29.4.13

दास्ताने-दफ़्तर : भाड़ में जाये संगठन तेल लेने जाये विकास हम तो ....!!

 
 हो सकता है कि किसी के दिल में चोट लगे शायद कोई नाराज़ भी हो जाए इसे पढ़कर ये भी सम्भव है कि एकाध समझेगा मेरी बात को.वैसे मुझे मालूम है अधिसंख्यक लोग मुझसे असहमत हैं रहें आएं मुझे अब इस बात की परवाह कदाचित नहीं है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का सही वक्त पर सटीक स्तेमाल  कर रहा हूं. 
                     बड़े उत्साह और उमंग से किसी एक महकमें या संस्थान में तैनात हुआ युवा  जब वहां ऊलज़लूल वातावरण देखता है तो सन्न रह जाता है सहकर्मियों के कांईंयापन को देख कर .. नया नया कर्मी बेशक एक साफ़ पन्ने की तरह होता है जब वो संगठन में आता है लेकिन मौज़ूदा हालात उसे व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बना देते हैं. 
एक स्थिति जो अक्सर देखी जा सकती है नव प्रवेशी पर कुछ सहकर्मी अनाधिकृत रूप उस पर डोरे डालते हैं अपनापे  का  नकली शहद चटाते हुए उसे अपनी गिरफ़्त में लेने की कोशिश भी करते हैं. वहीं "बास-द्रोही" तत्व उसे अपने घेरे में शामिल करने की भरसक कोशिश में लगा होता है. मै ऐसे लोगों को संस्थान/आफ़िस/संगठन दीमक कहना पसंद करूंगा.. जो ऐसा कर सबसे पहले "संगठन" के विरुद्ध कार्यावरोध पैदा करते हैं. विकास की गति को रोकते हैं. 
            कुछ तत्वों का और परिचय देता हूं जो निरे "पप्पू" नज़र आएंगे पर भीतर से वे शातिर होते हैं अक्सर ऐसे तत्व केवल अपने आप के बारे में ही चिंतन करते रहते हैं. पर कहते हैं न पास तो केवल पप्पू ही होता है..  वे किसी के हरे में शामिल होते और न ही सूखे में. पर शातिर तो इतने कि अपने स्वार्थ के पीछे किस षड़यंत्र में शामिल हो जाएं आप जान भी न पाओगे. 
           संगठन में कार्यरत कर्मियों में कुछ ऐसे होते हैं जो बेचारे बड़ी तन्मयता से काम करते रहते हैं वे ही सदा  अत्यधिक दायित्वों  से लादे गये होते हैं. इनका प्रतिशत कमोबेश पांच-दस से ज़्यादा कभी नहीं होता. पर नब्बे फ़ीसदी मक्कारों का बोझा इन जैसों ने ही उठाया है. सच मानिये  अगर संगठनात्मक दायित्व निर्वहन पर शोध हो तो  आप इसकी पुष्टि करता हुआ रिज़ल्ट ही पाएंगे. 
           सहकर्मियों  की एक महत्वपूर्ण नस्ल को  अनदेखा करना बेहद नुकसान देह होगा जो बड़ी ही सादगी से आपकी किसी भी बात को "चुगली के रूप में कहीं भी पेश कर सकतें हैं  लोगों को यहां खुले तौर पर गाली देने से उम्दा परिभाषित करना उचित समझता हूं.ये जीव मैं उन नरों-मादाओं की औलाद होते हैं  जो मधुर यामिनी में अपने अपने  पसंदीदा आईकान्स के खयालों में खोये होते हैं और दैहिक परिस्थिवश ऐसा भ्रूण कंसीव हो जाता है जो आगे चलकर चुगलखोर-व्यक्तित्व के रूप में निखार पाता है. 
            आप सोच रहें होंगे बड़ा दिलाज़ला आदमी हूँ जो गालियां ....  हकीकत में ऐसा करना इस वज़ह से भी ज़रूरी है ताकि आइना देख लें वे  जो  मक्कारियों  से बाज़ नहीं आते . साथ ही वे जान लें कि एक लेखक  उनके बारे क्या सोचता है.. इनके नाम तो लिखूंगा नहीं  नाम लिख दूं तो बाप रे बाप... इनकी दुनिया ही उजड़ जावेगी.. किन्तु खुद परीशाँ था कभी इसी लिए सोचा सबको आगाह कर दूं .   
       लोगों में एक विचार तेज़ी से पनपता दिखाई देता है जो उत्पादन संस्थानों /संगठनों के लिए घातक है वो प्रांतीय जातीय,क्षेत्रीय एवं अब शैक्षणिक तथा काडरगत समीकरण . प्रांतीय,जातीय,क्षेत्रीय समीकरण तो सामाजिक एवं  राजनैतिक कारणों से उपजाते हैं किन्तु शैक्षणिक एवं काडर के बिन्दु नए दौर का संकट है जो बेहद खतरनाक है। एक अजीब सी सांप्रदायिकता का आभास होता है. जहां न धर्म इन्वाल्व है न ही भगवान नामक कोई तत्व !  
            .कोई डायरेक्ट तो कोई प्रमोटी, कोई इस भारत का तो कोई उस भारत का.. कोई ये तो कोई वो.. यानी खुली सम्प्रदायिकता . लोग अपने अपने सिगमेंट में जीने लगे हैं.. जीने क्या लगे हैं जीने के आदी हैं.. भाड़ में जाये संगठन तेल लेने जाये विकास हम तो अपने दबदबे को कायम रखेंगे.. 
कवि श्री हरे प्रकाश की कविता में खुलासा देखिये
नींद में मैं दफ़्तर के सपने देखता हूँ 
सपने में दफ़्तर के सहकर्मियों के षड्यंत्र सूंघता हूँ
जिससे बहुत तेज़ बदबू आती है
इस बदबू में मुझे धीरे-धीरे बहुत मज़ा आता है 
मैं नींद में बड़बड़ाता हूँ 
पूरी कविता पढ़िये "कविताकोष"पर क्लिक कर के 


लाल फ़ीतों में बांध के लपेट के चलो या कि टोपी के नीचे समेटते चलो....


लाल फ़ीतों में बांध के लपेट के चलो या कि टोपी के नीचे समेटते चलो....
देश मज़बूर है आपके सामने.. जैसे भी चाहो जीभर रगेदते चलो...!!
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आपकी बेबसी आपकी बेरुखी देश का हाल क्या आप जानोगे कब...!
कुर्सियों के लिये उफ़्फ़ ये ज़द्दो-ज़हद - घर है दुश्मन का घर में मानोगे कब ?
पांव के नीचे बोलो कहां है ज़मी.. ! उड़ने वालो ज़मीनों को देखते चलो !!
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बोलने की इज़ाज़त जो मिली आपको , बोलते बोलते बीते पांचों बरस ,
जाने किसके मुसाहिब हैं शोहदे यहां..! नन्हे बच्चों पे भी न जो खाते तरस !
कुछ ने आके जलाई है बस्ती मेरी,आके तुम भी  यहां रोटी  सेकते चलो !!
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24.4.13

आज पोर्न स्टार हमारे स्टार हैं ....आईकान हैं ? : श्रीमति नीतूसिंह (वाराणसी.)

