9.7.13

मत कहो गीत गीले होते नहीं, अबके गीले हुये हैं वो बरसात में...

रास्ते खोजते भीगते भागते, जिसके दर पे  थे  उसने  बचाया  नहीं
कागज़ों पे लिखे गीत सी ज़िंदगी- जाने क्या क्या हुआ उस रात में ?
तेज़ धारा बहा ले गई ज़िंदगी रेत से बह रहे थे नगर के नगर  –
क्रुद्ध बूंदों ने छोड़ा नहीं एक भी, शिव की आखें खुलीं थी उस रात में !
हर तरफ़ चीखतीं भयातुर देहों को तिनका भी मिला न था इक हाथ में-
बोलिये क्या लिखें क्या सुनें क्या कहें- जो बचा सोचता ! क्यूं बचा बाद में ?
जो कुछ भी हुआ था वज़ह हम ही थे- पर सियासत को मुद्दों पे मुद्दे मिले.
इधर चैनलों पे बेरहम लोग थे,  उधर गिद्धों से आदमी थे जुटे-
अंगुलियां काटकर मुद्रिका ले गये  हाथ काटे गये चूड़ियों के लिये
निर्दयी लोगों के इस नगर में कहो क्या लिखूं, शब्द छुपते हैं आघात में .

मत कहो गीत गीले होते नहीं, अबके गीले हुये हैं वो बरसात में... 

