साभार: रायटोक्रेट कुमारेंद्र जी के ब्लाग से |
19.12.11
ब्लाग क्यों बांचें भई ?
17.12.11
अन्ना गए नेपथ्य में आज तो दिन भर वीना मलिक को तलाशते रहे लोग !!
खबरों ने इन्सान की सोच का अपहरण कर लिया वीना मलिक का खो जाना सबसे हाट खबर खबरिया चैनल्स के ज़रिये समाचार मिलते ही बेहद परेशान लोग "आसन्न-स्वयम्बर" के लिये चिंतित हो गये. एक खबर जीवी प्राणी कटिंग सैलून पे बोलता सुना गया:-"बताओ, कहां चली गई वीना ?"
भाई इतना टेंस था जैसे वीना मलिक के क़रीबी रिश्तेदार हों. जो भी हो एक बात निकल कर सामने आई ही गई कि "मीडिया जो चाहता है वही सोचतें हैं लोग...!"
आप इस बात से सहमत हों या न हों मेरा सरोकार था इस बात को सामने लाना कि हमारे आम जीवन की ज़रूरी बातौं से अधिक अगर हम जो कुछ भी सोच रहें हैं वो तय करता है मीडिया..? ये मेरी व्यक्तिगत राय है. रहा बीना मलिक की गुमशुदगी का सवाल वो एक आम घटना है जो किसी भी मिडिल-क्लास शहर, कस्बे, गांव में घट जाती है वीना मलिक जैसी कितनी महिलाएं ऐसी अज्ञात गुमशुदगी का शिक़ार गाहे बगाहे हो ही जाती हैं. आप को याद भी न होगा अक्टूबर माह में अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी कामेंग जिले के सेपा में कामेंग नदी पर बने पुल के ढह जाने के बाद 25 लोग लापता हो गए थे. मेरे हिसाब से हम असामान्य घटनाओं के लिये उतने सम्वेदन-शील हैं ही नहीं जितना कि वीना मलिक को लेकर हैं. यानी हम वही सोच रहे हैं जितना अखबार अथवा खबरिया चैनल्स सोचने को कहते हैं.
हाल ही अन्ना जी,सिब्बल जी, चिदम्बरम जी, को लेकर प्रकाशित एवम प्रसारित हो रहीं खबरों में लोग खोये ज़रूर किंतु शायद ही किसी ने खबरों को एक स्वस्थ्य-नज़रिये से देखा समझा हो. (यहां हम उन आम लोगों की बात कर रहे हैं जिनका ओहदा केवल; एक आम आदमी का है जो क्रिटिक/जानकार/विषेशज्ञ नहीं हैं) लोग अपमे अपने सतही तर्क के साथ व्यवस्था के विद्रोही हो जाते हैं बेशक व्यवस्था में कमियां हैं पर क्या केवल वही सही है जो दिखाया पढ़ाया जा रहा है..? क़दापि नहीं एक मित्र की राय थी कि-”बेशक़,लोकपाल पास कर दिया जा सकता है..? सी बी आई को शामिल किया जावे इसमें !"
दूसरा मित्र बोला -"जांच कर्ता एजेन्सी के रूप में एक नई एजेन्सी बना दी जानी चाहिये..?"
पहला मित्र:-"सी.बी.आई. क्यों नहीं ? "
आम आदमी के पास केवल एक दिमाग है जो खुद नहीं बल्कि इर्द-गिर्द का वातावरण उसको सोचने को मज़बूर कर देता है क्या वो खुद किसी बिंदू पर सोचता है मेरे हिसाब से शायद नहीं ..
16.12.11
एक बार फ़िर आओ कबीर
दिशा हीन क्रांतियां, क्रांतियों में भ्रांतियां.. एक अदद क़बीर की ज़रूरत है.कबीर जो क्रांतियों को एक दिशा देगा कबीर जो बिगड़ते आज को सजा देगा हां उसी क़बीर की जिसने राम रहीम का तमीज़ सिखाया बेशक़ उसी कबीर की बात कर रहा हूं जो अहर्निश चिंतन करघे से बुनता रहा सम्वेदनाओं आसनी.और चदरिया . जी हां उसी क़बीर की प्रतीक्षा है.