             
   
वाराणसी की श्रीमति नीतू वर्तमान परिस्थितियों पर  प्रकाश डालते हुए सेक्स-अपराधों को सीधे सीधे पिछले दशकों में हुए बेतरतीब बदलावों से जोड़तीं हैं. वर्तमान में तो महेश भट्ट जैसे विवादित निर्माता निर्देशक ने हदें पार करते हुए पोर्न-स्टार को जो हाइप दी है उससे साबित हो गया है कि यौन-विकृतियों एवम उससे जनित अपराधों के उत्प्रेरण का रास्ता सिल्वर-स्क्रीन की ओर से जाता है.
 अंतरजाल, सेलफ़ोन, समाचारों को पेश करने का तरीक़ा, उन्मुक्तता की भीषण चाह, ये सब बीमारी की जड़ हैं.. लगाम लगे तो कहां नीतू सिंह ने अपने आलेख में साफ़ कर दिया है .. यौन अपराधों के खिलाफ़ वाक़ई सरकार और पुलिसिया रवैये के लिये मोमबत्ती जलूसों के साथ साथ समाज के आंतरिक पर्यावरण की शुचिता ज़रूरी है. सीता के आदर्श कैरेक्टर को प्रतिस्थापित करता है युवा वर्ग कुछ इस तरह- “हा हा, अरे वो न वो तो बस पूरी सीता मैया बनी रहती है” ये संवाद लड़कियां अपनी उस सखी के लिये स्तेमाल करतीं हैं जो सदाचारी हो. कभी आपने गौर किया कि आपके बच्चों के आदर्श कौन हैं.. कहीं...?
* गिरीश “मुकुल”

   सेक्स और मानसिकता समझना थोड़ा कठिन है । यदि सेक्स शरीर से निकल कर हमारे दिमाग में समां जाये तो समझ लेना चाहिए कि एक बड़ी बीमारी ने दिमाग मैं जगह बना लिया है। सेक्स शरीर तक ठीक है  शरीर की संतुष्टी संभव है, लेकिन मन को संतुष्ट असंभव है फिर तो हर समय और सपने में भी हमे यही दिखाई देगा। हमें आकाश के बादलों और धरती में भी सेक्स प्रतिमाएँ ही दिखाई पड़ेंगी
                     भारतीय संस्कृति हमें संयम से जीना सिखाती है, लेकिन हमारी नयी जनरेशन संयम का मजाक उड़ाती है और पश्चिमी रंग को अपनाती है हमारे अन्दर यौन-स्वछंदता के सपने आने शुरू हो जाते हैं, हमें फ़िल्मों के नंगापन और बलात्कार-दृश्य, बोल्ड और आकर्षक लगने लगते हैं । कब हम इन्ही सब के बस मैं हो जातें है , पता ही नहीं चलता। मोबाइल, इंटरनेट और गंदे साहित्य ने हमे नंगे पन और मानसिक विकृतियों और कुंठाओं के गर्त में पहुँचा दिया।
          हमने शराब को सम्मान दिया, कहा यह तो आज का फैशन है , अपना लिया। अब हमे सेक्स के अलावा कुछ नहीं दीखता। हमने सीताओं का सम्मान करना एकदम छोड़ दिया और हीरोईनों के नाम याद रखने लगे। हमने स्त्रियों का सम्मान छोड़ उनको सेक्स ऑब्जेक्ट बना लिया। स्त्री सिर्फ भोग की वस्तु है । आज पोर्न स्टार हमारे स्टार हैं ,,,आदर्श हैं  
                                         यदि हमारे समाज में मानसिक रोगी बढ़ रहे हैं तो इसमें इतनी परेशानी और हैरानी की क्या बात है ? सेक्स को हमने इस कदर अपने में समां लिया है कि यह हमारे शरीर से निकल कर दिमाग में घुस गया और ऐसे मानसिक रोगी बलात्कारी बन गए। अब ये इनके शरीर की आग न होकर मन की आग है, और मन की आग को बुझना और बुझाना दोनों कठिन है। अतः समाज दूषित हो गया है

    

23.4.13

तुम्हारी तापसी आंखों के बारे में कहूं क्या ? अभी तक ताप से उसके मैं उबरा नहीं हूं....!!

छायाकार वत्सल चावजी
तुम्हारी तापसी आंखों के बारे में कहूं क्या ?
अभी तक ताप से उसके मैं उबरा नहीं हूं....!!

समन्दर सी अतल गहराई वाली नीली आंखों ने
निमंत्रित किया है मुझको सदा ही डूब जाने को,
डूबता जा रहा हूं कोई तिनका भी नहीं मिलता ....
अगर मन चाहे जो  साहिल पे लौट आने को !
     तुम ही ने तो बुलाया है कहो क्या दोष है मेरा
     समंदर में प्रिये मैं खुद-ब़-खुद उतरा नहीं हूं..!!

तुम्हारे रूप का संदल महकता मेरे सपनों में
हुआ रुसवा बहुत,जब भी बैठा जाके अपनों में
किसी नेयेकहा और कोई कहकेवोमुस्काया
 मैं पागल हो गया हूं कहते सुना नुक्कड़ के मज़मों में .
     यूं अनदेखा कर कि जी पाऊंगा अब आगे-
      नज़र मत फ़ेर मुझसे गया गुज़रानहीं हूं मैं !!




22.4.13

आई.ए.एस. मनोज श्रीवास्तव : संवेदित हस्ताक्षर

 प्रवासी-भारतीय वेब पत्रिका पर मनोज श्रीवास्तव जी पर एक आलेख देखा अच्छे कार्य की सदा सराहना और अच्छे व्यक्तित्व की सदा चर्चा आवश्यक है.. ऐसा मेरा मानना है. अस्तु मिसफ़िट पर सामग्री प्रकाशित करते हुए अच्छा लग रहा है...... आभार प्रवासी-भारतीय का  
                                    एक कुशल प्रशासक की बुद्धि तथा एक दक्ष साहित्यकार जैसे ह्दय के संयुक्त रूप का नाम है मनोज कुमार श्रीवास्तव। इन्होंने एम.ए हिन्दी साहित्य में उपाधि प्राप्तकर भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस) में 1987 में आए। इससे पूर्व सहायक प्राध्यापक एवं सहायक आयुक्त, आयकर विभाग, मुंबई के रूप में अपना अवदान शिक्षा और राष्ट्र को देते रहे। आई.ए.एस बनने के बाद में एस.डी.ओ. अतिरिक्त कलेक्टर, प्रशासक, कलेक्टर, आई. जी. पंजीयन एवं मुद्रांक, चेयरमैन प्रबंध निदेशक, विद्युत वितरण कंपनी, पूर्वी क्षेत्र, मध्यप्रदेश, आयुक्त, भू-अभिलेख, आयुक्त, आबकारी, सदस्य, राजस्व  मंडल, सचिव, संस्कृति, न्यासी सचिव, भारत भवन, आयुक्त एवं सचिव जनसंपर्क, आयुक्त, भोपाल एवं नर्मदापुरम संभाग जैसे दायित्वों को सफलता एवं समर्पण के साथ निभाते हुए संप्रति प्रमुख सचिव (राजस्व) म.प्र.शासन, मंत्रालय, भोपाल के पद पर आसीन हैं।
इनके रचना संसार में मेरी डायरी से’, ‘यादों के संदर्भ’, ‘पशुपतिजैसे पाँच कविता संग्रह हैं तो शिक्षा में सन्दर्भ और मूल्य’, ‘वंदेमातरम, ‘सुन्दरकांड (पांच खंड)जैसे विवेचनात्मक एवं व्याख्यात्मक सात कृतियाँ हिन्दी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति की अद्भूत शोभाएँ है।
अक्षरम्द्वारा इनकी प्रतिभा और समर्पण के प्रति सम्मान करते हुए इन्हे अंतरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव 2012 में अक्षरम् संस्कृति सम्मानसे अलंकृत किया गया है।
प्रवासी दुनिया.कॉम पर प्रकाशित मनोज कुमार श्रीवास्तव  जी के प्रकाशन -


