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सोमवार, जून 10, 2013

मेरा डाक टिकट (पुनर्प्रकाशन्)

                   
इस स्टैम्प के रचयिता हैं
 ब्ला० गिरीश के अभिन्न मित्र
राजीव तनेजा
वो दिन आ ही गया जब मैं हवा में उड़ते हुए
अपना जीवन-वृत देख रहा था..
               मुद्दतों से मन में इस बात की ख्वाहिश रही कि अपने को जानने वालों की तादात कल्लू को जानने वालों से ज़्यादा और जब मैं उस दुनियां में जाऊं तब लोग मेरा पोर्ट्फ़ोलिओ देख देख के आहें भरें मेरी स्मृति में विशेष दिवस का आयोजन हो. यानी कुल मिला कर जो भी हो मेरे लिये हो सब लोग मेरे कर्मों कुकर्मों को सुकर्मों की ज़िल्द में सज़ा कर बढ़ा चढ़ा कर,मेरी तारीफ़ करें मेरी याद में लोग आंखें सुजा सुजा कर रोयें.. सरकार मेरे नाम से गली,कुलिया,चबूतरा, आदी जो भी चाहे बनवाए. 
जैसे....?
जैसे ! क्या जैसे..! अरे भैये ऐसे "सैकड़ों" उदाहरण हैं दुनियां में , सच्ची में .बस भाइये तुम इत्ता ध्यान रखना कि.. किसी नाले-नाली को मेरा नाम न दिया जाये. 
       और वो शुभ घड़ी आ ही गई.उधर जैसे ही गैस सिलेंडर के दाम बढ़े इधर अपना बी.पी. और अपन न चाह के भी चटक गए. घर में कुहराम, बाहर लोगों की भीड़,कोई मुझे बाडी तो कोई लाश, तो साहित्यकार मित्र पार्थिव-देह कह रहे थे. बाहर आफ़िस वाला एक बाबू बार बार फ़ोन पे नहीं हां, तीन-बजे के बाद मट्टी उठेगी की सूचनाएं दे रहा था. हम हवा में लटके सब कार्रवाई देख रए थे.जात्रा निकली  जला-ताप के लोग अपने धाम में पहुंचे. शोक-सभाओं में किसी ने प्रस्ताव दिया 
"गिरीश जी की अंतिम इच्छा के मुताबिक हम सरकार से उनकी स्मृति में गेट नम्बर चार की रास्ता को उनका नाम दे दे"
दूसरे ने कहा न डाक टिकट जारी करे,
तीसरे ने हां में हां मिलाई फ़िर सब ने हां में हां ऐसी मिलाई जैसे पीने वाले सोडे में वाइन मिलाते हैं..और एक प्रस्ताव कलेक्टर के ज़रिये सरकार को भेजना तय हुआ.
              कलैक्टर साब को जो समूह ग्यापन सौंपने गया उसने जब हमारे गुणों का बखान किया तो "आल-माइटी सा’ब" को भी मज़बूरन हां में हां मिलानी पड़ी. पेपर बाज़ी हुई सवा महीना बीतते बीतते सी एम साब ने गली पर लिखवा दिया "गिरीश बिल्लोरे मार्ग" केंद्र सरकार ने डाक टिकट जारी किया. हम बहुत खुश हुए.हमारी आत्मा मुक्ति की ओर भाग रही थी कि उसने मुड़ के देखा .. इस पत्थर पर हमने गोलू भैया के कुत्ते को "शंका निवारते" देखा तो सन्न रह गये. सोचा डाकघर और देख आवें सो पोस्ट आफ़िस में ससुरे डाक-कर्मी गांधी जी वाले ख़तों पे तो  तो सही साट ठप्पा लगाय रहे थे .  जिंदगी भर सादा जीवन उच्च विचार वाले हम एकाध दोस्त ही जानतें हैं हमारी चारित्रिक विशेषताएं पर मुए डाक कर्मी  लैटर पे बेतहाशा काली स्याही पोत रहे थे.. पूरा मुंह काला किये पड़े थे. अब बताओ हज़ूर तुम्हारे मन में ऐसी इच्छा तो नईं है.. होय तो कान पकड़ लो.. मूर्ती तो क़तई न लगवाना.. वरना


       आकाश का कौआ तो दीवाना है क्या जाने
         किस सर को छोड़ना है, किस सर पे छोड़ना है..?   

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