7.6.11

जूता दिखाओ प्रसिद्ध हो जाओ

                इन्सान के पैरों में जूता और खोपड़ी में अक्ल एक साथ आई. कहते हैं आदिम युग में  लोग बिना जूते और बिना दिमाग के कंदराओं में लुक छिप के रहा करते थे कि एक दिन अचानक उसे आग की ताक़त का  एहसास हुआ. फ़िर चका खोजा फ़िर फ़िर पत्थर का आयुध बनाया तभी महान रचनाकार से उनकी  सहचरी ने पूछा :-"हे प्रभू मनुष्य प्रजाति अभी भी अपूर्ण है इसे पूर्ण करो वरना मैं कंद मूल फ़ल आदि खाए बिना कठोर तप के लिये वन गमन करूंगी.. "
प्रभू बोले :-"हे भागवान, यदि मैने इन को तीक्ष्ण बुद्धि दे दी तो ये पहले  विकासोन्मुख होंगे फ़िर विनाश की ओर अग्रसरित होंगे "
आभार अर्कजेश जी का
 सहचरी ने मौन धारण कर लिया. उस समय प्रभू को लगा कि सहचरी के बिना उनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा सो बोले है ठीक है.इस तरह  नारी हट के आगे भगवान भी नि:शब्द हो गये . माया के वशी भूत प्रभू ने मनुष्य को पैरों में जूते पहने का आईडिया भेज दिया. आदिम समाज ने खड़ाऊ फ़िर जूती फ़िर उसके पुर्लिंग यानी जूते का अविष्कार किया. 
     प्रभू के भेजे  आईडिये से हुई खोज से आगे तक पहुंचे लोगों ने रज़त,स्वर्ण मण्डित पादुकाओं, जूते-जूतियों, का निर्माण किया. आम आदमी से लेकर रसूखदार, ब्योपारी से लेकर थानेदार, नाकेदार से लेकर तहसीलदार, कुल मिला कर सबने जूता संवर्ग के उत्पादों का अपने अपने तरीके से स्तेमाल सीख लिया. कोई किसी को जूते की नोक पे रखने लगा, तो कोई किसी के  जूते चाटता नज़र आएगा, कोई नित का जूतम-पैजारी बन गया तो किसी ने जूतों का औक़ात-मापन यंत्र के रूप में उपयोग  किया. कुछ लोग जूता खिलाने कुछ खाने के लिये प्रसूते हैं यह सामाजिक व्यवस्था ने तय कर दिया.अरे हां दुल्हन को बियाहने पहुंचा दूल्हा जिसकी आत्मा जूतों में बसती है उन जूतों के चोरी जाने के बावज़ूद सुकुमार सालियों से  लुटने का सौभाग्य प्राप्त करता .यानी जूता भारतीय समाज ने सांस्कृतिक एवम सामाजिक  महत्व पूर्व से ही निर्धारित कर दिया.यानी चाकू-छुरी की तरह ही बहु उपयोगी आइटम बन चुका है. 
     इतना ही नहीं राज़कपूर जी ने साबित कर दिया  जूता भले जापानी हो दिल हिन्दुस्तानी ही रहेगा 
                                      समय के साथ जूते ने साबित कर दिया कि सुर्खियों में आने के लिये जूता वास्तव में सबसे प्रभावी आयुध है. सूत्रों की मानें तो   सुर्खियों में छा जाने के लिये वीरों ने जब से "जूतायुध" का भरपूर स्तेमाल सार्वजनिक रूप शुरु किया है उससे प्रभावित हुए कुछ  लोगों ने बंदूकों पिस्तोलों के लिये कलैक्टर साहबों के दफ़्तर में दाखिल आवेदन वापस लेना शुरु कर दिया है. 
           जूतायुध का महत्व को कम न मानिये इस पर विशद अध्ययन और शोध कार्य आनिवार्य है. ताक़ि ये सुनिश्चित हो सके कि "जूते-सियासत-आम आदमी" रूपी बरमुड़ा त्रिकोण के भीतर क्या क्या छुपा है 
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"पत्थर के खुदा पत्थर के सनम पत्थर के के इंसा पाएं हैं 
तुम शहरे मोहब्बत कहते हो हम जान बचा के आएं हैं "

