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मंगलवार, जनवरी 03, 2012

ब्लाग-भूषण मिला, दाता का आभार : गिरीश बिल्लोरे

मुझे मुम्बई की जात्रा रद्द करनी पड़ी मुआ निमोनिया एन उस वक्त सामने आया जब कि अपने राम सपत्नीक जा रहे थे मुम्बई व्हाया नागपुर दिनांक 7 दिसम्बर 2011 की अल्ल सुबह किंतु देर रात तक खांसते-खांसते हालत हैदराबाद हुई जा रही थी. इधर मित्र गण काफ़ी खुश थे मुम्बई जात्रा से आऊंगा और सदर काफ़ी हाउस में एक लम्बी सिटिंग होगी.. बात-चीत के साथ साथ जलपान उदरस्थ करेंगे मिलजुल के ऐसा अमूमन होता ही है. पर गोया खड़ी फ़सल पे तुषारापात.. खैर माफ़ी नामा तो भाई मनीष मिश्रा जी से  अनिता कुमार जी से मांग ही चुका था पर ये क्या मन में बार बार एक ही विचार सुनामी की शक्ल ले रहा था -"वादे पे खरा न उतरा मैं उनसे क्या कहूंगा जिनने मेरे लिये समारोह में जगह बनाई" समयचक्र चलता रहा इस बात का दर्द कुछ कम हुआ पर नुकसान तो हुआ उतना नहीं जितना कि बीमार शरीर लेकर मुम्बई पहुंचता . शुक्रवार दि. 09 दिसंबर 2011 को सुबह 10 बजे से कल्याण पश्चिम स्थित के. एम. अग्रवाल कला, वाणिज्य एवम् विज्ञान महाविद्यालय में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग संपोषित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी सुनिश्चित थी।  ``हिन्दी ब्लागिंग : स्वरूप, व्याप्ति और संभावनायें।'' यह संगोष्ठी शनिवार 10 दिसंबर 2011 को सायं. 5.00 बजे तक चलनी थी इसके साथ मुझे 8 दिसम्बर 2011 को अनिता कुमार जी के स्नेहामंत्रण पर उनके चैम्बूर स्थित कालेज में वेब-कास्टिंग पर अपना प्रज़ेंटेशन देना था..
    मैने अपनी मराठी मित्र से अपना प्रज़ेंटेशन हिंदी से मराठी में ट्रांस्लेट करवा भी लिया था ताकि अनिता जी को किये वादे पर खरा उतरूं..  
  ईश्वर उतना ही देता है जितना जिसे मिलना चाहिये या कहूं जितना जिसके वास्ते तय होता है....!
 ऐसा इस वज़ह से कह रहा हूं क्यों कि मुझे मुम्बई में मिलना था कुछ निर्माताओं से, अपने आभास, श्रेयस से, मित्र देवेंद्र झवेरी जी से... रंजू दीदी से, काका से यानी कुल चार दिन भारी व्यस्त रहने वाले थे मिनिट-टू-मिनिट कार्यक्रम श्रीमति जी के साथ मिलके तय था खैर जो होता है अच्छा ही होता है .. वो अच्छा क्या था मुझे तब एहसास हुआ जब 07 दिसम्बर को इंदौर से एक फ़ोन संदेश मिला कि मेरे बड़े जीजाश्री गम्भीर रूप से बीमार हैं वैंटिलेटर पर रखा गया है उनको यद्यपि मैं तो जा न सका पर सारा परिवार वहां समय पर पहुंच चुका था..एक लम्बे संघर्ष के बाद वे सबकी दुआंओं और दवाओं के असर से  अब स्वस्थ्य हैं.  सच मेरी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी घर पर सबके साथ   
 31 दिसम्बर  2011  को  मनीष जी का भी कोरियर पाकर अभिभूत हूं इस कोरियर में "ब्लाग-भूषण" की उपाधि थी 

सोमवार, जनवरी 02, 2012

"भारत हमसे क्या चाहता है ?"


