28.7.14

काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!

मृत काग
काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!
            छोटी बिटिया श्रृद्धा ने स्कूल से लौटकर मुझसे पूछा.. पापा- “कागद ही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” का अर्थ विन्यास कीजिये.. मैने दार्शनिक भाव से कहा – बेटी यहां कागज के कारण जीवन व्यर्थ गंवाने की बात है.. शायद कागज रुपए के लिये प्रयोग किया गया है.. ?
बेटी ने फ़िर पूछा- “काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” अब फ़िर से बोलिये.. इसका अर्थ क्या हुआ..
हतप्रभ सा मैं बोल पड़ा – किसी ऐसी घटना का विवरण है जिसमें कौआ दही के कारण जीवन खो देता है..
गदही
बेटी ने बताया कि आज़ स्कूल में एक कहानी सुना कर टीचर जी ने इस काव्य पंक्ति की व्याख्या की. कहानी कुछ यूं थी कि एक दही बेचने वाली के दही वाले घड़े में लालची कौआ गिर के मर गया. महिला निरक्षर थी पर कविता करना जानती थी सो उसने अपने मन की बात  कवित्त में कही- “काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” इस पंक्ति को दुहराने लगी . फ़िर राह पर किसी पढ़े लिखे व्यक्ति से उक्त पंक्ति लिपिबद्ध कराई..
         पढ़े लिखे व्यक्ति ने कुछ यूं लिखा – “कागद ही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!”
                        फ़िर राह में एक अन्य पढ़े लिखे व्यक्ति से भेंट हुई, जिससे उसने लिखवाया , दूसरे व्यक्ति ने यूं लिखा.. “का गदही के कारने वृथा जीवन गंवाय..? ”

 कागद 

समय की वास्तविकता यही है..विचार मौलिक नहीं रह पाते हैं. सब अपने अपने नज़रिये से विचार करते हैं.. जिसके पास मौलिक विचार हैं वो उनको विस्तार देने में असफ़ल है और जिनके पास मौलिक चिंतन ही नहीं है वे किसी ज़रिये से भी प्राप्त विचारों को अपने तरीके से गढ़ कर विस्तार दे रहे हैं. यही है   आज़ के दौर का यथार्थ. जिसे देखिये वो अपनी दुम्दुभी बज़ाने के चक्कर नें मन चाहे विचार परोस रहा है. बस शब्दों हेर फ़ेर वाला मामला है. अर्थ बदल दीजिये.. लोगों को ग़ुमराह कर अपना उल्लू सीधा कर लीजिये .. सब के सब  जाने किस जुगाड़ में हैं.   क्या हो गया है युग को  जिसे देखिये वो कुतर्कों की ठठरी पर अमौलिक चिंतन की बेजान देह ढोने को आमादा हैं. न तो समाज न ही तंत्र के स्तंभ.. सब के सब एक्सपोज़ भी हो रहे हैं कोई ज़रा कम तो कोई सुर्खियों में . मित्रो.. दुनिया अब "गदही" सी लगने लगी है.. 
ऐसी गदही में  मैं क्यों क्यों इनवाल्व होने चला मिसफ़िट हूं क्यों न कहूं.. - “का गदही के कारने वृथा जीवन गंवाय..? ” 

26.7.14

संघर्ष का कथानक : जीवन का उद्देश्य


संघर्ष का कथानक जीवन का पर उद्देश्य होना चाहिये ऐसा मैं महसूस करता हूं.. आप भी यही सोचते 
होगे न.. सोचिये अगर न सोचा हो तो . इन दिनों मन अपने इर्द-गिर्द एवं समाज़ में घट रही घटनाओं से सीखने की चेष्टा में हूं.. अपने इर्द गिर्द देखता हूं लोग सारे जतन करते दिखाई देते हैं स्वयं को सही साबित करने के. घटनाएं कुछ भी हों कहानियां  कुछ भी हों पर एक एक बात तय है कि अब लोग आत्मकेंद्रित अधिक हैं. मैं मेरा, मुझे, मेरे लिए, जैसे शब्दों के बीच जीवन का प्रवाह जारी है.. समाप्त भी  इन्हीं शब्दों के बीच होता है.   ज़रूरी है पर एक सीमा तक. उसके बाद सामष्टिक सोच आवश्यक होनी चाहिये. सब जानतें हैं स्टीफ़न हाकिंग को किसी से छिपा नहीं है ये नाम . वो इन बंधनों से मुक्त जी रहा है.. जियेगा भी अपनी मृत्यु के बाद निरंतर .. कबीर, सूर, यानी सब के सब ऐसे असाधारण उदाहरण हैं.. ब्रेल को भी मत भूलिये.. मैं ये सचाई उज़ागर करना  चाहता हूं कि -"संघर्ष का कथानक : जीवन का उद्देश्य हो "..
 संघर्ष का अर्थ पारस्परिक द्वंद्व क़दापि नहीं   बल्कि तपस्या है.. संघर्ष आत्मिक संबल का स्रोत भी है.. !
              पता नहीं क्यों विश्व का मौलिक चिंतन किधर तिरोहित हो रहा है .. लोग इतने आत्ममुग्ध एवं स्वचिंतन मग्न हैं कि अच्छा स्तर पाकर भी दूषित होते जा रहे हैं  . जहां तक धर्मों का सवाल है उनके मूल पाठों में व्यक्त अवधारणाओं से किसी को कोई लेना देना नहीं .. बस प्रयोग के नाम पर कुछ भी बेहूदा करने को आतुर .. सफ़लता के लिये सटीक , स्वच्छ   पवित्र विकल्प खोजने चाहिये. ताक़ि उससे  मिली सफ़लता यानी अभीष्ट परिणाम पवित्र हो. हथकंडों के सहारे हासिल सफ़लता को सफ़लता की श्रेणी में रखना बेमानी है. कुछ लोग अपनी सफ़लता के लिये भेदक-शस्त्रों का संधान करते हैं. वो   अक्सर वर्गभेद,वर्णभेद, अर्थभेद, स्तरभेद, के रूप में सामने आता है.. इससे वर्ग-संघर्ष जन्म लेता है.. जो वर्तमान परिवेश में रक्तिम और वैमनस्वी युद्ध का स्वरूप ले रहा है.
            मुझे तो आश्चर्य होता है लोग पंथ की रक्षार्थ सत्ता की रक्षा हेतु अपनाए जाने वाले हथकंडे अपनाते है. धर्म मरते नहीं, खत्म नहीं होते.. धर्मों की रक्षार्थ मनुष्य का ज़ेहादी होना अज़ीब सी स्थिति है. लोग मौलिक चिंतन हीनता के अभाव में मरे हुए से लगते  हैं जो समझते हैं  कि अमुक उनके धर्म की रक्षा करेगा. धर्म आत्मा का विषय है.. युद्ध का नहीं. इसे न तो ज़ेहाद से बचा सकते न ही रक्तिम आंदोलन से .. जो अमर है उसे बचाने की चिंता करना सर्वथा मूर्खता है. जो खत्म होता है वो धर्म नहीं वो पंथ है विचारधारा है.. जिसमें समकालीन परिस्थितिगत परिवर्तनों के साथ बदलाव स्वभाविक रूप से आते हैं. आलेख के प्रारंभ में मैने व्यक्तियों के उदाहरण देते हुये वैयक्तिक-उत्कर्ष के लिये संघर्ष की ज़रूरत की बात की थी.. आगे में धर्म पर चर्चा कर रहा हूं.. तो निश्चित आप आश्चर्य कर रहे होंगे. चकित न हों पंथ, धर्म, और उससे आगे आध्यात्मिक-चैतन्य तक सब आत्मा के विषय हैं.. मानस के विषय हैं.   ये युद्ध या हिंसक संघर्ष से परे हैं. व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिये विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य के साथ बाधाओं से जूझना ही संघर्ष है.. जो जीवन का उद्देश्य है. विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य देश ही नही वरन समूचे ब्रह्माण्ड को अभूतपूर्व शांति देगा यह तय है. क्योंकि व्यष्टि एवं समष्टि में विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य की उपलब्धता सदैव मौज़ूद रहती है. हमें खुद को एवम सभ्यता को बचाना है तो हमें रचनात्मक विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य के मूल तत्वों का सहारा चाहिये. यही तो हमारे जीवन का उद्देश्य है. 
              