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6.6.11

बाबा रामदेव प्रकरण : रोको उसे वो सच बोल रहा है कुछ पुख़्ता मक़ानों की छतें खोल रहा है


 वैचारिक ग़रीबी से जूझते भारत को देख  भारतीय-प्रजातंत्र की स्थिति का आंकलन सारे विश्व ने कर ही लिया है.अब शेष कुछ भी नहीं है कहने को. फ़िर भी कुछ विचारों को लिखा जाना ज़रूरी है जो बाबा रामदेव के अभियान को नेस्तना बूद करने बाद देश भर की सड़कों नुक्कड़ों घरों, कहवा घरों में  दिन भर चली बातों से ज़रा सा हट के हैं. मुझे याद आ रही है  मित्र शेषाद्री अय्यर अक्सर अपनी महफ़िल में गाया करतें हैं:- 
नीरज़ दीवान के ब्लाग पर लगी तस्वीर
"रोको उसे वो सच बोल रहा है कुछ पुख़्ता मक़ानों की छतें खोल रहा है !!" 
साभार : कीर्तीश भट्ट के ब्लाग
बामुलाहिज़ा से 
    दिल्ली ने बाबा को पुख़्ता मक़ानों की छतें खोलने से चार मई की रात रोक दिया . आंदोलन को रोकने की वज़ह भी पुलिस वाले आला हुज़ूर ने मीडिया के ज़रिये सबको बताईं .  जनता को सफ़ाई देने के लिये प्रशासन के ओहदेदार आए सरकार का पक्ष रखा गया . साहब जी ने बताया कि पंडाल में तनिक भी लाठी चार्ज नहीं हुआ. साहब सही बोले बताओ हमारे एक ब्लागर भाई नीरज़ दीवान   ने अपने ब्लाग की बोर्ड "की बोर्ड का सिपाही " पर लगाई इस तस्वीर को ध्यान से देखिये और फ़िर से याद कीजिये  सा’ब जी के उस बयान पर जिसमें उनने कहा था कि लाठी चार्ज नही हुआ.अब आप ही इस चित्र को देखिये और तय कीजिये क्या पुलिस वाले भैया जी क्या रामदेव बाबा के इस भक्त के दक्षिणावर्त्य को   सम्मानित कर रहें हैं..?
        सरकार को शायद इस बात का इल्म नहीं है आज़ दिन भर आम आदमी सुलगता रहा जो बाबा से सहमत है . अगर कोई इनको अंध भक्त कहे तो कहे आम भारतीय के मन में बाबा का ज़ादू बहुत गहरे समाया है.उसमें बाबा जी को अपमानित किये जाने से जो तिलमिलाहट हुई है उससे आने वाले दिनों जो दृश्य उपस्थित होने वाला है उसका एहसास दमन कारियों को कदापि नहीं है. आज़ तो कुछ लोग ये भी कहते सुने गये :- मतलब ये निकला कि रसूखदार मान ही गए कि बाबा जो कह रहे हैं वो सत्य है. और इस सच का सामना होते ही पुख्ता मक़ानों की छतें खुलना अवश्यम्भावी है.चलो मान लिया कि बाबा ठग है तो भी उनके योग और दवाओं ने कितनों को लाभ दिया इसका अनुमापन कैसे करिये गा.? जितने पण्डाल में थे वो तो बाबा जी के कुल अनुयाईयों का दसवां हिस्सा भी न थे. 
    कटिंग सैलून में चल रहे  एक चैनल पर लालू जी ने उवाचा :- बाबा जी को सियासत नहीं करनी चाहिये.
             यह सुन कर नाई की दुक़ान पर दाढी़ बनवाने गया आम आदमी बोल पड़ा :-"ये सियासत करते करते चारा बेच खरीद सकते हैं तो बाबा अगर सियासत करें तो बुराई क्या है. "
अब तो आप समझ ही गये होंगे कि कुत्ते क्यों भौंकते हैं..?
 जीभूल गये हों तो पढ़िये जी भाग एक भाग दो   

28.5.11

समापन किस्त : कुत्ते भौंकते क्यों हैं...?


