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अप्रैल, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दास्ताने-दफ़्तर : भाड़ में जाये संगठन तेल लेने जाये विकास हम तो ....!!

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    हो सकता है कि किसी के दिल में चोट लगे शायद कोई नाराज़ भी हो जाए इसे पढ़कर ये भी सम्भव है कि एकाध समझेगा मेरी बात को.वैसे मुझे मालूम है अधिसंख्यक लोग मुझसे असहमत हैं रहें आएं मुझे अब इस बात की परवाह कदाचित नहीं है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का सही वक्त पर सटीक स्तेमाल  कर रहा हूं.                         बड़े उत्साह और उमंग से किसी एक महकमें या संस्थान में तैनात हुआ युवा  जब वहां ऊलज़लूल वातावरण देखता है तो सन्न रह जाता है सहकर्मियों के कांईंयापन को देख कर .. नया नया कर्मी बेशक एक साफ़ पन्ने की तरह होता है जब वो संगठन में आता है लेकिन मौज़ूदा हालात उसे व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बना देते हैं.   एक स्थिति जो अक्सर देखी जा सकती है नव प्रवेशी पर कुछ सहकर्मी अनाधिकृत रूप उस पर डोरे डालते हैं अपनापे  का  नकली शहद चटाते हुए उसे अपनी गिरफ़्त में लेने की कोशिश भी करते हैं. वहीं "बास-द्रोही" तत्व उसे अपने घेरे में शामिल करने की भरसक कोशिश में लगा होता है. मै ऐसे लोगों को संस्थान/आफ़िस/संगठन दीमक कहना पसंद करूंगा.. जो ऐसा कर सबसे पहले "संगठन" के व

लाल फ़ीतों में बांध के लपेट के चलो या कि टोपी के नीचे समेटते चलो....

लाल फ़ीतों में बांध के लपेट के चलो या कि टोपी के नीचे समेटते चलो.... देश मज़बूर है आपके सामने.. जैसे भी चाहो जीभर रगेदते चलो...!!                                  ********* आपकी बेबसी आपकी बेरुखी देश का हाल क्या आप जानोगे कब...! कुर्सियों के लिये उफ़्फ़ ये ज़द्दो-ज़हद  - घर है दुश्मन का घर में मानोगे कब ? पांव के नीचे बोलो कहां है ज़मी.. ! उड़ने वालो ज़मीनों को देखते चलो !!                                  ********* बोलने की इज़ाज़त  जो  मिली आपको , बोलते बोलते बीते पांचों बरस , जाने किसके मुसाहिब हैं शोहदे यहां..! नन्हे बच्चों पे भी न जो खाते तरस ! कुछ ने आके जलाई है बस्ती मेरी, आके   तुम भी    यहां  रोटी   सेकते चलो !!                                   *********                                   *********

आज पोर्न स्टार हमारे स्टार हैं ....आईकान हैं ? : श्रीमति नीतूसिंह (वाराणसी.)

                  वाराणसी की श्रीमति नीतू वर्तमान परिस्थितियों पर  प्रकाश डालते हुए सेक्स-अपराधों को सीधे सीधे पिछले दशकों में हुए बेतरतीब बदलावों से जोड़तीं हैं. वर्तमान में तो महेश भट्ट जैसे विवादित निर्माता निर्देशक ने हदें पार करते हुए पोर्न-स्टार को जो हाइप दी है उससे साबित हो गया है कि यौन-विकृतियों एवम उससे जनित अपराधों के उत्प्रेरण का रास्ता सिल्वर-स्क्रीन की ओर से जाता है.  अंतरजाल, सेलफ़ोन, समाचारों को पेश करने का तरीक़ा, उन्मुक्तता की भीषण चाह, ये सब बीमारी की जड़ हैं.. लगाम लगे तो कहां नीतू सिंह ने अपने आलेख में साफ़ कर दिया है .. यौन अपराधों के खिलाफ़ वाक़ई सरकार और पुलिसिया रवैये के लिये मोमबत्ती जलूसों के साथ साथ समाज के आंतरिक पर्यावरण की शुचिता ज़रूरी है. सीता के आदर्श कैरेक्टर को प्रतिस्थापित करता है युवा वर्ग कुछ इस तरह- “हा हा, अरे वो न वो तो बस पूरी सीता मैया बनी रहती है” ये संवाद लड़कियां अपनी उस सखी के लिये स्तेमाल करतीं हैं जो सदाचारी हो. कभी आपने गौर किया कि आपके बच्चों के आदर्श कौन हैं.. कहीं...? * गिरीश “मुकुल”

तुम्हारी तापसी आंखों के बारे में कहूं क्या ? अभी तक ताप से उसके मैं उबरा नहीं हूं....!!