8.7.13

दो बार दफ़नाया गया था मुमताज़ को...प्रदीप श्रीवास्तव

विश्व के सात अजूबों में से एक, प्रेम का प्रतीक ताजमहल और आगरा आज एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं. अब ताज भारत का गौरव ही नहीं अपितु दुनिया का गौरव बन चुका है. ताजमहल दुनिया की उन 165 ऐतिहासिक इमारतों में से एक है, जिसे राष्ट्र संघ ने विश्व धरोहर की संज्ञा से विभूषित किया है. इस तरह हम कह सकते हैं कि ताज हमारे देश की एक बेशकीमती धरोहर है, जो सैलानियों और विदेशी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है. प्रेम के प्रतीक इस खूबसूरत ताज के गर्भ में मुग़ल सम्राट शाहजहां की सुंदर प्रेयसी मुमताज महल की यादें सोयी हुई हैं, जिसका निर्माण शाहजहां ने उसकी याद में करवाया था. कहते हैं कि इसके बनाने में कुल बाईस वर्ष लगे थे, लेकिन यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि सम्राट शाहजहां की पत्नी मुमताज की न तो आगरा में मौत हुई थी और न ही उसे आगरा में दफनाया गया था. मुमताज महल तो मध्य प्रदेश के एक छोटे जिले बुरहानपुर (पहले खंडवा जिले का एक तहसील था) के जैनाबाद तहसील में मरी थी, जो सूर्य पुत्री ताप्ती नदी के पूर्व में आज भी स्थित है. इतिहासकारों के अनुसार लोधी ने जब 1631 में विद्रोह का झंडा उठाया था तब शाहजहां अपनी पत्नी (जिसे वह अथाह प्रेम करता था) मुमताज महल को लेकर बुरहानपुर चला गया. उन दिनों मुमताज गर्भवती थी. पूरे 24 घंटे तक प्रसव पीड़ा से तड़पते हुए जीवन-मृत्यु से संघर्ष करती रही. सात जून, दिन बुधवार सन 1631 की वह भयानक रात थी, शाहजहां अपने कई ईरानी हकीमों एवं वैद्यों के साथ बैठा दीपक की टिमटिमाती लौ में अपनी पत्नी के चेहरे को देखता रहा. उसी रात मुमताज महल ने एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया, जो अधिक देर तक जिन्दा नहीं रह सका. थोड़ी देर बाद मुमताज ने भी दम तोड़ दिया. दूसरे दिन गुरुवार की शाम उसे वहीँ आहुखाना के बाग में सुपुर्द-ए- खाक कर दिया गया. वह इमारत आज भी उसी जगह जीर्ण-शीर्ण अवस्था में खड़ी मुमताज के दर्द को बयां करती है. इतिहासकारों के मुताबिक मुमताज की मौत के बाद शाहजहां का मन हरम में नहीं रम सका. कुछ दिनों के भीतर ही उसके बाल रुई जैसे सफ़ेद हो गए. वह अर्धविक्षिप्त-सा हो गया. वह सफ़ेद कपड़े पहनने लगा. एक दिन उसने मुमताज की कब्र पर हाथ रखकर कसम खाई कि मुमताज तेरी याद में एक ऐसी इमारत बनवाऊंगा, जिसके बराबर की दुनिया में दूसरी नहीं होगी. बताते हैं कि शाहजहां की इच्छा थी कि ताप्ती नदी के तट पर ही मुमताज कि स्मृति में एक भव्य इमारत बने, जिसकी सानी की दुनिया में दूसरी इमारत न हो. इसके लिए शाहजहां ने ईरान से शिल्पकारों को जैनाबाद बुलवाया. ईरानी शिल्पकारों ने ताप्ती नदी के का निरीक्षण किया तो पाया कि नदी के किनारे की काली मिट्टी में पकड़ नहीं है और आस-पास की ज़मीन भी दलदली है. दूसरी सबसे बड़ी बाधा ये थी कि तप्ति नदी का प्रवाह तेज होने के कारण जबरदस्त भूमि कटाव था. इसलिए वहां पर इमारत को खड़ा कर पाना संभव नहीं हो सका. उन दिनों भारत की राजधानी आगरा थी. इसलिए शाहजहां ने आगरा में ही पत्नी की याद में इमारत बनवाने का मन बनाया. उन दिनों यमुना के तट पर बड़े -बड़े रईसों कि हवेलियां थीं. जब हवेलियों के मालिकों को शाहजहां कि इच्छा का पता चला तो वे सभी अपनी-अपनी हवेलियां बादशाह को देने की होड़ लगा दी. इतिहास में इस बात का पता चलता है कि सम्राट शाहजहां को राजा जय सिंह की अजमेर वाली हवेली पसंद आ गई. सम्राट ने हवेली चुनने के बाद ईरान, तुर्की, फ़्रांस और इटली से शिल्पकारों को बुलवाया. कहते हैं कि उस समय वेनिस से प्रसिद्ध सुनार व जेरोनियो को बुलवाया गया था. शिराज से उस्ताद ईसा आफंदी भी आए, जिन्होंने ताजमहल कि रूपरेखा तैयार की थी. उसी के अनुरूप कब्र की जगह को तय किया गया. 22 सालों के बाद जब प्रेम का प्रतीक ताजमहल बनकर तैयार हो गया तो उसमें मुमताज महल के शव को पुनः दफनाने की प्रक्रिया शुरू हुई. बुरहानपुर के जैनाबाद से मुमताज महल के जनाजे को एक विशाल जुलूस के साथ आगरा ले जाया गया और ताजमहल के गर्भगृह में दफना दिया गया. इस विशाल जुलूस पर इतिहासकारों कि टिप्पणी है कि उस विशाल जुलूस पर इतना खर्च हुआ था कि जो किल्योपेट्रा के उस ऐतिहासिक जुलूस की याद दिलाता है जब किल्योपेट्रा अपने देश से एक विशाल समूह के साथ सीज़र के पास गई थी. जिसके बारे में इतिहासकारों का कहना है कि उस जुलूस पर उस समय आठ करोड़ रुपये खर्च हुए थे. ताज के निर्माण के दौरान ही शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने उन्हें कैद कर के पास के लालकिले में रख दिया, जहां से शाहजहां एक खिड़की से निर्माणाधीन ताजमहल को चोबीस घंटे देखते रहते थे. कहते हैं कि जब तक ताजमहल बनकर तैयार होता. इसी बीच शाहजहां की मौत हो गई. मौत से पहले शाहजहां ने इच्छा जाहिर की थी कि "उसकी मौत के बाद उसे यमुना नदी के दूसरे छोर पर काले पत्थर से बनी एक भव्य इमारत में दफ़न किया जाए और दोनों इमारतों को एक पुल से जोड़ दिया जाए", लेकिन उसके पुत्र औरंगजेब ने अपने पिता की इच्छा पूरी करने की बजाय, सफ़ेद संगमरमर की उसी भव्य इमारत में उसी जगह दफना दिया, जहां पर उसकी मां यानि मुमताज महल चिर निद्रा में सोईं हुई थी. उसने दोनों प्रेमियों को आस-पास सुलाकर एक इतिहास रच दिया. बुहरानपुर पहले मध्य प्रदेश के खंडवा जिले की एक तहसील हुआ करती थी, जिसे हाल ही में जिला बना दिया गया है. यह जिला दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग पर इटारसी-भुसावल के बीच स्थित है. बुहरानपुर रेलवे स्टेशन भी है, जहां पर लगभग सभी प्रमुख रेलगाड़ियां रुकती हैं. बुहरानपुर स्टेशन से लगभग दस किलोमीटर दूर शहर के बीच बहने वाली ताप्ती नदी के उस पर जैनाबाद (फारुकी काल), जो कभी बादशाहों की शिकारगाह (आहुखाना) हुआ करती थी, जिसे दक्षिण का सूबेदार बनाने के बाद शहजादा दानियाल ( जो शिकार का काफी शौक़ीन था) ने इस जगह को अपने पसंद के अनुरूप महल, हौज, बाग-बगीचे के बीच नहरों का निर्माण करवाया था, लेकिन 8 अप्रेल 1605 को मात्र तेईस साल की उम्र मे सूबेदार की मौत हो गई. स्थानीय लोग बताते हैं कि इसी के बाद आहुखाना उजड़ने लगा. स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार मनोज यादव कहते हैं कि जहांगीर के शासन काल में सम्राट अकबर के नौ रतनों में से एक अब्दुल रहीम खानखाना ने ईरान से खिरनी एवं अन्य प्रजातियों के पौधे मंगवाकर आहुखाना को पुनः ईरानी बाग के रूप में विकसित करवाया. इस बाग का नाम शाहजहां की पुत्री आलमआरा के नाम पर पड़ा. बादशाहनामा के लेखक अब्दुल हामिद लाहौरी साहब के मुताबिक शाहजहां की प्रेयसी मुमताज महल की जब प्रसव के दौरान मौत हो गई तो उसे यहीं पर स्थाई रूप से दफ़न कर दिया गया था, जिसके लिए आहुखाने के एक बड़े हौज़ को बंद करके तल घर बनाया गया और वहीँ पर मुमताज के जनाजे को छह माह रखने के बाद शाहजहां का बेटा शहजादा शुजा, सुन्नी बेगम और शाह हाकिम वजीर खान, मुमताज के शव को लेकर बुहरानपुर के इतवारागेट-दिल्ली दरवाज़े से होते हुए आगरा ले गए. जहां पर यमुना के तट पर स्थित राजा मान सिंह के पोते राजा जय सिंह के बाग में में बने ताजमहल में सम्राट शाहजहां की प्रेयसी एवं पत्नी मुमताज महल के जनाजे को दोबारा दफना दिया गया. यह वही जगह है, जहां आज प्रेम का शाश्वत प्रतीक, शाहजहां-मुमताज के अमर प्रेम को बयां करता हुआ विश्व प्रसिद्ध "ताजमहल" खड़ा है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

3.7.13

डू यू नो हू एम आय !