24.7.14

टमाटर के नाम खुला खत

डिंडोरी 24.072014
फ़्रीज़ की तस्वीर भेज रहा हूं.. ताकि आप को यक़ीन आ जाए...
प्रिय टमाटर
                “असीम-स्नेह” 
                 मैं डिंडोरी में तुम्हारे बिना जी रहा हूँ तुम्हारी कीमत यहां रुपये 80/- है..
मुम्बई दिल्ली मद्रास भोपाल यानी आएं-बाएं की  खबरें खूब सुनी हैं बाकी सब ठीक ठाक है  तुम महंगे हमारी क्षमता तुमको घर लाने की नहीं है तुम और प्याज भैया मिल के  कुछ नीचे आ जाओ  हमें तुम्हारी लज़ीज़ चटनी खाए बहुत दिन बीत गए आलू भैया को स्नेह कहिये  जहां रहिये  ज़रा सस्ते रहिये  आप तीनों और  नमक दादा सबका ध्यान रखेंगें ... आम आदमी ( केजरिया नहीं ) प्रजाति के लोग बेहद चिंतित है.. मोदी भैया को भी "प्रथम ग्रासे- मक्षिका पाते" के संकट से निज़ात दिलाइये.. हम जानते हैं आप सभी अर्थात- आप, आलू भैया, प्याज भैया,, नमक जी  के मन में हम सबके प्रति दुरभाव नहीं.. बशीर चचा ने कहा ही है कि
"कुछ तो मज़बूरियां रहीं होंगी- यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता" 

हमाई कही सुनी माफ़ करिये.. आपकी वज़ह से हमाए चेहरों पे रौनक  रहती है... आप रूठे तो हमाई हालत न घर की होगी न घाट की..देखो दादा देखिये न आप के बिना हमारा-फ़्रीज़ कित्ता खाली हो गया है.     
  आप जल्दी सस्ते हो जाओ दादा लोग..
फ़ेसबुकर माननीय  जगमीत सिंह जाली
की ओर से आपका सम्मान 
          हां.. एक बात और टमाटर भैया.. आप नहीं जानते आप इत्ते चर्चित हो जित्ते की डालर दादा .. फ़ेसबुकर  जगमीत सिंह जाली  ने आपको डालर से महान प्रतिपादित किया है. ...आप को चाहिये कि अमेरिका के खरीददारों.. के लिये अस्सी डालर में भले बिकें.. पर हम अकिंचनों के लिये.. अट्ठन्नी ओह सारी पांच-दस रुपैया.. किलो से आगे न जाना  सच्ची भैया..जी.. झूठ नई कह रहे हैं हम .  
    भैया टमाटर जी.. हम कवि हैं हमने तय कर रक्खा है कि इत्ती बोर कविता सुनाएंगे सब्जी मंडी के सामने कि आप आदतन हम पर बरसेंगें और दुनिया हमको अचरज़ से और श्रीमति जी गर्व  महसूस कर देखेंगी... जो भी हो.. आपको कवियों एवम कविताओं से गहरे अंतर्संबंधन का वास्ता .. आप नीचे आ जाएं.. सच हमारी करुण याचना पर ध्यान अवश्य दीजिये भैया जी.. 


23.7.14

तुमको सोने का हार दिला दूँ

सुनो प्रिया मैं गाँव गया था
भईयाजी के साथ गया था
बनके मैं सौगात गया था
घर को हम दौनों ने मिलकर
दो भागों मैं बाँट लिया था
अपना हिस्सा छाँट लिया था
पटवारी को गाँव बुलाकर
सौ-सौ हथकंडे आजमाकर
खेत बराबर बांटे हमने
पुस्तैनी पीतल के बरतन
आपस में ही छांटे हमने
फ़िर खवास से ख़बर रखाइ
होगी खेत घर की बिकवाई
अगले दिन सब बेच बांच के
हम लौटे इतिहास ताप के
हाथों में नोट हमारे
सपन भरे से नयन तुम्हारे
प्लाट कार सब आ जाएगी
मुनिया भी परिणी जाएगी
सिंटू की फीस की ख़ातिर
अब तंगी कैसे आएगी ?
अपने छोटे छोटे सपने
बाबूजी की मेहनत से पूरे
पतला खाके मोटा पहना
माँ ने कभी न पहना गहना
चलो घर में मैं खुशियाँ ला दूँ
तुमको सोने का हार दिला दूँ

22.7.14

आम का अचार तैयार करने का सही समय है ये ...



