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रविवार, अगस्त 28, 2011

27.08 .2011 सारे भरम तोड़ती क्रांति के बाद

                     
शाम जब अन्ना जी को विलासराव देशमुख जी ने एक ख़त सौंपा तो लगा कि ये खत उन स्टुपिट कामनमे्न्स की ओर से अन्ना जी लिया था जो बरसों से सुबक और सुलग  रहा था.अपने दिल ओ दिमाग में  सुलगते सवालों के साथ. उन सवालों के साथ जो शायद कभी हल न होते किंतु एक करिश्माई आंदोलन जो अचानक उठा गोया सब कुछ तय शुदा था. गांधी के बाद अन्ना ने बता दिया कि अहिंसक होना कितना मायने रखता है. सारे भरम को तोड़ती इस क्रांति ने बता दिया दिया कि आम आदमी की आवाज़ को कम से कम हिंदुस्तान में तो दबाना सम्भव न था न हो सकेगा. क्या हैं वे भरम आईये गौर करें...
  1. मध्यम वर्ग एक आलसी आराम पसंद लोगों का समूह है :इस भ्रम में जीने वालों में न केवल सियासी बल्कि सामाजिक चिंतक, भी थे ..मीडिया के पुरोधा तत्वदर्शी यानी कुल मिला कर "सारा क्रीम" मध्य वर्ग की आलसी वृत्ति से कवच में छिपे रहने की  आदत से... परिचित सब बेखबर अलसाए थे और अंतस में पनप रही क्रांति ने  अपना नेतृत्व कर्ता चुन लिया. ठीक वैसे जैसे नदियां अपनी राह खुद खोजतीं हैं  
  2. क्रांति के लिये कोई आयकान भारत में है ही नहीं : कहा न भारत एक अनोखा देश है यहां वो होता है जो शायद ही कहीं होता हो .किस काम के लिये किस उपकरण की सहायता लेनी है भारतीय बेहतर जानते हैं.. इसके लिये हमारी वैचारिक विरासत की ताक़त को अनदेखा करती रही दुनियां कुछ लोग समझ रहे थे कहा भी तो था मेरे एक दोस्त ने  शुरु शुरु में कि "न्यूज़-चैनल्स का रीयलिटी शो" है. सब टी आर पी का चक्कर है. किसी ने कहा ये भी तो था :-"अन्ना की मांग एक भव्य नाट्य-स्क्रिप्ट है.."    
  3. भ्रष्टाचार की जड़ों पर प्रहार करना अब संभव नहीं : इस बारे में क्या कहूं आप खुद देख लीजिये हर बुराई का अंत है "भ्रष्टाचार"  अमरतत्व युक्त नहीं है. 
                                        

शुक्रवार, अगस्त 26, 2011

आ गया है खुद -खिलाफ़त की जुगत लगाने का वक़्त


आभार: तीसरा रास्ता ब्लाग 
ब्लाग स्वामी आनंद प्रधान
             नकारात्मकता  हमारे दिलो-दिमाग  पर कुछ इस क़दर हावी है कि हमें  दो ही तरह के व्यक्ति अपने इर्द-गिर्द नज़र आ रहे हैं. “अच्छे और बुरे” एक तो हम सिर्फ़ खुद को ही अच्छा मानते हैं. या उनको जो अच्छे वे जो हमारे लिये उपयोगी होकर हमारे लिये अच्छे हैं .              
1.  .  मैं हूं जो निहायत ईमानदार,चरित्रवान ऐसी सोच को दिलो दिमाग से परे कर   अब वक़्त  आ गया है कि हम खुद के खिलाफ़  एक जंग छेड़ दें. अपना  किसी के खिलाफ़ जंग छेड़ना ही महानता का सबूत नहीं है.
2.  दूसरे दुनियां के बाक़ी लोग. यानी अपने अलावा ये,वो, तुम जो अपने लिये न तो उपयोगी थे न ही उपयोगी होते सकते हैं और  न ही अपने नातों के खांचों  में कहीं फ़िट बैठते  वे  भ्रष्ट,अपराधी, गुणहीन, नि:कृष्ट पतित हैं. बस ऐसी सोच अगर दिलो दिमाग़ से हट जाए तो हम ख़ुद के खिलाफ़ लामबंद जाएंगे    
                 
 यानी बस अगर सही है  तो  ग़लत हैं हम    ..

