Ad

सोमवार, अगस्त 15, 2011

लोकतंत्र को आलोक-तंत्र बनाने की कवायद

लोकतंत्र को 

आलोक-तंत्र बनाने की कवायद करता.
भारत पैंसठ साल का  बुड्ढा..  हो गया..
अपनी पुरानी यादों में खो गया.......!!
दीवारों पर कांपते हाथों से लिख रहा था 
"आलोक-तंत्र"
लोग भी आये आगे 
बूढ़े का मज़ाक  उड़ा कर भागे..!!
कुछ खड़े रहे मूक दर्शक बन ..!
कुछ गा रहे थे बस हम ही हम..!! 

कोलाहल तेज़ हुआ फ़िर बेतहाशा 
हर ओर नज़र छाने लगी निराशा !
सबकी अलग थलग थी भाषा-
कांप रही थी बच्चों की जिग्यासा !!
कल क्या होगा.. सोच रहे थे बच्चे 
एक बूड़ा़ बोला :-"भागो किसी लंगड़े की पीठ पे लद के ही "
जान बचाओ.. छिप छिपाकर.. 
हमें नहीं चाहिये न्याय
क्या करेंगें स्विस का पैसा लेकर 
फ़हराने दो उनको तिरंगा ये
है उनका
संवैधानिक अधिकार...
रामदेव..अन्ना... सब कर रहे
शब्दों का व्यापार..
अरे छोड़ो न यार
फ़िज़ूल में मत करो वक्त बरबाद..
गूंगे फ़रियादीयो कैसे बोलोगे
बहरी व्यवस्था की भी तो कोई मज़बूरी है
वो कानों से देखेगी...!!
सदन में चीत्कारेंते हैं..
हमारे लिये हां..ये वही लोग हैं जो
सड़क पर दुत्कारतें हैं...
पूरे तो होने दो पांच साल
बदल देना
इस बरगद की छाल...
अभी चलो घर चलतें हैं..

Ad

यह ब्लॉग खोजें

मिसफिट : हिंदी के श्रेष्ठ ब्लॉगस में