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सोमवार, मई 26, 2014

“मैं नरेंद्र दामोदर दास मोदी.. ईश्वर की शपथ.... !"

      मित्रो, देश एक अनोखे नुक्कड़ पर आ कर हतप्रभ था चकित कर देने वाले किसी परिणाम के लिये सवाल बार बार देख रहा था. सवाल थे :-
“अब क्या.होगा..!”  
“सब कैसे.होगा..!”  
“ये सब कौन करेगा भई..!”

मित्रो सवाल हल हो चुके हैं उत्सव भी मना लिया. अब आपके पास आईकान है.. न .. न भाई.. अब आईकान्स हैं. अपने कई आलेखों में आईकान के अभाव की.. चिंता मैने व्यक्त भी की थी अपने आलेखों में. 
           आपको याद होगा कि अन्ना के आंदोलन के दौर में  “अन्ना” एक आईकान के रूप में नज़र आए . पर मुझे ऐसा कुछ खास न लगा  न ही मुझ सा अदना लेखक उनको आइकान मान रहा था. इसके कई कारण थे जिसमें सबसे अव्वल था एक  क्योंकि उनके अभियान  से एक सज्जन को जब करीब से जाना और जानने  के तुरंत बाद मुझे एहसास हो गया था कि अन्ना के इर्दगिर्द जुड़ाव शायद आकस्मिक और हड़बड़ाहट  का जुड़ाव था. अथवा अन्ना जी का लक्ष्य केवल मुद्दे को हवा देना मात्र रहा हो जो भी हो वे आईकान बनने में असफ़ल  रहे.. कारण जो भी हो आईकान की ज़रूरत यानी एक पोत के लिये दिशासूचक की ज़रूरत थी . अचानक मोदी को सामने गया.. थोड़ी अचकचाहट के साथ भारतीय जनता जनार्दन में अंतर करंट प्रवाहित हो गया. ढाबे वाला ड्रायवर जो पंजाब और यूपी से लौट रहा था उसने एहसास दिला दिया कि क्या होने जा रहा है वैसा ही हुआ. ये अलग बात थी कि मैं और खाना खा रहे लोगों ने बेहद सामान्य ढंग से लिया. जो भी हुआ गोया तय कर लिया था कि क्या करना है. आपको याद होगा कि किसी राजा ने राज्य के लोगों से टंकी को  भरने दूध मंगाया पर सब ने पानी लाए ये सोच कि मेरे एक लोटे पानी लाने से क्या होगा सब तो दूध ही लाएंगें.. और सबके सबों ने पानी से  भर दी टंकी... इस बार सबने दूध से लबालब कर दिया टंकी को .. दूध लाने वालो आपसे एक अपेक्षा है कि - सिर्फ़ दूध इस लिये लाएं हैं कि कल उनके लिये दूध से बनी मिठाईयां.. मिलने लगेंगी. 
                                 प्रिय देशवासियो, अब केवल एक वोट का मामला नहीं देश को हर मोर्चे पर अव्वल लाने के लिये आत्म आचरणों में बदलाव लाना ही होगा .. अब नल की टोंटी न चुराना, मुफ़्त में सरकारी इमदाद को न लूटना, सरकारी कर्मचारी के रूप में सतत काम करना . बिना बारी और पात्रता के येनकेन प्रकारेण लाभ लेने की लालच छोड़ना होगा. अब सिगमेंट में जीना छोड़ना होगा. देश वासियो....धर्म आधारित व्यवस्था की अपेक्षा न करेंगें.. जाति के समूह के.. समुदाय के भाषा के  नफ़े नुकसान का मीजान न लगाना वरना आप को फ़िर उन्ही दिनों की ओर लौटना होगा.. जिनसे आप उकता रहे थे. इस आलेख का आशय पूर्णतया आप समझ ही रहे होगे... शायद नहीं तो साफ़ साफ़ समझ लीजिये ... अब व्यक्तिगत लाभ के भाव को त्याग कर सार्वभौमिक विकास के भाव को आत्मसात करना होगा. 

    

रविवार, मई 25, 2014

नरेंद्र मोदी जी और उनकी टीम को अग्रिम शुभकामनाऎं.