मिसफ़िट पर पिछली पोस्ट में आपने बांचा 
(इस वाक़ये से एक चिंतन का दरवाज़ा खुलता है. वो दरवाज़ा जो हमारे मन में पनप रहे कुत्तावृत्ति का परिचय देगा सोचते रहिये यही सोचेंगे जो मै लिख रहा हूं)
चित्र क्रमांक 01
कुत्तावृत्ति का प्रमुख परिचय भौंक है, जिसका अर्थ आप सभी बेहतर तरीके से जानते हैं. जिसका क्रिया रूप "भौंकना" है. भौंक एक तरह से  आंतरिक-भयजन्य   आवेग का समानार्थी भाव है. जो आत्म-रक्षार्थ प्रसूतता है. अब बांये चित्र में ही देखिये ये चारों लोग जो मयकश जुआरी हैं नशा आते ही इनके चिंतन पर हावी होगा भय. कहीं मैं हार न जाऊं.और दूसरे को हारता देख खुश होंगे खुद को हारने का भय भी होगा.. फ़िर टुन्न होकर अचानक चिल्लाने लगेंगे ध्यान से सुनने पर आप को साफ़ तौर पर  कुत्तों के लड़ने की ही  आवाज़ आएगी. 
     जब आप कभी अपने आपको आसन्न खतरे से बचाना चाहते हैं तो आप बचाने के राह खोजने से पहले आप चीखेंगे अपना चेहरा देखना तब कुत्ते सा ही लगेगा आपको.मेरे एक परिचित हैं जिनकी आवाज़ वैसे ही गूंजती है जैसे  देर रात मोहल्ले में कुत्तों के सामूहिक भौंक काम्पिटिशन चलता है. 
चित्र क्रमांक 02
हां एक बात और हाथी के बहुत करीब आकर कुत्ते कभी नहीं भौंकते दूर से भौंकते हैं . कारण साफ़ है हाथी कद काठी ताकत वाकात में सबका बाप जो होता है. 
घरेलू किस्म के कुत्तों में सबसे कायर कुत्ता पामेरियन नस्ल का होता है ससुरा खतरे की ओर मुंह करके पीछे खिसक-खिसक के   भौंकता है. ऐसी वृत्ति सरकारी गैर सरकारी संस्थानों में कार्यरत व्यक्तियों में देखी जा सकती है. 
                   घरेलू कुत्तों में एक आदत ये होती है-कि उनके भोजन करते वक्त कोई भूल से भी उसके पास आए तो मानिए गुर्राहट तय है जो बाद में भौंक में बदल जाती है.उसे लगता है पास आने वाला उसके आहार को खाएगा .   
(सारे चित्रों के लिए गूगल बाबा का  आभार इन पर किसी का भी  कोई अधिकार हो तो बताएं)     

27.5.11

कुत्ते भौंकते क्यों हैं...?


