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शनिवार, नवंबर 19, 2011

ज्ञानरंजन, 101, रामनगर, अधारताल, जबलपुर.

खास सूचना: इस आलेख के किसी भी भाग को  अखबार  प्रकाशित 21.11.2011 को ब्लाग के लिंक के साथ प्रकाशित कर सकते हैं.
ज्ञानरंजन जी
                          अनूप शुक्ल की वज़ह से डा. किसलय के  साथ उनकी पिछली१७ फ़रवरी २०११ को हुई थी तब मैने अपनी पोस्ट में जो लिखा था उसमें ये था "  ज्ञानरंजन जी  के घर से लौट कर बेहद खुश हूंपरकुछ दर्द अवश्य अपने सीने में बटोर के लाया हूंनींद की गोलीखा चुका पर नींद  आयेगी मैं जानता हूंखुद को जान चुकाहूं.कि उस दर्द को लिखे बिना निगोड़ी नींद  आएगी.  एककहानी उचक उचक के मुझसे बार बार कह रही है :- सोने सेपहले जगा दो सबकोकोई गहरी नींद  सोये सबका गहरी नींदलेना ज़रूरी नहींसोयें भी तो जागे-जागेमुझे मालूम है कि कईऐसे भी हैं जो जागे तो होंगें पर सोये-सोयेजाने क्यों ऐसा होताहै
                   ज्ञानरंजन  जी ने मार्क्स को कोट किया था चर्चा में विचारधाराएं अलग अलग हों फ़िर भी साथ हो तो कोई बात बनेइस  तथ्य से अभिग्य मैं एक कविता लिख तो चुका था इसीबात को लेकर ये अलग बात है कि वो देखने में प्रेम कविता नज़रआती है :-  आगे पढ़ने "“ज्ञानरंजन जी से मिलकर…!!”" पर क्लिक कीजिये" कुछ ज़रूरी जो शेष रहा वो ये रहा .... 
              ज्ञानरंजन के मायने पहल अच्छा लिखने की सच्चा लिखने की एक  अच्छे लेखक जो अंतर्जाल को ज़रूरी मानते तो हैं किंतु उनकी च्वाइस है क़िताबें. किसी से बायस नहीं हैं ज्ञानरंजन तभी तो ज्ञानरंजन है.. एक बार मेरी अनूप शुक्ला जी डा०विजय तिवारी के साथ उनसे हुई  एक मुलाक़ात में उनका गुस्सा राडिया वाले मामले को लेकर लेकर फ़ूटा तो था बिखरा नहीं साफ़ तौर पर उन्हौने समझौतों की हद-हुदूद की ओर इशारा कर दिया था .. गुस्सा किस पर था आप समझ सकते हैं ..ज्ञानरंजन कभी टूटते नहीं बल्कि असहमति की स्थिति में  इरादा दृढ़ और अपनी  गति तेज़ कर देते हैं.पूरे ७५बरस के हो जाएंगे २१ नवम्बर २०११ को इस अवसर पर  नई-दुनियां अखबार का एक पूरा पन्ना सजाया है . 
                     मेरे  बाद मेरे नातेदार भाई मनोहर बिल्लोरे जी का संस्मरणालेख प्रस्तुत है....
      ज्ञानरंजन, 101, रामनगर, अधारताल, जबलपुर. घर के पास ही संजीवन अस्पताल. यह 'घर पूरे देश और विदेश का भी - सांस्कृतिक केन्द्र है. यहाँ ग्रह-उपग्रह से जुड़ा कोई भारी उपकरण नहीं, टीवी, मोबाइल के सिवाय. पर खबरें... खबरें यहाँ पैदल,साईकिल,रिक्शे से लेकर इन्टरनेट तक के माध्यम से हड़बड़ाती दौड़ती-भागती चली आती हैं और हवा में पंख लगाकर जबलपुर की फिज़ा में उड़ने लगती हैं. हम रोज मंदिर की सुबह-शाम या एक बार यहाँ भले न जायें, पर हफ़्ते में दो तीन बार जाये बिना चैन से रह नहीं सकते. और यदि कतिपय कारणों से न जा पायें तो ज्ञान जी का फोन आ जायेगा - 'क्यों क्या बात है - आ जाओ जरा. और हम दौड़ते-भागते 101 नम्बर रामनगर हबड़-दबड़ पहुँच जाते हैं. - 'क्यों कोई खास बात, कहाँ थे, क्या कहीं बाहर चले गये थे.मेरी पहली मुलाकात कथाकार, पत्रकार, पर्यावरण कर्मी, सक्रियतावादी और अब अनुवादक भी - राजेन्द चन्द्रकांत राय, के साथ उनके अग्रवाल कालोनी वाले दूसरे तल पर बने उस छोटे से आयताकार आश्रम में - जिसमें नीचे एक मोटा किंतु खूब मुलायम गद्दा बिछा रहता और दो ओर पुस्तकों से भरी पूरी सिर की ऊँचाई तक पुस्तकों से अटी खुली अलमारी एक ओर टिकने की दीवार और चौथी ओर घर में भीतर की ओर खुलने वाला दरवाजा था. पत्रिकाओं-पुस्तकों के यहाँ-वहाँ लगे ढेर अलग. यहाँ-वहाँ बिखरे रहते. मैं जाता और चुपचाप बैठा लुभाता, पुस्तकों के नाम पढ़ता रहता. जब कभी कोई पत्रिका या पुस्तक ले आता और पढ़कर लौटा देता. सिलसिला चल निकला. वहीं पर दानी जी और इंद्रमणि जी से पहली मुलाकात हुई और बाद में मुलाकातों का सिलसिला चल निकला, जो आज तक मुसलसल जारी है.
