बाबूजी


(इस आलेख का प्रकाशन मेरे एक ब्लाग पर हो चुका है किंतु उस ब्लाग पर आवाज़ाही कम होने तथा पोस्ट में लयात्मकता के अभाव को दूर करते हुए यह पोस्ट पुन: सादर प्रेषित है  की ) 

बाबूजी उन प्रतीकों में से एक हैं जो अपनी उर्जा को ज़िंदगी के उस मोड़ पर भी तरोताजा रखते है जहां जाकर सामान्य लोग क्षुब्ध दिखाई देते हैं. हाल ही बात है  अरविन्द भाई को बेवज़ह फोटोग्राफी के लिए बुलवाया बेवज़ह . बेवज़ह इस लिए क्योंकि न तो कोई जन्म दिन न कोई विशेष आयोजन न ब्लागर्स मीट यानी शुद्ध रूप से  मेरी इच्छा  की पूर्ती ! इच्छा  थी  कि बाबूजी  सुबह सबेरे की अपने गार्डन वाले बच्चों को कैसे दुलारते हैं इसे चित्रों में दर्ज करुँ कुछ शब्द जड़ दूं एक सन्देश दे दूं कि :-''पितृत्व कितना स्निग्ध होता है " हुआ भी यही दूसरे माले पर  मैं और अरविन्द भाई उनका इंतज़ार करने लगे . जहां उनके दूसरे बच्चे यानी नन्हे-मुन्ने पौधे  इंतज़ार कर रहे थे दादा नियत समय पर तो नहीं कुछ देर से ही आ सके आते ही सबसे दयनीय पौधे के पास गए उसे सहलाया फिर एक दूसरे बच्चे की आसपास की साल-सम्हाल ही बाबूजी ने. यानी सबसे जरूरत मंद के पास सबसे पहले.यही संस्कार उनको दादा जी ने दिये होंगें तभी तो बाबूजी सबसे कमज़ोर पौधे की देखभाल सबसे पहले करतें हैं . ऐसे हैं बाबूजी.   जी सच सोच  रहें हैं आप सबके बाबूजी ऐसे ही होंगे होते भी  हैं हमारे परिवारों में बुज़ुर्ग धन-सम्पति से ज़्यादा कीमती होते हैं . बस सभी को आंखों से पट्टी उतारना ज़रूरी है अपने अपने बाबूजीयों को देखने के लिए एक पाज़िटिव विज़न चाहिये. बाबूजी को देखने के लिए बच्चे की नज़र चाहिये हम और आप मुखिया बन के तर्कों के  चश्में से  अपने अपने बाबूजी को देखेंते तो सचमुच हम उनको देख ही कहाँ पाते हैं. बाबूजी को पहले मैं भी तर्कों के  चश्में से देखता था सो बीसीयों कमियाँ नज़र आतीं थीं मुझे उनमें एक दिन जब श्रद्धा बिटिया, चिन्मय (भतीजे) की नज़र से देखा तो लगा सच कितने मासूम और सर्वत्र स्नेह बिखेरतें हैं अपने बाबूजी. सब के बाबूजी ऐसे ही तो होते हैं. बाबूजी के बड़े परिवार के अलावा 106 गमलों में निवासरत और इसी हफ़्ते मिट्टी से भरे बीस गमलों की साल सम्हाल के लिये इन्तज़ाम कर भी तय किया है बाबूजी ने . नौकर चाकर माली आदी सबके होते बाबूजी उनकी सेवा करते हैं. उनकी चिंता में रहते हैं हम भाइयों ने जब कभी एतराज़ किया तो महसूस किया बाबूजी पर उनकी रुचि के काम करने से रोकना उनको पीडा पंहुंचाना है. अस्तु हम ने इस बिंदु पर बोलना बंद कर दिया. जिस में वे खुश वो ही सही है. अपने बुज़ुर्गों को अपने सत्ता के बूते (जो उनसे और उनके कारण हासिल होती है) उनपर प्रतिबंध लगाना उनकी आयु को कम करना है.मेरे पचासी साल के बाबूजी खुश क्यों हैं मुझे शायद हम सबको इसका ज़वाब मिल गया है न !!

v  गिरीश बिल्लोरे मुकुल जबलपुर
बस थोड़ा सा हम खुद को बदल लें तो  लगेगा कि :-भारत में वृद्धाश्रम की ज़रुरत से ज़्यादा ज़रुरत है पीढ़ी की सोच बदलने की.

टिप्पणियाँ

Udan Tashtari ने कहा…
बाबू जी को प्रणाम!!

ऐब हममे है, बदलना भी हमें ही होगा.
सचमुच हमारे दृष्टिकोण का बदलाव बहुत कुछ बदल देगा.....

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