समूचे भारत को हालिया खबरों ने एक अजीब सी स्थिति में डाल दिया.कल से दिल-ओ-दिमाग पर एक अज़ीब सी सनसनी तारी है.कलम उठाए नहीं ऊठ रही नि:शब्द हूं.. !
जब भी लिखने बैठता हूं सोचता हूं क्यों लिखूं मेरे लिखने का असर होगा. मेरे ज़ेहन में बचपन से चस्पा पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी जी बार बार आते हैं और मैं उनसे पूछता हूं-"गुरु जी, क्यों लिखूं "
कई दिनों से ये सवाल उनसे पूछता पर वे कभी कुछ न बताते . हम साहित्यकारों के अपने अपने वर्चुअल-विश्व होते है. बेशक जब हम लिखते हैं तो टाल्स्टाय से लेकर शहर के किसी भी साहित्यकार से वार्ता कर लेते हैं.. जिनकी किताबें हम पढ़ चुके होते हैं. अथवा आभासी संसार को देखते हैं तीसरा पक्ष बन कर हां बिलकुल उस तीक्ष्ण-दर्शी चील की तरह उस आभासी संसार ऊपर उड़ते हुये . रात तो हमारे लिये रोज़िन्ना अनोखे मौके लाती है लिखने लिखाने के . पर बैचेनी थी कि पिछले तीन दिन हो गये एक हर्फ़ न लिखा गया.. न तो दिल्ली पर न सिवनी (मध्य-प्रदेश) पर ही. क्या फ़र्क पड़ेगा मेरे लिखने से सो पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी जी आज़ जब हमने पूछ ही लिया :- गुरु जी, क्यों लिखूं ?
गुरु जी बोले खुद से पूछो - क्यों न लिखूं ? ज़वाब मिल जाएगा. सो लिख ही देता हूं.
देश में महान अभिनेता के रुतबे से नवाज़े अमिताभ अब चिंता में हैं , जया भी फ़ूट पड़ीं इन पुरोधाऒं से मेरा एक सवाल है कि क्या फ़िल्मों को दोषी न माना जाए यौन-अपराधों के वास्ते. सेक्स जो बेड रूम का मसला है उसे सार्वजनिक करने की ज़द्दो-ज़हद सिनेमा ने की है. यह अकाट्य सत्य है.
प्रिंट मीडिया ने रसीली-रंगीली तस्वीर छापीं, अंडर-वियर और परफ़्यूम बनाने वाली कम्पनियों ने तो हद ही कर दी पुरुष के जिस्म पर चुंबनों के स्टेम्प, उफ़्फ़ ये सब कुछ जारी है लगभग तीन दशकों से पर सरकार अश्लीलता के खिलाफ़ बने अधिनियम को प्रभावी न कर सकी. लोग विक्टिम को हदों में रहने की सलाह देते हैं मैं पूछता हूं.. क्या उत्पादन कर्ता कम्पनियां नारी को वस्तु के रूप में पेश नहीं कर रहीं..अथवा फ़िल्म वालों के लिये नारी का जिस्म एक दर्शक जुटाऊ बिंदु नहीं है...?
अमिताभ जी ने किसी फ़िल्म में नायिका को तमीज़दार कपड़े पहने की नसीहत दी थी. शायद उनको याद हो ?
प्रिंट मीडिया ने रसीली-रंगीली तस्वीर छापीं, अंडर-वियर और परफ़्यूम बनाने वाली कम्पनियों ने तो हद ही कर दी पुरुष के जिस्म पर चुंबनों के स्टेम्प, उफ़्फ़ ये सब कुछ जारी है लगभग तीन दशकों से पर सरकार अश्लीलता के खिलाफ़ बने अधिनियम को प्रभावी न कर सकी. लोग विक्टिम को हदों में रहने की सलाह देते हैं मैं पूछता हूं.. क्या उत्पादन कर्ता कम्पनियां नारी को वस्तु के रूप में पेश नहीं कर रहीं..अथवा फ़िल्म वालों के लिये नारी का जिस्म एक दर्शक जुटाऊ बिंदु नहीं है...?