बाबूजी का निर्देशन जारी रहा
प्रभू सलामत रखियो
आम का   अचार बनाने का ये सही  वक्त है. बारिश के बाद  नमी भरा वातावरण बाबूजी की पहल और बहुत से इंतज़ामात चाहिये ही चाहिये. आम काटना अब एक द्विराष्ट्रीय संबंधों जैसी समस्या हो चुकी है. अर्र न अब ये समस्या इत्ती बड्डी नहीं कि हम परेशान हों. सच तो जे है कि अब आम काटने वाले लोग आराम से बाज़ार में मौज़ूद हैं. बस हमको साफ़ सफ़ाई एवम शुद्धता का ख्याल रखना है.
      हां तो आम का अचार बनाने से पेश्तर ईश्वर और ईश्वर तुल्य पूर्वजों को हाज़िर नाज़िर मान कर ये पुनीत कार्य संपादित होना था.

बहन जी आम की सफ़ाई करते
फ़ोटो हैंचवाने को तत्पर 
जीजा श्री का अविश्मरणीय
अवदान
. सो हुआ. प्रभू के सामने कटी हुई कैरी का भोग लगाया गया ताक़ि निर्माण-कार्य में कोई अनावश्यक आपदा न आ जाए. उधर हमारे जीजाश्री जिनकी पृष्ट्भूमि ग्रामीण है ने मसाला तैयार करने में खुल के मदद की. हमारी बहन जी श्रीमति वंदना जोशी कटे हुए आमों की स्वच्छता तय कर रहीं तो  सुआ पंखी साड़ी में हल्का सा पल्लू ढांक श्रीमति बिल्लोरे मसाले  का भली प्रकार मिश्रण कर रही थीं. पल पल बाबूजी से प्राप्त निर्देशों अनुदेशों एवं स्वर्गीया मां सव्यसाची के साथ अचार बनने बनाने के संस्मरण खूब याद आए. किसी की आंखें नम हुईं तो कोई ये बहाना करता नज़र आया कि-"भई, बस ज़रा मसाला आंख में पड़ गया.. चिंता न करें ठीक हो जाएगा. "  

"लौंजी" के निर्माण
की विधि फ़िर कभी  

साल भर का बंदोबस्त
जो करना है..
 इस बीच बहन जी ने खास प्रकार का अचार जो तल कर बनाया जाता है तैयार कर दिया. इसे  "लौंजी" कहते हैं. उधर मूल अचार की तैयारी जारी है. पूरा विधि विधान से  अचार निर्माण ज़ारी था. 
आखिर क्या बात है इस अचार में खास 
        बेशक, नर्मदांचल के भुआणा, मालवा, खंडवा, (निमाड़) के अंचल में बसे  दूरस्थ ग्रामों यह खास प्रकार का अचार बनता है. इसकी राई भी जैविक या गोबर की खाद के साथ उगाई जाती है. अचार बेहद स्पाइसी एवं झंनाटेदार होता है. इसे खाने वाला एक बार खाए तो दीवाना हो जाता है. मेरे लंच बाक्स से तो कई दफ़ा इस अचार की चोरी और डकैती मेरे मित्र कर चुके हैं.. क्या करें स्वाद  कमाल का हो तो री और डकैती कौन रोकेगा.. बताईये भला. 
                                           
                                              अचार की रैसिपी 100 आम के अचार के लिये 

सामग्री

  • आम - 100 
  • राई की दाल - चार किलोग्राम
  • नमक -          दो या तीन किलोग्राम
  • मिर्च (लाल ) का पावडर 750 ग्राम से 1 किलोग्राम तक
  • हल्दी पावडर   200 ग्राम
  • ज़ीरा  - 100 ग्राम
  • हींग   - 10 ग्राम
  • तेल   - 4-5 लीटर
  • पानी - शुद्ध तीन लीटर 

लीजिये
तैयार हूं 
न न अभी नहीं एक हफ़्ते बाद
स्वाद तो निखरने दीजिये 
      विधि
       सबसे पहले आम को बराबर भाग में काट कर उसे साफ़ किया जावे, समानांतर में सारे बर्तनों को स्वच्छता के सारे मापदंड अपना कर स्वच्छ करें. चीनी मिट्टी की बरनी को भी साफ़ सुथरा कर उसमें हींग की धुनी दें. 
      तदुपरांत तेल को मैथी के 30-40 दानों के साथ गर्म करें, तब तक दूसरा सहयोगी पहले से तैयार राई-दाल, नमक, मिर्च-पावडर, मैथी-पावडर, हल्दी-पावडर, जीरा, हींग, आदि को आपस में मिक्स कर के एक उपयुक्त परात में रखें , तैयार मसाले पर हल्का-गर्म तेल  (कुनकुना-तेल) डाला जाए. फ़िर लगभग दस से पंद्रह मिनिट तक तेल और महाले का मिश्रण तैया किया जावे. 
      तैयार मिश्रण में थोड़े थोड़े आम के टुकड़े डाले जावें. .. तदुपरांत शुद्ध पानी डाला जावे..
अचार को अब प्रभू को अर्पित कर तुरंत चीनी के मर्तबान में पैक किया जावे  आपको इस अचार के चटखारे लेना है तो कम से कम एक हफ़्ता इंतज़ार अवश्य करना होगा ..  तुरंत खाने से पेट में हड़कम्प मच सकता है...
  अब देखिये.. एक और विधि 


के सौजन्य से एक और अचार की रेसिपी
आम का हींग वाला अचार Mango Pickle with Asafoetida

सामग्री
  1. §        किलो कच्चा आम
  2. §        चम्मच हल्दी पाउडर
  3. §        चम्मच हींग पाउडर
  4. §       चम्मच लाल मिर्च पाउडर
  5. §        कप सरसों का तेल
  6. §       चम्मच पीसी हुई सरसों
  7. §       चम्मच नमक
बनाने की विधि (How to make mango Pickle)

1.   कच्चे आम को अच्छी तरह धोकर छील लें और छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लें
2.   कटे हुए टुकडो को 2 घंटे धूप में सुखा दे जिससे उसका सारा पानी सूख जाये.
3.   अब इन टुकड़ों में हल्दी और नमक मिलाकर एक कांच की बरनी में भर दे 
4.   और बरनी के मुह पर एक कपडा बंद के 3-4 दिनों के लिए धूप में रख दे.
5.   तीन चार दिनों के बाद इस अचार में पिसी हुई हींगलाल मिर्च पाउडर और पिसी हुई सरसों मिला के अच्छे से हिला से जिससे मसाले अचार में मिल जाये.
6.   एक कप तेल मिला के फिर से  3-4 दिनों के लिए धूप में रख दे.
7.   एक हफ्ते में यह अचार तैयार हो जाता है


21.7.14

लिव-इन रिश्ते बनाने से पहले अपने कल के बारे में अवश्य सोचिये

     
 अपने कल के बारे में अवश्य सोचिये  
         डाक्टर शालिनी कौशिक का एक आलेख लिव इन संबंधों के आगामी परिणामों को लेकर एक खासी चिंता का बीजारोपण करता है. कारण साफ़ है कि "वर्ज़नाओं के खिलाफ़ हम और हमारा शरीर एक जुट हो चुका है..!" अर्थात हम सब अचानक नहीं पूरी तैयारी से वर्ज़नाओं के खिलाफ़ हो रहें हैं. हम अब प्रतिबंधों को समाप्त करने की ज़द्दो ज़हद में लगे हैं. 