                      प्रधान मंत्री के रूप में श्री नरेंद्र दामोदर मोदी जी का व्यक्तित्व मानो उदघोषित कर रहा है  कि  शून्य का विस्फ़ोट हूं..!!  एक शानदार व्यक्तित्व जब भारत में सत्तानशीं होगा ही तो फ़िर यह तय है कि अपेक्षाएं और आकांक्षाएं उनको सोने न देंगीं. यानी कुल मिलाकर एक प्रधानमंत्री के रूप में सबसे पहले सबसे पीछे वाले को देखना और उसके बारे में कुछ कर देने के गुंताड़े में मशरूफ़ रहना ... बेशक सबसे जोखिम भरा काम होगा. बहुतेरे तिलिस्म और  ऎन्द्रजालिक परिस्थितियां निर्मित  होंगी. जो सत्ता को अपने इशारों पर चलने के लिये बाध्य करेंगी. परंतु भाव से भरा व्यक्तित्व अप्रभावित रहेगा इन सबसे ऐसा मेरा मानना है. 
                              शपथ-ग्रहण समारोह में आमंत्रण को लेकर मचे कोहराम के सियासी नज़रिये से हटकर देखा जावे तो साफ़ हो जाता है कि - दक्षेस राष्ट्रों में अपनी प्रभावी आमद को पहले ही झटके में दर्ज़ कराना सबसे बड़ी कूटनीति है. विश्व को भारत की मज़बूत स्थिति का संदेश देना भी तो बेहद आवश्यक था जो कर दिखाया नमो ने. सोचिये नवाज़ साहब को पड़ोसी के महत्व का अर्थ समझाना भी तो आवश्यक था यानी पहला पांसा ही सटीक अंक लेकर आया . 
                               इस बार भारतीय प्रज़ातांत्रिक रुढ़ियों एवम कुरीतियों पर जनता ने जिस तरह वोट से  हमला कर पुरानी गलीच मान्यताओं को  नेत्सनाबूत किया है उसे देख कर भारतीय आवाम का विकास की सकरात्मक दृष्टि के सुस्पष्ट संकेत मिले हैं साथ ही  प्रजातांत्रिक मान्यताएं  बेहद मज़बूत हुईं हैं . अब वक़्त है सिर्फ़ और सिर्फ़ राष्ट्र के बारे में सोचना जो भी करना राष्ट्र हित में करना. 
                              अब व्यक्ति और परिवार गौड़ हैं. समुदाय सर्वोपरि. चुनने वालों  की अपेक्षा है  नरेंद्र मोदी सरकार से आंतरिक स्वच्छता और बाह्य-छवि   का विशेष ध्यान रखा जावे. यद्यपि सत्ता मद का कारक होती है पर आत्मोत्कर्ष से सत्ता से अंकुरित मद को ऊगने से पूर्व ही मिटाया जा सकता है. मोदी जी से ये अपेक्षाएं तो हैं हीं. 
                भारतीय औद्योगिक घरानों को बढ़ावा देकर रोटी कपड़ा मकान  के लिये रोज़गार बढ़ाने के मौके देना सर्वोच्च प्राथमिकता हो . शिक्षा और चिकित्सा राज्य के अधीन एवम सस्ती हों. विकास का आधार भूखे को भीख देना किसी भी अर्थशास्त्रीय सिद्धांत का अध्याय नहीं है.. सरकार इस तरह की कोई योजना न लाए जिनसे भिखमंगों की संख्या में इज़ाफ़ा हो बल्कि उन कार्यक्रमों को लाना ज़रूरी है जिनकी वज़ह से रोज़गार पैदा हों .. लेकिन एक बात सत्य है कि  भारत में दो पवित्र कार्य व्यावसायिक दुष्चक्र में फ़ंस चुके हैं.. एक शिक्षा दूजी चिकित्सा... सरकार को इस पर लगाम कसनी ही होगी... 
               भारतीय आंतरिक शांति के लिये नक्सलवाद का समूल खात्मा, एक अहम चुनौती है. पूर्वोत्तर राज्यों में पनपते अलगाववादी प्रयास, के अलावा वे सारे बिंदु जो  आंतरिक शांति को क्षति पहुंचा रहे हैं को निशाने पर लेना ही होगा. भारतीय संविधान में दी गई कुछ रियायतों की समीक्षा भी एक महत्वपूर्ण बिंदू है. 
                  
श्री नरेंद्र मोदी जी और उनकी टीम  को अग्रिम शुभकामनाऎं.   