 उन दिनों रचनात्मकता का भूत सा मुझ पर सवार था. जो लिखता वह मुझे सर्वश्रेष्ठ लगता. एक गलतफहमी अंदर भर गई थी कि जो मैं लिख रहा हूँ वह मुझे नामवर बना देगा. पर उसमें भावुकता बहुत भरी थी - इसका मुझे बहुत धीमे-धीमे कई सालों में अहसास हुआ. उसी समय मैंने गीता का अपने ही भावुक छंद में हिंदी में काव्यानुवाद सा किया था. मैंने उसके दूसरे अध्याय की एक-एक फोटोकापी ज्ञानजी और इन्द्रमणि जी को दी थी - उसी आयताकार छोटे कमरे में - जिसे देखकर उन्होंने चुपचाप रख लिया था. इंद्रमणि जी ने ज़रूर गीता पर अपनी कुछ टिप्पणियाँ दी थीं, अनुवाद पर नहीं. फिर मैंने भी     कभी उस बावत बात नहीं की. इससे पहले मैं किसी ठीक-ठाक ठिये की तलाश में भटक रहा था जो सामूहिक रचनात्मकता का केन्द्र हो. चंद्रकांत जी तो साथ थे ही, पर वे मजमा नहीं रचाते थे. हाँ निरंतर लिखने-पढ़ने रहते. उस समय उनका राजनीति के प्रति रुझान भी बड़ा गहरा था जो उनके लेखन की गति को अवरुद्ध किये रहता था. मैंने देखा कि शहर में हर साहित्यिक केन्द्र पर गंडा-ताबीज बांधन-बंधवाने, का रिवाज सा था. 'जब तक गंडा बंधवाकर पट और आज्ञाकारी शिष्य न बन जाओ और आज्ञाकारी की तरह दिया गया काम न करो आपकी किसी भी बात पर ध्यान नहीं दिया जायेगा और तब तक आपके लिखे-सुनाये पर वाह तो क्या आह भी नहीं निकलेगी, हाँ तुम्हारी कमियाँ और कमजोरियाँ खोद-खोद कर संकेतों-सूत्रों में आपके सामने पेश की जाती रहेंगी. 
           बहरहाल भटकाव जारी रहा. इनमें से कुछ अडडे तो ऐसे थे कि उन पर मौजूद चेहरे ही वितृश्णा पैदा करते थे. उनसे विद्वता तो बिल्कुल भी नहीं शातिरपन रिसता-टपकता रहता था और समर्पण  करने से रोकता-टोकता रहता था. इतनी महत्वाकांक्षा खुद में कभी नहीं रही और आत्मसम्मान इतना तो हमेशा बना रहा कि कुछ प्राप्ति के लिये मन के विपरीत साष्टांग लेट सकूं. हाँ, अग्रज होने और उसमें भी विद्वता की खातिर किसी के भी पैर छुए जा सकते हैं. पर वह भी तब जब निस्वार्थता और गहरी आत्मीयता महसूस हो तब.          
       बहरहाल, चंद्रकांत जी किशोरावस्था से ही स्तरीय पढ़ने और सक्रिय विधार्थी जीवन जी रहे थे अत: उनके अनुभव ज़मीनी थे और उन्होंने कम उम्र में ही मुख्य धारा को समझने और उस ओर रुख करने का सहूर और सलीका आ गया था जो मुझमें बहुत बाद में बहुत धीरे-धीरे आया पर अब भी पूरी तरह नहीं आया है. स्वभाव का भी    फर्क रहा. वे बहिर्मुखी अधिक रहे और मेरी अंतर्मुखता अभी तक मेरा पीछा नहीं छोड़ पा रही. धीरे-धीरे वे मेरे 'भैया बन गये. उनसे मुझे हमेशा आत्मीयता का भाव मिलता रहा है. मनमुटाव कभी नहीं हुआ, हाँ जब कभी हल्के-दुबले मतभेद किसी मुद्दे को लेकर ज़रूर रहे पर वे भी बहुत जल्दी उनकी या मेरी पहल पर कपूर की तरह काफूर हो गये. अब तक मैं तीस से अधिक वसंत पार कर चुका था और भावुकता से लबालब भरा था. चंद्रकांत जी को जब भी मैं कुछ लिखकर दिखाता या सुनाता तो कोर्इ विपरीत टिप्पणी नहीं करते, 'ठीक है, या इसे एकाध बार और लिखो. कहकर आगे बढ़ जाते.
                  यह सन 91-92 के आसपास की बात है. मैंने एक कविता लिखी, और जैसा कि अमूमन होता था, कुछ भी लिख लेने के बाद चंद्रकांत जी को लिखी गयी कविता सुनाने का मन हुआ अत:   उनके घर - जो पास ही था, चला गया. नीचे दरी पर बैठे अधलेटे वे कुछ पढ़ रहे थे. संबोधित हुए तो मैंने एक कविता पूरी करने की बात कही. उन्होंने सुनाने की बात कही और बैठ गये. मैंने कविता सुनाई तो उन्होंने कहा - 'यह तो बहुत अच्छी कविता है. इसे एकाध बार  और लिखोगे तो यह संवर जायेगी. हम बात कर ही रहे थे कि फोन की घंटी बजी. उस समय मोबाइल नहीं टिनटिनाते थे. चंद्रकांत जी ने बातचीत के दौरान ज्ञान जी के पूछने पर कि 