          हमारा न तो औदार्य-पूर्ण-द्रष्टिकोणहै न ही हम समता के आकांक्षी ही हैं.
कारण कि हम ’सर-ओ-पा’ नैगेटिविटी से भरे हैं." 

                   एक दृश्य  पर गौर फ़रमाएं : "एक निहायत मासूम दीखता   एक छिद्रांवेशी सहकर्मी जो हर किसी के दोष निकालता है.बातों के जाल को मासूमियत से कुछ इस तरह बुनता है कि कोई भी उसका यक़ीन कर ले. किसी का भला उसको फ़ूटी आंख नहीं सुहाता. बस सत्ता के इर्दगिर्द घूमता उस कुत्ते की तरह जो मालिक के फ़ैंके मांस के टुकड़ों पर पल रहा वो यक़ीनन सफ़ल है. यही देश की वास्तविकता है. ऐसा नहीं है क़ि सिर्फ वही सहकर्मी दोषी है दोष तो उनका भी है  भी   है जो उसे पाल रहे हैं. दोष उनका  भी है जो उससे अपना काम निकलवा रहे हैं दोष उनका भी कम नहीं जो दूर से नज़ारा कर रहे  हैं "
               दूसरी स्थिति पर गौर फ़रमाएं : अक्सर लोग दूसरों से अकारण बैर पाला करतें हैं. एक व्यक्ति जो मुझे जानता ही नहीं वो मुझसे रार रखता है.. ऊंचा ओहदा है उसका वो जिसे यह मालूम नहीं कि मैं कौन हूं.. कैसा हूं.ऐसी स्थिति क्यों है.? .इस लिये कि अब हमने कानों से देखना शुरु कर दिया है. बस कानों से देखने की वज़ह से नक़ारात्मकता को बल मिलता है. 
                . तो क्या करें किसे सही मानें :- बस मानस में शुभ्रता जगाएं. उसी शुभ्रता के साथ रहें किसी आंदोलन की ज़रूरत न होगी न अन्ना हजारे जी उपवास करेंगे 
  1. पिता हैं न आप तो उन बच्चों के सुनहरे कल को गढ़ने : "घूस दें न घूस लें.. 
  2. अगर आप सच्चे  भारतीय युवा हैं तो  न पिता से अनावश्यक अपेक्षा न करें. अपना जीवन सादगी से सराबोर रखें. 
  3. अगर आप पत्नी हैं तो गहनों साड़ियों के लिये भावनात्मक रूप से आकृष्ट न हों 
  4. और अगर आप सच्चे भारतीय हैं तो बस सादगी से जियें अपना हरेक पल  

गुरुवार, अगस्त 25, 2011

जयप्रकाश जी अन्ना हज़ारे और मध्यम वर्ग


                         हमेशा की तरह एक बार फ़िर मध्यम वर्ग ने किसी हुंकार में हामी भरी और एक तस्वीर बदल देने की कवायद नज़र आने जगी. इस बात पर विचार करने के पूर्व दो बातों  पर विचार करना आवश्यक हो गया है कि