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छायाकार वत्सल चावजी तुम्हारी तापसी आंखों के बारे में कहूं क्या ? अभी तक ताप से उसके मैं उबरा नहीं हूं ....!! समन्दर सी अतल गहराई वाली नीली आंखों ने निमंत्रित किया है मुझको सदा ही डूब जाने को , डूबता जा रहा हूं कोई तिनका भी   नहीं   मिलता .... अगर मन चाहे जो   साहिल पे   लौट   आने को !       तुम ही ने तो बुलाया है कहो क्या दोष है मेरा       समंदर में प्रिये मैं खुद - ब़ - खुद उतरा नहीं हूं ..!! तुम्हारे रूप का संदल महकता मेरे सपनों में हुआ रुसवा बहुत , जब भी बैठा जाके अपनों में किसी ने “ ये ” कहा और कोई कहके “ वो ” मुस्काया   मैं पागल हो गया हूं कहते सुना नुक्कड़ के मज़मों में .      यूं अनदेखा न कर कि जी न पाऊंगा अब आगे -       नज़र मत फ़ेर मुझसे “ गया औ ’ गुज़रा ” नहीं हूं मैं !!

आई.ए.एस. मनोज श्रीवास्तव : संवेदित हस्ताक्षर

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 प्रवासी-भारतीय वेब पत्रिका पर मनोज श्रीवास्तव जी पर एक आलेख देखा अच्छे कार्य की सदा सराहना और अच्छे व्यक्तित्व की सदा चर्चा आवश्यक है.. ऐसा मेरा मानना है. अस्तु मिसफ़िट पर सामग्री प्रकाशित करते हुए अच्छा लग रहा है...... आभार प्रवासी-भारतीय का                                       एक कुशल प्रशासक की बुद्धि तथा एक दक्ष साहित्यकार जैसे ह्दय के संयुक्त रूप का नाम है मनोज कुमार श्रीवास्तव। इन्होंने एम.ए हिन्दी साहित्य में उपाधि प्राप्तकर भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस) में 1987 में आए। इससे पूर्व सहायक प्राध्यापक एवं सहायक आयुक्त , आयकर विभाग , मुंबई के रूप में अपना अवदान शिक्षा और राष्ट्र को देते रहे। आई.ए.एस बनने के बाद में एस.डी.ओ. अतिरिक्त कलेक्टर , प्रशासक , कलेक्टर , आई. जी. पंजीयन एवं मुद्रांक , चेयरमैन प्रबंध निदेशक , विद्युत वितरण कंपनी , पूर्वी क्षेत्र , मध्यप्रदेश , आयुक्त , भू-अभिलेख , आयुक्त , आबकारी , सदस्य , राजस्व   मंडल , सचिव , संस्कृति , न्यासी सचिव , भारत भवन , आयुक्त एवं सचिव जनसंपर्क , आयुक्त , भोपाल एवं नर्मदापुरम संभाग जैसे दायित्वों को सफलता एवं समर्पण के सा

कुछ समझ नहीं आता, शहर है कि सहरा है.. कहने वाला गूंगा है, सुनने वाला बहरा है..!!

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समूचे भारत को हालिया खबरों ने एक अजीब सी स्थिति में डाल दिया.कल से दिल-ओ-दिमाग पर एक अज़ीब सी सनसनी तारी है.कलम उठाए नहीं ऊठ रही  नि:शब्द हूं.. !      जब भी लिखने बैठता हूं सोचता हूं क्यों लिखूं मेरे लिखने का असर होगा. मेरे ज़ेहन में बचपन से चस्पा पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी  जी बार बार आते हैं और मैं उनसे पूछता हूं-"गुरु जी, क्यों  लिखूं " कई दिनों से ये सवाल उनसे पूछता पर वे कभी कुछ  न बताते . हम साहित्यकारों के अपने अपने वर्चुअल-विश्व होते है. बेशक  जब हम लिखते हैं तो टाल्स्टाय से लेकर शहर के किसी भी साहित्यकार से वार्ता कर लेते हैं.. जिनकी किताबें हम पढ़ चुके होते हैं. अथवा आभासी  संसार को देखते हैं तीसरा पक्ष बन कर हां बिलकुल उस तीक्ष्ण-दर्शी चील की तरह उस  आभासी  संसार  ऊपर उड़ते हुये . रात तो हमारे लिये रोज़िन्ना अनोखे मौके लाती है लिखने लिखाने के . पर बैचेनी थी कि पिछले तीन दिन हो गये एक हर्फ़ न लिखा गया.. न तो दिल्ली पर न सिवनी  (मध्य-प्रदेश) पर ही. क्या फ़र्क पड़ेगा मेरे लिखने से  सो  पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी   जी  आज़ जब हमने पूछ ही लिया :- गुरु जी, क्यों  लिखू