रविवार, मई 18, 2014

“मोदी विजय : पाकिस्तानी मीडिया की टिप्पणियां”

भारतीय सियासी तस्वीर बदलते ही पड़ौसी देशों में हलचल स्वभाविक थी. हुई भी... बीबीसी की मानें तो पाकिस्तानी अखबारों ने उछलकूद मचानी शुरू कर दी है. मोदी को कट्टरपंथी बताते हुए कट्टरपंथी राष्ट्र पाकिस्तान का मीडिया आधी रोटी में दाल लेकर कूदता फ़ांदता नज़र आ रहा है. मोदी विजय पर पाकिस्तानी मीडिया बेचैन ही है.. अखबारों को चिंता है कि –“ कहीं मोदी सरकार 370,राम मंदिर निर्माण, कामन सिविल कोड पर क़दम न उठाए ”
 अखबार अपने आलेखों में सूचित करते नज़र आते हैं कि “मोदी ने  विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ा है..!” यानी सिर्फ़ विकास की बात करें ... तो ठीक ही है.. !
            पाकिस्तान जो भारत जैसे वास्तविक प्रजातंत्र से कोसों दूर की चिंता बेमानी और अर्थहीन प्रतीत होती है. उम्मत अखबार ने तो सीमा पार करते हुए मोदी को कसाई का दर्ज़ा दे रहा है. इसे पाक़िस्तानी प्रिंट मीडिया की कुंठा-ग्रस्तता एवम हीनभावना से ग्रस्तता के पक़्क़े सबूत मिल रहे हैं.
            नवाए-वक़्त को कश्मीर मुद्दे पर चचा चीन की याद आ रही है. भारत इस मुद्दे पर न तो कभी सहमत था न ही होगा.
       पाक़िस्तानी मीडिया को भारत में मुस्लिमों की सही दशा का अंदाज़ा नहीं है. तभी तो आधी अधूरी सूचनाओं पर आलेख रच देते हैं. भारत के मुसलमान पाकिस्तान की तुलना में अधिक खुश एवम खुशहाल हैं. किसी भी देश को भारतीय जनता के निर्णय पर अंगुली उठाने का न तो हक़ है न ही उनके मीडिया को . ज़रूरत तो अब इस बात की है कि भारत में विकास को देखें उसका अनुसरण करें.. और अपने अपनी आवाम को खुश रखें.
सहअस्तित्व की अवधारणा पडौसी का सर्वश्रेष्ठ धर्म है ...!!पाकिस्तान को ये मानना ही होगा. 

शनिवार, मई 17, 2014

मोदी विजय पर एक ग़ैर सियासी टिप्पणी “सम्मोहक चाय वाला...!”