21.4.13

कुछ समझ नहीं आता, शहर है कि सहरा है.. कहने वाला गूंगा है, सुनने वाला बहरा है..!!

समूचे भारत को हालिया खबरों ने एक अजीब सी स्थिति में डाल दिया.कल से दिल-ओ-दिमाग पर एक अज़ीब सी सनसनी तारी है.कलम उठाए नहीं ऊठ रही  नि:शब्द हूं.. ! 
    जब भी लिखने बैठता हूं सोचता हूं क्यों लिखूं मेरे लिखने का असर होगा. मेरे ज़ेहन में बचपन से चस्पा पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी जी बार बार आते हैं और मैं उनसे पूछता हूं-"गुरु जी, क्यों  लिखूं "
कई दिनों से ये सवाल उनसे पूछता पर वे कभी कुछ  न बताते . हम साहित्यकारों के अपने अपने वर्चुअल-विश्व होते है. बेशक  जब हम लिखते हैं तो टाल्स्टाय से लेकर शहर के किसी भी साहित्यकार से वार्ता कर लेते हैं.. जिनकी किताबें हम पढ़ चुके होते हैं. अथवा आभासी  संसार को देखते हैं तीसरा पक्ष बन कर हां बिलकुल उस तीक्ष्ण-दर्शी चील की तरह उस आभासी संसार  ऊपर उड़ते हुये . रात तो हमारे लिये रोज़िन्ना अनोखे मौके लाती है लिखने लिखाने के . पर बैचेनी थी कि पिछले तीन दिन हो गये एक हर्फ़ न लिखा गया.. न तो दिल्ली पर न सिवनी (मध्य-प्रदेश) पर ही. क्या फ़र्क पड़ेगा मेरे लिखने से  सो पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी  जी आज़ जब हमने पूछ ही लिया :- गुरु जी, क्यों  लिखूं ?
गुरु जी बोले खुद से पूछो - क्यों न लिखूं ? ज़वाब मिल जाएगा. सो लिख ही देता हूं. 
                  देश में महान अभिनेता के रुतबे से नवाज़े अमिताभ अब चिंता में हैं , जया भी फ़ूट पड़ीं  इन पुरोधाऒं से मेरा एक सवाल है कि क्या फ़िल्मों को दोषी न माना जाए यौन-अपराधों के वास्ते.  सेक्स जो बेड रूम का मसला है उसे  सार्वजनिक करने की ज़द्दो-ज़हद सिनेमा ने की है. यह अकाट्य सत्य है. 
   प्रिंट मीडिया ने रसीली-रंगीली तस्वीर छापीं, अंडर-वियर और परफ़्यूम बनाने वाली कम्पनियों ने तो हद ही कर दी पुरुष के जिस्म पर चुंबनों के स्टेम्प, उफ़्फ़ ये सब कुछ जारी है लगभग तीन दशकों से पर सरकार अश्लीलता के खिलाफ़ बने अधिनियम को प्रभावी न कर सकी. लोग विक्टिम को हदों में रहने की सलाह देते हैं मैं पूछता हूं.. क्या  उत्पादन कर्ता कम्पनियां नारी को वस्तु के रूप में पेश नहीं कर रहीं..अथवा फ़िल्म वालों के लिये नारी का जिस्म एक दर्शक जुटाऊ बिंदु नहीं है...?  
         अमिताभ जी  ने किसी फ़िल्म में नायिका को तमीज़दार कपड़े पहने की नसीहत दी थी. शायद उनको याद हो ? 
हो न हो खैर  मुझे तो स्नेहा चौहान के आलेख ने झकजोर ही दिया हर औरत रेप की हकदार है? शीर्षक से http://www.palpalindia.com  पर प्रकाशित आलेख में स्नेहा ने कई सवाल उठाए हैं.. मसलन लोग ये अवश्य कहते हैं
वह हमेशा सलवार-कमीज, साड़ी, दुपट्टे में नहीं रहती
10 लड़कों के साथ, यानी बदनाम!
दारू पी, यानी रेप तो होगा ही
जब मां ही ऐसी हो तो
उसने रेप करवाया होगा
रिपोर्ट झूठी है
    यानी विक्टिम के खिलाफ़ बोलना आम बात है. बलात्कार के मुद्दे पर पुलिस भी संवेदित नहीं . हो भी कैसे उनके ज़ेहन में पिछड़ी मानसिकता अटाटूट भरी जो है.
   फ़ेसबुक पर जितेंद्र चौबे ने मेरे एक सूत्र पर कहा -सुरक्षा और वार दोनों एक साथ होने चाहिए तभी युद्ध जीता जा सकता है.. स्वयं देवी दुर्गा भी एक हाथ में तलवार तो दुसरे हाथ में ढाल रखती थी..यही बुद्धि संगत भी है 
और तर्क संगत भी.
पंडित रवींद्र बाजपेई जी ने कहा-"दिल्ली में मासूम बच्ची के साथ दरिंदगी करने वाले नराधम को भी वैसी ही पीड़ा देना चाहिए। उसने भले अपना जुर्म कबूल कर लिया हो लेकिन उसकी हड्डी पसली तोडना जरूरी है। देश के सम्मानीय वकीलों से अपेक्षा है कि वे ऐसे राक्षसों की पैरवी न करने की कसम खाएं। ऐसे अपराधी किसे भी प्रकार की सहायता के हक़दार नहीं हैं।"
जबकि पंकज शुक्ल जी पूरे देश में महिलाओं के सम्मान की रक्षा का सवाल उठाते हैं. यानी हर कोई बेचैन है.. चिंतित है.. पर इंसानी दिमाग फ़्रायड के सिद्धांतों को सही साबित करता ही रहेगा.. सामान्यत: औरत के की ओर नज़र होगी तो पुरुष सदा गंदा सोचता है. पिछले शुक्रवार घर आते  वक़्त देखा रांझी मेन रोड पर  कुछ मनचले बाइक से एक स्कूटी वाली लड़की को अभद्र बात बोलते हुए कट मारके  फ़ुर्र हो गये..ये किसी के सहाबज़ादे हो सकते हैं मेरी डिकशनरी में इनके लिये सिर्फ़ एक ही शब्द है- नि:कृष्ट..
       नारी जाति को केवल एक सिगमेंट में रखा जाता है कि वो औरत है किसकी बेटी, कितनी उम्र, क्या-रिश्ता, इस सबसे बेखबर अधिकांश लोग (पुरुष) केवल उसे अपनी भोग्या मानते हैं.   यानी सब कुछ औरत के खिलाफ़ किसी के मन में भी पीड़ा उसके सम्मान की रक्षा के लिये..
   कितना लिख रहे हैं लोग औरत के खिलाफ़ गंदा नज़रिया मत रखो.. पर कुछ असर हो रहा है.. तो बताएं  मैं क्यों  लिखूं  कुछ.. बकौल इरफ़ान झांस्वी 
कुछ समझ नहीं आता, शहर है कि सहरा है..
कहने वाला गूंगा है, सुनने वाला बहरा है..!! 