साभार : NEWS FLASH

भारत से आपकी अपेक्षाएं आम तौर पर आप जब अपने बच्चे के कैरियर को लेकर आपस में चर्चा करतें हैं तब खुला करतीं हैं. किंतु भारत आपसे क्या चाहता है इस बारे में आप की हमारी सोच लगभग अपाहिज है. अपाहिज शब्द का स्तेमाल इस कारण किया क्यों कि हम-आप केवल व्यवस्था के खिलाफ़ खड़े दिखाई देते  हैं.. अपने देश की तुलना अमेरिका यू के , के साथ कर खुद को दीनहीन मानते हैं. उन देशों के आप्रवासियों के ज़रिये आयातित सूचनाओं की बैसाखियां लगाए हुए हम कितने अकिंचन नज़र आते हैं इसका एहसास कीजिये तो ज़रा आप अपने आप को इस सवाल से घिरे पाएंगे कि - "भारत हमसे क्या चाहता है ?"
आपके पास कोई ज़वाब न होगा कारण साफ़ है कि इस एंगल से हम सोच ही कहां रहें हैं.. अचानक आए सवाल के प्रहार से अचकचाना स्वाभाविक है . जी तो भारत आपसे क्या चाहता है.. आप जो भी है नेता अफ़सर व्यापारी अथवा आम आदमी जो भी हैं देखें भारत आपसे कुछ खास नहीं मांग रहा सच तो सोचिये क्या मांग रहा है..?
कुछ सोचा आपने ? कुछ याद आया आपको ?  न तो सुन लीजिये भारत आपसे न तो विश्व के सापेक्ष किसी तरह के कीर्तीमान मांग रहा है. न ही उसे सदनों किसी भी प्रकार के वाद-विवाद आरोप-प्रत्यारोप चाह रहा है अब तो बेचारा चुप हो गया उसे गोया कुछ नहीं चाहिये देखो न ध्यान से देखो वो तो हमसे केवल "ईमानदार-संतान" होने का कौल मांग रहा है.. शायद हम   दें पाएं.. !! 

रविवार, जनवरी 01, 2012

आभार 2011 ... !!

जा रहे हो बीते बरस तुम्हारा आभार तो कर दूं ..!

 तुम्हारे साथ बीते पलों ने नये के स्वागत का सलीका सिखा ही दिया.. .

 तुम भले सवालों को सुलगा सुलगा जवाबों को कसौटी पे परखते रहे .. अरे हां वो तुम ही थे न जो कभी तेज़ी से तो कभी हौले-हौले अपनी पाथ पर सरकते रहे .. हां बीते बरस तुम ने ही तो बताया क्रांति और अवसरवादिता में फ़र्क सच कितना कड़्वा होता है बूढ़ी देह को जाते-जाते तुमने कर ही दिया सतर्क. सच इस बार तुम्हारा साथ बहुत कुछ दिखा गया .. हां सूरज को रौशनी की ज़रूरत थी.. तुम्हारा ही हाथ था न जो उसे दीपक दिखा गया. सच तुम्हारे तिलिस्म को भूल न पाऊंगा तुम्हारे गीत दिन दोपहरी जब भी तुम्हारी याद आएगी गुन गुनाऊंगा. 
  इस बरस तुमने मुझे जी भर के हंसाया हां उसी हंसी के पीछे था मैने अपने दर्द का पोटला छिपाया.. ओ बीते तिलिस्मी बरस तुम जा रहे हो न.. बताओ  फ़िर कभी आओगे न उदास चेहरों पे मुस्कान सजाओगे न.. आना ज़रूर आना.. प्राकृतिक-न्याय क्या होता है सबको बताना.. तुम्हारा ये काम अभी अधूरा है.. अब विदा देता हूं
नेये को स्वागत का कार्ड दिखाना है 

गुरुवार, दिसंबर 29, 2011

तुम मेरे साथ एक दो क़दम ........