अवधिया जी ने आलेख के लिये भेजा है इसे 
उस्ताद – जमूरे, ये क्या है..?
जमूरा-    कुत्ता... उस्ताद...कुत्ता...!
उस्ताद – कुत्ता हूं ?  नमकहराम
जमूरा -   न उस्ताद वो कुत्ता  है पर आप नमक...
 उस्ताद – क्या कहा ?
जमूरा -   पर आप नमक दाता !
उस्ताद – हां, तो बता कुत्ता क्या करता है..?
जमूरा -   ... खाता है..?
उस्ताद –  क्या खाता है ?
जमूरा -    उस्ताद , हड्डी  और और क्या..!
उस्ताद –  मालिक के आगे पीछे क्या करता है
जमूरा -   टांग उठाता के
उस्ताद –  क्या बोल  बोल जल्दी बोल
जमूरा -   सू सू और क्या ?
उस्ताद – गंवार रखवाली  करता है, और क्या  
जमूरा -   पर उस्ताद, ये भौंकता क्यों है.......
उस्ताद :- जब भी इसे मालिक औक़ात समझ में आ जाती है तो भौंकने लगता है.
जमूरा  :- न उस्ताद, ऐसी बात नही है..
 उस्ताद :- तो फ़िर कैसी है ?
जमूरा  :-  उस्ताद तो आप हो आपई बताओ
उस्ताद :-  हां, तो जमूरे कान खोल के सुन – जब उसके मालिक पर खतरा आता है  तब भौंकता है
जमूरा  :-   न, कल आप खुर्राटे मार रए थे तब ये भौंका  
उस्ताद :-   तो,
जमूरा  :-  तो ये साबित हुआ कि उसकी भौंक इस कारण नहीं निकलती  
उस्ताद :- तो किस वज़ह से निकलती है. कोई वो खबरिया चैनल है जो जबरिया  
             ही ?
जमूरा  :- वेब कास्टर  भी तो नहीं है जो दिन भर ?
उस्ताद :- तो तू ही बता काहे भौंकता है कुत्ता बता
जमूरा  :-  सही बताऊंगा तो
उस्ताद :-  तो क्या होगा ?
जमूरा  :-  तुम मेरी बात अपने मूं से उगलोगे !
उस्ताद :-   तो क्या , उस बात की रायल्टी लेगा,
जमूरा  :-   न, तुमको ऐलानिया बोलना होगा कि ये बात “जमूरे” ने बताई है.
उस्ताद :-  बोलूंगा
जमूरा  :-  तो सुनो जब कुत्ता डरता है तब वो भौंकता है समझे उस्ताद !
उस्ताद :-  हां,समझा
          उस्ताद और जमूरे के बीच का संवाद में दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक  तत्व के शामिल होते ही सम्पूर्ण कुत्ता-जात में तहलका मच  गया. इधर ब्लॉगजगत ने त्वरित आलेखन चालू किया अवधिया जी की राय है कि :-"
संसार में भला ऐसा कौन है जिसके भीतर कभी बदले की भावना न उपजी हो ? मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक के भीतर बदले की भावना उपजती है। यही कारण है कि कुत्ता तक कुत्ते पर और कभी कभी इन्सान पर भी गुर्राने लगता है।"   

प्रवक्ता पर  गिरीश पंकज जी से साभार 
                उधर अखिल भारतीय कुत्ता परिषद में उनके नेता ने कहा :- वीर कुत्तो, हमारी प्रज़ाती को एक मक्कार  ज़मूरे ने "डरपोक" कहा है.  धर्मेंदर की उमर देख के हमने माफ़ किया , पर न केवल जमूरा वरन  हम सब इन्सानों को बता देना चाहते हैं कि अब हम किसी भी इन्सान को अपना मुंह न चाटने देंगे. 
एक एक आदमी को इतना काटेंगे कि सारे रैबीज खत्म हो जाएं 


