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अगस्त, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

स्व.श्री हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य: " अपनी-अपनी हैसियत "

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परसाई जी का दुर्लभ छाया चित्र फ़ोटो : स्व०शशिन यादव  हरिशंकर परसाई  ( २२ अगस्त ,  १९२२  -  १० अगस्त ,  १९९५ ) हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंग्यकार थे। उनका जन्म जमानी ,  होशंगाबाद ,  मध्य प्रदेश   में हुआ था। वे हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के – फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने – सामने खड़ा करती है , जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनॅतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन – मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान – सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा – शैली में खास किस्म का अपनापा है , जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है। ( साभार विकी )          परसाई जी की रचनावलियों

30.08.2011 : और टोपी पहना ही दी अन्ना जी ने

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ज़ीरो से हीरो तक सबके दिमाग में अन्ना इस क़दर हावी हैं कि कुछ लोग इस स्थिति को मास हिस्टीरिया कहने से परहेज़ नहीं कर रहें हैं. सबका अपना नज़रिया है आप और हम समय का इंतज़ार करते हैं . बहरहाल अभी तो एक चर्चा गर्म है "अन्ना की टोपी " अन्ना जी ने जिस दबंग तरीके से टोपियां पहनाईं है उसे देख कर दुनियां भर के सियासत दां सकते में आ गये. एक सज्जन के  बाल काटते हुए हज़्ज़ाम साब बोले :”अमां, इस बार आपके बडे़ नर्म हैं..? सज्जन बोले :-मियां,हम ने अन्ना को पहचाना और स्वेच्छा से पहन ली सो  हमारे सो बाल नर्म हुए हैं, उनके पूछो जिनके अन्ना ने जबरन पहनाई है जुबानें तक नर्म हो गईं.     यानी अन्ना ने सबको पहना दी..? "हओ, मियां कुछ ने स्वेच्छा से कुछ ने जबरिया "                अन्ना  आंदोलन के शुरु होने पर  एक सज्जन टोपी वाले की दूकान पे पहुंचे बोले..टोपी मिलेगी.  गांधी टोपी ? न अन्ना टोपी ? जे टोपी में क्या फ़रक है बाबू ? फ़रक है .. भाई गांधी की टोपी में कुछ लिखा पढ़ी नाय थी, अन्ना टोपी में "मैं अन्ना हूं" लिखा होए है भाई.. न, वो तो मेरे कने नहीं.. रात घर पहुंचा तो

27.08 .2011 सारे भरम तोड़ती क्रांति के बाद

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                      शाम जब अन्ना जी को विलासराव देशमुख जी ने एक ख़त सौंपा तो लगा कि ये खत उन स्टुपिट कामनमे् न्स की ओर से अन्ना जी लिया था जो बरसों से सुबक और सुलग  रहा था.अपने दिल ओ दिमाग में  सुलगते सवालों के साथ. उन सवालों के साथ जो शायद कभी हल न होते किंतु एक करिश्माई आंदोलन जो अचानक उठा गोया सब कुछ तय शुदा था. गांधी के बाद अन्ना ने बता दिया कि अहिंसक होना कितना मायने रखता है. सारे भरम को तोड़ती इस क्रांति ने बता दिया दिया कि आम आदमी की आवाज़ को कम से कम हिंदुस्तान में तो दबाना सम्भव न था न हो सकेगा. क्या हैं वे भरम आईये गौर करें... मध्यम वर्ग एक आलसी आराम पसंद लोगों का समूह है : इस भ्रम में जीने वालों में न केवल सियासी बल्कि सामाजिक चिंतक, भी थे ..मीडिया के पुरोधा तत्वदर्शी यानी कुल मिला कर "सारा क्रीम" मध्य वर्ग की आलसी वृत्ति से कवच में छिपे रहने की  आदत से... परिचित सब बेखबर अलसाए थे और अंतस में पनप रही क्रांति ने  अपना नेतृत्व कर्ता चुन लिया. ठीक वैसे जैसे नदियां अपनी राह खुद खोजतीं हैं   क्रांति के लिये कोई आयकान भारत में है ही नहीं : कहा न भारत एक अनोखा देश है

