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गुरुवार, सितंबर 15, 2011

जलाओ दिए - गोपालदास नीरज जी की एक रचना.


जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना      


जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना 
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमि,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ल,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐस,
निशा की गली में तिमिर राह भूल,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगम
ऊषा जा न पानिशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना 
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। 
सृजन है अधूरा अगर विश्‍व भर मे,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदास,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेग,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यास,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ह,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आ
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना 
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। 
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग मे,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेर,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन क,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेर,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अ,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आ
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना 
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

              नीरज जी की अन्य रचनाएं कविताकोष से साभार 

मंगलवार, सितंबर 13, 2011

न्यू मीडिया में हिंदी की दशा और दिशा : कनिष्क कश्यप


           न्यू मीडिया , विशेष तौर पर हिंदी न्यू मीडिया जिसका सबसे लघु इकाई एक ब्लॉग को कहा जा सकते, अब तक का सर्वाधिक उपेक्षित और गैर-प्रभावी बता कर उपेक्षा की दृष्टि सहता रहा है. यह सत्य है कि न्यू मीडिया शब्द के मायने इतने संकीर्ण नहीं कि मात्र ब्लॉग लेखन ही उसकी परिधि में  आये. यह एक तकनिकी क्रांति के बाद और विशेष तौर पर डाटा ट्रान्सफर ओवर वर्ल्ड वाइड वेब के क्षेत्र में आये चमत्कारी परिवर्तन के कारण इतना आग्रही हो गया कि इसे समान्तर मीडिया की तरह देखने और आंकने की  बौद्धिक मजबूरी पैदा होती गयी.