20.4.13

जिसकी बीवी मोटी उसका ही बड़ा नाम हैं...: भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
श्री भूपेंद्र सिंह द्वारा संप्रेषित आलेख प्रकाशित है.. आप अपनी टिप्पणी भेजने भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी पर क्लिक कीजिये अथवा मेल कीजिये
bhupendra.rainbownews@gmail.com
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महिला सशक्तीकरण को लेकर महिलाएँ भले ही न चिन्तित हों, लेकिन पुरूषों का ध्यान इस तरफ कुछ ज्यादा होने लगा है। जिसे मैं अच्छी तरह महसूस करता हूँ। मुझे देश-दुनिया की अधिक जानकारी तो नहीं है, कि ‘वुमेन इम्पावरमेन्ट’ को लेकर कौन-कौन से मुल्क और उसके वासिन्दे ‘कम्पेन’ चला रहे हैं, फिर भी मुझे अपने परिवार की हालत देखकर प्रतीत होने लगा है कि अ बवह दिन कत्तई दूर नहीं जब महिलाएँ सशक्त हो जाएँ। 
मेरे अपने परिवार की महिलाएँ हर मामले में सशक्त हैं। मसलन बुजुर्ग सदस्यों की अनदेखी करना, अपना-पराया का ज्ञान रखना इनके नेचर में शामिल है। साथ ही दिन-रात जब भी जागती हैं पौष्टिक आहार लेते हुए सेहत विकास हेतु मुँह में हमेशा सुखे ‘मावा’ डालकर भैंस की तरह जुगाली करती रहती हैं। नतीजतन इन घरेलू महिलाओं (गृहणियों/हाउस लेडीज) की सेहत दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बनने लगी है फिर भी इनके पतिदेवों को यह शिकायत रहती है कि मेवा, फल एवं विटामिन्स की गोलियों का अपेक्षानुरूप असर नहीं हो रहा है और इनकी पत्नियों के शरीर पर अपेक्षाकृत कम चर्बी चढ़ रही है। यह तो आदर्श पति की निशानी है, मुझे आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यद्यपि मैंने सुन रखा था कि सिनेमा जगत और समाज की महिलाएँ अपने शरीर के भूगोल का ज्यादा ख्याल रखती हैं, इसीलिए वह जीरो फिगर की बॉडी मेनटेन रखने में विश्वास रखती हैं। यह तो रही फिल्मी और कमाऊ महिलाओं की बात। 
मेरे परिवार/फेमिली/कुनबे की बात ही दीगर है। पतियों की सेहत को तो घुन लगा है और उनकी बीबियाँ हैं कि ‘टुनटुन’ सी नजर आती हैं। परिवार के सदस्य जो पतियों का दर्जा हासिल कर चुके हैं। वह बेचारे प्रख्यात फिल्मी गीतकार मरहूम गुलशन बावरा की शक्ल अख्तियार करने लगे हैं। और उनके सापेक्ष महिलाओं का शरीर इतना हेल्दी होने लगा है जिसे ‘मोटापा’ (ओबेसिटी) कहते हैं। यानि मियाँ-बीबी दोनों के शरीर का भूगोल देखकर पति-पत्नी नहीं माँ-बेटा जैसा लगता है। यह तो रही मेरे परिवार की बात। सच मानिए मैं काफी चिन्तित होने लगा हूँ। वह इसलिए कि 30-35 वर्ष की ये महिलाएँ बेडौल शरीर की हो रही हैं, और इनके पतिदेवों को उनके मोटे थुलथुल शरीर की परवाह ही नहीं।
मैं चिन्तित हूँ इसलिए इस बात को अपने डियर फ्रेन्ड सुलेमान भाई से शेयर करना चाहता हूँ। यही सब सोच रहा था तभी मियाँ सुलेमान आ ही टपके। मुझे देखते ही वह बोल पड़े मियाँ कलमघसीट आज किस सब्जेक्ट पर डीप थिंकिंग कर रहे हो। कहना पड़ा डियर फ्रेन्ड कीप पेशेंस यानि ठण्ड रख बैठो अभी बताऊँगा। मुझे तेरी ही याद आ रही थी और तुम आ गए। सुलेमान कहते हैं कि चलो अच्छा रहा वरना मैं डर रहा था कि कहीं यह न कह बैठो कि शैतान को याद किया और शैतान हाजिर हो गया। अल्लाह का शुक्र है कि तुम्हारी जिह्वा ने इस मुहावरे का प्रयोग नहीं किया। ठीक है मैं तब तक हलक से पानी उतार लूँ और खैनी खा लूँ तुम अपनी प्रॉब्लम का जिक्र करना। मैंने कहा ओ.के. डियर।
कुछ क्षणोपरान्त मियाँ सुलेमान मेरे सामने की कुर्सी पर विराजते हुए बोले- हाँ तो कलमघसीट अब बताओ आज कौन सी बात मुझसे शेयर करने के मूड में हो? मैंने कहा डियर सुलेमान वो क्या है कि मेरे घर की महिलाएँ काफी सेहतमन्द होने लगी हैं, जब कि इनकी उम्र कोई ज्यादा नहीं है और ‘हम दो हमारे दो’ सिद्धान्त पर भी चल रही हैं। यही नहीं ये सेहतमन्द-बेडौल वीमेन बच्चों को लेकर आपस में विवाद उत्पन्न करके वाकयुद्ध से शुरू होकर मल्लयुद्ध करने लगती हैं। तब मुझे कोफ्त होती है कि ऐसी फेमिली का वरिष्ठ पुरूष सदस्य मैं क्यों हूँ। न लाज न लिहाज। शर्म हया ताक पर रखकर चश्माधारी की माता जी जैसी तेज आवाज में शुरू हो जाती हैं। 
डिन्डू को ही देखो खुद तो सींकिया पहलवान बनते जा रहे हैं, और उनकी बीवी जो अभी दो बच्चों की माँ ही है शरीर के भूगोल का नित्य निश-दिन परिसीमम करके क्षेत्रफल ही बढ़ाने पर तुली है। मैंने कहा सिन्धी मिठाई वाले की लुगाई को देखो आधा दर्जन 5 माह से 15 वर्ष तक के बच्चों की माँ है लेकिन बॉडी फिगर जीरो है। एकदम ‘लपचा मछली’ तो उन्होंने यानि डिन्डू ने किसी से बात करते हुए मुझे सुनाया कि उन्होंने अपना आदर्श पुराने पड़ोसी वकील अंकल को माना है। अंकल स्लिम हैं और आन्टी मोटी हैं। भले ही चल फिर पाने में तकलीफ होती हो, लेकिन हमारे लिए यह दम्पत्ति आदर्श है। 
मैं कुछ और बोलता सुलेमान ने जोरदार आवाज में कहा बस करो यार। तुम्हारी यह बात मुझे कत्तई पसन्द नहीं है। आगे कुछ और भी जुबान से निकला तो मेरा भेजा फट जाएगा। मैंने अपनी वाणी पर विराम लगाया तो सुलेमान फिर बोल उठा डियर कलमघसीट बुरा मत मानना। मेरी फेमिली के हालात भी ठीक उसी तरह हैं जैसा कि तुमने अपने बारे में जिक्र किया था। मैं तो आजिज होकर रह गया हूँ। इस उम्र में तुम्हारे जैसे मित्रों के साथ ‘टाइम पास’ कर रहा हूँ। कहने का मतलब यह कि ‘जवन गति तोहरी, उहै गति हमरी’’ यानि....। 
डियर कलमघसीट अब फिरंगी भाषा में लो सुनो। इतना कहकर सुलेमान भाई ने कहा डियर मिस्टर कलमघसीट डोन्ट थिंक मच मोर बिकाज द कंडीशन ऑफ बोथ आवर फेमिलीज इज सेम। नाव लीव दिस चैप्टर कमऑन एण्ड टेक इट इजी। आँग्ल भाषा प्रयोग उपरान्त वह बोले चलो उठो राम भरोस चाय पिलाने के लिए बेताब है। तुम्हारे यहाँ आते वक्त ही मैंने कहा था कि वह आज सेपरेटा (सेपरेटेड मिल्क) की नहीं बल्कि दूध की चाय वह भी मलाई मार के पिलाए। मैं और मियाँ सुलेमान राम भरोस चाय वाले की दुकान की तरफ चल पड़ते हैं। लावारिस फिल्म में अमिताभ बच्चन पर फिल्माया गया गाना दूर कहीं सुनाई पड़ता है कि- ‘‘जिस की बीवी मोटी उसका भी बड़ा नाम है, बिस्तर पर लिटा दो गद्दे का क्या काम है।’’
भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर (उ.प्र.)