कबीर मुझे सुनो मेरी चादर तार तार है.. आसनी उफ़्फ़ क़बीरा वो तो बैठने लायक न रही. जिसे देखो कोई मेरी चादर कोई मेरी आसनी खैंच रहा है अबकी ऐसी बुन देना कि अमर हो जाए.. मैं मर जांऊं पर न आसनी फ़टे न चादर झीनी हो. क्या सम्भव है ये..?
आओ जुलाहे एक बार आ ही जाओं सब राम रहीम सब को भूल गये इनके राम को ये भूल गए उनके उनको याद दिलाओ कबीर कि "राम रहीमा बंदूक बम तलवार में नहीं बसते "
कुछ मूरख "अल्ला" की हिफ़ाज़त करने निकले हैं बन्दूकें हाथ लिये क़बीर तुम भी हंसोगे इन मूर्खों की करतूतों पे ये मूरख नहीं जानते परमपिता को कोई मार सका है..? न ये मनके मनके फ़ेर न पाए अब तक बस दिये जा रहे हैं बांग और पिता तो...!और हां कुछ मूरख तो राम को बचाने सायुध निकले राम जो अंतस की ज्योति है..उस.राम के बिना ये न जीवन था न है...और न ही रहेगा .पर कौन समझाए कैसे समझाए तुम वही राह बताने आ जाओ क़बीर .
14.12.11
जी रहे हैं हम सिग्मेंट में
पृथ्वीराज चौहान |
खबरची-ज़नाब, हिंदुस्तानी राजा की फ़ौज में खाना चल रहा
किस तरह खाना खा रहे हैं..?
गुस्ताख़ी माफ़ हो हुज़ूर...! आम इंसान जैसे
फ़िर से जाओ.. गौर से देखो..
खबरची फ़िर गया.. और फ़िर अबकी बार वो बता पाया कि सैनिक अपने अपने ओहदों के हिसाब से खेमों में भोजन कर रहे हैं..
खाने के लिये बिछे दस्तरख़ान पर गोरी ने उस खबरी को अपने क़रीब बैठाया सभी ने बिस्मिल्लाह की खाते खाते गोरी तेज़ आवाज़ में बोला-’दोस्तो, इस बात को मैं पहले से ही जानता हूं. ये लोग खा-पी एक साथ नहीं रहे हैं.. इनको हराना उतना मुश्कि़ल नही है. तभी तो मैं बार बार कहता हूं हम ज़रूर जीतेगें.. हुआ भी यही.
यही है आज़ का सच ! आज़ भी हम हमेशा हार जाते हैं,एक नहीं हैं न..?
हममें ऐसा भारत पल रहा है जो हमने खुद अपने लिये बनाया है. ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों के अपने अपने भारत हैं, हिंदी वाला,मराठी वाला, गुजराती वाला, मद्रास वाला, जाने कितने भारत बना लिये इतने तो महाभारत में भी न थे. तभी तो कसाब-अफ़ज़ल हमारे आंसुओं पर हंसते हैं. हम हैं कि उस सिग्मेंट का मुंह ताक रहे जिसे हम नज़र ही नहीं आते..
काश राम लीला मैदान से एक चौथाई हिस्से में ही सही एक बार तो हम अफ़ज़ल के अंत के लिये जमा हो जाते.. किंतु होते कैसे हम जो जी रहे हैं सिग्मैंट में..!!