तुम मेरे साथ
एक दो क़दम चलने का
अभिनय मत करो
एक ही बिंदू पर खड़े-खड़े
दूरियां तय मत करो..!
तुमको जानता हूं
फ़ायदा उठाओगे -
मेरे दुखड़े गाने का
मुझे मालूम है
तुम मेरे आंसू पौंछने को भी
भुनाते हो
तुम सदन में मेरे
दर्द की दास्तां सुनाते हो !
तुम जो
हमारी भूख को भी भुनाते हो !
तुम जो कर रहे हो
उसे “अकिंचन-सेवा” का नाम न दो..!!
जो भी तुम करते हो
उसे दीवारों पर मत लिखो ..!!
तुम जो करते हो उसमें
तुम्हारा बहुत कुछ सन्निहित है
मित्र
ये सिर्फ़ तुम जानते हो..?
      न ये तो सर्व विदित है…!

बुधवार, दिसंबर 28, 2011

मां ने कहा तो था .... शत्रुता का भाव जीवन को बोझिल कर देता है : मां यादों के झरोखे से

मां बीस बरस पहले 
मां निधन के एक बरस पहले 

यूं तो तीसरी हिंदी दर्ज़े तक पढ़ी थीं मेरी मां जिनको हम सब सव्यसाची कहते हैं क्यों कहा हमने उनको सव्यसाची क्या वे अर्जुन थीं.. कृष्ण ने उसे ही तो सव्यसाची कहा था..? न तो क्या वे धनुर्धारी थीं जो कि दाएं हाथ से भी धनुष चला सकतीं थीं..? न मां ये तो न थीं हमारी मां थीं सबसे अच्छी थीं मां हमारी..! जी जैसी सबकी मां सबसे अच्छी होतीं हैं कभी दूर देश से अपनी मां को याद किया तो गांव में बसी मां आपको सबसे अच्छी लगती है न हां ठीक उतनी ही सबसे अच्छी मां थीं .. हां सवाल जहां के तहां है हमने उनको सव्यसाची   क्यों कहा..!
तो याद कीजिये कृष्ण ने उस पवित्र अर्जुन को "सव्यसाची" तब कहा था जब उसने कहा -"प्रभू, इनमें मेरा शत्रु कोई नहीं कोई चाचा है.. कोई मामा है, कोई बाल सखा है सब किसी न किसी नाते से मेरे नातेदार हैं.."
यानी अर्जुन में तब अदभुत अपनत्व भाव हिलोरें ले रहा था..तब कृष्ण ने अर्जुन को सव्यसाची सम्बोधित कर गीता का उपदेश दिया.अर्जुन से मां  की तुलना नहीं करना चाहता कोई भी "मां" के आगे भगवान को भी महान नहीं मानता मैं भी नहीं "मां" तो मातृत्व का वो आध्यात्मिक भाव है जिसका प्राकट्य विश्व के किसी भी अवतार को ज्ञानियों के मानस में न हुआ था न ही हो सकता वो तो केवल "मां" ही महसूस करतीं हैं. 