16.4.13

हिडिम्ब : क्लासिक आख्यानों की सभी खूबियों से परिपूर्ण एक दुर्लभ उपन्यास

श्री एस.आर.हरनोट का उपन्यास हिडिम्ब पर्वतांचल के एक भूखण्ड, वहां की
श्री एस.आर.हरनोट
एथनिक संस्कृति और उसकी समकालीन सामाजिक वस्तुस्थिति को रेखांकित करता एक ऐसा यथार्थपरक आख्यान है जो देहात के उत्पीडि़त आदमी की जैवी कथा और उसके समग्र परिवेश का एक सही लोखाचित्र के फ्रेम में प्रस्तुत करता है। भाषा और भाव के स्तर पर उलटफेर से गुरेज़ करता हुआ, किन्तु पहाड़ी देहात के ज्वलंत जातीय प्रश्नों को उनकी पूरी पूरी तफ़सीलों के साथ उकेरता हुआ। कहानी यों चलती है जैसे कोई सिनेमेटोग्राफ हो। लेखक खुद भी एक क्रिएटिव छायाकार है इसलिए सम्भवत: उसने हिडिम्ब की कहानी को एक छाया चित्रकार की तरह ही प्रस्तुत किया है। अपने गद्य को सजीव लैण्डस्केपों में बदलता हुआ। इस प्रकार के कथा शिल्प में पहली बार यह महसूस हुआ कि यथार्थ के मूल तत्व को उसमे किस तरह महफूज रखा जा सकता है। ऐसा गल्पित और कल्पित यथार्थ एक साथ अर्थमय भी है और अपने परिप्रेक्ष्य में भव्य भी।

उपन्यासकार ने सबसे पहले अपने पाठक को मूल कथा-चरित्रों का परिचय दिया है। इस तरह के परिचय अक्सर पुराने क्लासिक उपन्यासों में देखे जा सकते हैं। हिडिम्ब में ऐसी पूर्व-प्रस्तुतियां आख्यान के लिये भूमिका का निर्माण करती हैं ताकि लक्षित पाठक उसकी सराहना के लिए उत्प्रेरित हो सके। ऐसे पूर्वविवरण कथा के लिए क्षुधाबोधक का काम करते हैं जिन्हें लेखक ने डूबकर लिखा है। ये वस्तुपरक नहीं, चरित्रांकन करते हुए आत्मीय विवरण हैं, जिससे कथा रूपी नाटक का प्रांगण तैयार होता है। विक्टर ह्यूगो से लेकर पास्तरनाक तक के अनेक उपन्यासकारों में यह परिपाटी कहीं कथारम्भ में तो कहीं कहीं बीच में और अन्त में भी देखने को मिलती है ताकि कथाविशेष के परिवेश की औपचारिक जानकारी मिल सके। कथा का यह एक ऐसा लचीला खोल है जिसमें वह न सिर्फ़ अपनी चाल में तल्लीन एक केंचुए की तरह आगे सरकने लगती है बल्कि अपने घटना क्रियागत परिमाण को भी मर्यादित करती चलती है।

उपन्यासकार ने शावणू नड़, उसकी घरवाली सूरमादेई, बेटी सूमा और बेटे कांसीराम की दुनिया को अपनी कलम से टटोला है। यह दुनिया है विषाद, अन्याय और अभाव को वहन करती दुनिया जो कहानी के अन्त तक- जब कि नड़ अकेला रह जाता है–उसका पीछा नहीं छोड़ती। बकौल लेखक नड़ वह जाति है ’जिसकी ज़रूरत क्षेत्र के लोगों को कभी सात, कभी बारह तो कभी बीस तीस बरस बाद काहिका के लिए पड़ती है।’ काहिका एक नरबलि की अति प्राचीन परम्परा है। ’नड़ इस उत्सव का मुख्य पात्र होता’ है। ’लेकिन जब उसकी ज़रूरत नहीं होती वह अछूत, चाण्डाल बन जाता’ है। उत्सव के समय ’वह ब्राह्मण हो जाता है’–देवता, पुजारी, गूर सब उत्सव की शोभायात्रा में उसका अनुगमन करते हैं। अन्यथा ’गांव–बेड़ के पिछवाड़े का’ वह ’एक आवारा कुत्ता’ है। ’पूजा पाठ करते हुए’ यदि ’ब्राह्मण’ उसे देख ले तो उसे’ गालियां देने’ लगे। नड़ परिवार विशेष में जन्म लेने के कारण उसे काहिका को एक बड़े दण्ड के रूप में भोगना ही है। उपन्यासकार ने उक्त देवोत्सव को रेशारेशा बयान किया है ताकि पाठक यह जान सकें कि किस तरह पहाड़ी समाज में आज भी ऐसे मुकाम हैं जहां आदमी से खुद उसके सामाजिकों द्वारा एक बलिपशु का-सा बर्ताव किया जाता है। उसके सभी विवरण इस बारे में प्रामाणिक हैं जो किसी सम्वेदनशील मन में सहज ही रूढि़यों के खिलाफ़ आक्रोश और खण्डन-भाव को संचरित कर सकते हैं।