24.5.11

अभिव्यक्ति ने छापा मेरा व्यंग्य : उफ ! ये चुगलखोरियाँ


मुझे उन चुगली पसन्द लोगों से भले वो जानवर लगतें हैं
जो चुगलखोरी के शगल से खुद को बचा लेते हैं। इसके बदले वे जुगाली करते हैं। अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने वालों को आप किसी तरह की सजा दें न दें कृपया उनके सामने केवल ऐसे जानवरों की तारीफ जरूर कीजिये। कम-से-कम इंसानी नस्ल किसी बहाने तो सुधर जाए। आप सोच रहे होंगेंमैं भी किसी की चुगली कर रहा हूँसो सच है परन्तु अर्ध-सत्य है !
मैं तो ये चुगली करने वालों की नस्ल से चुगली के समूल विनिष्टीकरण की दिशा में किया गया एक प्रयास करने में जुटा हूँ। अगर मैं किसी का नाम लेकर कुछ कहूँ तो चुगली समझिये। यहाँ उन कान से देखने वाले लोगों को भी जीते जी श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहूँगा जो गांधारी बन पति धृतराष्ट्र का अनुकरण करते हुए आज भी अपनी आँखे पट्टी से बांध के कौरवों का पालन-पोषण कर रहें हैं। सचमुच उनकी ''चतुरी जिन्दगी`` में मेरा कोई हस्तक्षेप कतई नहीं है और होना भी नहीं चाहिए ! पर एक फिल्म की कल्पना कीजिएजिसमें विलेन नहीं होहुजूर फिल्म को कौन फिल्म मानेगा अपने आप को हीरो-साबित करने के लिए मुझे या मुझ जैसों को विलेन बना के पहले पेश करते हैं। फिर अपनी जोधागिरी का एकाध नमूना बताते हुये यश अर्जित करने के मरे जाते हैं।
ऐसा हर जगह हो रहा है हम-आप में ऐसे अर्जुनों की तलाश हैजो सटीक एवं समय पे निशाना साधे हमें चुगलखोरी को दुनियां से नेस्तनाबूत जो करना है आईए हम सब एकजुट हो जाएँ- इन चुगलखोरों के खिलाफ!
''चुगलीका बीजारोपण माँ-बाप करते हैं- अपनी औलादों में बचपने से-एक उदाहरण देखें, ''क्यों बिटियाशर्मा आंटी के घर गई थी``, ''हाँ मम्मी शर्मा आंटी के घर कोई अंकल बैठे थे``
अब 'अंकल और शर्मा आंटीके बीच फ्रायडी-विजन से देखती मैडम अपनी पुत्री से और अधिक जानकारी जुटाने प्रेरित किया जाओ अंकल का इतिहासउनकी नागरिकताउनका भूगोल पता लगाओ और यहीं से शुरू होता है चुगलखोरी का पहला पाठ।
इसमें केवल माँ ही उत्तरदायित्व निभाती है- ये भी एक अर्द्धसत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि ''चुगलखोरी के कीड़े के वाहक पिता भी हुआ करते हैं``
हमें ''पल्स पोलियो`` अभियानों की तरह ''चुगलखोरी उन्मूलन अभियान`` चलाने चाहिए।
शासकीय कार्यालयों में इस अभियान के चलाने की बेहद जरूरत है।
मेरे दृष्टिकोण से आप सभी एकजुट होकर इस राष्ट्रीय अभियान को अपना लीजिए। अभियान के लिये-उन एन.जी.ओ. का सहयोग जुटाना न भूलेंजो अपने संगठनों के कार्यो की श्रेष्ठता सिद्ध करने दूसरों की (विशेषकर सरकारी सिस्टम की) चुगली करते हर फोरम पे नज़र आते हैं।