'क्या कर रहे हो? -  बताया - 'बिल्लौरे जी ने एक बहुत बढि़या कविता लिखी है, वही सुन रहा था. तो ज्ञान जी का उत्तर था - 'यहीं चले आओ हम भी सुनेंगे. कहकर फोन रख दिया. हम दोनों आनन-फानन में जेपीनगर से ज्ञान जी के घर 101 रामनगर पहुँच गये. उन्होंने वह कविता सुनी नहीं, लिखी हुई कविता ली और उलट-पलट कर देखी. पहले अंतिम भाग पढ़ा, फिर ऊपर, फिर बीच में देखकर एक बार फिर षुरू से आखीर तक पुन: नज़र दौड़ार्इ और बोले - 'यह तो पहल में छपेगी. कहकर उन्होंने पन्ना लौटा दिया और कहा - 'तीन चार कविताएं और इसके साथ दे देना अगले अंक के लिये. और वह कविता तीन और कविताओं के साथ पहल के 46 वें अंक में सन 92 में प्रकाशित हुर्इ. यह मेरा किसी भी साहित्यिक-पत्रिका में छपने का पहला अवसर था. और षायद मेरे साहित्यिक जीवन की षुरूआत भी यहीं से मुझे मानना चाहिये. इसक पहले तो बस लपड़-धों-धों थी. मेरी रचनात्मक प्यास ने तब फिर कभी नहीं सताया. बस एक और दूसरी प्यास और भूख भी जागने लगी - अच्छा पढ़ने और उसे पाने की, जो अब तक मुसलसल जारी है और मिटती नहीं, बढ़ती ही जाती है, जितना खाओ-पीओ या कहें पीओ-खाओ. एक और बात थी ज्ञान जी के यहाँ निर्द्वंद्व जाने की. भाभीजी की स्वागत मुस्कान और आगत चाय-पकवान तथा पाशा-बुलबुल का स्नेह. उनकी सहज सरलता, अपनत्व और वहाँ आने जाने वाले स्तरीय लोगों से मेल मुलाकात तब मिलता रहा. यह सिलसिला अब तक जारी है और ताजिंदगी रहेगा ऐसा मेरा प्लेटिनिक-विश्वास कहता है.
       पाशा अब नागपुर में हैं और बुलबुल विदेश में. पाशा तो आते जाते रहते हैं और उनसे मेल-मुलाकात और फोन से बातचीत होती रहती है. कुछ काम-धाम की बातें भी. पर बुलबुल, बुलबुल का दरस-परस दुर्लभ हो गया है. अब तो एक और छोटी बुलबुल उनके पास आ गयी है. पिछली बार जब बुलबुल अमरीका से अल्पकाल के लिये आयी थी तो मेरे और मेरे घर के लिये भी चाकलेटों के दो बडे़ से पैकेट और पल्ल्व (बेटे) के लिये एक बहुत सुन्दर किताब भेंट में दी थी. जिसे अब तक सहेजकर मैंने अपने पास रखा है.
        ज्ञान जी की एक खास आदत ने भी मुझे उनकी ओर गहरे आकर्षित किया. वे न तो फालतू बातें कभी करते हैं और न ही उनमें उन्हें सुनने रुचि या क्षमता. वे काम और उसमें भी मुद्दे की बात वे करते सुनते हैं. बकवाद में उनकी रुचि बिल्कुल नहीं. हमेशा सजग, सतर्क और तत्पर ज्ञानेनिद्रयाँ. अतार्किक और अवैज्ञानिक तथ्य पर धारदार हमला, और अपने मिलने-जुलने वालों के भीतरी संसार की नियमित स्केनिंग उनके द्वारा होती रहती और नकारात्मक सोच देख सुन कर बराबर सचेत करते रहने का उनका उपक्रम कभी नहीं रुका, और अब तक जारी है. मुसलसल...
एक खास बात और - मैं उनके साथ पहल-सम्मानों के दौरान देष के छोरों तक के कर्इ षहरों में गया हूँ. हर जगह उन्हें खूब प्यार और दुलार देने वाले लोगों का समूह है. उनके हमउम्र, उनसे वरिष्ट तो उनसे प्रभावित रहते ही हैं, पर खास बात यह कि युवा लोंगों का स्नेह और प्यार उन्हें बेइंतहा मिलता है. कार्यक्रम की जिम्मेदारी स्थानीय टीम इतनी तत्परता और जिम्मेदारी से करती कि हम जबलपुर से पहुंचे कार्यकर्ताओं को अधिक दौड़धूप और मशक्कत नहीं करना पड़ती, बलिक मेहमान की तरह हमारा स्वागत और देखभाल की जाती. देष के हर शहर, कस्बे और गाँवों में तक ज्ञान जी का आंतरिक सम्मान और आदर करने और उनके इषारों को समझने और उन पर तत्परता से अमल करने वाले मिल जायेंगे. यह मैंने उनके साथ अपनी यात्राओं के दौरान महसूस किया.
और इस संस्मरण के अंत में इतना और कहने की गहरी इच्द्दा है कि मेरे साहित्यिक जीवन को दिषा देने वालों में राजेन्द्र चंद्रकांत राय के बाद यदि प्रमुखता से किसी और का नाम जुड़ता है तो वह है - ज्ञानरंजन. उनके दिशा-निर्देशों के बिना शायद में आज यह सब लिखने के काबिल न हो पाता और यह साहस भी न कर पाता.
 