अमेरिकन बाला के हाथों
सजती हमारी तस्वीर 
ओबामा : सम थिंग अबाउट
मिसफिट गिरीश मुकुल 
                    दीन दुनिया से बेखबर हमको पता ही न था कि हम भी सेलिब्रिटी बन गये हैं इस बात का पता लगते ही हमने खुद को खुद ही ज़ोर से च्यूँटी काटी पर हमको भरोसा न हुआ सो हमने पड़ोस में बैठे फत्तेदास जी को बोला -"भाई एक लप्पड़ तो मारो हमको ?"
ओबामा : मोर  थिंग अबाउट
मिसफिट गिरीश मुकुल 





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समीरलाल के साथ
हमारी शिखर वार्ता
की तस्वीर जो विदेशी संग्रहालय
की शान है  
हमारी लोकप्रियता का
ज़लवा 
  वे तो ऐसे मौके की तपास में बैठे ही थे बरसों से बचपन में उनको  अक्सर  लपड़याते थे रिवेंज का सही वक़्त पाते ही हमारे गुलाबी गाल उनके लप्पड़ से सुर्ख लाल हो गया. तब जाके हमको महसूस हुआ कि हम कोई सपना नहीं देख रहे हैं वास्तव में हम सेलिब्रिटी  बन गये हैं. हमारे मे ऐसा को गुन नहीं है कि हम सेलिब्रिटी का ओहदा हासिल कर लें पर हमारे मित्र राजीव तनेजा  ने जो तस्वीरें भेजीं उससे साबित हुआ कि- हम विश्व में कित्ते फेमस हैं । अब देखिये न हमारी तस्वीर अमेरिकन  बाला कितने प्रेम से बना रही है. बनाए भी क्यों न जब  उनके देश के  राष्ट्रपति ओबामा जी  स्वयं हम पर विस्तार से सफ़ेद-घर में प्रेस को बता रहे हों सम थिंग अबाउट मिसफिट गिरीश मुकुल  तना ही नहीं अब  हम जो भी करते हैं उसकी खबर पर नमक मिर्च लगा के हमारे कुछ चुगलखोर टाईप के  मित्र हमारा मज़ाक उडाते थे पर अब - भाई अब तो स्थिति उलट है   न्यूज़ चैनल वाले , अखबार वाले हमारे वर्ज़न के बिना समाचार प्रकाशित ही नहीं करते हम भी पुराने डिबेटर रहे हैं डी.एन. जैन कालेज वाले कुछ भी आंय-बांय बक देतें हैं. सभी लोग ऐसा ही करते हैं है न टीवी पर आपने बहस तो देखी होगी यही सब दिखाते हैं. जब हम टी वी पर अपना वक्तव्य दे रहे होते हैं तब अमेरिका सहित सभी  देशों के घरों में पली बिल्लियां तक  हमारा तन्मयता से अवलोकन करतीं हैं । कुत्ते भी करते होंगे कौन जाने  .
                             हां एक बात बताना रह गया कि- मशहूर चिट्ठाकार  समीरलाल के साथ हमारी शिखर वार्ता की तस्वीर विदेशी संग्रहालय की शान बन चुकी है जानते हैं किस विषय पर बात कर रहे थे हम ... चलिये छोड़िये  बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी . एक सूचना सुधि पाठक जान लें की मेरी पहली और  आख़िरी फिलम  ग़दर-पार्ट 2    अब शीघ्र रिलीज़ हो जाएगी तब तक आप लोग पोस्टर देखिये 
कल जब ये फिलम रिलीज़ होगी
तब दुनिया का हर  फिल्म
एवार्ड हमारे नाम होगा  
  

                       तस्वीरों में आप ने हमारा जलवा देखा जिसे देख  आपके पास से जलने की गंध आ रही है. तभी तो  पूछ   रऐ हो  कि- हम सेलिब्रिटी  क्यों बने ? 
भाई, फत्तेदास जी कोई सेलीब्रिटी खुद बनाता   है का ...? बना जाता है । नत्थू लाल की मूंछों ने नत्थू को सेलीब्रिटी बनाया मंटू से  पूछो की लोग पिट के बन जाते हैं अरे हम सेलीब्रिटी बन गए तो आपको काहे अजमेरी कीड़ा काट रहा है.. तो उसपे सवाल काहे दाग रए हो भैया । .. अच्छा एक बात बताओ जितने लोग सेलेब्रिटी हैं उनमें क्या खूबी है.. कुछ नईं न तो हम में क्यों खूबियां तपासते हौ.. भैये 
 

नोट : भाई पद्म सिंह भाई राजीव तनेजा ,ललित शर्मा को आलेख समर्पित है
बाकी सबको अर्पित है 

1.7.13

" सोलह जून से आज तक और आज के बाद भी !"