  1. जय प्रकाश जी के बाद पहली बार युवा जागरण में सफ़ल रहे..अन्ना हजारे ?
  2. क्या अन्ना के पास कोई फ़लसफ़ा नहीं है..?
                पहला सवाल पर मेरी तो बिलकुल हां  ही मानिये. अधिक या कम की बात मत कीजिये दौनों के पास जितनी भी जन-सहभागिता है उसकी तुलना गैर ज़रूरी ही है. आपातकाल के पूर्व जय प्रकाश जी  का आव्हान गांव गांव तक फ़ैला था. आज़ भी वही स्थिति है. तब तो संचार क्रांति भी न थी फ़िर.. फ़िर क्या क्या आज़ादी जैसी सफ़लता में किसी फ़ेसबुकिया पोस्ट की कोई भूमिका थी ? न नहीं थी तो क्या होता है कि एक आव्हान होता है और जनता खासकर  युवा उसके पीछे हो जाते हैं...? यहां उस आव्हान  के  विजन की ताक़त की सराहना करनी चाहिये. जो  सबको आकर्षित कर लेने की जो लोकनायक में थी. अन्ना में भी है परंतु विशिष्ठ जन मानते हैं कि लोकनायक के पास विचारधारा थी..जिसे सम्पूर्ण क्रांति कहा  जिसमें युवाओं को पास खींचने का गुण था. तो क्या अन्ना के पास नहीं है..?
      कुछ की  राय यह है कि "न, अन्ना के पास विचारधारा और  विजन  नहीं है बस है तो भीड़.जिसके पास आवाज़ है नारे हैं .!" ऐसा कहना किसी समूह विशेष की व्यक्तिगत राय हो सकती है सच तो ये है कि बिना विज़न के कोई किसी से जुड़ता नहीं . और अन्ना हज़ारे जी ने सम्पूर्ण क्रांति  को आकार  देने का ही तो काम किया है. तभी मध्यम वर्ग खिंचता चला आया है ..
            तो क्या अन्ना के पास कोई फ़लसफ़ा नहीं है..?
      जी नहीं, अन्ना की फ़िलासफ़ी साफ़ तौर पर भावात्मक बदलाव से प्रेरित है.. बस आप खुद सोचिये कि कल से क्यों न आज़ से ही संकल्प लें कि "अपना काम बनाने किसी भी गलत तरीके  का सहारा न लेंगे " 
           यानी सम्पूर्ण रूप से "व्यक्तिगत-परिष्कार" यही तो दर्शन की पहली झलक है.
    यहां मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ अन्ना की बात कर रहा हूं उनके सिपहसलारों की नहीं. पर हां एक बात से आपको अवश्य आगाह कर देना चाहता हूं कि व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन लाने के पूर्व सुरक्षा-उपकरणों का चिंतन ज़रूरी है वरना डेमोक्रेसी से हाथ न धोना पड़ जाए. पूरे आंदोलन को गौर से देखें तो आप पाएंगे अन्ना ने आपकी उकताहट को आवाज़ दी नारे दिये. आप जो मध्यम वर्ग हैं. आप जो परेशानी महसूस कर रहे हैं. आप जो असहज पा रहे थे खुद को आपको आपकी बात कहने वाला मिला तो आप उनके साथ हुए वरना आप भी आराम करते घरों में अपने अपने.. है न ..?
               मेरा अब साफ़ तौर पर कथन है कि :- "कहीं ऐसा न हो कि आप अन्ना के नाम पर किसी छद्म स्वार्थ को समर्थन दे दें." यानी किसी भी स्थिति में आंदोलन से जुड़ा आम आदमी खासकर मध्य-वर्ग किसी भी सियासती लाभ पाने की कोशिशों की आहट मिलते ही उतने ही मुखर हो जाएं जितने कि अभी हैं.. बस निशाना बदलेगा . आपने देखी सारी स्थियां मात्र सत्ता तक पहुंचने के लिये आप इस्तेमाल होते थे..     

बुधवार, अगस्त 24, 2011

डा० अमर कुमार को विनत श्रद्धांजलियां


          उनकी आवाज़ाही व्यस्तता की  विवषता और कमज़ोर स्वास्थ्य के बावज़ूद ब्लाग पे आना जाना जारी रखते थे.
          मिसफ़िट पर आना उनकी आदत में था ऐसा नहीं कि डाक्टर साब केवल फ़ालो किए ब्लाग पर ही जाते थे.. 
ब्लाग्स जो वे फ़ालो करते थे 

सास बहु 


अमर जी के लिये 
   मेरे मन की ब्लाग पर अर्चना चावजी , 

सोमवार, अगस्त 22, 2011

मैं अन्ना के आंदोलन की वैचारिक पृष्ट भूमि से प्रभावित हूं पर किसी फ़ंतासी का शिकार नहीं हूं.

