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शनिवार, जून 08, 2013

मूंछ्मुंडन क्रिया का दार्शनिक पक्ष

                                
जागरण से साभार 

                                  *गिरीश बिल्लोरे”मुकुल”

  मुहल्ले वाले नत्थू लाल जी के घर से निकले एक व्यक्ति को हम घूर घूर के देखे जा रये थे पर समझ न पाए कि कौन हैं.. दिमाग पे ज़ोर जबरिया पिल पड़े कि भाई दिमाग याद दिला याद दिला तब भी याद न आया तो हमने भी हार न मानी हम समझे कदाचित मैन्यूफ़ेक्चरिंग डिफ़ेक्ट की वज़ह से  से हमारा दिमाग घुटने पे न आ गया होगा सो  अपना  घुटना खुजा  खुजा खूना खच्चर कर लिया पर याद न दिलाया कि नत्थू भाई के घर से निकला व्यक्ति कौन है. पर हमारा दिमाग भी अजीब था सामान्यत: घुटने तक  जाता था पर अब किधर खो गया राम जाने ?
                            पर बार बार मन कहे जा रहा था- यार, तुमने इसे कहीं देखा है. .? पर दिमाग ने एक न सुनी न ही बताया कि नत्थूलाल के घर से निकला व्यक्ति कौन है. ?
                              सोच ही रहा था कि  व्यक्ति नज़दीक आया तब जाके समझ आया कि ये तो अपने नत्थूलाल जी हैं. बेवज़ह दिमाग को कोसा. जित्ता है कभी काम आता मुझे डर है कि कहीं मेरा दिमाग  अब मुझसे नाराज़ न हो जाए. इसी भय के बीच नत्थूलाल जी के नज़दीक आते ही हमने पूछा- क्या हाल है नत्थू भाई..और  जे मूंछ..
नत्थू जी - अरे मूंछ का क्या.. घर की खेती है... वो भी बारामासी दो तीन दिन में आ जाएगी..        
हम - तो वज़न कम करना था हो गया दस बीस ग्राम ?
नत्थू जी - का भाई तुम भी मेरी मूंछ का इत्ता कम वज़न आंका ?
हम - नत्थू जी बुरा न मानो हम तो आपको सौ खरब का आपकी मूंछों को सौ अरब की मूंछैं मानते हैं.. पर जिस नंगे  देश में जहां जुआ-सट्टे के दम पे नोट लगाए जाते हों उधर आपकी मूंछ कीमत कौन लगाएगा . इधर तो महाराणा परताप की हालत भी तुमाए जैसी ही हो जाती . खैर " मूंछ बिना नर पूंछ बिना खर "  ज़रा ठीक नईं लगते खैर अब आपने कटवा ली तो कटवाली पर एक बात कहूं कुछ दिन घर के बाहर ज़्यादा मत घूमों..
नत्थू जी - अरे, आप बाहर से घर में जाने को बोल रये हो घर जाता हूं तो आपकी बहू बोलती है पता नईं कैसा कैसा लगता है.. घर में अजीब सा चेहरा लिये घुसे रहते हो.. बच्चा भी डरा डरा रहता है.. घूम फ़िर आओ. ज़्यादा घर में रहे तो हम मायके चले जायेंगे. ये अलग बात है कि वे ऐसा कभी करतीं नहीं कि हमारा भी पंद्रा अगस्त टाइप का एक दिन आए ..
                             नत्थू न घर के रहे न बाहर के दफ़्तर पहुंचे तो बस छोटे कर्मचारी सबसे पीछे वाले कमरे में फ़ुसफ़ुसियाने लगे.. बड़े बाबू टाइप के लोग साहब की मूंछ से असमयिक बिछोह बर्दाश्त न कर सके. उस दिन आफ़िस में कोई काम न हो सका. महिला कर्मचारीयों के कक्ष से -" आ .. जे का कर लिया 
अच्छा नईं किया साब ने" जैसे डायलाग सुनाई दे रहे थे. 
     सबसे चुहलबाज़ बाबू बोला - का साब, हम समझे आप पप्पू का मुंडन करवाओगे जे का आपने तो !
  नत्थू जी के मित्र फ़त्ते लाल भी उन पर छीटाकशी करने न चूके बावज़ूद इसके कि वे स्वयं मूंछ विहीन नर हैं.. 
 इस कहानी का अर्थ कुछ भी नहीं ऐसा सबके साथ होता है.. होता रहेगा किसी न किसी कारण जीवन में मूंछ मुडवाना ही होता है. लोगों के ताने भी सुनने होते हैं.. मुछमुड़े पति को पत्नियां धमकातीं हैं कि वे मूंछ न कटवाएं वरना वे मायके चली जाएंगी... वास्तव में जातीं नहीं हैं. पर मूंछ्मुंडन क्रिया का दार्शनिक पक्ष ये है कि "लोग जैसा आपको देखना चाहते हैं वैसे ही उनको दिखना चाहिये वरना दुनियां करे सवाल तो क्या ज़वाब दें "
      मित्रो मेरे मन में एक कविता बार बार हिलोर ले रही है देखिये
        प्राणपण से प्यार दो
            मूंछ को संवार लो !
              बढ़ाओ मूंछ इतनी तुम
                 कि वक़्त पे उधार दो..!!
      मूंछ संस्कृति का अंग
          रखते हैं सदा मलंग !
             मुछमुंडे बोलो मीत
                कभी जमा सके हैं रंग !!
         मुछ्मुण्डा देख के
           हैं भागतीं कुमारियां !
               ऐसा पति मिल जाए
                  तो सिसकतीं हैं नारियां..!!
         मूंछ मत कटाइये
            संस्कृति बचाईये !
               मुछंदरों की फ़ौज़ के
                  आंकड़े  बढाइये !!

                       

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