31.8.11

स्व.श्री हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य: " अपनी-अपनी हैसियत "


परसाई जी का दुर्लभ छाया चित्र
फ़ोटो : स्व०शशिन यादव 

हरिशंकर परसाई (२२ अगस्त१९२२ - १० अगस्त१९९५) हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंग्यकार थे। उनका जन्म जमानीहोशंगाबादमध्य प्रदेश में हुआ था। वे हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्केफुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमनेसामने खड़ा करती है, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनॅतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवनमूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञानसम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषाशैली में खास किस्म का अपनापा है, जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है। (साभार विकी) 
       परसाई जी की रचनावलियों को टेक्स्ट में आपने देखा किंतु ब्लाग की सहस्वामिनी एवम पाडकास्टर अर्चना चावजी नें इसका पाडकास्ट  तैयार कर प्रस्तुत किया है.मित्रो परसाई जी के शहर जबलपुर में    उनकी अनुमति के बगै़र उनकी सेव की गई पोस्ट में टेक्स्ट-कंटैंट्स डाल रहा हूं.. आशा है वे नाराज़ न होंगी..  
                                                                                                                  गिरीश मुकुल 
 सुनिये हरिशंकर परसाई जी का लिखा एक व्यंग्य
 -अपनी-अपनी हैसियत 
 

 इसे सुनिये ब्लागप्रहरी पर भी "इधर" अर्चना जी की आवाज़ में
 कुछ व्यंग्य परसाई जी के जो हम इधर से लाएं हैं परसाई जी की चुनिंदा व्यंग्य रचनाएं


30.8.11

30.08.2011 : और टोपी पहना ही दी अन्ना जी ने

ज़ीरो से हीरो तक सबके दिमाग में अन्ना इस क़दर हावी हैं कि कुछ लोग इस स्थिति को मास हिस्टीरिया कहने से परहेज़ नहीं कर रहें हैं. सबका अपना नज़रिया है आप और हम समय का इंतज़ार करते हैं . बहरहाल अभी तो एक चर्चा गर्म है "अन्ना की टोपी " अन्ना जी ने जिस दबंग तरीके से टोपियां पहनाईं है उसे देख कर दुनियां भर के सियासत दां सकते में आ गये. एक सज्जन के  बाल काटते हुए हज़्ज़ाम साब बोले :”अमां, इस बार आपके बडे़ नर्म हैं..?
सज्जन बोले :-मियां,हम ने अन्ना को पहचाना और स्वेच्छा से पहन ली सो  हमारे सो बाल नर्म हुए हैं, उनके पूछो जिनके अन्ना ने जबरन पहनाई है जुबानें तक नर्म हो गईं. 
   यानी अन्ना ने सबको पहना दी..?
"हओ, मियां कुछ ने स्वेच्छा से कुछ ने जबरिया "
               अन्ना  आंदोलन के शुरु होने पर  एक सज्जन टोपी वाले की दूकान पे पहुंचे बोले..टोपी मिलेगी. 
गांधी टोपी ?
न अन्ना टोपी ?
जे टोपी में क्या फ़रक है बाबू ?
फ़रक है .. भाई गांधी की टोपी में कुछ लिखा पढ़ी नाय थी, अन्ना टोपी में "मैं अन्ना हूं" लिखा होए है भाई..
न, वो तो मेरे कने नहीं..
रात घर पहुंचा तो उसने बीवी को वाक़या बताया:"सुन फ़ूला, आज़ एक ग्राहक अन्ना टोपी मांग रिया था "
 "तुम भी कुएं के मैंढक हो , अरे टी वी देखो सब जान जाओगे .. "
 राम लीला मैदान में "मैं अन्ना हूं" लिखी टोपियां ही टोपियां नज़र आई. बस फ़िर क्या था.. टोपी-वाले नें झट अन्ना-टोपी का आर्डर दे मारा . अगली दोपहर तक दूकान पे अन्ना टोपी उपलब्ध है का बोर्ड तक टंग गया. 
       टोपी की कीमत मुंह मांगी हो गई किसी को चालीस  की तो किसी साठ की दर से टोपी थमाता दूकानदार नें लछ्मी-गनेश के पहले "अन्ना-केजरीवाल-किरन" वाले पोस्टर के समक्ष अगरबत्ती जलाना शुरु कर दिया.  
  अन्ना की कृपा से भाई की दूकान पर अब सम्पूर्ण अन्ना-सामग्री उपलब्ध होने का बोर्ड नज़र आने लगा है. 
   मेरे मित्र सलिल समाधिया चेला वह दुकानदार सलिल जी से मिला चरण स्पर्श किये और बोला "गुरु, अगला आंदोलन कब करवा रहें हैं अन्ना..?"
      क्यों..?
  गुरु टोपी झण्डे बच गये हैं.. कुछ टी शर्ट भी.. गनीमत कि मैं टी शर्ट कम लाया था.. 
   वात्सल्य भरी निगाह से शिष्य की ओर अपलक निहारते समाधिया जी  दार्शनिक भाव से  बोल पड़े:-"प्रिय, किसी का नुकसान नहीं किया अन्ना जी ने.. तुम्हारा कैसे होगा.. वत्स प्रतीक्षा करो..?"