          जी ये भाव मैने कई बार देखा मां के विचारों में "शत्रु विहीनता का भाव " एक बार एक क़रीबी नातेदार के द्वारा हम सबों को अपनी आदत के वशीभूत होकर अपमानित किया खूब नीचा दिखाया .. हम ने कहा -"मां,इस व्यक्ति के घर नजाएंगे कभी कुछ भी हो इससे नाता तोड़ लो " तब मां ने ही तो कहा था मां ने कहा तो था .... शत्रुता का भाव जीवन को बोझिल कर देता है ध्यान से देखो तुम तो कवि हो न शत्रुता में निर्माण की क्षमता कहां होती है. यह कह कर  मां मुस्कुरा दी थी तब जैसे प्रतिहिंसा क्या है उनको कोई ज्ञान न हो .मेरे विवाह के आमंत्रण को घर के देवाले को सौंपने के बाद सबसे पहले पिता जी को लेकर उसी निकटस्थ परिजन के घर गईं जिसने बहुधा हमारा अपमान किया करता और उस नातेदार मां के चरणों को पश्चाताप के अश्रुओं से पखारा. वो मां ही तो थीं जिसने  उस एक परिवार को सबसे पहले सामाजिक-सम्मान दिया जिन्हैं दहेज के आरोप  कारण जेल जाना पड़ा आज़ भी वे सव्यसाची के "सम्पृक्त भाव" की चर्चा करते नहीं अघाते .
                    जननी ने बहुत अभावों में आध्यात्मिक-भाव और सदाचार के पाठ हमको पढ़ाने में कोताही न बरती.
   हां मां तीसरी हिंदी पास थी संस्कृत हिन्दी की ज्ञात गुरु कृपा से हुईं अंग्रेजी भी तो जानती थी मां उसने दुनिया   खूब बांची थी. पर दुनिया से कोई दुराव न कभी मैने देखा नहीं मुझे अच्छी तरह याद है वो मेरे शायर मित्र  इरफ़ान झांस्वी से क़ुरान और इस्लाम पर खूब चर्चा करतीं थीं . उनकी मित्र प्रोफ़ेसर परवीन हक़  हो या कोई अनपढ़ जाहिल गंवार मजदूरिन मां सबको आदर देती थी ऐसा कई बार देखा कि मां ने धन-जाति-धर्म-वर्ग-ज्ञान-योग्यता आधारित वर्गीकरण को सिरे से नक़ारा  आज मां  यादों के झरोखे से झांखती यही सब तो कहती है हमसे ,... सच मां जो भगवान से भी बढ़कर होती है उसे देखो ध्यान से विश्व की हर मां को मेरा विनत प्रणाम 
आज मां की सातवीं बरसी थी हम बस याद करते रहे उनको और कोशिश करते रहे  उनके आध्यात्मिक भाव को समझने की.. 
आज़ बाल-निकेतन और नेत्रहीन कन्या विद्यालय में जाकर बच्चों से मिलकर फ़िर से मन पावन भावों को जगा गया सच शत्रुता निबाहने से ज़्यादा ज़रूरी काम हैं न हमारे पास चलें देखें किसी ऐसे समूह को जो अभावों के साथ जीवन जी रहा है 