जिन प्रतिबंधों को हमें तोड़ना चाहिये उनसे इतर हम स्वयं पर केंद्रित होकर केवल कायिक मुद्दों पर सामाजिक व्यवस्था द्वारा लगाए प्रतिबंधों को तोड़ रहे हैं. निर्मुक्त हो परीमित न होने की उत्कंठा का होना सहज़ मानव प्रवृत्ति है. 
इस उत्कंठा का स्वागत है. किंतु केवल शारीरिक संदर्भों में प्रतिबंधों का प्रतिकार करना अर्थात केवल विवाह-संस्था का विरोध करना तर्क सम्मत नहीं है.. न ही ग्राह्य है. यहां धर्म इसे गंधर्व विवाह कहता है तो हम इसे लिव-इन का नया नवेला नाम दे रहे हैं. बहुतेरे उदाहरण ऐसे भी हैं जिनका रहस्य ऐसे दाम्पत्य का रहस्योदघाटन तब करता है जब किसी एक का जीवन समाप्त हो खासकर उज़ागर भी तब ही होते हैं जब पिता  की मृत्यु  के उपरांत कोई और सम्पति पर दावे के लिये सामने आता है. मेरे एक मित्र की भावना तब आहत हुई जब वो पिता के बक़ाया स्वत्वों के लिये सरकारी संस्थान में गया जहां उसके पूज्य पिता सेवक थे. पता चला कि सम्पति के लिये किसी ने आवेदन पूर्व से ही लगा रखा है. हालांकि लिव इन में सब कुछ स्पष्ट होता है.. लेकिन पुरानी सामाजिक व्यवस्था में ऐसे संबंध अक्सर छिपाए जाते थे. खुलास होने पर पिता अथवा माता के प्रति सामाजिक नज़रिया बेहद पीढादाई होता था. पर लिव इन  सम्बंधों को आज़ भी अच्छी निगाह से देखा जाएगा अथवा उसे मध्य-वर्गीय समाज,  सामाजिक एवम धार्मिक स्वीकृति देगा मुझे तो विश्वास नहीं. हां  आर्थिक दृष्टि से सम्पन्नों अथवा एकदम विपन्नों के मामलों में स्थिति सामान्य सी लगती रहेगी.
लिव इन व्यवस्था अथवा चोरी छिपे कायिक ज़रूरतों (ज़्यादातर लालसा ) को पूरा करने वालों के लिये सामाजिक नज़रिया सकारात्मक तो हो ही नहीं सकता. फ़िर उसके परिणामों से प्रसूति संतानों को कोई समाज कितना स्वीकारोक्ति देगा आप समझ सकते हैं. 
आलेख का आशय स्पष्ट है कि- हमें ऐसे कायिक-रिश्तों की पुष्टि सामाजिक रूप से करा ही लेनी चाहिये वरना भविष्य में संतानों का जीवन आपकी ग़लतियों से प्रभावित हुए बगै़र नहीं रह सकता.  

19.7.14

हज़ूर के बंगले के पर्दे

सरकारी अफ़सर हो या उसकी ज़िंदगी चौबीसों-घंटे के लिये सरकारी होते हैं जो भी होता है सब कुछ सरकारी ही तो होता है. दफ़्तर का चपरासी आफ़िस से ज़्यादा घर का काम करे तो वफ़ादार , जो बाबू घर जाके चापलूसी करे पूरी निष्ठा और ईमानदारी चुगलखोरी करे वो निष्ठावान, बाकी  बाकियों कोकिसी काम के नहीं हैं..!” - वाली श्रेणी में रखा जा सकता है..!”
ईमानदारी का दम भरने वाला साहब उसके कान में चुपके से कुछ कह देता है और वो बस हो जाता है हलाकान गिरी से रहा गया उसने पूछा-राजेंद्र क्या बात है किस तनाव में हो भई..?
राजेंद्रका बतावैं,साहब, सोचता हूं कि बीमार हो जाऊं..!
गिरी-बीमार हों तुमाए दुश्मन तुम काए को..
राजेंद्र-अरे साहब, दुश्मन ही बीमार हो जाए ससुरा !
गिरी ने पूछा- भई, हम भी तो जानें कौन है तुम्हारा दुश्मन..?
राजेंद्र- वही, जो अब रहने दो साहब, का करोगे जानकर..
गिरी-अरे बता भी दो भाई.. हम कोई गै़र तो नहीं..
राजेंद्र-साहब, साठ मीटर पर्दे को एडजस्ट करने में कित्ती स्टेशनरी लगेगी.. गणित में कमज़ोर हूं सा..
गिरी समझ गया कि राजेंद्र को उसके बास ने घर के पर्दे बदलने का आदेश दिया है. एक दीर्घ सांस छोड़ते हुए उसने बताया-“अरे, हर सेक्शन से मांग पत्र ले ले स्टेशनरी का कम से कम सात हज़ार का इंतज़ाम करना होगा
राजेंद्र-सा ये तो चार माह की खपत है.. बाप रे मर जाऊंगा
गिरी- लाया तो भी तो मरना है है ..?
हां साहब सच्ची बात हैराजेंद्र ने हर बाबू की तरफ़ नोटशीट बढ़ा दी की तीन दिवस में सब अपनी शाखा की स्टेशनरी मांग ले.
सब कुछ वैसे ही हुआ. सब के सब बिना कुछ बोले हज़ूर के आदेश की भाषा समझ गये थे गोया.
सबने बिना नानुकुर के स्टाक-रजिस्टर में भी दस्तखत कर दिये राजेंद्र ने वही किया जो बास ने कहा था . घर के पर्दे बदल गए. बस सब कुछ सामान्य सा हो गया और इस तरह एक अदृश्य किंतु अति महत्वपूर्ण कार्य निष्पादित हो गया.
      