28.8.11

27.08 .2011 सारे भरम तोड़ती क्रांति के बाद

                     
शाम जब अन्ना जी को विलासराव देशमुख जी ने एक ख़त सौंपा तो लगा कि ये खत उन स्टुपिट कामनमे्न्स की ओर से अन्ना जी लिया था जो बरसों से सुबक और सुलग  रहा था.अपने दिल ओ दिमाग में  सुलगते सवालों के साथ. उन सवालों के साथ जो शायद कभी हल न होते किंतु एक करिश्माई आंदोलन जो अचानक उठा गोया सब कुछ तय शुदा था. गांधी के बाद अन्ना ने बता दिया कि अहिंसक होना कितना मायने रखता है. सारे भरम को तोड़ती इस क्रांति ने बता दिया दिया कि आम आदमी की आवाज़ को कम से कम हिंदुस्तान में तो दबाना सम्भव न था न हो सकेगा. क्या हैं वे भरम आईये गौर करें...
  1. मध्यम वर्ग एक आलसी आराम पसंद लोगों का समूह है :इस भ्रम में जीने वालों में न केवल सियासी बल्कि सामाजिक चिंतक, भी थे ..मीडिया के पुरोधा तत्वदर्शी यानी कुल मिला कर "सारा क्रीम" मध्य वर्ग की आलसी वृत्ति से कवच में छिपे रहने की  आदत से... परिचित सब बेखबर अलसाए थे और अंतस में पनप रही क्रांति ने  अपना नेतृत्व कर्ता चुन लिया. ठीक वैसे जैसे नदियां अपनी राह खुद खोजतीं हैं  
  2. क्रांति के लिये कोई आयकान भारत में है ही नहीं : कहा न भारत एक अनोखा देश है यहां वो होता है जो शायद ही कहीं होता हो .किस काम के लिये किस उपकरण की सहायता लेनी है भारतीय बेहतर जानते हैं.. इसके लिये हमारी वैचारिक विरासत की ताक़त को अनदेखा करती रही दुनियां कुछ लोग समझ रहे थे कहा भी तो था मेरे एक दोस्त ने  शुरु शुरु में कि "न्यूज़-चैनल्स का रीयलिटी शो" है. सब टी आर पी का चक्कर है. किसी ने कहा ये भी तो था :-"अन्ना की मांग एक भव्य नाट्य-स्क्रिप्ट है.."    
  3. भ्रष्टाचार की जड़ों पर प्रहार करना अब संभव नहीं : इस बारे में क्या कहूं आप खुद देख लीजिये हर बुराई का अंत है "भ्रष्टाचार"  अमरतत्व युक्त नहीं है. 
                                        