आभार:ब्लॉग ठाले बैठे 
इसकी परिधि एक ब्लॉग , एक वेबसाईट से लेकर फेसबुक , ट्वीटर , विकिपीडिया और यु-ट्यूब के प्रभावी हस्तक्षेप से कहीं आगे कनवर्जेन्स तक को समेटे हुए है. कनवर्जेन्स का अर्थ है आपके मोबाइल फोन (आई-फोन), पॉम पैड में पुरे सुचना तंत्र का विलय हो जाना . अब चाहे वह टीवी हो , अखबार का ऑनलाइन संस्करण हो, रेडियो प्रसारण हो , फेसबुक हो या आपका ब्लॉगस्पोट का ब्लॉग. यह सब सिमट कर एक छोटे डिवाइस में आ जाना ही कनवर्जेन्स कहलाता है.
अब बुनियादी सवाल यह उठता है , कि आम आदमी को मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक चैलेन्ज के रूप में क्यूँ माना जा रहा है. जब सम्प्रेषण, प्रस्तुति, व्यापकता और विश्वसनीयता के आधार पर आज भी परंपरागत मीडिया ..छोटी मछलिओं के मुकाबले कहीं ज्यादा प्रभावी हैं. आज भी इंटनेट पर टाइम्स , भाष्कर और गार्जियन वैसे ही काबिज हैं. सुचना प्रवाह के इस विशाल समंदर में आपकी आवाज तो है , मगर वह हाशिए पर है . वह उस रिक्त स्थान में हैं , जिसे ताक पर कहते हैं. यह दुर्दशा विशेष तौर पर भारत में हैं और उसमे भी हिंदी के इर्द-गिर्द.
हिंदी के प्रति उदासीनता सबसे ज्यादा उनकी ही हैं , जिन्हें हिंदी आती है. मात्र  हिंदी के ज्ञान लिए और अंग्रेजी को टटोलने वाले लोग अंग्रेजियत के बड़े दीवाने दीखते हैं. इसका सीधा असर हिंदी ऑनलाइन मीडिया में बाजार के बेरुखी के रूप में सामने आता है. परन्तु इसे शिकायत के तौर पर नहीं लेकर हमें चुनौती के रूप में देखना पड़ेगा. चुनौती हिंदी के अस्तित्व को समृद्ध , सशक्त और सक्षम बनाये रखने की. क्योंकि आप किसी सहयोग , समर्थन की आस लिए इस क्षेत्र में उतरें हैं तो आपको निराशा ही मिलेगी . संवेदना के बर्बर मर्दन में यकीं रखने वाले ..बाजारवाद के अधीन इस न्यू मीडिया का प्रयोग-पटल भी अलग नहीं है . हाँ , इसमें आपको चूं -चूं करने भर के लिए जरूर आजाद छोड़ रखा है. क्योंकि इस बाज़ार के प्रभावी खिलाडिओं को यह अच्छी तरह पता है ..कि आपकी चूं-चूं उनके लिए बड़े बगीचे में चहचहाने वाले चिड़िया से ज्यादा कुछ और नहीं.  जिसे उतनी ही आजादी मिलती है कि वह मौसम पर अपना मिजाज चूं-चूं कर जाहिर कर सके. मौसम बदलने की ताकत उसमे नहीं.शायद यह ट्वीटर यहीं दर्शाता है.जहाँ अमिताभ बच्चन और राहुल गाँधी ने क्या कहा यह उल्लेखनीय अवश्य है , परन्तु वहीँ बात अगर आप उसी ट्वीटर पर चार साल से कह रहे तो भी आपको कोई नहीं पूछता. न्यू मीडिया में बड़े खिलाडिओं की उपलब्धि की कतार में अपने को खड़ा मानना आपका और हमारा दिवास्वपन है. मुझे याद याता है , पल्लू शॉट जी हाँ  ..दिलशान का पल्लू शॉट . आज जिसे दिलशान का पल्लू शॉट कहा जाता है ..उसे बिहार की गलिओं में हमने हजारों बार खेला . और हमने क्या बच्चा-बच्चा यह शॉट खेला करता है.  मुझे यह सारी स्थिति कुछ -कुछ ऐसा ही आभास दिलाती है, जैसे मोनियुल -हक स्टेडियम के बाहर के खाली फील्ड में खेलने का वक्त होता था. असल मैच तो स्टेडियम के अंदर चल रहा होता है. किन्तु बहार खेलने वाले भी यहीं कहते हैं कि मोनियुल-हक से खेल कर आ रहे हैं.
परन्तु इस कथन में मेरी कोई  दोष-दर्शिता को नहीं देखें . इसके अलग मायने हैं. परन्तु किसी भी तंत्र में कुछ तो फल को खाने वाले होते हैं, उन्हें यह फिक्र नहीं होती और न ही उनसे अपेक्षा की जाए कि वह फल खाने से पहले आम की नस्ल , उसकी लागत , उसकी पैदावार और उसके मालिक का पता लगा कर फल खायेंगे. और दूसरी जमात उन लोगों की होती है जो फल के पैदावार , उसके व्यापर और नस्ल , स्थानीय बाज़ार पर उसका प्रभाव, भविष्य के स्पंदन पर नज़र बनाये रखते हैं. ऐसे ही लोगों को आप कभी फेसबुक और ट्वीटर पर चिंतित होते हुए यत्र-तत्र पाते हैं. कई तो इनकी चिंता को इनकी अज्ञानता और कई इन्हें रुढिवादी बता कर उपहास करते हैं. परन्तु यह चिंता वाजिब है.
लेकिन सवाल कठिन तब हो जाता है , जब आप स्थानीय उपक्रम को राष्ट्र-प्रेम , भाषा-मोह में आकार अपना समर्थन और सहानुभूति देते हैं  और कल वहीँ तथाकथित देशी , विदेशी चोला पहनने लगता है . इसे अंग्रेजों से मिली मुक्ति के बाद के दिनों में बनी बॉलीवुड फिल्मों को देखर समझा जा सकता है. सब से सब अंग्रेजियत से सराबोर हैं . और तो और ..हिंदी भी अंग्रजी की तरह बोलते नज़र आते हैं . फिर चाहे वह भारतीय राजनीती ही क्यों न हो. शोषण तो अब भी बदस्तूर जारी है. नायक बदल गए हैं , अपर पटकथा वहीँ है , परिणति वहीँ है .
हिंदी को न्यू मीडिया में प्रभावी रखने के लिए वर्तमान  निकायों का विकेन्द्रीकरण आवश्यक है.  अपनी कमजोरी को ही अपना हथियार बनाना होगा. इसमें हमारी कमजोरी और बौना होने का अहसास सिर्फ इसीलिए है कि ..एक ब्लॉग और एक वेबसाईट , बहुत ही कम लागत पर शुरू हो जाती है और संपादन सुख लेते हुए आप अपना हस्तक्षेप को तैयार हो जाते हैं. लेकिन गलती यहीं है कि हम किसी बड़े हाउस की तरह बर्ताव करने लगने हैं. आवश्यकता है अपनी खोज, उर्जा और आवाज को ग्रामीण स्तर पर ले जाने की . क्योंकि वह क्षेत्र आज मुख्यधारा द्वारा उपेक्षित हैं.आपकी सक्रियता वहाँ आपकी पैठ आसानी से बना देगी . फिर कल को कोई आपको चुनौती देने आये ..तब तक आप अपनी पहचान स्थानीय स्तर पर बना चुके होंगे.
(लेखक कनिष्क कश्यप  न्यू मीडिया विशेषज्ञ है )