17.7.14

"फ़ुरसतिया का माईन्यूट आब्ज़र्वेशन पाईंट : सर्वहारा पुलिया एवम ज़ेंडर-विभेद"


औरों की तरह मशहूर चिट्ठाकार  अनूप शुक्ल जी उर्फ़ फ़ुरसतिया रोज़िन्ना सुबह सकारे टहला करते हैं. जबलपुर में अनूप जी का सुबह सवेरे माईन्यूट आब्ज़र्वेशन पाईंट है एक "पुलिया" जिसे उनने सर्वहारा पुलिया नाम दिया है.इस पुलिया तक पहुंचे  नहीं कि बस सेलफ़ोन से फ़ोटू निकाले और बस फ़ेसबुक पर लाद देते हैं.   आज़ भी एक फ़ोटो उनने  फ़ोटो लादा है वो तो बच्चों जिसमें एक लड़की दूसरा लड़का है. दौनों ही सर्वहारा-पुलिया पर बैठे हैं  एक असहज दूरी बना के. इस फ़ोटो पर "भाई सतीष चंद्र सत्यार्थी" का कमेंट पाया गया - "जेंडर गैप..." बस आलेख यहीं से शुरू करना चाहता हूं..........

                     भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जैंडर गैप की बुनियाद शैशव काल से ही जन्म ले लेती है इस पर कोई दो राय नहीं है. बाल्यावस्था आते आते तक बच्चों के मन में ये बात गहरी और पुख्ता होती चली जाती है.  वास्तविकता की पड़ताल करें तो "जैंडर-विभेद" सामाजिक सोच का नतीज़ा है. नर संतान के बारे में सोच कर अभिभावक ही नहीं वरन उनसे सरोकार रखने वाले लोग भी... बहुत आशावादी होकर कहा करते हैं.. वाह, बेटा आया, बधाईयां.. अरे भाई.. हम तो बहुत खुश हैं शुरुआत ही अच्छी हुई..! .. मसलन बेटी होती तो.. शुरुआत अच्छी न होती.. ?
     बरसों से यही सवाल मुझे साल रहा है. मेरी दूसरी बेटी के बाद भी मेरे परिजन बेहद खुश थे..स्व. मां सव्यसाची ने पूरे उछाह एवं खुशियों के साथ उसका स्वागत किया. लेकिन मेरे कुछ नातेदार एक अदद बेटे का आशीर्वादों की यूं बौछार कर रहे थे मानो उनको मेरी दूज़ी बेटी का आना खल गया हो. मुझे किसी के आशीर्वादों से सरोकार न था. पर वामांगी ज़रा सा प्रभावित हुई.. परिवार ने उस प्रभाव को निष्प्रभावी कर दिया. 
                व्यक्तिगत संस्मरण सामने लाने का उद्देश्य यह साबित करना है कि - "अगर समूचा परिवार एक जुट हो जाए तो "ज़ेंडर-विभेद" का बीज़ारोपण ही नहीं हो सकता.  
                समाज आज़ भी भयभीत होकर मादा संतानों के खिलाफ़ है.. इस बात की तस्दीक आंकड़े कर रहें हैं. जबकि भारत की विकास यात्रा में नारी का अवदान बराबर से अधिक है . भारत की नारी मुक्ति नहीं चाहती, वो उच्छंखल भी नहीं है.. वो समान दर्ज़ा चाहती है.... क़ानून ने उसे दर्ज़ा दिया भी है पर .. समाज ने.. समाज के व्यव्हार के चलते नारी स्वयं को कमज़ोर मान चुकी है. उधर पुरुष यानी  मानव प्रजाति की नर संतान को जन्म के बाद एहसास दिलाया जाता है कि वो .. सर्वशक्ति सम्पन्न है. उसे  जैसे ही एहसास होता है कि वह समझदार हो चुका है तब वह अपने को अपनी सहोदरी बहनों का रक्षक मान बैठता है. अर्थात "भाई तो तुमको घबराने की ज़रूरत कदापि नहीं .. !"
                मादा संतान को बलिष्ट बनाने अथवा उसको सशक्त करने की किसी में  भी दिलचस्पी मैने सामन्यरूप से नहीं देखी. शायद आपने भी नहीं.. 
                  अपने एक आलेख में स्पष्ट कर चुका हूं कि- स्त्रियों पर प्रतिबंधक नियम समाज के बनाए हुए हैं.. इनका धर्म आदि से कोई लेना देना मेरे बेहतर ज्ञान  में नहीं देखने में नहीं आया है. यहां एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि नारी को दाह-संस्कार तक की अनुमति प्राप्त है. इस पर कोई प्रतिषेध हो तो अवश्य सप्रमाण तथ्य ला सकते हैं.   बहरहाल विधवा महिलाओं के खिलाफ़ सामाजिक व्यवस्था का एक उदाहरण देखिये..  
1.            श्रृंगार :- विधवा स्त्री को स्वेत वस्त्र पहनने की अनुमति है. उसे श्रृंगार की अनुमति कदापि नहीं दी गई              है. आधार में ये तथ्य है कि रंगीन वस्त्र उसे उत्तेजक बना सकते हैं. जो पारिवारिक सम्मान को क्षति                  पहुंचाने का कारण हो सकता है.
2.            पुनर्विवाह  :- ईश्वर चंद्र विद्यासागर के अथक प्रयासों से पुनर्विवाह को अब अंगीकार किया जाने लगा              है. 
3.            पारिवारिक सांस्कृतिक आयोजनों में प्रमुख भागीदारी :- पुत्रों, पुत्रीयों, अथवा अन्य रक्त सम्बंधियों के            विवाह, चौक, आदि में विधवाओं को मुख्य समारोह से विलग रखा जाता है. यदि कोई विधवा स्त्री                अपनी संतान का विवाह करवा रही है तो उसका धन शुद्ध माना जाता है जबकि उसका स्वयं मंडप में              प्रवेश वर्जित है. यहां तक कि वर मां/ वधू मां का दायित्व परिवार के किसी अन्य जोड़े को दिया जाता जै. 
4.            ग्रह प्रवेश में किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान में मान्यता का अभाव  :-  आज़ भी मौज़ूद  है यह कुरीति .          भले ही विधवा ने स्वयं अर्जित / पति की विरासत से प्राप्त धन से अचल सम्पदा अर्जित की हो 
5.            मनोरंजक/हास-परिहास जैसे पारिवारिक आयोजन  :- ऐसे आयोजन में भी विधवाओं को परे              रखने की व्यवस्था समाज में है. 

