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गुरुवार, जुलाई 17, 2014

"फ़ुरसतिया का माईन्यूट आब्ज़र्वेशन पाईंट : सर्वहारा पुलिया एवम ज़ेंडर-विभेद"


औरों की तरह मशहूर चिट्ठाकार  अनूप शुक्ल जी उर्फ़ फ़ुरसतिया रोज़िन्ना सुबह सकारे टहला करते हैं. जबलपुर में अनूप जी का सुबह सवेरे माईन्यूट आब्ज़र्वेशन पाईंट है एक "पुलिया" जिसे उनने सर्वहारा पुलिया नाम दिया है.इस पुलिया तक पहुंचे  नहीं कि बस सेलफ़ोन से फ़ोटू निकाले और बस फ़ेसबुक पर लाद देते हैं.   आज़ भी एक फ़ोटो उनने  फ़ोटो लादा है वो तो बच्चों जिसमें एक लड़की दूसरा लड़का है. दौनों ही सर्वहारा-पुलिया पर बैठे हैं  एक असहज दूरी बना के. इस फ़ोटो पर "भाई सतीष चंद्र सत्यार्थी" का कमेंट पाया गया - "जेंडर गैप..." बस आलेख यहीं से शुरू करना चाहता हूं..........

                     भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जैंडर गैप की बुनियाद शैशव काल से ही जन्म ले लेती है इस पर कोई दो राय नहीं है. बाल्यावस्था आते आते तक बच्चों के मन में ये बात गहरी और पुख्ता होती चली जाती है.  वास्तविकता की पड़ताल करें तो "जैंडर-विभेद" सामाजिक सोच का नतीज़ा है. नर संतान के बारे में सोच कर अभिभावक ही नहीं वरन उनसे सरोकार रखने वाले लोग भी... बहुत आशावादी होकर कहा करते हैं.. वाह, बेटा आया, बधाईयां.. अरे भाई.. हम तो बहुत खुश हैं शुरुआत ही अच्छी हुई..! .. मसलन बेटी होती तो.. शुरुआत अच्छी न होती.. ?
     बरसों से यही सवाल मुझे साल रहा है. मेरी दूसरी बेटी के बाद भी मेरे परिजन बेहद खुश थे..स्व. मां सव्यसाची ने पूरे उछाह एवं खुशियों के साथ उसका स्वागत किया. लेकिन मेरे कुछ नातेदार एक अदद बेटे का आशीर्वादों की यूं बौछार कर रहे थे मानो उनको मेरी दूज़ी बेटी का आना खल गया हो. मुझे किसी के आशीर्वादों से सरोकार न था. पर वामांगी ज़रा सा प्रभावित हुई.. परिवार ने उस प्रभाव को निष्प्रभावी कर दिया. 
                व्यक्तिगत संस्मरण सामने लाने का उद्देश्य यह साबित करना है कि - "अगर समूचा परिवार एक जुट हो जाए तो "ज़ेंडर-विभेद" का बीज़ारोपण ही नहीं हो सकता.  
                समाज आज़ भी भयभीत होकर मादा संतानों के खिलाफ़ है.. इस बात की तस्दीक आंकड़े कर रहें हैं. जबकि भारत की विकास यात्रा में नारी का अवदान बराबर से अधिक है . भारत की नारी मुक्ति नहीं चाहती, वो उच्छंखल भी नहीं है.. वो समान दर्ज़ा चाहती है.... क़ानून ने उसे दर्ज़ा दिया भी है पर .. समाज ने.. समाज के व्यव्हार के चलते नारी स्वयं को कमज़ोर मान चुकी है. उधर पुरुष यानी  मानव प्रजाति की नर संतान को जन्म के बाद एहसास दिलाया जाता है कि वो .. सर्वशक्ति सम्पन्न है. उसे  जैसे ही एहसास होता है कि वह समझदार हो चुका है तब वह अपने को अपनी सहोदरी बहनों का रक्षक मान बैठता है. अर्थात "भाई तो तुमको घबराने की ज़रूरत कदापि नहीं .. !"
                मादा संतान को बलिष्ट बनाने अथवा उसको सशक्त करने की किसी में  भी दिलचस्पी मैने सामन्यरूप से नहीं देखी. शायद आपने भी नहीं.. 
                  अपने एक आलेख में स्पष्ट कर चुका हूं कि- स्त्रियों पर प्रतिबंधक नियम समाज के बनाए हुए हैं.. इनका धर्म आदि से कोई लेना देना मेरे बेहतर ज्ञान  में नहीं देखने में नहीं आया है. यहां एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि नारी को दाह-संस्कार तक की अनुमति प्राप्त है. इस पर कोई प्रतिषेध हो तो अवश्य सप्रमाण तथ्य ला सकते हैं.   बहरहाल विधवा महिलाओं के खिलाफ़ सामाजिक व्यवस्था का एक उदाहरण देखिये..  
1.            श्रृंगार :- विधवा स्त्री को स्वेत वस्त्र पहनने की अनुमति है. उसे श्रृंगार की अनुमति कदापि नहीं दी गई              है. आधार में ये तथ्य है कि रंगीन वस्त्र उसे उत्तेजक बना सकते हैं. जो पारिवारिक सम्मान को क्षति                  पहुंचाने का कारण हो सकता है.
2.            पुनर्विवाह  :- ईश्वर चंद्र विद्यासागर के अथक प्रयासों से पुनर्विवाह को अब अंगीकार किया जाने लगा              है. 
3.            पारिवारिक सांस्कृतिक आयोजनों में प्रमुख भागीदारी :- पुत्रों, पुत्रीयों, अथवा अन्य रक्त सम्बंधियों के            विवाह, चौक, आदि में विधवाओं को मुख्य समारोह से विलग रखा जाता है. यदि कोई विधवा स्त्री                अपनी संतान का विवाह करवा रही है तो उसका धन शुद्ध माना जाता है जबकि उसका स्वयं मंडप में              प्रवेश वर्जित है. यहां तक कि वर मां/ वधू मां का दायित्व परिवार के किसी अन्य जोड़े को दिया जाता जै. 
4.            ग्रह प्रवेश में किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान में मान्यता का अभाव  :-  आज़ भी मौज़ूद  है यह कुरीति .          भले ही विधवा ने स्वयं अर्जित / पति की विरासत से प्राप्त धन से अचल सम्पदा अर्जित की हो 
5.            मनोरंजक/हास-परिहास जैसे पारिवारिक आयोजन  :- ऐसे आयोजन में भी विधवाओं को परे              रखने की व्यवस्था समाज में है. 

                     आलेख यहां पूरा पढ़ा जा सकता है :- "माई री... मैं कासे कहूं पीर ..."
               इतना ही नहीं हिंदू-धर्म जहां नारी को समान अधिकार उपलब्ध कराए गए हैं वहां भी.. अनाधिकृत सामाजिक हस्तक्षेप.. ने जेंडर-विभेद को बढ़ावा दिया है. अभी तक किसी ने भी क्रांतिकारी क़दम उठाया ही नहीं. आज़ भी उसे सहज अस्तित्व वांछित है. क्यों क्या इस यक्ष-प्रश्न का हल किसी के पास नहीं क्यों नही सोचते हम क्यों क़दम नहीं बढ़ाते.. क्या वज़ह है.. कारण क्या है... 
तुम चुप क्यों हो कारण क्या है... 
जलते देख रहे हो तुम भी प्रश्न व्यवस्था के परवत पर
क्यों कर तापस वेश बना के, जा बैठै बरगद के तट पर  
हां मंथन का अवसर है ये  स्थिर क्यों हो कारण क्या है
       

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