मनोहर बिल्लोरे जी की कविता 
पिछले - 
कई सालों से
हम हैं विधार्थी
'पहल स्कूल के
पहली कक्षा के 
पहले पाठ में पढ़ा, हमने 
'वैज्ञानिक दृ्ष्टिकोण 
वह दृष्टि
अक्सर होती है जो - 
कम ही वैज्ञानिकों के पास 
वह कोण जो माप ही नहीं पाते 
अक्सर गणितज्ञ, और वह भाव
जिसका होता है अक्सर, अभाव
वहाँ, जहाँ उसे होना चाहिए
यहाँ मिलती है दृष्टि 
मापन... और होता है 
मूल्यांकन सतत...
फिजूल बातों को यहाँ 
एडमीशन नहीं मिलती जगह,
नहीं मिलता अवकाश, 
नाटकों को मिलती है यहाँ 
पर्याप्त जगह, नाटक-बाजी के लिये 
यहाँ कोई सीट खाली नहीं 
स्कूल में बने रहना है, तो
दूर और देर तक देखना सीखो
हर कोण पर ध्यान दो, 
जगह को अच्छी तरह परखो
अपने काम मगनता से करो
उत्साह और उमंग की बसाओ 
अपनी एक नई दुनिया 
 
आपके पास नहीं है 
गहराने की चाह तो उपजाओ,
अपनी जमीन को हलो-बखरो, 
दो खाद-पानी, बौनी करो
 कितने ही लोग डरकर 
भाग जाते हैं यहाँ से
कितने ही लोग भय से 
नहीं आ पाते यहाँ 
'पहल का 
पहला पाठ, हमने पढ़ा 
कई साल पहले, लगाकर 
खूब मन, बदला खुद को 
धीरे-धीरे, थोड़ा  ही सही,
बदला सुध-बुध को... 
एक  आकाश देखा, 
खुला... खुला, निगाहें
बंद कीं तो खुला अंत: आकाष
धुला-धुला, स्वच्छ, उजला
एक नदी बह रही है,
पास जाकर सुनो 
नदी कुछ कह रही है 
अगर... धीमे ही सही
सकारात्मक बदलाव की क्रमबद्ध 
निरंतरता और प्रमाणिकता को 
बनाये नहीं रख सकते, तो 
फेल हो जायेंगे आप परीक्षा में
बहुत कम नंबर मिलेंगे, और जो 
मिलेंगे वह भी मनुश्यता और
मानवीय-दृष्टि की बदौलत
आप का नाम स्कूल के 
दाखिल-खारिज़ रजिस्टर से
कट भी सकता है
जन-संस्कृति के बीज यदि
आप अपने अंदर नहीं उगा सके 
तो, कारण बताओ नोटिस 
मिल सकता है आपको
स्कूल के बाग में आपका 
जाना - आना,
हो सकता है प्रतिबंधित
हमेशा-हमेशा के लिये 
डूबकर बातें आपसे 
नहीं हो सकतीं उस तरह
जैसी हो सकती थी।
उस समय, उस जगह... 
हम पढ़ रहे हैं
और अच्छे नम्बरों से न सही
परीक्षाएं, कर रहे हैं पास
साल-दर-साल, हर साल
पिछले - 
कई  सालों से
        
