजी ने 



मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में। शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर

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