सोमवार, सितंबर 12, 2011

हिंदी दिवस पर विशेष : लेट अस ट्राय टू स्पीक हिन्दी


                       राजभाषा,राष्ट्रभाषा यानी ग़रीब-देश की ग़रीब-भाषा को नमन करते हुए हम भारतवासी अपनी भाषा के प्रति कितने ईमानदार हैं इस बात का अंदाज़ पहले-दर्ज़े के कूपे में बिराजे मेरे सह यात्री जोड़े के मेरे एवम श्रीमति जी के बीच चल रही हिंदी भाषा में बातचीत पर किये गये तंज़ से लगाया जा सकता है. 
  • Ramola Do you know how to talk in hind..?
  • No, i don't want this 
  • pl. let us try to speek hindi...
                  और वे हमारी ओर देख कर मुस्कुरा दिये. बेटी शिवानी को जो हमसे हिंदी में बात कर रही थी ने उनके हाव-भाव बांच लिये. झट मेरे बस्ते से "आर.के.नारायण" की किताब ”Swami & Friends”ली और पढ़ने लगी.मेरी प्रश्नवाचक निगाहों को पढ़ते हुए शिवानी बोली :- "I am trying to know about india through Narayana "  
            उस वक़्त शिवानी दसवें दर्ज़े में थी.उसे राष्ट्र भाषा के प्रयोग की वज़ह से उसके मां-बाप का अपमान कितना दु:खी कर-गया था इसका अंदाज़ मुझे न था.मैं समझ गया कि वो उस जोड़े को बता देना चाहती थी कि मेरे पापा गंवार नहीं हैं.. कम-से-कम अंग्रेजी का इतना ग्यान तो रखते हैं कि आर.के.नारायण के ज़रिये जीवन को जान सकें. 
         रोटी की भाषा अंग्रेजी हम मध्य-वर्ग लिये मायने नहीं रखती हमारे लिये महत्वपूर्ण है "जीवन की भाषा जो हमें हमारे जीवन-मूल्यों से परिचित कराए और वो है हमारी राष्ट्र भाषा यानी हिंदी."
        वे लोग भ्रमित हैं कि वे अंग्रेजी के ज़रिये स्वयंभू तौर पर  स्टेटस हासिल कर लेते हैं. मेरी बेटी ही काफ़ी थी उन नासमझों के लिये.   
 शिवानी को मैंने समझाया :-” बेटे,भाषा,बोली, तब तक व्यर्थ है जब तक उसमें संस्कार के दर्शन न हों. 
मेरी हां में अपनी हां मिलाते हुए शिवानी हंस दी और बोली :"Papa let us try to understend feelings haa haa haa ?" 
    सह यात्री जोड़े के चेहरे पढ़ने लायक थे परसाई के शहर की चुहिया भी तीखा तंज-करेगी उन्हैं गुमान न था . 
     मुझे नींद ने घेर लिया इटारसी आते आते तक जोड़ा मेरी बेटी शिवानी और मेरी श्रीमति  से हिंदी में बात करता पाया गया . उन्हैं दिल्ली वाली गाड़ी पकड़नी थी हमें भोपाल वाली.मुझे तो ये किस्सा ता उम्र याद रहेगा और उनको यह चोट .