मनोहर बिल्लौरे,1225, जेपीनगर, अधारताल,जबलपुर 482004 (म.प्र.)मोबा. - 89821 75385
मेल आई डी "मनोहर बिल्लोरे " या manoharbillorey@gmail.com 

मंगलवार, नवंबर 15, 2011

हां मुझ में मै ही रचा बसा हूं

जो दर्द पीकर सुबक न पाया 
वो जिसने आंसू नहीं बहाया .
उसी की ताक़त  से हूं मैं ज़िंदा
उसी ने मुझमें है घर बनाया.
न जाने है कौन वो  जो मुझमे
बसा हुआ है रचा हुआ है...
क़दम मेरे जो डगमगाए 
सम्हाल मुझको वो पथ सुझाए 
हां मुझ में मै ही रचा बसा हूं
तभी तो खुद ही सधा सधा हूं
किसी में खुद की तलाश क्योंकर
मैं खुद ही खुद का खुदा हुआ हूं 
मैं रंग गिरगिट सा नहीं बदलता
मैं हौसलों से पुता हुआ हूं









रविवार, नवंबर 13, 2011

लोकरंग का सार्थक आयोजन

                   शनिवार दिनांक 12 नवम्बर 2011 को सरस्वतिघाट भेड़ाघाट में   जिला पंचायत अध्यक्ष भारत सिंह यादव,के मुख्य-आतिथ्य, एवम श्री अशोक रोहाणी,पूर्व-सांसद पं.रामनरेश त्रिपाठी,नगर-पंचायत अध्यक्ष श्री दिलीप राय,पूर्व-महापौर सुश्री कल्याणी पाण्डेय के विशिष्ठ आतिथ्य  में आयोजित लोकरंग का शुभारंभ मां नर्मदा एवम सरस्वती पूजन-अर्चन के साथ हुआ .
      इस अवसर पर विचार रखते हुए श्री भारत सिंह यादव ने कहा –“लोक-कलाओं के संरक्षण के लिये ऐसे आयोजन बेहद आवश्यक हैं मेला-संस्कृति के पोषण के लिये भी कम महत्व पूर्ण नहीं हैं ऐसे आयोजन. सरस्वतिघाट पर हो रहे ऐसे आयोजन के आयोजन एवम प्रायोजक दौनों ही साधुवाद के पात्र हैं”.
 पूर्व सांसद श्री रामनरेश त्रिपाठी ने कहा –“मोक्षदायिनी मां नर्मदा के तट पर मां नर्मदा का यशोगान बेशक स्तुत्य पहल है विग्यान के नियमों को उलट देने वाली मां नर्मदा का तट पर आयोजित लोकरंग एक सार्थक-पहल है जिसके साक्षी बन कर हम हितिहास का एक हिस्सा बन रहे हैं.”
 सुश्री कल्याणी पाण्डेय के अनुसार-“ जहां एक ओर मां नर्मदा के तट पर अध्यात्म, संस्कृति को बढ़ावा मिला वहीं पुण्य-सलिला के तट पर अकाल, महामारियों को कोई स्थान नहीं ”
      लोकरंग के प्राम्भिक चरण में डा० नीलेश जैन,नारायण चौधरी, भूपेंद्र सिंह , की उपस्थिति   उल्लेखनीय है.
ग्रामीणों की नज़र मे आयोजन :-
 लोकरंग पर अपनी प्रतिक्रिया पिपरिया निवासी संतोष मल्लाह की प्रतिक्रिया थी “देहात के लाने जो कार्यक्रम ऐंसो लगो जैसों हमाओ कार्यक्रम है.”
सुनाचर निवासी परसुराम विश्वकर्मा की राय थी -“जे लोकगीत हमाई गांव की परम्परा है. हमाए लाने जो कछु करौ बहुतई अच्छौ लगो..”
हल्ला गुल्ला वारे कार्यक्रम तो सब करात हैं हमाए लाने हमाओ कार्यक्रम पहली बार भओ अच्छो लगो भैया ... ये विचार थे झिन्ना निवासी दमड़ी लाल चौधरी के. इसी तरह किशोर दुबे, राजाराम सेन, मनोज जैन, सुरेश तिवारी, धवल अग्रवाल, दीपांकर अग्रवाल, संटू पाल, लखन पटेल, राजू९ जैन, मुन्ना पटेल हनमत सिंह, गनपत तिवारी, मधुरा जैन, विपिन सिंह, बहादुर बर्मन बल्ली-रजक, सोनू श्रीवास्तव, आशीष जैन, चतुर पटैल, उमराव रज़क, अशोक उपाध्याय, भोजराज सिंह, संजय साहू, मोती पाठक , मनोज साहू आदी ने कार्यक्रम की मुक्त कण्ठ सराहना की.
कार्यक्रम के आयोजन में श्री विद्यासागर दुबे, नितिन अग्रवाल (मजीठा),वीरेंद्र गिरी (छेंड़ी) ,दिलीप अग्रवाल (भेड़ाघाट चौक),  एड.सम्पूर्ण तिवारी, गिरीष बिल्लोरे “मुकुल”,डा.लखन अग्रवाल, कंछेदीलाल जैन, महेश तिवारी,सुनील जैन, किशोर दुबे,धर्मेंद्र पुरी,सुरेश तिवारी, विद्यासागर दुबे, राजू जैन,मंजू जैन, संजय साहू, धीरेंद्र प्रताप सिंह, सुखराम पटेल,पं शारदा प्रसाद दुबे, धवल अग्रवाल,गनपत तिवारी,सुधीर शर्मा,सीता राम दुबे,चतुर सिंह पटेल, बल्ली रजक, के साथ क्षेत्रीय सरपंच देवेंद्र पटेल(बिलखरवा),हनुमत सिंह ठाकुर (बिल्हा),लखन पटेल(आमाहिनौता), जग्गो बाई गोंटिया(कूड़न)राजू पटेल (तेवर),डा०राजकुमार दुबे(बंधा),मुन्नाराज (सहजपुर),परसुराम पटेल(सिहौदा),जानकी अनिल पटेल(लामी) की महत्वपूर्ण  भूमिका थी.
छा गये दविंदर सिंह ग्रोवर
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी दविंदर सिंह ग्रोवर की एका टीम ने जब लोकनृत्य की प्रस्तुति दी तब क्षेत्रीय जनता ने तालियों से सराहना की कारण था दविंदर का शुद्ध बुन्देली में  लोक गायन . नृत्य निर्देशक श्री दविंदर के हरेक प्रस्तुति में रिर्कार्डेड गीत रचना का प्रयोग नहीं किया गया.. वे स्वयं राई बम्बुलियां, बरेदी गीतों के बोल गा रहे थे. एक अहिंदी भाषी का शुध्द बुंदेली में प्रस्तुति करण पर खचाखच भरा जन सैलाब मोहित सा था.
फ़िल्मी गीत –संगीत पर आधारित एक भी प्रस्तुति नहीं
लोकरंग में एक भी ऐसी प्रस्तुति नहीं देखी गई जिसमें फ़िल्मी गीत संगीत का प्रभाव हो “एकजुट कला श्रम के श्री मनोज चौरसिया का कहना था- लोककलाओं से फ़िल्में हैं फ़िल्मों से लोककलाएं कदापि नहीं.
 बुंदेली-भाषा में संचालन
सम्पूर्ण तिवारी-मनीष अग्रवाल की जोड़ी द्वारा संचालित सम्पूर्ण  कार्यक्रम का संचालन बुंदेली में ही किया
मशहूर लोकगायक मिठाई लाल चक्रवर्ती ने बांधा समा
                       लोकगीतों के सरताज़ मशहूर लोकगायक मिठाई लाल चक्रवर्ती के गाए राई, फ़ाग, डिमरयाई, एवम लोकभजनों ने श्रोताओं का मन मोह लिया.
लाफ़्टर चैलेंज में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर चुके हास्य-कला कार श्री विनय जैन एवम मनीष जैन ने खूब हसांया बावज़ूद इसके कि उनकी एक किसी भी प्रस्तुति में फ़ूहड़ता एवम वल्गरिटी की झलक न थी कुल मिला कर  हास्य-प्रस्तियां स्तरीय रहीं