साभार आई बी एन 7
 भ्रष्टाचार से ऊबी तरसी जनमेदनी को भारत के एक कोने से उठी आवाज़ का सहारा मिला वो थी अन्ना की आवाज़ जो एक समूह के साथ उभरी इस आवाज़ को "लगातार-चैनल्स यानी निजी खबरिया चैनल्स " जन जन तक पहुंचाया . न्यू मीडिया भी पीछे न था इस मामले में. अब जब यह आंदोलन एक विस्मयकारी मोड़ पर आ चुका है तब कुछ सवाल सालने लगे हैं. उस सवाल के पहले  तुषार गांधी की बात पर गौर करते हुए सोच रहें हैं कि अन्ना और बापू के अनशन में फ़र्क़ की पतासाज़ी की जाए. तुषार जी के कथन को न तो ग़लत कहा जा सकता और न ही पूरा सच . ग़लत इस वज़ह से नहीं कि.. अन्ना एक "भाववाचक-संज्ञा" से जूझने को कह रहें हैं. जबकि बापू ने समूह वाचक संज्ञा से जूझने को कहा था. हालांकि दौनों का एक लक्ष्य है "मुक्ति" मुक्ति जिसके लिये भारतीय आध्यात्मिक चिंतन एवम दर्शन  सदियों से प्रयासरत है . तुषार क्या कहना चाह रहें हैं इसे उनके इस कथन से समझना होगा :-"तुषार गांधी ने ये विचार अन्ना को दूसरा गांधी कहे जाने पर कही। उनसे पूछा गया कि क्या बापू आज होते तो क्या वो अन्ना का साथ देते। तब तुषार गांधी ने कहा कि महात्मा गांधी यहां तक स्थिति को पहुंचने ही नहीं देते ।क्योंकि वो बीमारी को जड़ पकड़ने से पहले ही खत्म कर देते थे। वो होते तो हालात इतने नहीं खराब होते जैसे कि आज हो गये हैं।
तुषार गांधी 
 इस पर तुरंत कुछ व्यक्त कर देना अनुचित है , अभी तो हर ओर से उभरते इस एक सवाल पर जवाब तलाशना है कि "क्या,लोकतंत्र के मायने बदलने लगे हैं..?"
ऐसे कई उदाहरण हैं जहां कोई भी अंतरात्मा की आवाज़ पर हाथ उठाने से क़तराता है.तो आज़ ये सवाल कैसा..?
    मैं ज़्यादा कुछ न कहूंगा बस एकाध पंचायती-मीटिंग में हो आइये सब समझ जाएंगें. आप.जी लोकतंत्र का मायना ही नहीं स्वरूप भी बदल रहा है. पर इस ओर किसी की निगाह है..? हां हम सब कर रहे हैं. आपका प्रतिप्रश्न होगा..  "पर कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे..?" इस तरह की विवषताओं की बेढ़ियों जकड़ा आम-आदमी उसके पीछे है जिसके हाथ में घंटी है और वो बिल्ली की तरफ़ भाग रहा है.इसी भागमभाग के बीच भय है कि आंदोलन के मूल्यों की रक्षा करना बहुत कठिन हो जाता है. डा०प्रशांत कौरव का मानना है कि:-"बहुत से लोग भी ग़लत हो सकतें हैं ज़रूरी नहीं कि सदैव सही ही हों.? " उनकी बात कसौटी पर खरी भी है. उदाहरण यदि आप उस एस एम एस पर जारी अन्ना के  निर्देश आपकी नज़र अवश्य गई होगी. मेरी नज़र में सांसद के निवास पर जहां सांसद व्यक्तिगत-स्वतंत्रता के साथ निवास रत है पर धरना देना किसी के लोकतांत्रिक अधिकार में बाधा का उदाहरण है.ऐसा तरीक़ा गांधियन नहीं इसके बज़ाए आग्रह युक्त ख़त सांसद को खत सौंपा जा सकता है .. अगर ऐसी घटनाएं होतीं रहेंगी तो तय है "तुषार गांधी" की बात की पुष्टि होती चली जाएगी. मुझे अन्ना ने आकर्षित किया है वे वाक़ई बहुत सटीक बात कह रहें हैं समय चाहता भी यही है.  भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिये समवेत होना सिखा दिया अन्ना ने. परिणाम जो भी हो पर आंदोलन कारियों से उम्मीद है कि  किसी के अधिकारों का अतिक्रमण न हो ऐसा मेरा मानना है.इस पर सत्य पर कोई भी तर्क अग्राह्य होना चाहिये. 