26.8.11

आ गया है खुद -खिलाफ़त की जुगत लगाने का वक़्त


आभार: तीसरा रास्ता ब्लाग 
ब्लाग स्वामी आनंद प्रधान
             नकारात्मकता  हमारे दिलो-दिमाग  पर कुछ इस क़दर हावी है कि हमें  दो ही तरह के व्यक्ति अपने इर्द-गिर्द नज़र आ रहे हैं. “अच्छे और बुरे” एक तो हम सिर्फ़ खुद को ही अच्छा मानते हैं. या उनको जो अच्छे वे जो हमारे लिये उपयोगी होकर हमारे लिये अच्छे हैं .              
1.  .  मैं हूं जो निहायत ईमानदार,चरित्रवान ऐसी सोच को दिलो दिमाग से परे कर   अब वक़्त  आ गया है कि हम खुद के खिलाफ़  एक जंग छेड़ दें. अपना  किसी के खिलाफ़ जंग छेड़ना ही महानता का सबूत नहीं है.
2.  दूसरे दुनियां के बाक़ी लोग. यानी अपने अलावा ये,वो, तुम जो अपने लिये न तो उपयोगी थे न ही उपयोगी होते सकते हैं और  न ही अपने नातों के खांचों  में कहीं फ़िट बैठते  वे  भ्रष्ट,अपराधी, गुणहीन, नि:कृष्ट पतित हैं. बस ऐसी सोच अगर दिलो दिमाग़ से हट जाए तो हम ख़ुद के खिलाफ़ लामबंद जाएंगे    
                 
 यानी बस अगर सही है  तो  ग़लत हैं हम    ..

          हमारा न तो औदार्य-पूर्ण-द्रष्टिकोणहै न ही हम समता के आकांक्षी ही हैं.
कारण कि हम ’सर-ओ-पा’ नैगेटिविटी से भरे हैं." 

                   एक दृश्य  पर गौर फ़रमाएं : "एक निहायत मासूम दीखता   एक छिद्रांवेशी सहकर्मी जो हर किसी के दोष निकालता है.बातों के जाल को मासूमियत से कुछ इस तरह बुनता है कि कोई भी उसका यक़ीन कर ले. किसी का भला उसको फ़ूटी आंख नहीं सुहाता. बस सत्ता के इर्दगिर्द घूमता उस कुत्ते की तरह जो मालिक के फ़ैंके मांस के टुकड़ों पर पल रहा वो यक़ीनन सफ़ल है. यही देश की वास्तविकता है. ऐसा नहीं है क़ि सिर्फ वही सहकर्मी दोषी है दोष तो उनका भी है  भी   है जो उसे पाल रहे हैं. दोष उनका  भी है जो उससे अपना काम निकलवा रहे हैं दोष उनका भी कम नहीं जो दूर से नज़ारा कर रहे  हैं "
               दूसरी स्थिति पर गौर फ़रमाएं : अक्सर लोग दूसरों से अकारण बैर पाला करतें हैं. एक व्यक्ति जो मुझे जानता ही नहीं वो मुझसे रार रखता है.. ऊंचा ओहदा है उसका वो जिसे यह मालूम नहीं कि मैं कौन हूं.. कैसा हूं.ऐसी स्थिति क्यों है.? .इस लिये कि अब हमने कानों से देखना शुरु कर दिया है. बस कानों से देखने की वज़ह से नक़ारात्मकता को बल मिलता है. 
                . तो क्या करें किसे सही मानें :- बस मानस में शुभ्रता जगाएं. उसी शुभ्रता के साथ रहें किसी आंदोलन की ज़रूरत न होगी न अन्ना हजारे जी उपवास करेंगे 
  1. पिता हैं न आप तो उन बच्चों के सुनहरे कल को गढ़ने : "घूस दें न घूस लें.. 
  2. अगर आप सच्चे  भारतीय युवा हैं तो  न पिता से अनावश्यक अपेक्षा न करें. अपना जीवन सादगी से सराबोर रखें. 
  3. अगर आप पत्नी हैं तो गहनों साड़ियों के लिये भावनात्मक रूप से आकृष्ट न हों 
  4. और अगर आप सच्चे भारतीय हैं तो बस सादगी से जियें अपना हरेक पल  

25.8.11

जयप्रकाश जी अन्ना हज़ारे और मध्यम वर्ग


                         हमेशा की तरह एक बार फ़िर मध्यम वर्ग ने किसी हुंकार में हामी भरी और एक तस्वीर बदल देने की कवायद नज़र आने जगी. इस बात पर विचार करने के पूर्व दो बातों  पर विचार करना आवश्यक हो गया है कि