आ गया है खुद -खिलाफ़त की जुगत लगाने का वक़्त

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आभार: तीसरा रास्ता ब्लाग  ब्लाग स्वामी आनंद प्रधान               नकारात्मकता  हमारे दिलो-दिमाग  पर कुछ इस क़दर हावी है कि हमें  दो ही तरह के व्यक्ति  अ पने इर्द-गिर्द नज़र आ रहे हैं. “अच्छे और बुरे” एक तो हम सिर्फ़ खुद को ही अच्छा मानते हैं. या उनको जो अच्छे वे जो हमारे लिये उपयोगी होकर हमारे लिये अच्छे हैं .                1.   .     मैं हूं जो निहायत ईमानदार , चरित्रवान   ऐसी सोच को दिलो दिमाग से परे कर     अब वक़्त  आ गया है कि हम खुद के खिलाफ़  एक जंग छेड़ दें. अपना  किसी के खिलाफ़ जंग छेड़ना ही महानता का सबूत नहीं है . 2.   दूसरे दुनियां के बाक़ी लोग. यानी अपने अलावा ये,वो, तुम जो अपने लिये न तो उपयोगी थे न ही उपयोगी होते सकते हैं और  न ही अपने नातों के खांचों  में कहीं फ़िट बैठते  वे     भ्रष्ट , अपराधी ,   गुणहीन ,   नि:कृष्ट   पतित हैं. बस ऐसी सोच अगर दिलो दिमाग़ से हट जाए तो हम ख़ुद के खिलाफ़ लामबंद जाएंगे                         यानी बस अगर सही है     तो     ग़लत   हैं   हम     ..          “  हमारा न तो औदार्य-पूर्ण-द्रष्टिकोण ” है न ही हम समता के आका

जयप्रकाश जी अन्ना हज़ारे और मध्यम वर्ग

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                         हमेशा की तरह एक बार फ़िर मध्यम वर्ग ने किसी हुंकार में हामी भरी और एक तस्वीर बदल देने की कवायद नज़र आने जगी. इस बात पर विचार करने के पूर्व दो बातों  पर विचार करना आवश्यक हो गया है कि जय प्रकाश जी के बाद पहली बार युवा जागरण में सफ़ल रहे. .अन्ना हजारे ? क्या अन्ना के पास कोई फ़लसफ़ा नहीं है..?                  पहला सवाल पर मेरी तो बिलकुल हां  ही मानिये. अधिक या कम की बात मत कीजिये दौनों के पास जितनी भी जन-सहभागिता है उसकी तुलना गैर ज़रूरी ही है. आपातकाल के पूर्व   जय प्रकाश जी   का आव्हान गांव गांव तक फ़ैला था. आज़ भी वही स्थिति है. तब तो संचार क्रांति भी न थी फ़िर.. फ़िर क्या क्या आज़ादी जैसी सफ़लता में किसी फ़ेसबुकिया पोस्ट की कोई भूमिका थी ? न नहीं थी तो क्या होता है कि एक आव्हान होता है और जनता खासकर  युवा उसके पीछे हो जाते हैं... ? यहां उस आव्हान  के  विजन की ताक़त की सराहना करनी चाहिये. जो  सबको आकर्षित कर लेने की जो लोकनायक में थी. अन्ना में भी है परंतु विशिष्ठ जन मानते हैं कि लोकनायक के पास विचारधारा थी..जिसे  सम्पूर्ण क्रांति  कहा   जिसमें युवा

डा० अमर कुमार को विनत श्रद्धांजलियां

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कुछ तो है.....जो कि ! * वेबलाग पर...At Hindi Weblog .ब्ला.. ब्ला... ब्लाह.... अमर-हिन्दी शहीद 'बिस्मिल' की कहानी भूले बिसरे चँद दस्तावेज़ बस, यूँ ही निट्ठल्ला अचपन पचपन बचपन वेबलॉग पर मेरो पिकासो अलबम मेरो फ़ीड रीडर मेरा प्रोफ़ाइल AmarIndia1            उनकी आवाज़ाही व्यस्तता की   विवषता और कमज़ोर स्वास्थ्य के बावज़ूद ब्लाग पे आना जाना जारी रखते थे.           मिसफ़िट पर आना उनकी आदत में था  ऐसा नहीं कि डाक्टर साब केवल फ़ालो किए ब्लाग पर ही जाते थे..  ब्लाग्स जो वे फ़ालो करते थे  "प्रेम ही सत्य है" Blogger in Draft Hindi 2.0 | हिन्दी २.० My Unveil Emotions Panchayatnama Pretty woman TaDaKAA Where shadow chases light !!! अपनी हिंदी - Free Hindi Books, Novels, Stories, Sahitya, Literature, eBooks, Kahani, PDF Book एक आलसी का चिठ्ठा कुछ एहसास कुछ तो है.....जो कि ! * कुश की कलम क्वचिदन्यतोSपि... पल भर प्राइमरी का मास्टर फुरसतिया ब्लॉगवुड यूँ ही निट्ठल्ला.. लफत्तू लेखनी जब फुर्सत पाती है... वेबलाग पर...At Hindi Weblog शब्दों का सफर शिवकुमार मि