                     आलेख यहां पूरा पढ़ा जा सकता है :- "माई री... मैं कासे कहूं पीर ..."
               इतना ही नहीं हिंदू-धर्म जहां नारी को समान अधिकार उपलब्ध कराए गए हैं वहां भी.. अनाधिकृत सामाजिक हस्तक्षेप.. ने जेंडर-विभेद को बढ़ावा दिया है. अभी तक किसी ने भी क्रांतिकारी क़दम उठाया ही नहीं. आज़ भी उसे सहज अस्तित्व वांछित है. क्यों क्या इस यक्ष-प्रश्न का हल किसी के पास नहीं क्यों नही सोचते हम क्यों क़दम नहीं बढ़ाते.. क्या वज़ह है.. कारण क्या है... 
तुम चुप क्यों हो कारण क्या है... 
जलते देख रहे हो तुम भी प्रश्न व्यवस्था के परवत पर
क्यों कर तापस वेश बना के, जा बैठै बरगद के तट पर  
हां मंथन का अवसर है ये  स्थिर क्यों हो कारण क्या है
       

14.7.14

समांतर सिनेमा की बेहतरीन अदाकारा : स्व. स्मिता पाटिल (आलेख- फ़िरदौस खान, Star News Agency )

           
   हिंदी सिनेमा की सशक्त अभिनेत्री स्मिता पाटिल को उनकी जीवंत और यादगार भूमिकाओं के लिए जाना जाता है. उन्होंने पहली ही फ़िल्म से अपनी अभिनय प्रतिभा का लोहा मनवा दिया था, लेकिन ज़िंदगी ने उन्हें ज़्यादा वक़्त नहीं दिया. स्मिता पाटिल का जन्म 17 अक्टूबर, 1955 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था. उनके पिता शिवाजीराव पाटिल महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थे. उनकी माता सामाजिक कार्यकर्ता थीं. उनकी शुरुआती शिक्षा मराठी माध्यम के एक स्कूल से हुई थी. कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह मराठी टेलीविजन में बतौर समाचार वाचिका काम करने लगीं. ख़ूबसूरत आंखों वाली सांवली सलोनी स्मिता पाटिल का हिंदी सिनेमा में आने का वाक़िया बेहद रोचक है. एक दिन प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक श्याम बेनेगल ने उन्हें टीवी पर समाचार पढ़ते हुए देखा. वह स्मिता के नैसर्गिक सौंदर्य और समाचार वाचन से प्रभावित हुए बिना न रह सके. उन दिनों वह अपनी फ़िल्म चरणदास चोर बनाने की तैयारी कर रहे थे. स्मिता पाटिल में उन्हें एक उभरती अभिनेत्री दिखाई दी. उन्होंने स्मिता पाटिल से मुलाक़ात कर उन्हें अपनी फ़िल्म में एक छोटा-सा किरदार निभाने का प्रस्ताव दिया, जिसे उन्होंने क़ुबूल कर लिया. हालांकि यह एक बाल फ़िल्म थी. फ़िल्म में न केवल स्मिता पाटिल के अभिनय की बेहद सराहना हुई, बल्कि इस फ़िल्म ने समानांतर सिनेमा को स्मिता के रूप में एक नया सितारा दे दिया. और फिर यहीं से उनका अभिनय का सफ़र शुरू हो गया, जो उनकी मौत तक जारी रहा. श्याम बेनेगल ने एक बार कहा था, मैंने पहली नज़र में ही समझ लिया था कि स्मिता पाटिल में ग़ज़ब की स्क्रीन उपस्थिति है और जिसका इस्तेमाल रूपहले पर्दे पर किया जा सकता है.
1975 स्मिता ने श्याम बेनेगल की फ़िल्म निशांत में काम किया. इसके बाद 1977 में उनकी भूमिका और मंथन जैसी कामयाब फ़िल्में प्रदर्शित हुईं. 1978 में उन्हें फ़िल्म भूमिका में सशक्त अभिनय करने के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के तौर पर नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड से नवाज़ा गया. इस फ़िल्म में उन्होंने 30-40 के दशक में मराठी रंगमच से जुड़ी अभिनेत्री हंसा वाडेकर की निजी ज़िंदगी को रूपहले पर्दे पर जीवंत कर दिया था. इसी साल यानी 1978 में ही उन्हें मराठी फ़िल्म जॅत रे जॅत के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया. इसके बाद 1981 में उन्हें फ़िल्म चक्र के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर और नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड दिया गया. 1980 में प्रदर्शित इस फ़िल्म में स्मिता पाटिल ने झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वाली महिला का किरदार निभाया था. स्मिता पाटिल ने समानांतर सिनेमा के साथ-साथ व्यवसायिक सिनेमा में भी अपनी अभिनय प्रतिभा के जलवे बिखेरे. जहां उनकी बाज़ार, भीगी पलकें, अर्थ, अर्ध सत्य और मंडी जैसी कलात्मक फ़िल्में सराही गईं, वहीं दर्द का रिश्ता, आख़िर क्यों, ग़ुलामी, अमृत और नज़राना, नमक हलाल और शक्ति जैसी व्यवसायिक फ़िल्में भी लोकप्रिय हुईं. 1985 में आई उनकी फ़िल्म मिर्च-मसाला ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई. सौराष्ट्र की आज़ादी से पहले की पृष्ठभूमि पर बनी यह फ़िल्म उस दौर की सामंतवादी व्यवस्था के बीच पिसती एक महिला के संघर्ष को दर्शाती है. दुग्ध क्रांति पर बनी उनकी फ़िल्म मंथन के कुछ दृश्य आज भी टेलीविजन पर देखने को मिल जाते हैं.  इस फ़िल्म के निर्माण के लिए गुजरात के तक़रीबन पांच लाख किसानों ने अपनी मज़दूरी में से दो-दो रुपये फ़िल्म निर्माताओं को दिए थे. स्मिता पाटिल की दूसरी फ़िल्मों की तरह यह भी कामयाब साबित हुई. स्मिता पाटिल ने महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे के साथ भी काम किया. उन्होंने मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित टेली़फ़िल्म सद्‌गति में दमदार अभिनय कर इसे ऐतिहासिक बना दिया. स्मिता पाटिल को भारतीय सिनेमा में उनके  योगदान के लिए 1985 में पदमश्री से सम्मानित किया गया.