मंगलवार, नवंबर 08, 2011

तेहरान के मुकाबले ईरानी लोगों को सशक्त करो : डैनियल पाइप्स


 डैनियल पाइप्स
नेशनल रिव्यू आनलाइन
19 जुलाई, 2011

पश्चिमी सरकारों को इस्लामिक रिपब्लिक आफ ईरान के साथ किस ढंग से कार्यव्यवहार करना चाहिये जिसे कि वाशिंगटन ने " आतंकवाद का सबसे सक्रिय राज्य प्रायोजक बताया है'?
ईरान की आक्रामकता 1979 में तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर कब्जे से आरम्भ हुई और इसके कुछ कर्मचारियों को कुल 444 दिनों तक बंधक बना कर रखा। इसके बाद हुए कुछ बडे आक्रमणों में 1983 में बेरूत में अमेरिकी दूतावास पर आक्रमण जिसमें 63 लोग मौत के घाट उतारे गये और अमेरिका की नौसेना बैरक पर आक्रमण जिसमें 241 लोग मारे गये।
अभी हाल में अमेरिका के रक्षा सचिव लिवोन पनेटा ने कहा, " हमें दिखाई दे रहा है कि इन हथियारों में से अधिकतर इराक के रास्ते ईरान को जा रहे हैं और यह निश्चित रूप से हमें क्षति पहुँचा रहा है" । संयुक्त चीफ आफ स्टाफ के अध्यक्ष माइक मुलेन ने इसमें और जोडा कि, " ईरान प्रत्यक्ष रूप से कट्टरपंथी शिया गुटों की सहायता कर रहा है जो कि हमारे सैनिकों को मार रहे हैं" ।
अमेरिका की प्रतिक्रिया मूल रूप से दो वर्ग में विभाजित है: कठोर और कूटनीतिक। पहले वर्ग का मानना है कि तेहरान अब सुधरने वाला नहीं है और टकराव तथा यहाँ तक कि बल प्रयोग की सलाह देता है; इसका अनुमान है कि कूटनीति, प्रतिबंध, कम्प्यूटर वाइरस और सैन्य आक्रमण की धमकी से मुल्लाओं को परमाणु शक्ति सम्पन्न होने से नहीं रोका जा सकता और इसका मानना है कि या तो शासन में परिवर्तन करवाया जाये या फिर ईरानी बम के विरुद्ध सैन्य विकल्प का प्रयोग किया जाये। दूसरी ओर कूटनीतिक वर्ग जो कि सामान्य तौर पर अमेरिका की नीतियों पर नियंत्रण रखती है इस्लामिक रिपब्लिक आफ ईरान के स्थायित्व को स्वीकार करता है और इस बात की अपेक्षा करता है कि तेहरान कूटनीतिक समझौते का समुचित उत्तर देगा।
इस पूरी बहस में सबसे बडा विवाद इस बात पर है कि ईरान के सबसे बडे विरोधी गुट मुजाहिदीने खल्क को अमेरिका सरकार की आतंकवादी सूची में रखा जाये या नहीं। कठोर वर्ग सामान्य रूप से 1965 में स्थापित एमईके को मुल्लाओं के विरुद्ध एक हथियार मानता है (हालाँकि कुछ थोडी संख्या विरोध में भी है) और इसे आतंकवादी सूची से ह्टाने का पक्षधर है। दूसरी ओर कूटनीतिक वर्ग का मानना है कि इसे सूची से हटाने से ईरानी नेता असंतुष्ट होंगे और कूटनीतिक प्रयासों को क्षति होगी साथ ही ईरानी लोगों तक पहुँच बनाने में कठिनाई होगी।
एमईके से सहानुभूति रखने वाले पक्ष का तर्क है कि एमईके का इतिहास वाशिंगटन के साथ सहयोग करने का, ईरानी परमाणु संयंत्र के सम्बंध में मह्त्वपूर्ण खुफिया सूचनायें प्रदान करने और इराक में ईरानी प्रयासों के सम्बंध में भी रणनीतिक खुफिया सूचनायें प्रदान करने का रहा है। इससे आगे जिस प्रकार इस संगठन और नेतृत्व की क्षमता की सहायता से 1979 में शाह के शासन को उलट दिया गया उसी प्रकार शासन में परिवर्तन के लिये इनकी क्षमताओं का उपयोग किया जा सकता है। सडक पर विरोध करने वालों को एमईके के साथ सहयोग के आरोप में गिरफ्तार किया जाना भी विरोध प्रदर्शन में इसकी भूमिका को सिद्ध करता है और साथ ही ये नारे भी कि सर्वोच्च नेता अली खोमैनी " अपराधी" हैं , राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद "तानाशाह" हैं और धार्मिक नेता के राज्य के प्रमुख होने के विरुद्ध नारे।
