wednesday फ़िल्म को देखते ही अहसास हुआ एक कविता का एक क्रांति का एक सच का जो कभी भी साकार हो सकता है.अब इन वैतालों का अंत अगर व्यवस्था न कर सके तो ये होगा ही "अपनी पीठ पर लदे बैतालो को सब कुछ सच सच कौन बताएगा शायद हम सब .. तभी एक आमूल चूल परिवर्तन होगा... चीखने लगेगी संडा़ंध मारती व्यवस्था , हिल जाएंगी चूलें जो कसी हुईं हैं... नासमझ हाथों से . अब आप और क्या चाहतें हैं ?
अब भी हाथ पर हाथ रखकर घर में बैठ जाना. ..?