     आंदोलन का एक पहलू यह भी उभर के आ रहा है कि लोग "भ्रष्टाचार से निज़ात पाने खुद के भ्रष्ट आचरणों से निज़ात पाने के लिये कोई कसम नहीं ले रहें हैं." केवल संस्थागत भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार है ऐसा नहीं है. लोग स्वयम के सुख लिये जितना भ्रष्ट आचरण करतें हैं उस बात का चिंतन भी ज़रूरी है. जिसका इस आंदोलन में सर्वथा अभाव देखा जा रहा है.
        यानी दूसरे का भ्रष्ट आचरण रोको खुद पर मौन रहो . देखना होगा कितने लोग अपना पारिश्रमिक चैक से या नक़द लेते हैं मेरा संकेत साफ़ है मेरे एक आलेख में ऐसे व्यक्तित्व के बारे में मैं लिख चुका हूं. साथ ही ऐसे कितने लोग होंगे जिनने बिजली की चोरी की है, ऐसे कितने लोग हैं जो अपने संस्थान का इंटरनेट तथा स्टेशनरी  व्यक्तिगत कार्यों के लिये प्रयोग में लातें हैं. ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी आय छिपाते हैं. अन्ना जी सच ऐसे लोग आपकी भीड़ में हैं सबसे पहला काम व्यक्तिगत-आचरण में सुधार की बात सिखाना आपका प्राथमिक दायित्व है. यही मेरा सुझाव है ताकि मैं  अन्ना हूं  कह रहे लोग वाक़ई साफ़ सुथरे हों. और हां एक बात सबको भ्रष्ट मत कहो सब को भ्रष्ट कह देना उतना ही दु:खद है जितना कि भ्रष्टाचार के प्रति उदासीन होना . 
____________________________________
एक लेखक  के रूप में मेरी भावनाएं मैं पेश कर रहा हूं ताक़ि आपके संकल्प पूरे हों और हमारे सपने..!! मैं आंदोलन की वैचारिक पृष्ट भूमि से प्रभावित हूं पर किसी फ़ंतासी का शिकार नहीं हूं.  
अब बताएं आप किनके साथ है ?          

रविवार, अगस्त 21, 2011

आप किनके साथ है ?

 प्रस्तुत है एक कविता डॉ. हरिवंशराय बच्चन जी की ---

किरन बेदी को जिसने देश को एक नई दिशा दी


Find Kiran Online | Kiran Bedi जी आप चाहें तो किरन बेदी के ब्लाग का भ्रमण कर सकते हैं

Crane Bedi

एक ताक़त हैं इस युग का सबसे ज़रूरी व्यक्तित्व. वे अपने ब्लाग पर लिखतीं है :-
The moniker of "Crane Bedi" that I got during my stint with Delhi Traffic Police forms the essence of this blog. A crane removes obstacles-something I have tried to do all my life. Scores of people have urged me to share with them my experiences. Now, at the behest of my two daughters (yes, I have two, one is my godchild), I have decided to keep up with the times. This will serve as a platform to share, narrate and interact with you. "It's always possible"...even for a 57-year old to blog!
        
                               किरन बेदी को  जिसे देश को एक नई दिशा दी  


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