  1. जय प्रकाश जी के बाद पहली बार युवा जागरण में सफ़ल रहे..अन्ना हजारे ?
  2. क्या अन्ना के पास कोई फ़लसफ़ा नहीं है..?
                पहला सवाल पर मेरी तो बिलकुल हां  ही मानिये. अधिक या कम की बात मत कीजिये दौनों के पास जितनी भी जन-सहभागिता है उसकी तुलना गैर ज़रूरी ही है. आपातकाल के पूर्व जय प्रकाश जी  का आव्हान गांव गांव तक फ़ैला था. आज़ भी वही स्थिति है. तब तो संचार क्रांति भी न थी फ़िर.. फ़िर क्या क्या आज़ादी जैसी सफ़लता में किसी फ़ेसबुकिया पोस्ट की कोई भूमिका थी ? न नहीं थी तो क्या होता है कि एक आव्हान होता है और जनता खासकर  युवा उसके पीछे हो जाते हैं...? यहां उस आव्हान  के  विजन की ताक़त की सराहना करनी चाहिये. जो  सबको आकर्षित कर लेने की जो लोकनायक में थी. अन्ना में भी है परंतु विशिष्ठ जन मानते हैं कि लोकनायक के पास विचारधारा थी..जिसे सम्पूर्ण क्रांति कहा  जिसमें युवाओं को पास खींचने का गुण था. तो क्या अन्ना के पास नहीं है..?
      कुछ की  राय यह है कि "न, अन्ना के पास विचारधारा और  विजन  नहीं है बस है तो भीड़.जिसके पास आवाज़ है नारे हैं .!" ऐसा कहना किसी समूह विशेष की व्यक्तिगत राय हो सकती है सच तो ये है कि बिना विज़न के कोई किसी से जुड़ता नहीं . और अन्ना हज़ारे जी ने सम्पूर्ण क्रांति  को आकार  देने का ही तो काम किया है. तभी मध्यम वर्ग खिंचता चला आया है ..
            तो क्या अन्ना के पास कोई फ़लसफ़ा नहीं है..?
      जी नहीं, अन्ना की फ़िलासफ़ी साफ़ तौर पर भावात्मक बदलाव से प्रेरित है.. बस आप खुद सोचिये कि कल से क्यों न आज़ से ही संकल्प लें कि "अपना काम बनाने किसी भी गलत तरीके  का सहारा न लेंगे " 
           यानी सम्पूर्ण रूप से "व्यक्तिगत-परिष्कार" यही तो दर्शन की पहली झलक है.
    यहां मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ अन्ना की बात कर रहा हूं उनके सिपहसलारों की नहीं. पर हां एक बात से आपको अवश्य आगाह कर देना चाहता हूं कि व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन लाने के पूर्व सुरक्षा-उपकरणों का चिंतन ज़रूरी है वरना डेमोक्रेसी से हाथ न धोना पड़ जाए. पूरे आंदोलन को गौर से देखें तो आप पाएंगे अन्ना ने आपकी उकताहट को आवाज़ दी नारे दिये. आप जो मध्यम वर्ग हैं. आप जो परेशानी महसूस कर रहे हैं. आप जो असहज पा रहे थे खुद को आपको आपकी बात कहने वाला मिला तो आप उनके साथ हुए वरना आप भी आराम करते घरों में अपने अपने.. है न ..?
               मेरा अब साफ़ तौर पर कथन है कि :- "कहीं ऐसा न हो कि आप अन्ना के नाम पर किसी छद्म स्वार्थ को समर्थन दे दें." यानी किसी भी स्थिति में आंदोलन से जुड़ा आम आदमी खासकर मध्य-वर्ग किसी भी सियासती लाभ पाने की कोशिशों की आहट मिलते ही उतने ही मुखर हो जाएं जितने कि अभी हैं.. बस निशाना बदलेगा . आपने देखी सारी स्थियां मात्र सत्ता तक पहुंचने के लिये आप इस्तेमाल होते थे..     

24.8.11

डा० अमर कुमार को विनत श्रद्धांजलियां


          उनकी आवाज़ाही व्यस्तता की  विवषता और कमज़ोर स्वास्थ्य के बावज़ूद ब्लाग पे आना जाना जारी रखते थे.
          मिसफ़िट पर आना उनकी आदत में था ऐसा नहीं कि डाक्टर साब केवल फ़ालो किए ब्लाग पर ही जाते थे.. 
ब्लाग्स जो वे फ़ालो करते थे 

सास बहु 


अमर जी के लिये 
   मेरे मन की ब्लाग पर अर्चना चावजी , 

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...