शनिवार, सितंबर 10, 2011

होना तो यही चाहिए.....

बेटी को आदत है घर लौटकर ये बताने की- कि आज का दिन कैसे बीता।आज  जब ऑफ़िस से लौटी तो बड़ी खुश लग रही,चहचहाते हुए घर लौटी...दिल खुश हो जाता है- जब बच्चों को खुश देखती हूँ तो, चेहरा देखते ही पूछा-क्या बात है बस आते ही उसका टेप चालू हो गया-----
- पता है मम्मी आज तो मजा ही आ गया।
-क्या हुआ ऐसा ?
-हुआ यूँ कि जब मैं एक चौराहे पर पहुँची तो लाल बत्ती हो गई थी,मैं रूकी ,मेरे बाजू वाले अंकल भी रूके तभी पीछे से एक लड़का बाईक पर आया और हमारे पीछे हार्न बजाने लगा,मैंने मुड़कर देखा ,जगह नहीं थी फ़िर से थोड़ा झुककर उसे आगे आने दिया ताकि हार्न बन्द हो....
-फ़िर ..
-वो हमसे आगे निकला और लगभग बीच में (क्रासिंग से बहुत आगे) जाकर (औपचारिकतावश) खड़ा हो गया..
- तो इसमें क्या खास बात हो गई ऐसा तो कई लड़के करते हैं ?
-हाँ,...आगे तो सुनो-- उसने "मैं अन्ना हूँ" वाली टोपी लगा रखी थी ..
-ओह ! फ़िर ?
-तभी सड़क के किनारे से लाठी टेकते हुए एक दादाजी धीरे-धीरे चलकर उस के पास आये और उससे कहा-"बेटा अभी तो लाल बत्ती है ,तुम कितना आगे आकर खड़े हो".
-फ़िर ?
-....उस लड़के ने हँसते हुए मुँह बिचका दिया जैसे कहा हो -हुंह!!
- ह्म्म्म तो ?
-फ़िर वो दादाजी थोड़ा आगे आए ,अपनी लकड़ी बगल में दबाई और दोनों हाथों से उसके सिर पर पहनी टोपी इज्जत से उतार ली ,झटक कर साफ़ की और उससे कहा - इनका नाम क्यों खराब कर रहे हो? और टोपी तह करके अपनी जेब में रख ली....और मैं जोर से चिल्ला उठी -जे SSSS ब्बात........
(मैं भी चिल्ला उठी --वाऊऊऊऊ ) हँसते हुए आगे बताया- ये देखकर चौराहे पर खड़े सब लोग हँसने लगे ....इतने में हरी बत्ती भी हो गई..वो लड़का चुपचाप खड़ा रहा ,आगे बढ़ना ही भूल गया..जब हम थोड़े आगे आए तो बाजू वाले अंकल ने उससे कहा- चलो बेटा अब तो ---हरी हो गई.....हा हा हा...


ह्म्म्म होना तो यही चाहिए मुझे भी लगा,हमें अपने आप में ही सुधार लाना होगा पहले ....
आपको क्या लगता है ?...


.







शुक्रवार, सितंबर 09, 2011

अब और बर्दाश्त नहीं...?

तुम्हारे
दर्द का
एहसास
है
  हमें..!!


   तुम     
   संग
हम
भी
घायल
हैं..!!
हम-
जो हैं
स्टुपिट
आम
आदमीं..

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