12.12.11
अपनों के प्रति 'क्रूर ज्ञानरंजन - मनोहर बिल्लौरे
ज्ञान जी पचहत्तर साल के हो गये। एक ऐसा कथाकार जिसने कहानी के अध्याय में एक नया पाठ जोड़ा। अपना गुस्सा ज्ञान जी ने किस तरह अपनी कहानियों में उकेरा है। पढ़ने-लिखने वाले सब जानते हैं। उसके समीक्षक उसमें खूबियाँ-खमियाँ तलाशेंगे। उत्साह की बात यह है कि आज भी वे पूरे जवान हैं और स्फूर्त भी. उनके साथ सुबह की सैर करने में कभी-हल्की सी दौड़ लगाने जैसा अनुभव होता है। वे अब भी मतवाले हैं जैसे कालेज दिनों में जैसे बुद्धि-भान विधार्थी रहते हैं। साहित्य, समाज, संस्कृति - यदि साहित्य को छोड़ दिया जाये तो अन्य सभी कलाओं के लिये उन्होंने क्या किया, यह बखान करने की बहुत आवश्यकता मु्झे अभी इस समय नहीं लगती. यह काम कोर्इ लेख या कोइ एक किताब कर पाये यह संभव भी नहीं। बीते 75 सालों में बचपन और किशोरावस्था को छोड़ दिया जाये (किशोर को कैसे छोड़ दें वह तो उनकी एक कहानी में जीवित मौजूद है - समीक्षकों-आलोचकों ने उसे 'अतियथार्थ कहा है...) तो - उन्होंने 'सच्चे संस्कृति-कर्मी और - धर्मी भी - के जरिये जो कुछ किया उसका बहुत सारा अभी भी छुपा हुआ है, ओट से झांक कर भी जाना नहीं जा सका है - क्योंकि वह इस तरह पैक्ड और सील किया हुआ है और उनकी और उनके चाहने वालों की निज़ी मज़बूत तहखाने की तिजोरियों में तालाबंद है जो उनके और षायद सुनयना जी के? अलावा कोर्इ नहीं जानता, पाशा और बुलबुल भी नहीं। उनके चाहने वाले अनेक साथियों के पाास उनके साथ बिताये गये समयों की ढेरों यादें, संस्मरण और किस्से हैं - जो धीरे-भीरे बाहर आयेगा। बहुत सीमित ही उन तहखानों से निकलकर बाहर आया है और उन्होंने ही उनकी निज़ी और सार्वजनिक जिन्दगी के बारे में बहुत सी बातें प्रकाशित की हैं। अभी 'श्रेष्ठतम और सर्वोत्तम और पर्फ़ेक्शन से भरा-पूरा अभी, आज तक बाकी है. कब रहस्य खुलेंगे? कहा नहीं जा सकता। वे लगातार सचेत, जागृत और सक्रिय और चेतन रहे थे, हैं, और रहेंगे ऐसा हमारा विश्वास कहता है। चेतना की जो तरंगमय लहरे उनकी वाणी और देह-भाषा से प्रकाशित होती हैं, वे प्रेरणा को उदग्र करती हैं, गहरा बनाती हैं और प्रगति का वितान रचती हैं। उनके साथ इस षहर में मैंने लगभग 25 से 30 साल का यह अर्सा गुजारा है। लेखन में बचपन से जवान हुआ हूँ। जब उनसे दूर होता हूँ या रहता हूँ एक दमकदार इन्द्रधनुषी हासिये में वे मुझे जब तब दिखार्इ देते रहते हंै। चूँकि, उन्होंने ताजिन्दगी ऐसे ही लागों की वकालत की है - जो वंचित किये गये हैं और हैं, और जबरन किये जा रहे हैं। मैं और मुझ जैसे अनगिनत लोग उनकी रचना और संरचना का पाठ पहली कक्षा से पढ़ रहे हैं और उस ज्ञान (जानकारियाँ नहीं) से लगातार ऊर्जा पाकर समृद्ध हुए और होते रहेंगे। यह सिलसिला मुसलसल जारी है और रहेगा, रुकने वाला नहीं। इसी विष्वास के साथ जबलपुर में उनका पचहत्तरवां जन्म-दिन पाशा और बुलबुल की तरफ से हो रहा है। हम सब ने इस दिन (21नवंबर) को