मां.....!!
छाँह नीम की तेरा आँचल,
वाणी तेरी वेद ऋचाएँ।
सव्यसाची कैसे हम तुम बिन,
जीवन पथ को सहज बनाएँ।।


कोख में अपनी हमें बसाके,
तापस-सा सम्मान दिया।।
पीड़ा सह के जनम दिया- माँ,
साँसों का वरदान दिया।।
प्रसव-वेदना सहने वाली, कैसे तेरा कर्ज़ चुकाएँ।।

ममतामयी, त्याग की प्रतिमा-
ओ निर्माणी जीवन की।
तुम बिन किससे कहूँ व्यथा मैं-
अपने इस बेसुध मन की।।
माँ बिन कोई नहीं,
सक्षम है करुणा रस का ज्ञान कराएँ।
तीली-तीली जोड़ के तुमने
अक्षर जो सिखलाएँ थे।।
वो अक्षर भाषा में बदलें-
भाव ज्ञान बन छाए वे !!
तुम बिन माँ भावों ने सूनेपन के अर्थ बताए !!

                                       "इस वर्ष मां की स्मृति में आशीष शुक्ला को सव्यसाची अलंकरण दिया"

मंगलवार, दिसंबर 27, 2011

रवींद्र बाजपेई सकारात्मक पत्रकारिता के संवाहक : श्री अनिल शर्मा


मंचासीन अतिथिगण
जबलपुर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष
श्री अनिल शर्मा सरस्वती पूजन करते हुए
 विद्युत मंडल के पी आर ओ श्रीराकेश पाठक 
वरिष्ठ पत्रकार श्री रवींद्र बाजपेई 
जबलपुर 24 दिसम्बर 2011 को स्थानीय फ़न-पार्क में जबलपुर का प्रतिष्ठापूर्ण समारोह   स्वर्गीय हीरालाल गुप्त स्मृति समारोह 2011 सम्पन्न हुआ. मुख्य अथिति के रूप में बोलते हुए सम्मान का आधार ही त्याग और तपस्या है. आज़ जिनकी स्मृति में सम्मान दिया जा रहा है वे पत्रकारिता एवम सम्पूर्ण मानव जाति की सेवा के लिये कृत संकल्पित थे मैं ऐसे व्यक्तित्वो को नमन करते हुए  मित्र रवींद्र बाजपेई को शुभकामनाएं देता हूं कि वे मूर्धन्य पत्रकार हीरालाल गुप्त स्मृति प्रतिष्ठित सम्मान से सम्मानित हुए हैं. युवा पत्र-संचालक भाई आशीष शुक्ल को मेरी अशेष शुभकामनाएं हैं जिन्हैं त्याग की मूर्ति सव्यसाची मां प्रमिला देवी की स्मृति में सम्मानित किया . 

अध्यक्षीय आसंदी से बोलते हुए समाज सेवी एवम जबलपुर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष श्री अनिल शर्मा ने कहा:- "रवींद्र बाजपेई सकारात्मक पत्रकारिता के संवाहक हैं उनका सम्मान करना बेशक नकारात्मकता को हतोत्साहित कर सृजनशीलता को समादरित करना है. साथ ही श्री आशीष शुक्ला को सव्यसाची मां प्रमिला देवी की स्मृति सम्मान से समादरित कर आयोजकों ने पत्रकारिता में युवा चेतना को प्रोत्साहित करने का मार्ग तय कर दिया है."
        विशिष्ठ अतिथि समाज सेवी श्री शेखर अग्रवाल संचालक डिजी टेलिविजन ने पंद्रह साल से जारी आयोजन की सराहना करते हुए कहा कि मीडिया समाज को खबर देकर अपना दायित्व पूरा नहीं मान लेना चाहिये मीडिया समाज में सकारात्मकता के प्रसार का मूलाधार है. जिसे रवींद्र जी जैसे राष्ट्रीय स्तर के कलम कार विभिन्न विषयों के ज्ञाता और आशीष भाई जैसे कुशल प्रबंधक गति दे रहे हैं. 
       ड्रीमलैण्ड फ़नपार्क जबलपुर  में आयोजित कार्यक्रम का शुभारम्भ  सरस्वती प्रतिमा पूजन से हुआ  तदुपरांत अतिथियों एवम विभिन्न संस्थाओं से पधारे प्रतिनिधियों ने स्व०श्रीयुत हीरालाल गुप्त एवम मां सव्य-साची प्रमिला देवी बिल्लोरे के चित्रों पर पुष्पांजलि अर्पित की.
                  अतिथियों के स्वागत उपरांत विचार अभिव्यक्ति के क्रम में जादूगर एस के निगम ने पत्रकारिता के बदलते स्वरूप एवम गुप्त जी एवम उनकी समकालीन पत्रकारिता विषय पर विचार व्यक्त किये जबकि युवा ब्लागर एवम कवि गीतकार डा० विजय तिवारी किसलय ने 1997 से  प्रतिष्ठापूर्ण समारोह  के बारे में विस्तार से जानकारी दी.डा० किसलय का मत था कि  हम इस कार्यक्रम के ज़रिये संस्कारित सामाजिक चेतना में मीडिया की भूमिका को रेखांकित करणे की कोशिश करतें हैं जिसकी ज्योति  स्व० गुप्त जी जैसे कलमकारों ने अभावों से जूझते हुई जगाई थी. 
    