अमिताभ जी ने किसी फ़िल्म में नायिका को तमीज़दार कपड़े पहने की नसीहत दी थी. शायद उनको याद हो ?
हो न हो खैर मुझे तो स्नेहा चौहान के आलेख ने झकजोर ही दिया हर औरत रेप की हकदार है? शीर्षक से http://www.palpalindia.com पर प्रकाशित आलेख में स्नेहा ने कई सवाल उठाए हैं.. मसलन लोग ये अवश्य कहते हैं
वह हमेशा सलवार-कमीज, साड़ी, दुपट्टे में नहीं रहती
10 लड़कों के साथ, यानी बदनाम!
दारू पी, यानी रेप तो होगा ही
जब मां ही ऐसी हो तो
उसने रेप करवाया होगा
रिपोर्ट झूठी है
यानी विक्टिम के खिलाफ़ बोलना आम बात है. बलात्कार के मुद्दे पर पुलिस भी संवेदित नहीं . हो भी कैसे उनके ज़ेहन में पिछड़ी मानसिकता अटाटूट भरी जो है.
फ़ेसबुक पर जितेंद्र चौबे ने
मेरे एक सूत्र पर कहा -सुरक्षा और वार दोनों एक
साथ होने चाहिए तभी युद्ध जीता जा सकता है.. स्वयं देवी
दुर्गा भी एक हाथ में तलवार तो दुसरे हाथ में ढाल रखती थी..यही बुद्धि संगत भी है
और तर्क संगत भी.
पंडित रवींद्र बाजपेई जी ने कहा-"दिल्ली में मासूम बच्ची के साथ दरिंदगी करने वाले
नराधम को भी वैसी ही पीड़ा देना चाहिए। उसने भले अपना जुर्म कबूल कर लिया हो लेकिन
उसकी हड्डी पसली तोडना जरूरी है। देश के सम्मानीय वकीलों से अपेक्षा है कि वे ऐसे
राक्षसों की पैरवी न करने की कसम खाएं। ऐसे अपराधी किसे भी प्रकार की सहायता के
हक़दार नहीं हैं।"
जबकि पंकज शुक्ल जी पूरे देश में महिलाओं के सम्मान की रक्षा का सवाल उठाते हैं. यानी हर कोई बेचैन है.. चिंतित है.. पर इंसानी दिमाग फ़्रायड के सिद्धांतों को सही साबित करता ही रहेगा.. सामान्यत: औरत के की ओर नज़र होगी तो पुरुष सदा गंदा सोचता है. पिछले शुक्रवार घर आते वक़्त देखा रांझी मेन रोड पर कुछ मनचले बाइक से एक स्कूटी वाली लड़की को अभद्र बात बोलते हुए कट मारके फ़ुर्र हो गये..ये किसी के सहाबज़ादे हो सकते हैं मेरी डिकशनरी में इनके लिये सिर्फ़ एक ही शब्द है- नि:कृष्ट..
नारी जाति को केवल एक सिगमेंट में रखा जाता है कि वो औरत है किसकी बेटी, कितनी उम्र, क्या-रिश्ता, इस सबसे बेखबर अधिकांश लोग (पुरुष) केवल उसे अपनी भोग्या मानते हैं. यानी सब कुछ औरत के खिलाफ़ किसी के मन में भी पीड़ा उसके सम्मान की रक्षा के लिये..
नारी जाति को केवल एक सिगमेंट में रखा जाता है कि वो औरत है किसकी बेटी, कितनी उम्र, क्या-रिश्ता, इस सबसे बेखबर अधिकांश लोग (पुरुष) केवल उसे अपनी भोग्या मानते हैं. यानी सब कुछ औरत के खिलाफ़ किसी के मन में भी पीड़ा उसके सम्मान की रक्षा के लिये..
कितना लिख रहे हैं लोग औरत के खिलाफ़ गंदा नज़रिया मत रखो.. पर कुछ असर हो रहा है.. तो बताएं मैं क्यों लिखूं कुछ.. बकौल इरफ़ान झांस्वी
कुछ समझ नहीं आता, शहर है कि सहरा है..
कहने वाला गूंगा है, सुनने वाला बहरा है..!!