 केदारनाथ मंदिर 
 केदारनाथ त्रासदी के बाद समूचा देश सदमें में है, अचानक आई त्रासदी के सामने नि:शब्द सा अवाक सा पर जो कुछ भी घटता है उसके पीछे किसी दोषी को तलाशना कितना सही है ? ये वक्त है निर्मम त्रासदी पर शोकाकुल हो जाने का उनके लिए शोक मग्न होने का जो जानते भी नहीं थे कि उनका गुनाह क्या है । 
                   इस बीच बहुत से मसलों पर बात हुई कहीं उत्तेजक वार्ताएं कहीं तनाव कहीं छिद्रांवेषण तो कहीं किसी के ज़ेहन में उम्मीदों का लकीरें फिर अचानक रुला देने वाली खबरें यानी कुल मिला कर एक अनियंत्रित अनिश्चित वातावरण का एहसास सोलह जून से आज तक यही सब कुछ . हिरोशिमा नागासाकी से लेकर टाइटैनिक हासदा  जापान की सुनामी चीन की बाढ़  भारत के भूकंप जाने ऐसी ऐसी कितनी त्रासदियाँ होंगी जो अवाक कर देतीं हैं . 
                   हर त्रासदी के पीछे कोई न कोई वज़ह होती है . भोपाल गैस त्रासदी को ही लीजिये  हिरोशिमा नागासाकी से कमतर नहीं थी आज भी मिक के शिकार बीमार शरीर लिए दिख जाते हैं .   
                    विकास की पृष्टभूमि जब जब भी लिखी जाती है तो मानिए कि त्रासदियाँ  तय हैं मनुष्य में सदैव हासिल करने की उत्कंठा होती है. मनुष्य पराजय नहीं चाहता , सदा ही जीत चाहता है. इस लिप्सा से वह अपने विनाश को खुद ही आमंत्रण देता है. सोलह जून से आज़तक केवल हताशा से भरा हुआ है करें भी  क्या हम सामर्थ्य हीन हैं , 
क्या सच में "क्या हम सामर्थ्य हीन हैं "
        
चिपको आन्दोलन के प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा
को न सुनाने का  अंजाम   
                  हाँ सत्य यही है की हममें सामर्थ्य नहीं रह गया है. हमारी ज़रूरतें आकाश से ऊँची होती जा रहीं हैं हमने उनको रोकने का सामर्थ्य नहीं है. हमारी जीभ हिंसक हो चुकी है हममें उसे नियंत्रित करने का  सामर्थ्य नहीं . हम अनियंत्रित हैं तभी तो सामर्थ्य हीन हैं . सुन्दर लाल बहुगुणा जी ने चेताया था -"प्रकृति का दोहन पूरे अनुशासन से होना चाहिये वरना प्रकृति हमको ऐसा ज़वाब देगी की हम शेष न होंगे ! "- उनके इस कथन में सचाई है काश उनको सुना जाता ? अभी भी सुना जा सकता है.  अगर हम सोलह जून की पुनरावृत्ति नहीं चाहते हैं.
      अक्सर  सुन्दरलाल बहुगुणा  जैसे लोगों को हाशिये पर रखा जाता है.  उनको न सुनाने का  अंजाम   बेशक इतना ही भयंकर  होगा . 
                                        कल जब  घर न पहुंचे  लोगों की बाट जोहतीं परिजनों की ऑंखें आप देखेंगे तो एक बार ज़रूर आपके दिल में एक दर्द की लकीर खिंच जाएगी . याद रहेगा ये हादसा जो टीवी चेनल्स पर जारी उत्तेजक वार्ताओं का आधार है अभी कल ये चेनल्स हों न हों इस पर चीखने चिल्लाने वालों की ज़गह कोई और ले लेगा यकीनन तब  बाक़ी रहेगा सूना पन  हादसे के शिकार परिजनों के जीवन में. तब कहीं कोई फिल्मकार इस हादसे को रोकड़ में बदलेगा एक फिल्म बना कर हर बरस हादसा याद किया जाएगा कल यानी आज के बाद भी . 
                                

28.6.13

पोतड़ों परफ्यूम के एड के लिए कवायद करते खबरिया चैनल !

FIRSTPOST.INDIA



यशभारत जबलपुर
इस रविवार
३० 
भारतीय पत्रकारिता को आहत करती पत्रकारिता के बारे में  आज कुछ कहना मेरे लिए सम्भव नहीं था वो सब कुछ इस तस्वीर ने कह दिया है. फिर भी आप समझ ही चुके होंगे कि- वास्तव में "बाढ़ भी एक उत्पाद है"  जिसे खबरिया चैनल रोकड़ के रूप में बदल देना चाहते हैं फ़र्स्ट इंडिया डाट कॉम ने खुलासा करके सब के सामने यह सच  उजागार किया. है.   
                         कुछ लोगों ने मेरे पिछले आलेख को पूर्वाग्रह युक्त लेखन करार दिया था. परन्तु इस  सच को भी झुठलाना असम्भव है अब …. . ! FIRSTPOST.INDIA के http://www.firstpost.com/india/why-narain-pargains-camera-piece-in-dehradun-is-a-low-point-in-journalism-900525.html लिंक पर जाकर आप इसे देख सकते हैं हमारा मीडिया इतना बेसब्र और अधीर क्यों है.?
                                     आप जब इस पर विचार करेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा की पोतड़ों परफ्यूम के एड के लिए इन संवादाताओं को वैताल तक बन जाने से गुरेज़ नही आप समझ गए न की न तो वैताल मरेगा न ही विक्रम के सर के टुकडे-टुकडे  होगे . कथा सतत जारी रहेगी अगले मुद्दे तक. अगला मुद्दा मिलते ही लपक लिया जावेगा. इन वैतालों के सहारे आपके दिलो-दिमाग पर हमले जारी रहेगे। आप दर्शक हैं आपके पास दिमाग है आप समझदार हैं   अत: आप दृश्यों से अप्रभावित रहने की कोशिश कीजिये आपके   नज़रिए को  बदने की बलात कोशिश करते हों . 
       आज का दौर देखने दिखाने का दौर है.पर विक्रम यानी आम जनता  पर सवार  ये वैताल क्या दिखाना चाह रहा है ये तो वही जाने हमको तो बस इतना समझना होगा कि - हम पर इसका कहीं नकारात्मक असर तो नहीं हो रहा ?