रविवार, दिसंबर 25, 2011

ओबामा के पुनर्निर्वाचन का तुरुप का पत्ता तेहरान के पास है :डैनियल पाइप्स ( हिन्दी अनुवाद - अमिताभ त्रिपाठी)


15 दिसम्बर को इराक में औपचारिक रूप से युद्ध की समाप्ति के पश्चात पडोसी ईरान 2012 के अमेरिकी राष्ट्रपतीय चुनाव में एक प्रमुख अनिश्चित तत्व हो गया है।
पहले सिंहावलोकन कर लें: 1980 में ईरान के मुल्लाओं को अमेरिकी राजनीति प्रभावित करने का अवसर पहले ही प्राप्त हो चुका है। तेहरान में अमेरिकी दूतावास को 444 दिनों तक बंधक बनाने से राष्ट्रपति जिमी कार्टर के पुनर्निर्वाचन के अभियान को गहरा धक्का लगा था इसके साथ ही कुछ अन्य घटनाक्रम के चलते जैसे बंधकों को छुडाने का असफल प्रयास और एबीसी चैनल द्वारा America Held Hostage कार्यक्रम के प्रसारण ने उनकी पराजय में योगदान किया। अयातोला खोमेनी ने कार्टर की सम्भावनाओं को धता दिया कि आश्चर्य ढंग से बंधकों को अक्टूबर में मुक्त करा लिया जाये और रही सही कसर तब पूरी कर दी जब रोनाल्ड रीगन के राष्ट्रपति पद की शपथ लेते समय ही इन बंधंकों को मुक्त कर दिया।
आज एक बार फिर ओबामा के पुनर्निर्वाचन में ईरान की दो प्रमुख भूमिका है एक तो इराक में बाधक की भूमिका या फिर अमेरिका के आक्रमण का शिकार बनना। आइये दोनों पर ही विचार करते हैं।
किसने इराक गँवाया? हालाँकि जार्ज डब्ल्यू बुश प्रशासन ने इराकी सरकार के साथ इस बात का समझौता किया था कि , " 31 दिसम्बर 2011 तक अमेरिका की सारी सेना इराकी राज्यक्षेत्र से बाहर चली जायेगी" ओबामा द्वारा यह निर्णय लेने से कि कोई भी पूरक सेना भी इराक में शेष नहीं रहेगी पूरी तरह से उनका निर्णय और उनका बोझ था। इससे उन पर जोखिम बढ गया है यदि 2012 तक इराक में स्थितियाँ बुरी होती हैं तो इसके लिये निंदा का पात्र बुश को नहीं उनको बनना होगा। दूसरे शब्दों में ईरान के शीर्ष मार्गदर्शक अली खोमेनी ओबामा का जीना दुश्वार कर सकते हैं।
खोमेनी के पास अनेक विकल्प हैं: वे उन अनेक इराकी नेताओं के ऊपर अपना दबाव बढा सकते हैं जो कि शिया इस्लामवादी हैं और ईरान समर्थक भाव रखते हैं और उनमें से कुछ तो ईरान में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उदाहरण के लिये प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी इस श्रेणी में पूरी तरह योग्य हैं। ईरान अपने देश की खुफिया सेवा के माध्यम से भी इराक की राजनीति को प्रभावित कर सकता है जिसमें कि उनका प्रवेश काफी हद तक हो भी चुका है। या फिर अब हजारों हजार की अमेरिकी सेना के इराक के उत्तरी सीमा से चले जाने के बाद वे अपनी मनमर्जी से इराक में सेना भेज कर किसी भी शरारतपूर्ण कृत्य में लिप्त हो सकते हैं। अंत में वे मुक्तदा अल सद्र जैसे अपने छ्द्म संगठनों को सहयोग कर सकते हैं या फिर आतंकवादी एजेंट को भेज सकते हैं।