मनाने के लिये उनकी स्वीकृति पाने के लिये बड़ी मशक्क़त की है। आयोजन में डिनर के अलावा और क्या-क्या होगा कहा नहीं जा सकता। इस बात की ख़बर सबको लग चुकी है. जिनको नहीं लगी है उनका रिष्ता ज्ञानरंजन से गहरा नहीं है. हम उनका सानिध्य पाते रहे हैं और लम्बे समय तक पाते रहेंगे यह विष्वास हमारा बहुत प्रबल और साथ ही दृढ़ भी है, सपने-में-भी। अभी पांच, छह, और सात नवंबर 11 को इन्दौर में एक विशेष जैविक-कला-प्रदर्शनी के दौरान भी यह तत्थ सबके सामने खुलकर उजागर हुआ. उस दौरान प्रदर्शनी में उन्होंने स्वयं बार-बार कुर्सियों सहित कर्इ चीजों को व्यवसिथत किया और करने के लिये हमें निर्देषित दिया; हम में से कुछ ने इस मौके पर भी उनकी प्यार से भरीपूरी डाँट और फटकार सुनी और उनकी पीठ पीछे मजा लिया. उनके बारे में देर तक गहरी और आत्मीय बातचीत की। उन्हें थोड़ा भी अवैज्ञानिक होने पर गुस्सा आ जाता है, अपनों के प्रति गुस्से में भी उनकी बाडी-लेंग्वेज आत्मीय होती है। आयोजनों की तैयारी या समापन के दौरान वे अचानक और एकाएक एक लय में अपने थैले को कंधे पर लटकाते हैं, उसे थोड़ा सा ऊपर की ओर झटका सा देकर और किन्हीं अपनों को अगल-बगल लगाकर चाय, काफी या नाष्ता कराने ले जाते हैं - जो भूखा है उसे तुरंत खाने-पीने भेज देते हैं या साथ लेकर जाते हैं, जो उन्हें थका सा दिखा उसे वापस ठिये पर लौटकर आराम के लिये मज़बूर कर देते हैं - चेताते हुए - 'कि अब यहाँ दिखना नहीं... यह कहते हुए उनके दाहिना हाथ की मुटठी बंधती है और तर्जनी सीधी होकर दो-तीन बार तेज़ी से आगे-पीछे होती है, फिर वे वहाँ रुकते नहीं हैं तेजी से अपनी मस्त चाल से में किसी कंधे पर हाथ टिका अपनी खास लय से चल देते हैं।उनके साथ सुबह की सैर करते समय मैंने इस लय को पकड़ा। क्या यह एक निरंतर विचार की लय नहीं जिस पर जिस पर शरीर ताल देता हैै?पहल-सम्मानों और दूसरे आयोजनों मैं उनके बायें हाथ में सिगरेट का पैकेट होता था, जब कार्यक्रम अपनी गर्मजोषी में रहता था तब वे बाहर कष लगाते हुए सामने और आजू-बाजू वाले को डिब्बी बढ़ा देते थे, पर कर्इ सालों से उन्हें सिगरेट पीते हुए नहीं देखा। यह है उनके 'विल-पावर का एक कमाल. कमालों की कमी नहीं उनके खज़ाने में।अपने आसपास पर उनकी दृष्टि हमेशा गहरी बनी रहती है। उनके पढ़ने की स्पीड बहुत तेज है। यदि उनके कायदे से कोर्इ बाहर जाता है तो वह टीम से भी बाहर हो जाता है।इंदौर में प्रदर्शनी के दौरान चारेक लोगों के बीच बैठे अचानक तर्जनी साधी कर बोले - ''मैं अपनों के प्रति बहुत क्रूर हूँ।