मित्रों! साहित्यसंस्कृतिकलाव्यापाररोजिया चैनलआदि सभी क्षेत्रों को लक्ष्य बनाकर हमें चुगली से निज़ात पानी है। और हाँ जो चुगलियाँ गाँव से शहर के दफ्तरों में साहबों के पास लाई जातीं हैं। उनके वाहक भी हमारे प्रमुख लक्ष्य होने चाहिए।
मेरे दफ्त़र में आकर चुगली करने वाला पवित्र धवल लिबास में आया वो व्यक्ति मुझे अच्छी तरह याद हैजो मेरे मातहत गाँव में काम करने वाली कर्मचारी से रूष्ट था।
उसकी विजय हुई यह जानकार कि मैं उसकी ''शिकायत उर्फ चुगली`` पर ध्यान दूँगा।
स्वयं गाँव का भ्रमण करने पर पाया कि 'धवल से पवित्र वस्त्र पहनने वाले व्यक्ति के अलावा सारा गांव उस विधवा महिला को देवी की तरह पूजता है और यही उसकी चुगली का मूल कारण है। कारण जो भी हो- चुगली एक खतरनाक रोग है। यदि इसे आप पनपने नहीं देना चाहते ''एण्टी-चुगली-ड्राप`` की दो बूंदे अवश्य देनी होगी।
कैसे पिलाएँ चुगली की दो बूंदे-''सबसे पहले लक्ष्य को पहचानेंउसे कांफिडेन्स में लें`` और उसका मुँह खुलवाएँ। बेहतर ढंग से सुने। जिसकी चुगली की जा रही है-उसे उसके सामने ले आएँ। फिर हौले से चुगलखोर की कही बातों में से दो बातें बूँदों की तरह सार्वजनिक करने की शुरूआत करें।``
इससे चुगलखोर के वस्त्र स्वयम् ही ढीले पड़ने लगेंगें। हाथ पाँव का फूलनासर झुका लेनामाथा पकड़ना या हड़बड़ाकर ''हाँ...हाँ...हाँ....नहीं...नहीं..`` की रट लगाना बीमारी की समाप्ति के सहज लक्षण होते हैं।
मित्रोंदफ्तरों मेंबैठकों मेंफोरमस् मेंइस प्रयोग को करने से बड़े-बड़े की चुगलखोरों की चुगलखोरी का अंत सहज ही हो जाता है। चुगली कमीने पन गुप का जीवाणु हैजिसने कईयों को तख्त से उठा फेंका है। इसका वाहक बेहद मीठाआकर्षकप्रभावशाली व्यतित्व वाली मानवीय काया का धारक हो सकता है। चुगली को कानूनी जामा भी पहनाया गया है।
सियासत का तो मूलाधार है ये। जहाँ सौभाग्यशाली लोगों को इससे बच सकने का मौका मिलता है। क़मोबेस सभी इस ''चुगली`` के शिकार हो ही जाते हैं। उधर समाजी रिवायतों की तो मत पूछिए - ''चुगली के बिना संबंध बनते ही नहीं। रहा तंत्र का सवाल सो - ''चुगली को शासन के हित में जारी सूचना की शक्ल में पेश करने वाले अधिकारी कर्मचारीसफल एवं श्रेष्ठ समझे जाते हैं।
सुधिजनोंअगर एक बार हिम्मत दिखा दी जावे तो सैकड़ों चुगली से प्रभावित ''जीव`` सुरक्षित हो जाऐगें।
____________________________________
यह आलेख उन चुगलखोर अधिकारीयों कर्मचारियों को समर्पित है जिनका गुज़ारा चुगलियों के बिना नहीं हो पाता .
  1.  