उन्होंने शादीशुदा अभिनेता राज बब्बर से प्रेम विवाह किया. उनके लिए राज बब्बर ने अपनी पत्नी नादिरा ज़हीर को छोड़ दिया था. स्मिता पाटिल अपनी नई ज़िंदगी से बहुत ख़ुश थीं, लेकिन क़िस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था. बहुत कम उम्र में वह इस दुनिया को छोड़ गईं. बेटे प्रतीक को जन्म देने के कुछ दिनों बाद 13 दिसंबर, 1986 को उनकी मौत हो गई. उनकी मौत के बाद 1988 में फ़िल्म वारिस प्रदर्शित हुई, जो उनकी यादगार फ़िल्मों में से एक है. अभिनेत्री रेखा ने इस फ़िल्म में स्मिता पाटिल के लिए डबिंग की थी.

हिंदी सिनेमा में स्मिता पाटिल की प्रतिद्वंद्विता शबाना आज़मी से थी. स्मिता पाटिल की तरह शबाना आज़मी भी श्याम बेनेगल की ही खोज थीं. स्मिता पाटिल और शबाना आज़मी के बीच मुक़ाबले की बातें काफ़ी चर्चित हुईं. फ़िल्म अर्थ और मंडी में दोनों अभिनेत्रियों ने साथ-साथ काम किया. दोनों फ़िल्मों की समीक्षकों ने ज़्यादा सराहना की. स्मिता पाटिल का मानना था कि उनकी भूमिका में काफ़ी बदलाव किया गया था. इसके बाद ही उन्होंने व्यवसायिक फ़िल्मों का रुख़ कर लिया. शुरू में उन्हें काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने ख़ुद को वक़्त के हिसाब से ढाल लिया. नतीजतन, उनकी व्यवसायिक फ़िल्में भी बेहद कामयाब रहीं. स्मिता पाटिल के साथ शक्ति और नमक हलाल जैसी फ़िल्मों में करने वाले अभिनेता अमिताभ बच्चन का कहना है कि स्मिता जी कमर्शियल फ़िल्में करने से हिचकिचाती थीं. वह नाचने-गाने में असहज महसूस करती थीं. जब भी वह इस तरह की कोई फ़िल्म करती थीं ख़ुद को पूरी तरह से निर्देशक के हाथों में सौप देती थीं. अमिताभ बच्चन उनकी महानता और सादगी के भी क़ायल रहे हैं. बक़ौल अमिताभ बच्चन, शक्ति की शूटिंग के दौरान हम फ़िल्म के कुछ हिस्से चेन्नई में फ़िल्मा रहे थे. स्मिता जी मेरे पास आईं और बोलीं, नमक हलाल करने के बाद लोग मुझे पहचानने लगे हैं. मुझे लगता है कि यह स्मिता जी की महानता थी, जो वह यह बात कह रही थीं, क्योंकि वह तो हिंदी सिनेमा का एक जाना माना नाम थीं.

स्मिता पाटिल की सादगी ही उन्हें ख़ास बनाती थी. स्मिता पाटिल के साथ फ़िल्म गमन में काम करने वाले नाना पाटेकर कहते हैं कि मैं और स्मिता एक दूसरे से काफ़ी हंसी-मज़ाक़ किया करते थे. मैं उसे काली-कलूटी कहकर चिड़ाता था, तो वह मुझे कहती थी कि ये काला रंग ही तो उसकी ख़ासियत है, तभी तो लोग उसे प्यार करते हैं. फ़िल्म निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट स्मिता पाटिल का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि स्मिता पाटिल सुंदर और साहसी थीं. उनके ललाट पर ही शायद दुर्भाग्य लिखा था. मैं इसे खुलेआम स्वीकार करना चाहता हूं कि उनके आकस्मिक निधन से मैं कभी उबर नहीं पाया. नियति का खेल देखें कि वह मां बनीं. उन्होंने एक शिशु को जन्म दिया. एक जीवन देने के साथ ही वह मौत की आग़ोश में चली गईं. ग़म और कुछ नहीं के बीच मैं ग़म को अपनाना चाहूंगी, स्मिता पाटिल ने मेरी आत्मकथात्मक फ़िल्म अर्थ की कहानी सुनने के बाद मुझे यह नोट भेजा था. उसमें उन्हें एक पागल अभिनेत्री की भूमिका निभानी थी. तमाम विकल्पों के बीच उन्होंने उस फ़िल्म के लिए हां की थी. उसकी एक ही वजह थी कि उस किरदार से उन्हें सहानुभूति हुई थी. सहानुभूति की वजह यही हो सकती है कि उन दिनों वह स्वयं शादीशुदा राज बब्बर के साथ ख़तरनाक रिश्ते को जी रही थीं. अपने पास प्रेमी को रखने की चाह और एक घर तो़ड़ने के अपराध की भावना के बीच वह झूल रही थीं. इस भूमिका में इतना विषाद है कि इसे निभाने से मुझे राहत मिलेगी, अर्थ का पहला दृश्य करने के बाद उन्होंने कहा था. हम लोग एक पंचसितारा होटल के कमरे में उस दृश्य की शूटिंग कर रहे थे. इस दृश्य में वह अपने दुर्भाग्य और अवैध संबंध का रोना रो रही थीं. अर्थ का सेट उनके लिए आईना था, जिसमें वह अपने दर्दनाक वर्तमान की झलक देख रही थीं. वह हर दिन सुबह खेल के मैदान में जा रहे बच्चे के उत्साह के साथ सेट पर आती थीं और पिछले दिन अपने प्रेमी के साथ गुज़रे अनुभव और पीड़ा को कैमरे के सामने उतार देती थीं. प्रकृति ने उन्हें अकेलेपन का क़ीमती उपहार दिया था. इस अकेलेपन ने ही उनकी कला को जन्म दिया था. वह प्राय: कहा करती थीं, इस इंडस्ट्री में हर व्यक्ति अकेला है. एक रात मैं थोड़ी देर से घर लौटा तो मेरी बीवी ने बताया कि लिविंग रूम में कोई मेरा इंतज़ार कर रहा है. कमरे में दाख़िल होने के बाद मैंने देखा कि स्मिता पाटिल मेरी तरफ़ पीठ किए खड़ी थीं और बड़े ग़ौर से अपनी हथेली निहार रही थीं. वह रो रही थीं. उन्होंने अपनी हथेली मेरी तरफ़ ब़ढाते हुए कहा, क्या आपने मेरी हथेली में जीवनरेखा देखी है? यह बहुत छोटी है. मैं ज़्यादा दिनों तक ज़िंदा नहीं रहूंगी. उसके बाद उन्होंने जो बात कहीं, वह मैं अपनी अंतिम सांस तक नहीं भूल सकता. उन्होंने आगे कहा कि महेश, मरने का डर सबसे बड़ा डर नहीं होता. जीने का डर मरने से बड़ा होता है. वह मेरे सामने रात भर पत्तों की तरह कांपती रहीं. शायद अपनी मौत के बारे में सोच कर वह घबरा रही थीं. सुबह होने पर वह अपने घर लौटीं. सुबह की नीम रोशनी में पूरी तरह से टूटी हुई, लड़खड़ाते क़दमों से अपनी कार की तरफ़ जाती उनकी छवि आज भी मेरे दिमाग़ में कौंधती है. वह बहुत सुंदर दिख रही थीं. मुझे यह मानने में कोई गुरेज़ नहीं है कि अर्थ में जो भावनात्मक उबाल मैं दिखा पाया था, वह स्मिता की निजी ज़िंदगी के ईंधन के बिना मुमकिन नहीं होता.