1980 में ईरानियों ने बंधक बनाकर अमेरिका की राजनीतिक प्रकिया में हस्तक्षेप किया था अब 2012 में इराक उनके लिये अवसर प्रदान करता है। यदि ईरान के शासक 6 नवम्बर से पहले समस्या उत्पन्न करते हैं तो रिपब्लिकन प्रत्याशी " इराक को गँवाने" के लिये ओबामा को दोष देंगे। ओबामा द्वारा लम्बे समय से युद्ध का विरोध करना उनके लिये भारी पडेगा।( इसके विकल्प के तौर पर ईरानी अपना रुख बदल कर अपनी धमकी को चरितार्थ कर हारमुज के जलडमरूमध्य को रोक सकते हैं जिस जलमार्ग से विश्व का 17 प्रतिशत तेल जाता है और इस प्रकार वैश्विक आर्थिक अस्थिरता का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं).मुल्लाओं ने 1980 में कमजोर होते डेमोक्रेट को क्षतिग्रस्त किया था और वे इस बार भी ऐसा कर सकते हैं या फिर उन्हें यह लगे कि ओबामा उनकी रुचि के हैं और ऐसे किसी प्रयास से स्वयं को बचा लें। मुख्य बिंदु यह है कि सेना की वापसी ने उन्हें अतिरिक्त विकल्प दे दिया है। ओबामा को चुनावों के बाद तक सेना को रोकना चाहिये था ताकि बाद में वे आत्मविश्वास पूर्वक कह पाते कि " मैंने वह सब किया जो कर सकता था" । 
               ईरानी परमाणु पर बम गिराओ? प्रायः दो वर्ष पूर्व जबकि ओबामा के पास अमेरिकावासियों के मध्य लोकप्रियता +3 प्रतिशत थी तब भी मैंने सुझाव दिया था कि ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर अमेरिकी आक्रमण से ओबामा के कार्यकाल के निष्प्रभावी पहले वर्ष की यादें स्मृतिपटल से हट जायेंगी और घरेलू राजनीति का परिदृश्य बदल जायेगा जो कि उनके हित में रहेगा। एक ही कार्य के द्वारा वे अमेरिका को एक खतरनाक शत्रु से मुक्ति दिला सकते है और चुनावी प्रतिस्पर्धा को नया स्वरूप दे सकते हैं। " इससे स्वास्थ्य कल्याण का मुद्दा अलग चला जायेगा और रिपब्लिकन भी डेमोक्रेट के साथ कार्य करने को विवश होंगे, इससे सोशल मीडिया वाले राजनीतिक कार्यकर्ता भौचक रह जायेंगे, निर्दलीय पुनर्विचार को बाध्य होंगे और कंजर्वेटिव खुशी से पागल हो जायेंगे"। अब जबकि ओबामा कि लोकप्रियता ‌‌‌‌-4.4 प्रतिशत तक गिर गयी है और चुनावों में एक वर्ष से भी कम समय बचा है तो ईरान पर बम गिराने के उनके उपाय की महत्ता अधिक बढ गयी है और यह ऐसा बिंदु है जिसकी चर्चा सार्वजनिक रूप से अमेरिका के अनेक वर्ग के लोगों ने की है ( सराह पालिन, पैट बुचानन, डिक चेनी, रोन पाल, इलिओट अब्राम्स, जार्ज फ्रीडमैन, डेविड ब्रोडर, डोनाल्ड ट्र्म्प)। स्वास्थ्य कल्याण, रोजगार और ऋण का प्रस्ताव राष्ट्रपति के लिये अधिक सम्भावना लेकर नहीं आते , वामपंथ पूरी तरह निराश है और स्वतन्त्र मतों को अपनी ओर किया जा सकता है। वर्तमान स्थिति में प्रतिबंध और ड्रोन को लेकर चल रही मुठभेड केवल ध्यान बँटाने का कार्य है ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर 2012 के प्रथम चरण में आक्रमण की सम्भावना दिखती है और यह समय अमेरिका में चुनावों के निकट है यह तो स्वतः स्पष्ट है। निष्कर्ष यह है कि खोमेनी और ओबामा दोनों एक दूसरे के लिये समस्यायें खडी कर सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो ईरान और इराक राष्ट्रपति चुनाव में आवश्यकता से अधिक बडी भूमिका निभायेंगे और तीस वर्षों से अमेरिकी राजनीति के लिये एक समस्याग्रस्त शिशु की इनकी भूमिका जारी रहेगी।

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