22.5.11

किसी को धोखा देते वक़्त अक्सर विजेता होते हैं...धोखेबाज़


साभार : जागरण जंक्शन

           अक्सर धोखा देने षड़यंत्र के जाल बुनने वाले अचानक किसी से धोखा खाते हैं तब मढ़ा करते हैं दूसरों पर धोखे बाज़ी के इल्ज़ाम . इन्सानी  फ़ितरत अज़ीब है मेरा एक मित्र कहता है :-"प्राकृतिक-न्याय से कोई नहीं बचता" धोखा देना क्रूरता का पर्याय ही तो है. सियासत कुछ इस तरह हावी है हमारे जीवन क्रम पर कि हम हमेशा दूसरों को हराने की प्रवृत्ति के भाव से भरे पड़े हैं. किसी की जीत को नकारात्मक भाव से देखना या यूं कहूं कि किसी की जीत में अपनी पराजय का एहसास करना आज़ का  जीवन-दर्शन बन चुका है. सभ्य समाज समय के उस मोड़ पर आ चुका है जहां से अध्यात्मिक-चेतनाएं असर हीन हो गईं हैं .गाहे बगाहे सभी किसी न किसी  धोखे का शिकार होते हैं.कौन कितना पावन है कहना मुश्किल है. मुझे तो मालूम है कि मेरी आस्तीनों में धोखे़बाज़ भरे पड़े हैं आप भी इस मुग़ालते में न रहना कि आप के इर्द गिर्द वाले सभी अपने हैं.
    ईसा मसीह सबसे अच्छा उदाहरण हैं , सियासत में तो अटे पड़े हैं उदाहरण पर इनका ज़िक्र ज़रूरी नहीं क्यों कि धोखा सियासत का मूलभूत तत्व है. 
   हां चलते चलते एक बात याद आ रही है  आमजीवन को धोखा देते लोग हमेशा ज़रूरत मंद हों यह ज़रूरी नहीं आप जानते हो आपको धोका दे रही है सियासत,व्यवसायिकता,और धर्म के स्वयम्भू अगुए... ये सारे के सारे आपके पीछे अदृश्य सलीब लिये फ़िर रहें हैं कभी कभार इनको गौर से देखना ज़रूरी है.         
          

21.5.11

क्या करें हो ही गई ललित शर्मा जी से मुठभेड़


_________________________


कार्यक्रम वाले दिन यानी 30 अप्रैल 2011  अल्ल सुबह घर  से निकला किंगफ़िशर जनता फ़्लाईट में नाश्ता-वास्ता लिये  बिना सोचा था कि   उधर यान बालाएं खाने पीने को पूछेंगी ही सो  श्रीमति जी की एक न मानी. अब ताज़ा हसीन ताज़ा तरीन चेहरे वाली व्योम बालाओं  के हाथों से खाऊंगा सोचकर सतफ़ेरी अर्धांगिनी की न मानना महंगा पडेगा इस बात का मुझे इल्म न था. 

ट्राली लेकर पधारीं  दो लावण्य मयी व्योम-बालाओं  में से एक बोली : आप मीनू अनुसार आर्डर कीजिये 
वेज़ सेण्डविच..?
न, नहीं है सर 
तो साल्टी काज़ू ही दे दो काफ़ी भी देना, काफ़ी के साथ दो जोड़ा बिस्किट फ़्री मिले. 
नाश्ता आते आते पड़ोसी से दोस्ती हो गई थी. उनको गुज़रात जाना था. समीपस्थ  सिवनी नगर  के व्यापारी थे जो अपने जीजा जी के अत्यधिक बीमार होने की खबर सुन के रातों रात जबलपुर आए थे. यात्रा के दौरान पनपी मित्रता का आधार उनका पहली बार का विमान यात्री होना तो था मेरा आकर्षण वो इस कारण बने क्योंकि उनके पास तम्बाखू मिश्रित जबलपुरिया गुटखे का भण्डार पर्याप्त था. न भी होता तो मै मित्र अवश्य बना लेता ... बात चीत तो करनी ही थी.  
          नाश्ता करकुरा के हम दौनों ने पारस्परिक यात्रा प्रयोजनों के कारण की एक दूजे से पता साजी की फ़िर  सामयिक विषयों विषयों जैसे भ्रष्टाचार,मंहगाई, आदि पर संवाद किये. तभी एक संदेश गूंजा जिससे साबित हुआ दिल्ली दूर नहीं. 
       एयर पोर्ट पर वादा करके मियां महफ़ूज़ न आ सके कारण जो भी हो ललित बाबू की बात सही निकली कि "यात्रा में खुद पे भरोसा करो वादों पे नहीं !!" 

 
        (आगे इधर से यानी भारत-ब्रिगेड पर )

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में। शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर

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