21.6.13

बाढ़ भी एक उत्पाद है...?

सुश्री शैफ़ाली पाण्डे
                 केदारनाथ आपदा पर  न्यू मीडिया के ब्लागिंग वाले भाग के महारथी  श्री अनूप शुक्ला ने अपने ब्लाग फ़ुरसतिया”  पर जो लिखा उसे चैनल के  चैनल गुरु अपने चेलों को बाढ़ की रिपोर्टिंग के तरीके सिखा रहे हैं. वे बता रहे हैं:-"किसी भी अन्य न्यूज की तरह चैनलों के लिये बाढ़ भी एक सूचना है. एक घटना है. एक उत्पाद है. अगर कहीं बाढ़ आती है तो अपन को यह देखना है कि कितने प्रभावी तरीके से इसको कवर करते हैं."-
     अनूप शुक्ला जी आप जानते हैं न –“ खबरिया चैनल्स की अपनी मज़बूरी है. जनता जल्दी खबर चाहती है.  खबर जो सूचना है जो बिकती है.. पोतड़ों.. साबुन... पर्फ़्यूम के मादक विग्यापनों के साथ सब चाहते हैं.. देखना किसी का मरना, किसी का तड़पना,किसी का किसी को गरियाना तो  किसी का गिरना, ऐसा मानते हैं खबरिया चैनल.
                                      एग्रेसिव मीडिया वृत्ति का ये एक उदाहरण है. कुछ हद तक सचाई भी है.. खबरिया चैनल्स इस बारे में एक मत हैं.. कि लोगों को जितना नैगेटिव दिखाओ उतना ही तरक्क़ी होगी..?
                                    मेरे परिचित मित्र कहते हैं- “रात पौने नौ की न्यूज़ का दौर चुक गया है.अब तो दिन भर नैगेटिविटी को विस्तार देतीं खबरें..बताईये इन पर समय क्यों खराब करूं..?”
                                 अभी एक मित्र ने ये कहा है आने वाले दिनों में ऐसा कहने वालों के प्रतिशत में इज़ाफ़ा होना तय है. भाई इन्दीवर का मानना है कि - सच दिखाने की हड़बड़ी में ढेरों झूठ और ग़लतियां.. गलतियां इस लिये भी होतीं हैं -क्योंकि, इनको सबसे तेज़ और सबसे अच्छा साबित करने का ज़ुनून होता है. 
                                                  विश्व में जो भी कुछ होता है उसका ठीकरा सदैव सरकार अथवा ऐसी किसी भी संस्था के सर पर फ़ोड़ना कौन सा न्याय है.अपने देश के लोगों पर बादलों को फ़टवाना किस देश की सरकार को आता है. आप ही बताएं . एक न्यूज़ चैनल अपने संवाददाता की तारीफ़ कर रहा था कि वो 20 .6.13 को सफ़लता पूर्वक उस क्षेत्र तक पहुंचा जहां से तस्वीरें लाइव की जा सकी और दूसरी ओर  रेस्क्यू दल से अपेक्षा की जा रही थी कि सारा काम चटपट निपटाया जावे.वही संवाददाता महोदय पीढित  से यह  पूछ रहे थे-’कोई, सरकारी अधिकारी ने आपसे सम्पर्क किया अबतक....गोया, संवाददाता महोदय,की नज़र में  अधिकारी भगवान है  उफ़्फ़ ये बौनी सोच के साथ अपने चैनल को जनता के बीच पापुलर बनाए रखने के लिये पनाए जाने वाले हथकण्डों को ध्यान से देखिये.. आपको इसका व्यवसायिक पहलू साफ़ नज़र आएगा.
                      सुधि पाठको, किस चैनल ने कितने हैलीकापटर भेजे.. किसने कितना सहयोग किया सामने आ जाएगा सरकार की आलोचना करने का वक़्त नहीं है.. ये आपदा है जो जबलपुर में भी आ सकती है जलन्धर में भी कौन जाने इस लेख को पूरा कर पाता हूं कि नहीं प्राकृतिक आपदा किसी भी रूप में आ सकती है कभी भी कहीं भी..  जो भी हुआ दुखद और दर्दनाक था.प्राकृतिक आपदा के लिये दोषी की तलाश  कोई बुद्धिमानी का काम नहीं. बल्कि भावातिरेक का परिणाम साथ ही साथ व्यापारिक बुद्धि का प्रयोग. 


      

12.6.13

अब अन्ना हाशिये पर हैं.......?