काहिका उत्सव में उसके पिता की बलि के बाद शावणू को जमीन का एक टुकड़ा विरासत में मिला था। तब वह बच्चा ही था। कहानी में काहिका प्रकरण को लेखक ने फ्लैशबैक में लेकर अपने इस मुख्यपात्र के अन्दर के बनाव और बदलाव के लिए कथा के वर्तमान का आधार तैयार किया है। पश्चदर्शन की इस शैली से कथा के निकट वर्तमान के साथ-साथ अतीत को समोकर उसने एक साथ दो आयामों को खोजा है ताकि पूरी कथा एक लड़ी में पिरोयी जा सके। उपन्यासकार ने नदी किनारे की उसकी कृषि भूमि का हवाला भी रुचिकर ढंग से दिया है। यह महज़ लैण्डस्केपिंग नहीं, परिवेश और संस्कृति का मानवीय तत्वबोध भी उसमें समाहित है। जैसे–

ज़मीन काफ़ी उपजाऊ थी। उम्दा किस्म की मिट्टी से सनी हुई।.... नीचे थोड़ी दूर एक पौराणिक नदी बहती थी।’


यहां पौराणिक नदी का होना यह साबित करता है कि वह एक प्रसिद्ध प्राचीन नदी होगी जिसका प्रसंग पुराणों में मिलता है। आगे–

’वहां कुदरत का नज़ारा बड़ा ही अद्भुत था। एकदम विलक्षण। विचित्रता अनूठी थी। काव्य के नौ रसों में से एक। पहाड़ी ढलान से नीचे उतरते खेत, मानो छन्दों में पिरोये हुए हों। दूर से देखने पर वह एक छोटा सा टापू लगता था।’

एक बेजोड़ सौन्दर्य बोध जिसकी उर्ध्व रेखाएं पूरे भूखण्ड को कथा की समानधर्मिता में ब्लेण्ड करती चलती है। प्रयोग काव्यात्मक है और चित्रात्मक भी, जो अन्तत: कथा के विकास और आने वाले बदलावों तक स्थायी रूप से ज़हन में बना रहता है। परिवेश के सामाजिक सांस्कृतिक तत्व को जानने के लिए निम्न उद्धरण सटीक होगा–

’ज़मीन के आगे एक बड़ा चरांद था जिसमें घाटी के कई गावों के पशु और भेड़-बकरियां चरा करते थे...बहुत पहले न कोई चरवाहा होता, न गवाला।...(पशु) दिनभर खूब चरते...शाम होने लगती तो खुद अपने अपने घरों को लौट आते...(लोगों) ने बाघों को भी (कई बार) नदी किनारे पशुओं के साथ सोते-जागते देखा था।’

उपन्यासकार ने यह चित्र खींच कर घाटी में व्याप्त पहले वक्तों की शान्ति को चित्रित किया है। एक ऐसा माहौल जहां बाघ-बकरी एक साथ रहते हैं।
शावणू की ज़मीन पर दौरे पर आये मंत्री की नज़र पड़ती है। यहां कथाकार ने लोलुप मंत्री का एक असुन्दर किन्तु कलात्मक व्यंगचित्र बनाया है। तन्जिया लहज़ा कहानी में उपयुक्त आवेग का संयोजन करता चलता है। एक छोटी सी बानगी–

’ज़मीन मंत्री के लिए जिस्मानी हवस की तरह हो गयी थी। वह जिस मकसद से दौरे पर आया था उसे भूल गया। सामने थी तो बस वही ज़मीन।...उसकी आंखों में वह नड़ परिवार और उसका घर चुभता चला गया।’

इस तरह की झांकियां आगे आने वाले हालात का न सिर्फ़ संकेत देती हैं बल्कि पाठक के रुझान का भी उद्दीपन करती हैं। यहां कहानी की आगामी लीक को लेखक ने बखूबी स्पष्ट कर दिया है। मंत्री के काल्पनिक प्रोजेक्शन और ज़मीन को लेकर उसकी महत्वाकांक्षाएं उसके लचर चरित्र को उघाड़ कर सामने रख देता है। हिडिम्ब की कहानी में जगह जगह रूपकों की रचना हुई है जो स्थिति विशेष की बेहतरीन ढंग से तजु‍र्मानी करते हैं। मंत्री के दरबार में ज़मीन के सौदे के लिए शावणू की हाजि़री वाला प्रसंग सटीक ढंग से रूपक में बांधा है। जैसे–

’मंत्री ने उसे भेड़िए की आंख से देखा। सिर से पांव तक...बाहर बंधा बकरा मिमियाया था।’

उपयु‍र्क्त रूपक को और ज्यादा सार्थक, उत्तेजक और अन्याय का द्योतक बनाती निम्न पंक्तियां स्थिति को संकेतात्मक रूप से सम्वेदनशील बना जाती हैं–
’शावणू ने....एक सरसरी नज़र कमरे की दीवारों पर डाली। सामने गांधी जी की फोटो टंगी थी। उस पर इतनी धूल और जाले जम गए थे कि पहचानना कठिन था।’..

मंत्री के साथ शावणू का साक्षात्कार, डाक बंगले में मंत्री का दारू पीना और ज़मीन बेचने में शावणू की साफ इन्कारी एक दलित के अन्दर की चिनगारी और नागवार हालात को बखूबी बयान करते हैं। उक्त दृश्य में बकरे का फिर वही रूपक स्थिति का कुछ इस तरह समाहार करता दिखायी देता है–

’बकरे के पास पहुंचकर शावणू के पैर अनायास ही रुक गये। उसे दया भरी दृष्टि से देखा। फिर आरपार घाटियों की तरफ। अनुमान लगाया होगा कि सांझ और बकरे की जिन्दगी में कितना फासला शेष रह गया है।....उस समय उसे अपने और बकरे में कुछ अधिक फर्क न लगा।’