अमेरिका के अनेक उच्च अधिकरियों ने एमईके को आतंकवादी सूची से निकालने की बात की है इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ( जेम्स जोंस), संयुक्त चीफ आफ स्टाफ के तीन अध्यक्ष ( ह्यूज शेल्टन, रिचर्ड मेयर्स, पीटर पेस) , गृहभूमि सुरक्षा के सचिव ( टाम रिज) ,एक महान्यायवादी ( माइकल मुकासे) और आतंकवाद प्रतिरोध के राज्य समन्वयक ( डेल डेली) शामिल हैं। रिपब्लिक और डेमोक्रेट दोनों ही दलों के प्रभावी लोग इस पक्ष में हैं कि इस संगठन को आतंकवादी की सूची से निकाल दिया जाये और इस सूची में दलीय मर्यादा से परे कुल 80 कांग्रेस सदस्य शामिल हैं।
एमईके विरोधी वर्ग इस संगठन को सूची से निकाल दिये जाने के लाभ पर विचार किये बिना तर्क देता है कि अमेरिकी सरकार को आतंकवाद के आरोपों के आधार पर इसे सूची में बनाये रखना चाहिये। उनका इस संगठन को दोषी बनाने का आधार है कि 1970 में इस संगठन ने छ्ह अमेरिकी लोगों की हत्या की थी। वैसे ये आरोप सत्य हैं या नहीं लेकिन आतंकवादी सूची में शामिल करने के लिये आवश्यक है कि आतंकवादी घटना दो वर्ष से हो रही हो और इस आधार पर 1970 की बात करना अप्रासंगिक है।
पिछले दो वर्षों का क्या? एमईके का पक्ष लेने वालों का कहना है कि अमेरिका के आतंकवाद सम्बंधी तीन मुख्य डाटाबेस Rand Database of Worldwide Terrorism Incidents , the Global Terrorism Database और the Worldwide Incidents Tracking system के अनुसार एमईके वर्ष 2006 से पूरी तरह साफ सुथरा पाया गया है।
क्षमता और आशय की बात का क्या? राज्य विभाग की वर्ष 2006 की " Country Report on Terrorism" रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि यह संगठन आतंकवादी घटनाओं की " क्षमता और इच्छा" रखता है लेकिन वर्ष 2007, 2008 और वर्ष 2009 की रिपोर्ट में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है। ब्रिटेन में कोर्ट आफ अपील ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया और इसे वर्ष 2008 में ब्रिटेन की आतंकवादी सूची से हटा दिया गया। यूरोपियन संघ ने वर्ष 2009 में इसे आतंकवाद के आरोप से मुक्तकर दिया। फ्रांस की न्यायपालिका ने भी इसके विरुद्ध आतंकवाद के आरोपों को मई 2011 में निरस्त कर दिया।
संक्षेप में, एमईके को आतंकवादी उपाधि देना आधारहीन है। अनेक न्यायालयों द्वारा एमईके की आतंकवादी उपाधि की पुनर्समीक्षा के बाद राज्य सचिव को अत्यंत शीघ्र ही यह सुनिश्चित करना चाहिये कि क्या इस सूची को आगे भी जारी रखना है? ओबामा प्रशासन एक सामान्य ह्स्ताक्षर से ईरानी लोगों को सशक्त कर सकता है कि वह अपने भाग्य पर बने नियंत्रण से बाहर आ सकें और शायद मुल्लाओं के परमाणु पागलपन से भी।
मौलिक अंग्रेजी सामग्री: Empower Iranians vs. Tehran
हिन्दी अनुवाद - अमिताभ त्रिपाठी