 गुजरात के बड़नगर रेल्वे-स्टेशन पर  एक चाय बेचने वाले का बेटा .जो खुद चाय बेचता.. शीर्ष पर जा बैठा भारतीय सांस्कृतिक आध्यात्मिक और धार्मिक आख्यानों में चरवाहे कृष्ण वनचारी राम.. को शीर्ष तक देखने वालों के लिये कोई आश्चर्य कदाचित नहीं . विश्व चकित है.. विरोधी भ्रमित हैं .. क्या हुआ कि कोई अकिंचन शीर्ष पर जा बैठा .. ! भ्रम था उनको जो मानते हैं.. सत्ता धनबल, बाहुबल और छल से पाई जाती है... ! क्या हुआ कि अचानक दृश्य बदल गए .. लोगों को क्या हुआ सम्मोहित क्यों हैं.. इस व्यक्ति का सम्मोहक-व्यक्तित्व सबको कैसे जंचा.. सब कुछ  ज़ादू सरीखा घट रहा था.. मुझे उस दिन आभास हो गया कि कुछ हट के होने जा रहा है.. जब उसने एक टुकड़ा लोहे का मांग लौह पुरुष की प्रतिमा के वास्ते चाही थी. संकेत स्पष्ट था ... एक क्रांति का सूत्रपात का जो एक आमूलचूल परिवर्तन की पहल भी रही है.
                    कितना महान क्यों न हो प्रेरक किंतु जब तक प्रेरित में ओज न हो तो परिणाम शून्य ही होना तय है. इस अभियान में मोदी जी के पीछे कौन था .... ये सवाल तो मोदी जी या उनके पीछे का फ़ोर्स ही बता सकता है किंतु मोदी में निहित अंतस के फ़ोर्स पर हम विचार कर सकते हैं कि मोदी में एक ज़िद थी खुद को साबित करने की. नरेंद्र मोदी जी ने बहुत आरोह अवरोह  देखे हैं.. चाय की केतली कप-प्लेट और चाय ले लो चाय की गुहारना उनके जीवन का पहला एवम महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम था. दो वर्ष का हिमालय प्रवास आध्यात्मिक उन्नयन के लिये था जो उनका दूसरा महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम कहा जा सकता है.  
तभी तो उनकी , उनके  अन्य प्रतिस्पर्धियों किसी तरह की तुलना गैरवाज़िव हो चुकी है. राहुल जी को निर्माण के उस कसाव से न गुज़रने की वज़ह से उनमें पूरे इलेक्शन कैंपेनिंग में सम्मोहित करने वाला भाव चेहरे पर नज़र न आया. न ही केज़रीवाल न कोई और भी ... आप वीडियो क्लिपिंग्स देखें तो नमो की संवादी शैली आपको मोहित करती लगेगी ऐसा असर तत्कालीन प्रधानमंत्री त्रय  श्रीयुत अटलबिहारी बाजपेई, चंद्रशेखर जी एवम  स्व.इंदिरा जी छोड़ा करते थे . मुझे अच्छी तरह याद है अटलजी, इंदिरा जी और श्री चंद्रशेखर जी जिनको सुनने जनमेदनी स्वेच्छा से उमड़ आती थी. डेमोक्रेटिक संदर्भ में देखा जावे तो – अच्छा, वक़्ता के वक्तव्य में केवल शब्द जाल का बुनकर हो ऐसा नहीं है. आवाम अपने लीडर में परिपक्क्वता देखना चाहती है . उसके संवादों में खुद का स्थान परखती है. उसका सामर्थ्य अनुमानती है तब चुनती है. मेरे इर्द-गिर्द कई लोग आते हैं जो चुगली करता है निंदा करता है उससे मेरा रिश्ता न जाने क्यों टूट जाता है जो कर्मशील होता है उसे पढ़ लेता हूं उसपर विश्वास करता हूं.. मुझ सरीखे करोड़ों होंगे जो कर्मशीलता को परखते होंगें .
कर्मशीलता का संबंध आत्मिक उत्कंठा से है जो भाव एवम बुद्धि की धौंकनी में तप कर जब शब्द बनती है और ध्वनि पर सवार होकर विस्तारित होती है तो एक सम्मोहन पैदा होता है. आरोप,चुगलियां, हथकण्डे, अनावश्यक (कु) तर्कों से सम्मोहन पैदा ही नहीं होता. प्रज़ातांत्रिक संदर्भों में सम्मोहन पैदा करने वाला केवल कर्मठ ही हो सकता है.  अन्य किसी में सामर्थ्य संभव ही नहीं. वक्ता के रूप में मैने भी सैकड़ों बार देखा है श्रोताओं को सम्मोहित करना आसान नहीं . इसके लिये वक्तव्य के कंटेंट में फ़ूहड़ता और मिथ्या अस्वीकार्य कर दी जाती है. मुझे याद नहीं कि इंदिरा जी, बाजपेई जी, चंद्रशेखर जी, के भाषणों में लांछनकारी शब्द रहे थे. उनके संवाद शांत और अनुशासित हुआ करते थे. अटल जी बोलते तो एक एक शब्द अगले शब्द के प्रति जिग्यासु बना देता था. और फ़िर शब्दावली जब पूरा कथन बनती कथन जब पूरा भाषण बनते तो पांव पांव घर लौटते पूरा भाषण मानस पर अंकित हो जाता था. ऐसा लगता था कि किसी राजनीतिग्य को नहीं किसी विचारक को सुन कर लौट रहा हूं. अस्तु कर्म अनुशीलन और चिंतन से ओतप्रोत अभिव्यक्ति का सम्मोहन नमो ने बिखेरा और इसी फ़ोर्स ने एक विजय हासिल की है... आप मेरी राय से असहमत भी हो सकते हैं .. पर मेरी तो यही राय है.

बता दो.. शून्य का विस्फ़ोट हूं..!!

दूरूह पथचारी 
तुम्हारे पांवों के छालों की कीमत
अजेय दुर्ग को भेदने की हिम्मत 
को नमन... !!
निशीथ-किरणों से भोर तक 
उजाला देखने की उत्कंठा ….!
सटीक निशाने के लिये तनी प्रत्यंचा ...!!
महासमर में नीचपथो से ऊंची आसंदी
तक की जात्रा में लाखों लाख