 मैं अन्ना के आंदोलन की वैचारिक पृष्ट भूमि से प्रभावित था पर किसी फ़ंतासी का शिकार नहीं भ्रष्टाचार से ऊबी तरसी जनमेदनी को भारत के एक कोने से उठी आवाज़ का सहारा मिला वो थी अन्ना की आवाज़ जो एक समूह के साथ उभरी इस आवाज़ को "लगातार-चैनल्स खासकर निजी खबरिया चैनल्स पर " जन जन तक पहुंचाया . न्यू मीडिया भी पीछे न था इस मामले में.  जब यह आंदोलन एक विस्मयकारी मोड़ पर आ आया  तब कुछ सवाल सालने लगे हैं. पहला सवाल   तुषार गांधी ने उठाया  जिस पर गौर   कि अन्ना और बापू के अनशन में फ़र्क़ है कि नहीं यदि है तो क्या और कितना इस बात पतासाज़ी की जाए. तुषार जी के कथन को न तो ग़लत कह सका  और न ही पूरा सच . ग़लत इस वज़ह से नहीं कि.. अन्ना एक "भाववाचक-संज्ञा" से जूझने को कह रहें हैं. जबकि बापू ने समूहवाचक संज्ञा से जूझने को कहा था. हालांकि दौनों का एक लक्ष्य है "मुक्ति" मुक्ति जिसके लिये भारतीय आध्यात्मिक चिंतन एवम दर्शन  सदियों से प्रयासरत है . तुषार क्या कहना चाह रहें हैं इसे उनके इस कथन से समझना होगा  उन्हौने ( तुषार गांधी ने) कहा था - महात्मा गांधी यहां तक स्थिति को पहुंचने ही नहीं देते । क्योंकि वो बीमारी को जड़ पकड़ने से पहले ही खत्म कर देते थे। वो होते तो हालात इतने नहीं खराब होते जैसे कि आज हो गये हैं। " 
      यह कथन पूर्ण सत्य  इस कारण से नहीं माना जा सकता क्योंकि  गाँधी  दौर आज से अलग था ।
मेरे एक मित्र ने सवाल उठाया था कि - "क्या,लोकतंत्र के मायने बदलने लगे हैं..?"
                               जनता विश्वास खो चुकी है.. सचाई को झुकना होता है. ऐसे कई उदाहरण हैं जहां कोई भी अंतरात्मा की आवाज़ पर हाथ उठाने से क़तराता है.तो अंतरात्माएं घबराई हुईं हैं..?
            इसके उत्तर में कहूंगा  आप लोग  बस एकाध पंचायती-मीटिंग में हो आइये सब समझ जाएंगें. आप.जी लोकतंत्र का मायना ही नहीं पूरा स्वरूप बदल ही गया है.. इस कारण अब सियासी आईकान खोजे नहीं मिलते . सब के हाथों मे, घण्टियां हैं पर   "बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे..?" इस तरह की विवषताओं की बेढ़ियों जकड़ा आम-आदमी उसके पीछे है जिसके हाथ में घंटी है और वो बिल्ली के गले में घंटी बाधने वाले को तलाश रहा है.
   अगर स्वप्न में भी कोई ऐसा व्यक्तित्व नज़र आ जाता है जो बिल्ली के गले में घंटी बांधने में का सामर्थ्य रखता हो  तो उसी आभासी चेहरे  की तरफ़ भाग रहा नज़र आता है समूह ... अन्ना के आव्हान पर  स्थिति यही थी . लोग ये देखे बिना कि अन्ना के आसपास का पर्यावरण कैसा है टूट पड़े 
ऐसे में भय था कि आंदोलन के मूल्यों की रक्षा करना बहुत कठिन हो जाता है. 
           एस एम एस पर जारी अन्ना के  निर्देश आपकी नज़र अवश्य गई होगी. मेरी नज़र में सांसद के निवास पर जहां सांसद व्यक्तिगत-स्वतंत्रता के साथ निवास रत है पर धरना देना किसी के व्यक्तिगत-स्वतंत्रता के अधिकार में बाधा का उदाहरण है.ऐसा तरीक़ा गांधियन नहीं था . इसके बज़ाए आग्रह युक्त ख़त सांसदों को सौंपा जा सकता था.. अगर ऐसी घटनाएं होतीं रहेंगी तो तय है "तुषार गांधी" की बात की पुष्टि होती चली जाएगी. मुझे अन्ना ने आकर्षित किया है वे वाक़ई बहुत सटीक बात कह रहें हैं समय चाहता भी यही है.  भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिये समवेत होना सिखा दिया अन्ना ने.
      अन्ना के आंदोलन का एक पहलू यह भी उभर के आ आया कि  लोग "भ्रष्टाचार से निज़ात पाने खुद के भ्रष्ट आचरणों से निज़ात पाने के लिये कोई कसम नहीं ले रहे थे  केवल संस्थागत भ्रष्टाचार का ही  स्कैच जारी करते नज़र आ रहे थे .
               लोग स्वयम के सुख लिये जितना भ्रष्ट आचरण करतें हैं उस बात का चिंतन भी ज़रूरी है. जिसका इस आंदोलन में सर्वथा अभाव देखा जा रहा था .यानी दूसरे का भ्रष्ट आचरण रोको खुद पर मौन रहो . देखना होगा कितने लोग अपना पारिश्रमिक चैक से या नक़द लेते हैं मेरा संकेत साफ़ है मेरे एक आलेख में ऐसे व्यक्तित्व के बारे में मैं लिख चुका हूं. साथ ही ऐसे कितने लोग होंगे जिनने बिजली की चोरी नहीं की है., ऐसे कितने लोग हैं जो अपने संस्थान का इंटरनेट तथा स्टेशनरी  व्यक्तिगत कार्यों के लिये प्रयोग में लातें हैं. ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी आय छिपाते हैं. अन्ना जी सच ऐसे लोग भी  आपकी भीड़ में थे.  सबसे पहला काम व्यक्तिगत-आचरण में सुधार की बात सिखाना आपका प्राथमिक दायित्व था. यही मेरा सुझाव है उनके लिये है जो सफ़ेद टोपी लगा के कह रहे थे कि –“ मैं  अन्ना हूं  मैं भी अन्ना हूं..!!
                 स्मरण हो कि  मैने अपने एक लेख में कहा था कि  एक लेखक  के रूप में मेरी भावनाएं मैं पेश कर रहा हूं ताक़ि आपके संकल्प पूरे हों और हमारे सपने..!! मैं आंदोलन की वैचारिक पृष्ट भूमि से प्रभावित हूं पर किसी फ़ंतासी का शिकार नहीं हूं.  
    जिस बात का डर था सबको वही हुआ कि  अब अन्ना हाशिये पर हैं.......?  