यह बात तो हम सब बहुत पहले से ही जानते और अनुभव करते रहे हैं - प्रेम में भरी क्रूरता या इसके उलट, क्रूरता में भरा प्रेम - ज्ञान जी एक पूर्ण मनुष्य की परिभाषा रचते हैं. अपने किसी साथी की तकलीफ वे गहरार्इ से महसूस कर, संभवता से बढ़कर उसकी मदद करते हैं. यह बात उनसे जुड़े सभी लोगों को पता है। पिता, माँ, भार्इ, दोस्त, प्रेमिका, और स्वजन, तथा पड़ोस के प्रति कू्ररता से सराबोर उनकी कहानियाँ भी पढ़ने वाले सभी पाठक भी उनके इस गुस्से से परिचित हैं। यह सिलसिला केवल कहानियों भर में नहीं है उनके पूरे प्रकट जीवन में है, जो बहुत साफ, स्पष्ट और पारदर्शी है। कोर्इ उनकी डांट से बच नहीं सकता. इस डांट और तथाकथित कू्ररता में अपनत्व और स्नेह-प्रेम से सराबोर दिल और दिमाग है, जो अपने साथी की हर एक गतिविधि को माइक्रोस्कोपिक दृषिट से देखता-परखता है और तदनुसार व्यवहार करता है। यहाँ बस इतना ही, आगे फिर कभी और।
अंत में इतना और जोड़ना चाहूँगा कि -हम उनका सानिध्य पाते रहें हैं और आजीवन पाते रहेंगे यह विष्वास हमारा बहुत प्रबल, गहरा और साथ ही दृढ़ भी है, सपने-में-भी।
मनोहर बिल्लौरे,
1225, जेपीनगर, अधारताल,
जबलपुर 482004 (म.प्र.)
मोबा. - 89821 75385
11.12.11
9.12.11
कापी पेस्ट फ़्रोम नुक्कड़ : आल द बेस्ट
राष्ट्रीय सेमिनार लाइव... डेटलाइन- कल्याण (मुम्बई) भाग-II
अविनाश वाचस्पति ON FRIDAY, DECEMBER 09, 2011
मुबई में हिन्दी चिट्ठाकारों ने नहीं मचाया धमाल : खूब गंभीरता से विमर्श हुआ
अविनाश वाचस्पति ON FRIDAY, DECEMBER 09, 2011
आज हम मुम्बई पहुँच गये हैं। यह ब्लॉगरी जो न जगह दिखाए। जी हाँ, हम ब्लॉगरी की डोर पकड़कर अपने घर से करीब डेढ़ हजार किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के ठाणे जिले के कल्याण इलाके में एक महाविद्यालय में अपने ब्लॉगर मित्रों के साथ कुछ खास चर्चा के लिए इकठ्ठा हो गये हैं। किस-किसका जुटान हो चुका है यह बाद में। उद्घाटन सत्र शुरू होने जा रहा है। उसके पहले पहली पूरा पढ़ने और टिप्पणी...
अविनाश वाचस्पति ON THURSDAY, DECEMBER 08, 2011 | 27 COMMENTSदेश-विदेश के हिन्दी चिट्ठाकारों का मुंबई में जमावड़ा :क्या आप भी इसमें दिखाई दे रहे हैं
मुंबई चिट्ठाकारों से समृद्ध होती जा रही है एक संगोष्ठी आज हुई अनीता कुमार जी के महाविद्यालय में दूसरी हो रही है या हो रही है पुस्तक विमोचित कार्य सभी उचित वैसे तो जुट गए हैं चिट्ठाकार खाने में और पीने में भी पियक्कड़ चिट्ठाकारों को पहचानिए। बाकी को भी जानिए अभी तो चित्रों की लीजिए बानगी कल जीवंत प्रसारण होगा आते हैं हम अभी आप संभल जाइये यहां...
चिट्ठा क्या है विचारों की आग की तपन को मानस तक पहुंचाने का तंदूर जिससे न तो देश दूर है और न विदेश। प्रत्येक नेक तन मन के आसपास है जिसका बसेरा। ऐसा नूतन है सवेरा जो प्रात:काल की सूर्य की ऊर्जा प्रदायी किरणों के तौर पर मन में उतरता है और बस जाता है। चिट्ठा कौन बना सकता है प्रत्येक जीवधारी या निर्जीव भी चिट्ठे पर सक्रिय रह सकता है। निर्जीव की सक्रियता के लिए क्रिया...
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मेरे बारे में
- बाल भवन जबलपुर
- जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में। शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर
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