कविता
"विषय '',
जो उगलतें हों विष
उन्हें भूल
अमृत बूंदों को
उगलते
कभी नर्म मुलायम बिस्तर से
सहज ही सम्हलते
विषयों पर चर्चा करें
अपने "दिमाग" में
कुछ बूँदें भरें !
विषय जो रंग भाषा की जाति
गढ़तें हैं ........!
वो जो अनलिखा पढ़तें हैं ...
चाहतें हैं उनको हम भूल जाएँ
किंतु क्यों
तुम बेवज़ह मुझे मिलवाते हो इन विषयों से ....
तुम जो बोलते हो इस लिए कि
तुम्हारे पास जीभ-तालू-शब्द-अर्थ-सन्दर्भ हैं
और हाँ
तुम अस्तित्व के लिए बोलते हो-
इस लिए नहीं कि
तुम मेरे शुभ चिन्तक हो ।
शुभ चिन्तक
रोज़ रोटी
चैन की नींद !!
गीत:-
अनचेते अमलतास नन्हें
कतिपय पलाश।
रेणु सने शिशुओं-सी
नयनों में लिए आस।।
अनचेते चेतेंगें
सावन में नन्हें
इतराएँगे आँगन में
पालो दोनों को ढँक दामन में।
आँगन अरु उपवन के
ये उजास।
ख़्वाबों में हम सबके बचपन भी
उपवन भी।
मानस में हम सबके
अवगुंठित चिंतन भी।
हम सब खोजते
स्वप्नों के नित विकास।।
मौसम जब बदलें तो
पूत अरु पलाश की
देखभाल तेज़ हुई साथ
अमलतास की
आओ सम्हालें इन्हें ये तो
अपने न्यास।।
1 टिप्पणी:
हम इसलिए कुछ अच्छा नहीं सोचते कि सोचेंगे तो कुछ अच्छा करना पड़ेगा और अच्छा करना किसी भी गलत काम के करने से अधिक कष्टदायक मालूम चलता है (यद्यपि होता नहीं)... इसलिए काश कि कुछ अमृत बूंदे ले सकें.
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