वाराणसी की श्रीमति नीतू
वर्तमान परिस्थितियों पर प्रकाश डालते
हुए सेक्स-अपराधों को सीधे सीधे पिछले दशकों में हुए बेतरतीब बदलावों से जोड़तीं
हैं. वर्तमान में तो महेश भट्ट जैसे विवादित निर्माता निर्देशक ने हदें पार करते
हुए पोर्न-स्टार को जो हाइप दी है उससे साबित हो गया है कि यौन-विकृतियों एवम
उससे जनित अपराधों के उत्प्रेरण का रास्ता सिल्वर-स्क्रीन की ओर से जाता है.
अंतरजाल, सेलफ़ोन, समाचारों को पेश करने का
तरीक़ा, उन्मुक्तता की भीषण चाह, ये सब बीमारी की जड़ हैं.. लगाम लगे तो कहां नीतू
सिंह ने अपने आलेख में साफ़ कर दिया है .. यौन अपराधों के खिलाफ़ वाक़ई सरकार और
पुलिसिया रवैये के लिये मोमबत्ती जलूसों के साथ साथ समाज के आंतरिक पर्यावरण की
शुचिता ज़रूरी है. सीता के आदर्श कैरेक्टर को प्रतिस्थापित करता है युवा वर्ग कुछ
इस तरह- “हा हा, अरे वो न वो तो बस पूरी सीता मैया बनी रहती है” ये संवाद
लड़कियां अपनी उस सखी के लिये स्तेमाल करतीं हैं जो सदाचारी हो. कभी आपने गौर
किया कि आपके बच्चों के आदर्श कौन हैं.. कहीं...?
* गिरीश “मुकुल”
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सेक्स और मानसिकता समझना थोड़ा कठिन है । यदि सेक्स शरीर से निकल कर हमारे दिमाग में समां जाये तो समझ
लेना चाहिए कि एक बड़ी बीमारी ने दिमाग मैं जगह बना लिया है। सेक्स शरीर तक ठीक है । शरीर
की संतुष्टी संभव है, लेकिन मन को संतुष्ट असंभव है । फिर
तो हर समय और सपने में भी हमे यही दिखाई देगा। हमें आकाश के बादलों और धरती में भी
सेक्स प्रतिमाएँ ही दिखाई पड़ेंगी ।
भारतीय संस्कृति हमें संयम से जीना सिखाती है, लेकिन हमारी नयी जनरेशन संयम का मजाक उड़ाती है और पश्चिमी रंग को अपनाती है । हमारे अन्दर यौन-स्वछंदता के सपने आने शुरू हो जाते हैं, हमें फ़िल्मों के नंगापन और बलात्कार-दृश्य, बोल्ड और आकर्षक लगने लगते हैं । कब हम इन्ही सब के बस मैं हो जातें है , पता ही नहीं चलता। मोबाइल, इंटरनेट और गंदे साहित्य ने हमे नंगे पन और मानसिक विकृतियों और कुंठाओं के गर्त में पहुँचा दिया।
भारतीय संस्कृति हमें संयम से जीना सिखाती है, लेकिन हमारी नयी जनरेशन संयम का मजाक उड़ाती है और पश्चिमी रंग को अपनाती है । हमारे अन्दर यौन-स्वछंदता के सपने आने शुरू हो जाते हैं, हमें फ़िल्मों के नंगापन और बलात्कार-दृश्य, बोल्ड और आकर्षक लगने लगते हैं । कब हम इन्ही सब के बस मैं हो जातें है , पता ही नहीं चलता। मोबाइल, इंटरनेट और गंदे साहित्य ने हमे नंगे पन और मानसिक विकृतियों और कुंठाओं के गर्त में पहुँचा दिया।
हमने शराब को सम्मान दिया, कहा यह तो आज का फैशन है , अपना
लिया। अब हमे सेक्स के अलावा कुछ नहीं दीखता। हमने सीताओं का सम्मान करना एकदम छोड़
दिया और हीरोईनों के नाम याद रखने लगे। हमने स्त्रियों का सम्मान छोड़ उनको सेक्स ऑब्जेक्ट बना लिया। स्त्री सिर्फ भोग की वस्तु है । आज पोर्न स्टार हमारे स्टार हैं ,,,आदर्श हैं ।
यदि हमारे समाज में मानसिक रोगी बढ़ रहे हैं तो इसमें इतनी परेशानी और हैरानी की क्या बात है ? सेक्स को हमने इस कदर अपने में समां लिया है कि यह हमारे शरीर से निकल कर दिमाग में घुस गया और ऐसे मानसिक रोगी बलात्कारी बन गए। अब ये इनके शरीर की आग न होकर मन की आग है, और मन की आग को बुझना और बुझाना दोनों कठिन है। अतः समाज दूषित हो गया है ।
यदि हमारे समाज में मानसिक रोगी बढ़ रहे हैं तो इसमें इतनी परेशानी और हैरानी की क्या बात है ? सेक्स को हमने इस कदर अपने में समां लिया है कि यह हमारे शरीर से निकल कर दिमाग में घुस गया और ऐसे मानसिक रोगी बलात्कारी बन गए। अब ये इनके शरीर की आग न होकर मन की आग है, और मन की आग को बुझना और बुझाना दोनों कठिन है। अतः समाज दूषित हो गया है ।