10.6.13

मेरा डाक टिकट (पुनर्प्रकाशन्)

                   
इस स्टैम्प के रचयिता हैं
 ब्ला० गिरीश के अभिन्न मित्र
राजीव तनेजा
वो दिन आ ही गया जब मैं हवा में उड़ते हुए
अपना जीवन-वृत देख रहा था..
               मुद्दतों से मन में इस बात की ख्वाहिश रही कि अपने को जानने वालों की तादात कल्लू को जानने वालों से ज़्यादा और जब मैं उस दुनियां में जाऊं तब लोग मेरा पोर्ट्फ़ोलिओ देख देख के आहें भरें मेरी स्मृति में विशेष दिवस का आयोजन हो. यानी कुल मिला कर जो भी हो मेरे लिये हो सब लोग मेरे कर्मों कुकर्मों को सुकर्मों की ज़िल्द में सज़ा कर बढ़ा चढ़ा कर,मेरी तारीफ़ करें मेरी याद में लोग आंखें सुजा सुजा कर रोयें.. सरकार मेरे नाम से गली,कुलिया,चबूतरा, आदी जो भी चाहे बनवाए. 
जैसे....?
जैसे ! क्या जैसे..! अरे भैये ऐसे "सैकड़ों" उदाहरण हैं दुनियां में , सच्ची में .बस भाइये तुम इत्ता ध्यान रखना कि.. किसी नाले-नाली को मेरा नाम न दिया जाये. 
       और वो शुभ घड़ी आ ही गई.उधर जैसे ही गैस सिलेंडर के दाम बढ़े इधर अपना बी.पी. और अपन न चाह के भी चटक गए. घर में कुहराम, बाहर लोगों की भीड़,कोई मुझे बाडी तो कोई लाश, तो साहित्यकार मित्र पार्थिव-देह कह रहे थे. बाहर आफ़िस वाला एक बाबू बार बार फ़ोन पे नहीं हां, तीन-बजे के बाद मट्टी उठेगी की सूचनाएं दे रहा था. हम हवा में लटके सब कार्रवाई देख रए थे.जात्रा निकली  जला-ताप के लोग अपने धाम में पहुंचे. शोक-सभाओं में किसी ने प्रस्ताव दिया 
"गिरीश जी की अंतिम इच्छा के मुताबिक हम सरकार से उनकी स्मृति में गेट नम्बर चार की रास्ता को उनका नाम दे दे"
दूसरे ने कहा न डाक टिकट जारी करे,
तीसरे ने हां में हां मिलाई फ़िर सब ने हां में हां ऐसी मिलाई जैसे पीने वाले सोडे में वाइन मिलाते हैं..और एक प्रस्ताव कलेक्टर के ज़रिये सरकार को भेजना तय हुआ.
              कलैक्टर साब को जो समूह ग्यापन सौंपने गया उसने जब हमारे गुणों का बखान किया तो "आल-माइटी सा’ब" को भी मज़बूरन हां में हां मिलानी पड़ी. पेपर बाज़ी हुई सवा महीना बीतते बीतते सी एम साब ने गली पर लिखवा दिया "गिरीश बिल्लोरे मार्ग" केंद्र सरकार ने डाक टिकट जारी किया. हम बहुत खुश हुए.हमारी आत्मा मुक्ति की ओर भाग रही थी कि उसने मुड़ के देखा .. इस पत्थर पर हमने गोलू भैया के कुत्ते को "शंका निवारते" देखा तो सन्न रह गये. सोचा डाकघर और देख आवें सो पोस्ट आफ़िस में ससुरे डाक-कर्मी गांधी जी वाले ख़तों पे तो  तो सही साट ठप्पा लगाय रहे थे .  जिंदगी भर सादा जीवन उच्च विचार वाले हम एकाध दोस्त ही जानतें हैं हमारी चारित्रिक विशेषताएं पर मुए डाक कर्मी  लैटर पे बेतहाशा काली स्याही पोत रहे थे.. पूरा मुंह काला किये पड़े थे. अब बताओ हज़ूर तुम्हारे मन में ऐसी इच्छा तो नईं है.. होय तो कान पकड़ लो.. मूर्ती तो क़तई न लगवाना.. वरना


       आकाश का कौआ तो दीवाना है क्या जाने
         किस सर को छोड़ना है, किस सर पे छोड़ना है..?   