हिंदी के अलावा मराठी, गुजराती, तेलुगू, बांग्ला, कन्ऩड और मलयालम फ़िल्मों में भी काम किया. उनकी हिंदी फ़िल्मों में चरणदास चोर, निशांत, मंथन, कोंद्रा, भूमिका, गमन, द नक्सलिटाइस, आक्रोश, सद्‌गति, अल्बर्ट पिंटो को ग़ुस्सा क्यों आता है, चक्र, तजुर्बा, भीगी पलकें, बाज़ार, दिल-ए-नादान, नमक हलाल, बदले की आग, शक्ति, सुबह, मंडी, अर्थ, चटपटी, घुंघरू, दर्द का रिश्ता, हादसा, क़यामत, अर्धसत्य, पेट प्यार और पाप, शपथ, क़ानून मेरी मुट्ठी में, मेरा दोस्त मेरा दुश्मन, गिद्ध, तरंग, फ़रिश्ता, शराबी, आनंद और आनंद, आज की आवाज़, रावण, क़सम पैदा करने वाले की, जवाब,  आख़िर क्यों, हम दो हमारे दो, ग़ुलामी,  मेरा घर मेरे बच्चे, अंगारे, कांच की दीवार, दिलवाला, आपके साथ, अमृत, तीसरा किनारा, अनोखा रिश्ता, दहलीज़, सूत्रधार, नज़राना, शेर शिवाजी, देवशिशु, इंसानियत के दुश्मन, मिर्च मसाला, डांस डांस, राही, अवाम, ठिकाना, आकर्षण, हम फ़रिश्ते नहीं, वारिस, गलियों का बादशाह और सितम आदि शामिल हैं.

भले ही आज स्मिता पाटिल हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपनी फ़िल्मों के ज़रिये वह हमेशा अपने प्रशंसकों के बीच रहेंगी. बहरहाल, इस साल के शुरू में अभिनेता और कांग्रेस सांसद राज बब्बर ने कहा था कि अब वह ए बुक ऑफ पैन नामक किताब लिखने वाले हैं, जिसमें वह अपने और स्मिता पाटिल के प्रेम के बारे में भी लिखेंगे.


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13.7.14

मुदिता का अर्थ


मित्रो दुनियां में केवल मुदिता शेष होगी.. मुदिता का अर्थ प्रफ़ुल्लता के साथ जीवन जीनाही तो है.. इस प्रफ़ुल्लता का अर्थ सदा ही रचनात्मकता की दिशा में उठता क़दम ही है. यही प्रफ़ुल्लता विश्व का कल्याण करने के लिये "महत्वपूर्ण-टूल" है.  जो सांस्कृतिक रूप से पुष्टिकृत है. अर्थात इसे केवल दार्शिनिकों ने पुष्टिकृत किया हो ऐसा क़दापि नहीं हैं.आइये इसे अधिक विश्लेशित करें.. 
  • प्रफ़ुल्लता कैसे लाएं जीवन में :- जीवन में प्रफ़ुल्लता का प्रवेश तब होता है जब हम आप निस्पृह होकर रहें. अन्य किसी के जीवन से स्पर्द्धा, तुलना, एवम गुण-अवगुण की समीक्षा का सीधा अर्थ है कि हम अपने मानस में "कुंठा" का बीजारोपण कर रहें हैं. जब हमारे मानसिक क्षेत्रफ़ल में कुंठा का विस्तार होता है तो बेशक अन्य किसी भाव के लिये स्थान शेष क़दापि मिलना असंभव है. अत: प्रफ़ुल्लता के लिये मानस-स्थल सदा खाली रखें और दुनियां को देखने का नज़रिया बदलें. 
  •  प्रफ़ुल्लता के लिये सकारात्मक सोच को मानस में जगह दें :- अब आप कहेंगे कि मानस को रिक्त रखना हैं तो सकारात्मक सोच भी मानस में न रखी जाए.. न ऐसा नहीं हैं.. सकारात्मक सोच तरल तत्व सी होती है.. उसके कण कण में प्रफ़ुल्लता का संविलियन तुरंत संभव है. अगर आप कुंठित हैं तो प्रफ़ुल्ल रह ही न पाएंगें. 
  •  प्रफ़ुल्लता मैत्री-भाव का आधार है :- कुंठा कभी भी मैत्रीभाव को स्थान नहीं दे पाती, जबकि प्रफ़ुल्लता सदा मैत्रीभाव को मज़बूती देती है साथ ही मैत्री-भाव को आधार प्रदान करती है.
  •  प्रफ़ुल्लता से सृजन को बल मिलता है :- प्रफ़ुल्ल व्यक्ति सदा सृजन करता है. कुंठित व्यक्ति कभी सृजक हो ही नहीं सकता .
  • प्रफ़ुल्लता से निर्माण तेज़ी से होता है  :- प्रफ़ुल्ल व्यक्ति एवं समुदाय ने सदा ही श्रॆष्ठतम निर्माण किये हैं. भौतिक संरचनाओं में राम-सेतु, केदारनाथ, ताज़महल, के अलावा अभौतिक सामाजिक व्यवस्थाएं.. धर्म, सांस्कृतिक व्यवस्थाएं.. वेद, प्रजातंत्र.. यानी मूर्त अमूर्त... सब स्थाई सृजन सा होता है. 
                       प्रफ़ुल्लता की आभा आपके चेहरे से झलके शुभकामनाओं के साथ.. 
मित्रो मेरा ब्लाग "मिसफ़िटपेज व्यू चार्ट 150062 पृष्ठदृश्य -एवं 984 पोस्ट के साथ आपके स्नेह से लगातार आगे आ रहा है... आभार  


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