28.12.11

मां ने कहा तो था .... शत्रुता का भाव जीवन को बोझिल कर देता है : मां यादों के झरोखे से

मां बीस बरस पहले 
मां निधन के एक बरस पहले 

यूं तो तीसरी हिंदी दर्ज़े तक पढ़ी थीं मेरी मां जिनको हम सब सव्यसाची कहते हैं क्यों कहा हमने उनको सव्यसाची क्या वे अर्जुन थीं.. कृष्ण ने उसे ही तो सव्यसाची कहा था..? न तो क्या वे धनुर्धारी थीं जो कि दाएं हाथ से भी धनुष चला सकतीं थीं..? न मां ये तो न थीं हमारी मां थीं सबसे अच्छी थीं मां हमारी..! जी जैसी सबकी मां सबसे अच्छी होतीं हैं कभी दूर देश से अपनी मां को याद किया तो गांव में बसी मां आपको सबसे अच्छी लगती है न हां ठीक उतनी ही सबसे अच्छी मां थीं .. हां सवाल जहां के तहां है हमने उनको सव्यसाची   क्यों कहा..!
तो याद कीजिये कृष्ण ने उस पवित्र अर्जुन को "सव्यसाची" तब कहा था जब उसने कहा -"प्रभू, इनमें मेरा शत्रु कोई नहीं कोई चाचा है.. कोई मामा है, कोई बाल सखा है सब किसी न किसी नाते से मेरे नातेदार हैं.."
यानी अर्जुन में तब अदभुत अपनत्व भाव हिलोरें ले रहा था..तब कृष्ण ने अर्जुन को सव्यसाची सम्बोधित कर गीता का उपदेश दिया.अर्जुन से मां  की तुलना नहीं करना चाहता कोई भी "मां" के आगे भगवान को भी महान नहीं मानता मैं भी नहीं "मां" तो मातृत्व का वो आध्यात्मिक भाव है जिसका प्राकट्य विश्व के किसी भी अवतार को ज्ञानियों के मानस में न हुआ था न ही हो सकता वो तो केवल "मां" ही महसूस करतीं हैं. 
          जी ये भाव मैने कई बार देखा मां के विचारों में "शत्रु विहीनता का भाव " एक बार एक क़रीबी नातेदार के द्वारा हम सबों को अपनी आदत के वशीभूत होकर अपमानित किया खूब नीचा दिखाया .. हम ने कहा -"मां,इस व्यक्ति के घर नजाएंगे कभी कुछ भी हो इससे नाता तोड़ लो " तब मां ने ही तो कहा था मां ने कहा तो था .... शत्रुता का भाव जीवन को बोझिल कर देता है ध्यान से देखो तुम तो कवि हो न शत्रुता में निर्माण की क्षमता कहां होती है. यह कह कर  मां मुस्कुरा दी थी तब जैसे प्रतिहिंसा क्या है उनको कोई ज्ञान न हो .मेरे विवाह के आमंत्रण को घर के देवाले को सौंपने के बाद सबसे पहले पिता जी को लेकर उसी निकटस्थ परिजन के घर गईं जिसने बहुधा हमारा अपमान किया करता और उस नातेदार मां के चरणों को पश्चाताप के अश्रुओं से पखारा. वो मां ही तो थीं जिसने  उस एक परिवार को सबसे पहले सामाजिक-सम्मान दिया जिन्हैं दहेज के आरोप  कारण जेल जाना पड़ा आज़ भी वे सव्यसाची के "सम्पृक्त भाव" की चर्चा करते नहीं अघाते .
                    जननी ने बहुत अभावों में आध्यात्मिक-भाव और सदाचार के पाठ हमको पढ़ाने में कोताही न बरती.
   हां मां तीसरी हिंदी पास थी संस्कृत हिन्दी की ज्ञात गुरु कृपा से हुईं अंग्रेजी भी तो जानती थी मां उसने दुनिया   खूब बांची थी. पर दुनिया से कोई दुराव न कभी मैने देखा नहीं मुझे अच्छी तरह याद है वो मेरे शायर मित्र  इरफ़ान झांस्वी से क़ुरान और इस्लाम पर खूब चर्चा करतीं थीं . उनकी मित्र प्रोफ़ेसर परवीन हक़  हो या कोई अनपढ़ जाहिल गंवार मजदूरिन मां सबको आदर देती थी ऐसा कई बार देखा कि मां ने धन-जाति-धर्म-वर्ग-ज्ञान-योग्यता आधारित वर्गीकरण को सिरे से नक़ारा  आज मां  यादों के झरोखे से झांखती यही सब तो कहती है हमसे ,... सच मां जो भगवान से भी बढ़कर होती है उसे देखो ध्यान से विश्व की हर मां को मेरा विनत प्रणाम 
आज मां की सातवीं बरसी थी हम बस याद करते रहे उनको और कोशिश करते रहे  उनके आध्यात्मिक भाव को समझने की.. 
आज़ बाल-निकेतन और नेत्रहीन कन्या विद्यालय में जाकर बच्चों से मिलकर फ़िर से मन पावन भावों को जगा गया सच शत्रुता निबाहने से ज़्यादा ज़रूरी काम हैं न हमारे पास चलें देखें किसी ऐसे समूह को जो अभावों के साथ जीवन जी रहा है 