सोमवार, नवंबर 07, 2011

बेटी-बचाओ अभियान : वरिष्ट कवि मोहन शशि जी ने लिखी 587 पृष्ट लम्बी कविता "बेटे से बेटी भली "

जबलपुर के वरिष्ट रचनाकार साहित्यकार सोशल-एक्टीविस्ट एवम भास्कर जबलपुर के फ़ीचर-एडिटर  श्रीयुत मोहन "शशि" द्वारा लगातार हृदयाघातों के बावज़ूद बेटी के प्रति सामाजिक नकारात्मक्ता से मानसिक तौर पर विमुक्ति की के लक्ष्य को लेकर 587 पृष्ट लम्बी कविता "बेटे से बेटी भली " लिखी है.
मोहन शशि जी मध्य-प्रदेश की उसी मिलन संस्था के जनक हैं  जिस संस्था ने देश भर को एक सांस्कृतिक आंदोलन के लिये  दिशा दी थी.
शशि जी बातचीत का एक एपीसोड पेश है


शशि जी से  बैमबज़र पर एक भैंटवार्ता सुनिये


587 पृष्ठीय कविता जो मध्य-प्रदेश सरकार के बेटी-बचाओ अभियान का एक तरह से समर्थन है के लोकार्पण के पूर्व "मोहन शशि जी से  श्री विजय तिवारी किसलय की भेंटवार्ता" सुन सकते हैं .


 विस्तृत आलेख हिंदी साहित्य संगम पर अवश्य देखिये 

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