जिसकी बीवी मोटी उसका ही बड़ा नाम हैं...: भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

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भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी श्री भूपेंद्र सिंह द्वारा संप्रेषित आलेख प्रकाशित है.. आप अपनी टिप्पणी भेजने  भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी  पर क्लिक कीजिये अथवा मेल कीजिये bhupendra.rainbownews@gmail.com ______________________________________ महिला सशक्तीकरण को लेकर महिलाएँ भले ही न चिन्तित हों, लेकिन पुरूषों का ध्यान इस तरफ कुछ ज्यादा होने लगा है। जिसे मैं अच्छी तरह महसूस करता हूँ। मुझे देश-दुनिया की अधिक जानकारी तो नहीं है, कि ‘वुमेन इम्पावरमेन्ट’ को लेकर कौन-कौन से मुल्क और उसके वासिन्दे ‘कम्पेन’ चला रहे हैं, फिर भी मुझे अपने परिवार की हालत देखकर प्रतीत होने लगा है कि अ बवह दिन कत्तई दूर नहीं जब महिलाएँ सशक्त हो जाएँ।  मेरे अपने परिवार की महिलाएँ हर मामले में सशक्त हैं। मसलन बुजुर्ग सदस्यों की अनदेखी करना, अपना-पराया का ज्ञान रखना इनके नेचर में शामिल है। साथ ही दिन-रात जब भी जागती हैं पौष्टिक आहार लेते हुए सेहत विकास हेतु मुँह में हमेशा सुखे ‘मावा’ डालकर भैंस की तरह जुगाली करती रहती हैं। नतीजतन इन घरेलू महिलाओं (गृहणियों/हाउस लेडीज) की सेहत दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बनने लगी है फिर भ

हिडिम्ब : क्लासिक आख्यानों की सभी खूबियों से परिपूर्ण एक दुर्लभ उपन्यास

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श्री एस.आर.हरनोट  का उपन्यास हिडिम्ब पर्वतांचल के एक भूखण्ड, वहां की श्री एस.आर.हरनोट एथनिक संस्कृति और उसकी समकालीन सामाजिक वस्तुस्थिति को रेखांकित करता एक ऐसा यथार्थपरक आख्यान है जो देहात के उत्पीडि़त आदमी की जैवी कथा और उसके समग्र परिवेश का एक सही लोखाचित्र के फ्रेम में प्रस्तुत करता है। भाषा और भाव के स्तर पर उलटफेर से गुरेज़ करता हुआ, किन्तु पहाड़ी देहात के ज्वलंत जातीय प्रश्नों को उनकी पूरी पूरी तफ़सीलों के साथ उकेरता हुआ। कहानी यों चलती है जैसे कोई सिनेमेटोग्राफ हो। लेखक खुद भी एक क्रिएटिव छायाकार है इसलिए सम्भवत: उसने हिडिम्ब की कहानी को एक छाया चित्रकार की तरह ही प्रस्तुत किया है। अपने गद्य को सजीव लैण्डस्केपों में बदलता हुआ। इस प्रकार के कथा शिल्प में पहली बार यह महसूस हुआ कि यथार्थ के मूल तत्व को उसमे किस तरह महफूज रखा जा सकता है। ऐसा गल्पित और कल्पित यथार्थ एक साथ अर्थमय भी है और अपने परिप्रेक्ष्य में भव्य भी। उपन्यासकार ने सबसे पहले अपने पाठक को मूल कथा-चरित्रों का परिचय दिया है। इस तरह के परिचय अक्सर पुराने क्लासिक उपन्यासों में देखे जा सकते हैं। हिडिम्ब में ऐसी