फर्क था तो बस इतना कि बकरा शीघ्र ही शाम को मंत्री और उसके परिकरों की पार्टी के लिए जिबह होने वाला था जबकि शावणू को इन्तजा़र था उस दुखद घड़ी का जब मंत्री राजस्व के सेवादारों से मिलकर किसी न किसी प्रकार उसकी पुश्तैनी ज़मीन पर काबिज़ हो जाएगा। उस ज़मीन पर, जो अब तक उसे आजीविका देती रही थी। अपनी इस चाह को पूरा करने के लिये मंत्री स्थानीय तत्वों को उपयोग में लाता है। इनमें मुख्य हैं पंचायत का पूर्व प्रधान, शराब का ठेकेदार और डिपो का सेक्रेटरी। मंत्री के ये जीहजूरिये उसकी इच्छाओं का पूरा ध्यान रखते हैं। उसे खुश करने के लिये वे किसी से भी बदतमीज़ी पर आमादा हो सकते हैं। ’शावणू जानता’ है ’कि वे तीनों उस मंत्री के खासमखास हैं’ और उनके फैलाए जाल में ’कोई भी भला आदमी फंस सकता है।’ लेखक ने इन्हें लार टपकाते कुत्तों की संज्ञा दी है। ये लोग ज़मीन के मालिक शावणू पर हर तरह का दवाब डालते हैं मगर उसकी बीवी कड़ा रुख अपनाती है और उन्हें खदेड़ने के लिए ’विकट और विराट रूप’ भी धारण कर लेती है।

हिडिम्ब में न सिर्फ़ नड़ परिवार और उससे जुड़े प्रसंगों की कहानी कही गयी है बल्कि घाटी में आ रहे नये बदलावों की ओर भी इशारा किया गया है। यहां ’कुछ (लोग) चरस-भांग और विदेशी नशा बेचकर तो कुछ देवदार जैसी बेशकीमती लकड़ी की तस्करी करके’ मालामाल हुए हैं। आसपास के जनपदों पर सामाजिक टीका-टिप्पणी और व्याख्या उपन्यास को एक वचनबद्ध कृति का दर्जा देती है और बीच बीच में दिखायी देते काले स्पॉट पाठक को इस बात का भान करा देते हैं कि विकास के नाम पर पर्वतांचल का आदमी किस तरह अपने ही घर द्वार पर शोषक तत्व का बन्धक बना है।

शोभा लुहार ने इस कहानी में एक चरित्रशाली ग्रामीण दस्तकार की भूमिका निभाई है। वह वयोवृद्ध है। अपने से काफ़ी कम उम्र के शावणू से उसकी अभिन्न मित्रता है। दोनों जब-जब भी कहानी में एक साथ नज़र आये हैं कहानी को एक गम्भीर और अर्थमय वातावरण दे जाते हैं। नायक के संकटग्रस्त जीवन में कहीं इन्सानी उच्चता है तो वह यहीं है, शोभा की दोस्ती में। ’जैसे-जैसे उम्र ढलती गई, लुहार का काम पीछे छूटता रहा’। शोभा के बच्चों ने भी पुश्तैनी काम नहीं किया। जिससे इस वयोवृद्ध दस्तकार को अपना ’आरन बन्द करना पड़ा’। जाति-वर्ग के लिहाज़ से यद्यपि शोभा लोहार शावणू से श्रेष्ठ है फिर भी शावणू नड़ को वह पूरा सम्मान देता है। एक भेंट में उसको उसने ’मंजरी पर बैठने के लिए (भी) कहा था’।

उपन्यासकार ने इन पात्रों के मध्यम से जातिवाद पर करारी टिप्पणी की है। साथ यह भी दर्शाया है कि नये सामाजिक बदलाव ने किस प्रकार पारम्परिक दस्तकारी का खात्मा किया है। उसके एवज़ कोई दूसरा सम्मानजनक आर्थिक विकल्प भी नहीं दिया। यह है एक नये और खतरनाक संक्रमण की जीती-जागती तसवीर। पूरा हिडिम्ब मानवीय त्रासद की एक अत्यन्त दर्द भरी कहानी है जिसमें मानव निर्मित अवरोध प्रकृतिस्थ भूखण्ड को एकाएक क्षतिग्रस्त कर देते हैं। बस एक सपना है जो मरीचिका की तरह आगे से आगे सरकता जाता है। प्रलयान्त मोहभंग की स्थिति तक।
आंचलिक होते हुए भी यह उपन्यास क्लासिक आख्यानों की सभी खूबियों से परिपूर्ण है। यही वे प्रसंग हैं जो हमारे समकालीन विघटन को यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत करते हैं। मुसलसल उदासीनता और अंधेरा छाया है इस कहानी पर। घटित से उभरता हुआ उपेक्षित मानव जीव्य। पर्वतीय घाटी का कड़वा सच। प्रकृति का बेहिसाब दोहन, पर्यावरण में आदमी की दखलन्दाजी, नशीले पदार्थों की तस्करी इस उपन्यास के कुछ ऐसे ज्वलंत मुद्दे हैं जो हमारी आज की इन्सानी दुनिया के बदरूप मटियालेपन को उभार कर सामने लाते हैं।

घाटी को नशानोशी और उससे जुड़े काले व्यापार ने बुरी तरह अपनी गिरिफ्त में कस रखा है। स्थानीय दलाल/ठेकेदार इस काम के लिए ग़रीब और दलित परिवार के बच्चों को बूटलैगर बनाकर खुलेआम अपना धन्धा चला रहे हैं। बच्चे, जिनकी उम्र स्कूल जाने की थी, वे माल को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने पर विवश किए जाते हैं। ऐसे माहौल में नशे के वे भी शिकार हुए हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण हैं खुद शोभा लोहार और शावणू नड़ के बच्चे। इन दर्दनाक स्थितियों की दुश्वारियों में खोए एक दूसरे की पारस्परिकता से बंधे दोनों मित्रों के सरोकार एक साथ अलग-अलग स्तरों पर कहानी को आगे बढ़ाते चलते हैं। जहां मंत्री और ज़मीन का किस्सा खत्म हुआ वहां शोभा की करुण कहानी शुरू हो जाती है। शोभा दुखी है अपने बच्चों के कारण। छोटा विदेशी नशे का शिकार हुआ जबकि बड़ा दारू-भांग पीता है। दुख की विशेष मन:स्थिति में शोभा की भावभंगिमा हृदय को छूने वाली है। जैसे कि–

’कोई देखता तो जानता कि उम्र के इस पड़ाव पर बैठे शोभा के दर्द कितने तीखे और गहरे थे। जिसने अपनी टोपी की ओट में बरसों से इज्ज़त-परतीत छिपा-बचा के रखी, बुढ़ापे में किस तरह जाती रही।’

’शोभा ने गीली आंखों से शावणू की तरफ देखा था। दर्दीली नज़रों का स्पर्श शावणू को भीतर तक बींध गया था। वह जानता था कि यह दर्द अकेले शोभा का नहीं है। इस घाटी के गावों में न जाने कितने बुजुर्ग होंगे जो अपने घर में पराए की तरह दिन काट रहे थे।’

शोभा और शावणू की आपसी हमदर्दी और अपने-अपने दुखों के विनिमय से भरी यह दोस्ताना जुगलबन्दी कथा के अन्त तक उपन्यास को एक ऐसा गाढ़ा रंग देती है जो इन्सानी ज़ात और उसकी नैतिकता के समूल विखण्डन की ओर इशारा करता है। इन दोनों के दुख भरे संवाद हिडिम्ब की कहानी के अभिन्न अंग है। उनके दुख में आदमी नहीं, जानवर भी शिरकत करते दिखाये गये हैं। एक उदाहरण –