मां.....!!
छाँह नीम की तेरा आँचल,
वाणी तेरी वेद ऋचाएँ।
सव्यसाची कैसे हम तुम बिन,
जीवन पथ को सहज बनाएँ।।


कोख में अपनी हमें बसाके,
तापस-सा सम्मान दिया।।
पीड़ा सह के जनम दिया- माँ,
साँसों का वरदान दिया।।
प्रसव-वेदना सहने वाली, कैसे तेरा कर्ज़ चुकाएँ।।

ममतामयी, त्याग की प्रतिमा-
ओ निर्माणी जीवन की।
तुम बिन किससे कहूँ व्यथा मैं-
अपने इस बेसुध मन की।।
माँ बिन कोई नहीं,
सक्षम है करुणा रस का ज्ञान कराएँ।
तीली-तीली जोड़ के तुमने
अक्षर जो सिखलाएँ थे।।
वो अक्षर भाषा में बदलें-
भाव ज्ञान बन छाए वे !!
तुम बिन माँ भावों ने सूनेपन के अर्थ बताए !!

                                       "इस वर्ष मां की स्मृति में आशीष शुक्ला को सव्यसाची अलंकरण दिया"

11 टिप्‍पणियां:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

वन्दे मातरम

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

एक-आध शब्द भाषा की अज्ञानता वश समझ नहीं आया लेकिन बहुत सुन्दर आलेख है. कुछ लाइन तो दिल को छू जाती हैं जैसे-तब मां ने ही तो कहा था मां ने कहा तो था .... शत्रुता का भाव जीवन को बोझिल कर देता है ध्यान से देखो तुम तो कवि हो न शत्रुता में निर्माण की क्षमता कहां होती है. यह कह कर मां मुस्कुरा दी थी. सच शत्रुता निबाहने से ज़्यादा ज़रूरी काम हैं न हमारे पास चलें देखें किसी ऐसे समूह को जो अभावों के साथ जीवन जी रहा है. वो मेरे शायर मित्र इरफ़ान झांस्वी से क़ुरान और इस्लाम पर खूब चर्चा करतीं थीं . उनकी मित्र प्रोफ़ेसर परवीन हक़ हो या कोई अनपढ़ जाहिल गंवार मजदूरिन मां सबको आदर देती थी ऐसा कई बार देखा कि मां ने धन-जाति-धर्म-वर्ग-ज्ञान-योग्यता आधारित वर्गीकरण को सिरे से नक़ारा आज मां यादों के झरोखे से झांखती यही सब तो कहती है हमसे ,... सच मां जो भगवान से भी बढ़कर होती है.

Udan Tashtari ने कहा…

अति सुन्दर भावनात्मक आलेख.....माँ की स्मृति को पुण्य नमन!!

अनुपमा पाठक ने कहा…

माँ की स्मृतियाँ आँखें नम कर गयी!
माँ की पुन्य स्मृतियों को आदरपूर्वक प्रणाम!

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

माँ की बराबरी कोई नहीं कर सकता.

Randhir Singh Suman ने कहा…

nice..............................

संगीता पुरी ने कहा…

माताजी को नमन ..
बहुत अच्‍छभ्‍ पोसट ..
हमलोग सौभाग्‍यशाली हैं ..
अभी तक मां के आंचल की छांव में हैं !!

वाणी गीत ने कहा…

माँ के वात्सल्य को स्मृतियों में सजाकर आपने उसे जीवित रखा है ...
उनके बारे में पढना बहुत अच्छा लगा ...
नमन !

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

Charan Sparsh maa ki yaado ko. Jahan Maa hoti wahan yaadon ke bhi charan hote hain. Sabki Maa aisa hi kahati aur chahati hain, bas han nasamajhh ham samajhh nahin paate hain. Girish bhai ka yea prayas aankhon ko gili kar gaya.

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

भाव विहल करती पोस्ट...
सादर...

शरद कोकास ने कहा…

हमे भी अपनी माँ की याद आ गई । माँ की स्मृति को शत शत प्रणाम ।

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