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रविवार, जनवरी 27, 2013

अक़्ल हर चीज़ को, इक ज़ुर्म बना देती है !


बापू आसाराम के बाद समाज शास्त्री  आशीष नंदी भाई सा के विचारों के आते ही खलबली मचती देख भाई कल्लू पेलवान को न जाने क्या हुआ  बोलने लगा : सरकार भी गज़ब है कई बार बोला कि भई मूं पे टेक्स लगा दो सुनतई नहीं.. 
हमने पूछा :- कहां बोला तुमने कल्लू भाई
कल्लू     :- पिछले हफ़्ते मिनिस्टर साब का पी.ए. मिला था, मुन्नापान भंडार में ..उनई को बोला रहा. कसम से बड़े भाई हम सही बोलते हैं. हैं न ?
            कल्लू को मालूम है कि काम किधर से कराना है कई लोग इत्ता भी नहीं जानते. कल्लू की बात सरकार तलक पहुंच गई होती तो पक्क़े में वक़्तव्यों के ज़रिये राजकोष में अकूत बढ़ोत्तरी होती. 
          इस विषय पर हमने कल्लू से बात होने के बाद  रिसर्च की तो पता चला पर्यावरण में वायु के साथ "वक्तव्य वायरस" का संक्रमण विस्तार ले रहा है.   आजकल बड़े बड़े लोग "वक्तव्य वायरस" की वज़ह से बकनू-बाय नामक बीमारी के शिक़ार हो रहे हैं.  इस बीमारी के  शिकार मीडिया के अत्यंत करीब रहने वाले सभा समारोह में भीड़ को देख कर आपा खोने वाले, खबरीले चैनल के कैमरों से घिरे व्यक्ति होते हैं. इस बीमारी के  रोगी को आप रोज़िन्ना देख सकते हैं. अखबार जिन खबरों में इन्वर्टेड कामा लगा कर  वर्ज़न लगाया करते हैं उन वर्ज़नों से आप रोगी को पहचान सकते हैं. यानी वर्ज़न से आप रोगी को पहचान सकते हैं. ऐसा नहीं है कि केवल वर्ज़न के ज़रिये बीमार पहचाने जाते हैं एक सा’ब ट्वीटर पर पहचाने गये थे, कुछ फ़ेसबुक पे, कुछेक प्रेस कांफ़्रेंस करके खुद को  बीमार होने की जानकारी  देते हैं . 
            दरअसल बीमार के सामने  माइक, कैमेरा, संवाददाता टाईप के लोग जब सामने आते हैं तो बीमारी इस कारण उभर आती है क्योंकि वे समझने लगते हैं कि उनके वक्तव्य से देश की स्थिति में सुधार आएगा. बस फ़िर क्या दिमाग से तेज़ जुबान चल पड़ती है. अब आशीष नंदी भाई सा को ही लीजिये बोलना कुछ था बोल कुछ गये. उनने सोचा भी न होगा कि फ़िसली ज़ुबां से बबंडर ऊगेगा. 
 नंदी जी बेचारे बहुत भोले और भले मानुष हैं.. क्या करें वे भूल गये कि आतंक और करप्शन दौनों ही ”गुणातीत’ है. इनको जाति,धर्म,वर्ग,सम्प्रदाय से जोड़ के देखना केवल एक नज़रिया हो सकता है न कि सचाई. 

        जन सामान्य में बीमारों की तलाश की गरज़ से  हमने एक हथकंडा अपनाया. हम अपने साथ एक कैमरामैन मित्र उमेश राठौर को लेकर एक पान की दूकान पे पंहुचे .  पहुंचते ही हमने अपने कैमराधारी मित्र को कुछ फ़ोटू उतारने की हिदायत दी. आस पास के लोग हमें पत्रकार समझ बैठे तत्काल हमसे सरकार और व्यवस्था के खिलाफ़ खासतौर पे नगर निगम के खिलाफ़ खुलकर बोले. इतना खुलकर कि खुद को याद न रहा कि क्या क्या बोले.  बार बार पिच्च से पान-तम्बाखू की पीक सड़क पे थूकते हुए श्रीमान जी का गंदगी पे   का भाषण तब तक जारी रहा जब तक कि हमने ये न पूछा कि-"भाई सा’ब, जे जो आप पीक थूके हैं इसे भी नगर निगम साफ़ नहीं कर पाएगी क्या..?" सवाल से भाई का मुंह मनमोहन साहब की तरह बंद हो गया. 
 बकनू-बाय नामक बीमारी लाइलाज़ बीमारी है. इस पर इलाज के लिये  रिसर्च के लिये सरकार को धन खर्चना चाहिये तब तक कल्लू भाई की सलाह मान कर मूं पर टेक्स की व्यवस्था इसी बज़ट में कर ली जाए तो अच्छा होगा. 
                            वैसे तो सारे विश्व में इस बीमारी का विस्तार देखा जा सकता है किंतु यह बीमारी भारतीय उपमहाद्वीप क्षेत्र में महामारी की तरह फ़ैली है. अब अच्छे भले  मिमियाते डायलाग डिलेवरी करते बेचारे शाहरुख की सार्वजनिक ज़िंदगी में पड़ोसी पाक़ ने ज़हर घोलने की नापाक़ हरक़त कर डाली. 
                 इस बीमारी के गम्भीर परिणाम होते हैं जो सारे समाज पर गहरा असर डालते हैं. इस बीमारी से वक़्तव्य वीरों को पनपने का अवसर मिलता है. वे भी कुकरमुत्तों की मानिंद ऊग आतें हैं. ऐसे मौकों पे गली गली आपको नुक्कड़ वार्ताओं से गर्मागर्म उष्माएं निकलते नज़र आएंगी. जो न बोला उसे जबलपुरिया भाषा में ” पुर्रा ” घोषित किया जाता है. बातों बातों में फ़सादों की सम्भावना बढ़ जाती है. कई आलमाईटी साहबान यानी डी.एम. साहब लोग आपत बैठकें आहूत कर निगरानी कराते हैं कि प्रतिक्रिया स्वरूप कोई बेज़ा हरक़त न कर दे और क़ानून व्यवस्था तार तार न हो जाए. 
         सारी बीमारी की जड़ है लोगों का अत्यधिक अक्ल वाला होना 
     अदम गोंडवी साहब बेहद  सटीक बात कही है 
            अक़्ल हर चीज़ को, इक ज़ुर्म बना देती है
             बेसबब सोचना, बे-सूद पशीमा होना ..!

   
       
           

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