’दोनों मेमने जो बड़ी देर से आंगन में उछल-कूद कर रहे थे, शोभा के पास आकर सो गए। कुत्ते की भी जुगाली खत्म हो गई थी। वह दुम हिलाता आया और शोभा से सट कर बैठ गया। आंखें उसकी तरफ थीं। भीगी-भीगी हुई सी।’

सहसा यह वृत्त चेखव के आयोना पोतेपोव और उसके गमज़दा घोड़े की याद ताज़ा कर जाता है। आदमी और जानवर के बीच का अनन्य जुड़ाव दर्शनीय है। लेखक के पास सजाने के लिए कोई अलंकार न सही वह ऐसे ही मार्मिक दृश्यों से सहज अलंकरण का काम अपने गल्प में अन्यत्र भी लेता है।

शावणू के बेटे कांसी की मौत भी ड्रग माफिया की वजह से होती है। एक साजिश के तहत ठेकेदार और प्रधान द्वारा उसे खाने के लिए ज़हर मिला प्रसाद दिया जाता है ताकि वे मंत्री को ज़मीन न देने वाले नड़ परिवार से बदला ले सकें। वे कांसी की हत्या ही नहीं करते, उसकी ’लाश को भांग के नशे में बर्बतापूर्ण लातों-घूसों से’ मार कर अपनी घृणित भावना की पूर्ति भी करते हैं। उनकी इस जाति संहारक साजि़श में कहीं स्कूल का नशेड़ी मास्टर भी शामिल है। मास्टर जो अन्यथा समाज में एक आदर्श रुतबा रखता है। लेखक ने यहां परोक्ष रूप से एक साथ दो सामाजिक संस्थानों और उनके संचालकों पर ज़ोरदार प्रहार किया है। उसने कांसी की दर्दनाक मौत के बाद स्कूल के आसपास के वातावरण को भी उदासीन कर दिया है। मानो प्रकृति भी उस मौत पर शोक मना रही हो––

’स्कूल की छत पर बैठा कौऔं का दल उड़ गया। वे कई पल कर्कश आवाज़ करते रहे। उनकी करकराहट किसी अनहोनी को कह रही थी। कोई उनकी भाखा जानता तो देखता विद्याघर में आज कितना अनर्थ हुआ था ?......’

’.....वहां ऐसा कौन था जो उनकी भाखा सुनता। थोड़ी देर बाद पता नहीं वे कहां चले गये। वहां जो कुछ घटा उसका डर पूरे मैदान में पसर गया। न हवा चल रही थी। न कोई कौआ या चिडि़या ही कहीं चहचहा रही थी।’

ऐसे विवरण एपिक तत्वों से परिपूर्ण हैं। हूबहू प्रेमचन्दीय गल्प जैसी सरल और इन्सान को छू सकने वाली सहज भावना से ओतप्रोत। इस कथा प्रकरण के अन्त में ’घास काटती’ हुई औरत द्वारा ’भियाणी नायिका का’ यह गीत पाठक को और ज्यादा स्पन्दित कर देता है जिसमें यह कहा गया है: ’अरी भियाणी, कानों में क्या कथनी सुन ली, नौजवान की मौत हो गई, चिडि़या शाख पर रो दी।’ इस तरह के गाथाई किस्से कथा को क्या और ज्यादा दारुण नहीं बना देते ? यह दुख का विषय है कि कहानी, उपन्यास आज सामान्य लोक से उठ कर विशेष लोक में चले गये हैं। कथाकार को अब गाथाओं में गुंथी पीड़ाओं की जगह नगर-लोक ज्यादा प्रिय है।

इस कहानी में अप्रत्याशित मोड़ तब आता है जब बेटी सूमा घाटी में आये एक विदिशी युवक एरी से इकरारनामे के आधार पर विवाह कर लेती है। पुराणपंथी समाज अब उन लोगों के लिए पराया है जो जातीय परिधि से बाहर होने के कारण अन्तर्जातीय व्यवहार में लगातार घृणा व उपेक्षा का सामना कर रहे हैं। विदेशी इन रूढि़यों से सर्वथा मुक्त हैं। कॉण्ट्रेक्चुअल शादियां अब उन के लिए टाइमपास का एक सरलतम उपाय है। इसके बरक्स भारतीय समाज के लिए विवाह आज भी एक अहम संस्कार है। यह कोई व्यापारिक विनिमय का विषय नहीं। इकरारनामा जबकि एक गैर ज़िम्मेदाराना व्यवस्था है। इस की अवधि समाप्त होने पर विवाह अमान्य हो जाते हैं। पौर्वात्य भारत इसे कभी नहीं अपना सकता। यदि ऐसा हुआ तो इसके लिये जिम्मेदार है जातीय वर्गवाद। उपन्यासकार ने इस नयी विवाहपद्धति के परिणामस्वरूप आने वाले खतरों से भी सावधान किया है। यह उन कुलीन वर्गों पर एक गहरा कटाक्ष है। विशेषकर, आसपास निवास कर रहे उन ग़रीब तथा अकुलीन वर्ग के लोगों की ओर से जो अपनी जवान होती बेटियों के विवाह के लिए रिश्ते व साधन नहीं जुटा पाते। शावणू नड़ काण्ट्रेक्चुअल विवाह होने के बावजूद अपनी परम्परा और संस्कृति से विमुख नहीं हुआ है। कन्या की विदाई के समय उसके अन्दर वही भाव हैं जो एक भारतीय पिता के अन्दर ऐसे अवसरों पर स्पष्ट चीन्हे जा सकते हैं। ’दुल्हन मुन्नी उर्फ़ सूमा चली गई। सब कुछ पीछे छूटता रहा....पिता। घर। आंगन। गोशाला। पशु। खेत। क्यार। खलिहान....और पता नहीं क्या क्या ?’ शावणू के अन्दर का पिता, वियोग में पूरी तरह डूबा है जिसे लेखक ने लोकगीत की इन पंक्तियों से भावमय बना दिया है–

’इमली रा बूटा नीवां नीवां डालू
तिस्स पर बैठिया पंछी रूदन करे।
मां बोले बेटी बड़े घरे ब्याहणी
पलंगा पर बैठी बैठी राज करे।
हिडिम्ब महाभारत का एक मिथक पात्र है जिसे कथाकार ने एक बहुआयामी रूपक में बांधा है। हिडिम्ब और उसकी बहन हिडिम्बा के प्रक्षेपक, उपन्यास की कथा को एक ऐसी गाथा का रूप देते हैं जो पौराणिक होते हुए भी न सिर्फ़ लोक आस्था को व्यंजित करती है बल्कि एक ऊर्जा के रूप में निरात्म और आत्मिक दोनों स्तरों पर आज के मानवीय द्वन्द्व को भी प्रकाशित करती है। कहानी के अन्त में ये असुर आत्माएं अपने प्रकोप से चौफेर ताण्डव रचाती हैं जिसे हम एक छोटी सी किन्तु एक अर्थमय मैटाफोरिक प्रलय भी कह सकते हैं। कथा के अन्त का प्राकृति जनिक विध्वंस खुद मनुष्य के पापों और अतिवादिता का परिणाम है जिसके समाप्त होने पर ही नयी सुबह की उम्मीद की जा सकती है।

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