8.6.13

मूंछ्मुंडन क्रिया का दार्शनिक पक्ष

                                
जागरण से साभार 

                                  *गिरीश बिल्लोरे”मुकुल”

  मुहल्ले वाले नत्थू लाल जी के घर से निकले एक व्यक्ति को हम घूर घूर के देखे जा रये थे पर समझ न पाए कि कौन हैं.. दिमाग पे ज़ोर जबरिया पिल पड़े कि भाई दिमाग याद दिला याद दिला तब भी याद न आया तो हमने भी हार न मानी हम समझे कदाचित मैन्यूफ़ेक्चरिंग डिफ़ेक्ट की वज़ह से  से हमारा दिमाग घुटने पे न आ गया होगा सो  अपना  घुटना खुजा  खुजा खूना खच्चर कर लिया पर याद न दिलाया कि नत्थू भाई के घर से निकला व्यक्ति कौन है. पर हमारा दिमाग भी अजीब था सामान्यत: घुटने तक  जाता था पर अब किधर खो गया राम जाने ?
                            पर बार बार मन कहे जा रहा था- यार, तुमने इसे कहीं देखा है. .? पर दिमाग ने एक न सुनी न ही बताया कि नत्थूलाल के घर से निकला व्यक्ति कौन है. ?
                              सोच ही रहा था कि  व्यक्ति नज़दीक आया तब जाके समझ आया कि ये तो अपने नत्थूलाल जी हैं. बेवज़ह दिमाग को कोसा. जित्ता है कभी काम आता मुझे डर है कि कहीं मेरा दिमाग  अब मुझसे नाराज़ न हो जाए. इसी भय के बीच नत्थूलाल जी के नज़दीक आते ही हमने पूछा- क्या हाल है नत्थू भाई..और  जे मूंछ..
नत्थू जी - अरे मूंछ का क्या.. घर की खेती है... वो भी बारामासी दो तीन दिन में आ जाएगी..        
हम - तो वज़न कम करना था हो गया दस बीस ग्राम ?
नत्थू जी - का भाई तुम भी मेरी मूंछ का इत्ता कम वज़न आंका ?
हम - नत्थू जी बुरा न मानो हम तो आपको सौ खरब का आपकी मूंछों को सौ अरब की मूंछैं मानते हैं.. पर जिस नंगे  देश में जहां जुआ-सट्टे के दम पे नोट लगाए जाते हों उधर आपकी मूंछ कीमत कौन लगाएगा . इधर तो महाराणा परताप की हालत भी तुमाए जैसी ही हो जाती . खैर " मूंछ बिना नर पूंछ बिना खर "  ज़रा ठीक नईं लगते खैर अब आपने कटवा ली तो कटवाली पर एक बात कहूं कुछ दिन घर के बाहर ज़्यादा मत घूमों..
नत्थू जी - अरे, आप बाहर से घर में जाने को बोल रये हो घर जाता हूं तो आपकी बहू बोलती है पता नईं कैसा कैसा लगता है.. घर में अजीब सा चेहरा लिये घुसे रहते हो.. बच्चा भी डरा डरा रहता है.. घूम फ़िर आओ. ज़्यादा घर में रहे तो हम मायके चले जायेंगे. ये अलग बात है कि वे ऐसा कभी करतीं नहीं कि हमारा भी पंद्रा अगस्त टाइप का एक दिन आए ..
                             नत्थू न घर के रहे न बाहर के दफ़्तर पहुंचे तो बस छोटे कर्मचारी सबसे पीछे वाले कमरे में फ़ुसफ़ुसियाने लगे.. बड़े बाबू टाइप के लोग साहब की मूंछ से असमयिक बिछोह बर्दाश्त न कर सके. उस दिन आफ़िस में कोई काम न हो सका. महिला कर्मचारीयों के कक्ष से -" आ .. जे का कर लिया 
अच्छा नईं किया साब ने" जैसे डायलाग सुनाई दे रहे थे. 
     सबसे चुहलबाज़ बाबू बोला - का साब, हम समझे आप पप्पू का मुंडन करवाओगे जे का आपने तो !
  नत्थू जी के मित्र फ़त्ते लाल भी उन पर छीटाकशी करने न चूके बावज़ूद इसके कि वे स्वयं मूंछ विहीन नर हैं.. 
 इस कहानी का अर्थ कुछ भी नहीं ऐसा सबके साथ होता है.. होता रहेगा किसी न किसी कारण जीवन में मूंछ मुडवाना ही होता है. लोगों के ताने भी सुनने होते हैं.. मुछमुड़े पति को पत्नियां धमकातीं हैं कि वे मूंछ न कटवाएं वरना वे मायके चली जाएंगी... वास्तव में जातीं नहीं हैं. पर मूंछ्मुंडन क्रिया का दार्शनिक पक्ष ये है कि "लोग जैसा आपको देखना चाहते हैं वैसे ही उनको दिखना चाहिये वरना दुनियां करे सवाल तो क्या ज़वाब दें "
      मित्रो मेरे मन में एक कविता बार बार हिलोर ले रही है देखिये
        प्राणपण से प्यार दो
            मूंछ को संवार लो !
              बढ़ाओ मूंछ इतनी तुम
                 कि वक़्त पे उधार दो..!!
      मूंछ संस्कृति का अंग
          रखते हैं सदा मलंग !
             मुछमुंडे बोलो मीत
                कभी जमा सके हैं रंग !!
         मुछ्मुण्डा देख के
           हैं भागतीं कुमारियां !
               ऐसा पति मिल जाए
                  तो सिसकतीं हैं नारियां..!!
         मूंछ मत कटाइये
            संस्कृति बचाईये !
               मुछंदरों की फ़ौज़ के
                  आंकड़े  बढाइये !!

                       

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में। शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर

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