विश्वासी जयघोष आकाश में 
हलचल को जन्म देती
यह हरकत जड़-चेतन सभी ने देखी है
तुम्हारी विजय विधाता की लेखी है.. 
उठो.. हुंकारो... पर संवारो भी 
एक निर्वात को सच्ची सेवा से भरो
जनतंत्र और जन कराह को आह को 
वाह में बदलो...
**********
सुनो,
कूड़ेदान से भोजन निकालते बचपन 
रूखे बालों वाले अकिंचन. 
रेत मिट्टी मे सना मजूरा 
नर्मदा तट पर बजाता सूर बजाता तमूरा
सब के सब
तुम्हारी ओर टकटकी बांधे
अपलक निहार रहे हैं....
धोखा तो न दोगे 
यही विचार रहे है...!
कुछ मौन है
पर अंतस से पुकार रहे हैं..
सुना तुमने...
वो मोमिन है.. 
वो खिस्त है.. 
वो हिंदू है...
उसे एहसास दिला दो पहली बार कि 
वो भारतीय है... 
नको हिस्सों हिस्सों मे प्यार मत देना
प्यार की पोटली एक साथ सामने सबके रख देना 
शायद मां ने तुम्हारे सर पर हाथ फ़ेर
यही कहा था .. है न.. 
चलो... अब सैकड़ों संकटों के चक्रव्यूह को भेदो..
तुम्हारी मां ने यही तो कहा था है न..!!
मां सोई न थी जब तुम गर्भस्त थे..
तुमने सुना था न.. व्यूह-भेदन तरीका
तभी तो कुछ द्वारों को पल में नेस्तनाबूत कर दिया तुमने
विश्व हतप्रभ है...
कौन हो तुम ?
जानना चाहता है.. 
बता दो.. शून्य का विस्फ़ोट हूं
जो बदल देगा... अतीत का दर्दीला मंज़र...
तुम जो विश्वास हो
बता दो विश्व को ...
कौन हो तुम.... !!
कह दो कि -पुनर्जन्म हूं.. शेर के दांत गिनने वाले का....
***********
चलना ही होगा तुमको 
कभी तेज़ कभी मंथर
सहना भी होगा तुमको 
कभी बाहर कभी अंदर
पर 
याद रखो
जो जीता वही तो है सिकंदर 
·        गिरीश बिल्लोरे मुकुल


बुधवार, मई 14, 2014

मेरे करुणाकर बुद्ध तुमको कोटिश: नमन

तस्वीर क्रमांक दो
तस्वीर क्रमांक एक

 आध्यात्मिक-दर्शन ने समकालीन सामाजिक आर्थिक  जीवन शैली को परिवर्तित कर विश्व को जो दिशा दी है उसे वर्तमान संदर्भ में देखने की कोशिश कर रहा हूं संभवतया मुझसे आप असहमत भी हों..  किन्तु बुद्ध को जितना जाना समझा एवम बांचा है उसके आधार पर बुद्ध मेरी दृष्टि  करुणाकर हैं. उनका आध्यात्मिक चिंतन जीव मात्र के लिये करुणा से भरा है. बुद्ध ने आक्रमण को जीवन में अर्थ हीन माना . शाक्य और कोली विवाद के कारण परिव्राज़क बने बुद्ध का तप और फ़िर दिव्यानुभूतीयां इस बात का प्रारंभिक प्रमाण है कि युद्ध विहीन विश्व  की अवधारणा का सूत्रपात करुणाकर बुद्ध ने राजसुख त्याग के किया . इसा के 483 और 563 ईस्वी पूर्व जन्मे करुणाकर बुद्ध का अनुशरण सामरिक तृष्णा वाले राष्ट्रों के लिये अनिवार्यत: विचारणीय है. युद्ध से व्युत्पन्न परिस्थितियां विश्व को अधोपतान की ओर ले जाएंगी यह सत्य है. युद्ध अगले निर्माण का आधार कभी हो ही नहीं सकता. मेरी दृष्टि में युद्ध  चाहे वो धर्म की प्रतिष्ठार्थ हो अथवा राज्य के विस्तार के लिये अस्वीकार्य होना ही चाहिये. 
तस्वीर क्रमांक तीन 
       आप ऊपर की तस्वीरें देखिये तस्वीर क्रमांक दो में देखिये सांची में हम सब लोग बैठकर महिलाओं के लिये सटीक और कारगर कार्यक्रमों की रणनीति तैयार कर रहे थे एक गिलहरी हम सबके इर्दगिर्द घूमती कभी डायरी के पन्ने चखने की कोशिश करती कभी किसी को छूकर जाती कुल मिलाकर निर्भीक होकर हमारे बीच थी . दो-तीन घंटे तक हम सबके साथ खेलती मानो कह रही थी कि यह शांति निलय परिसर है यहां मैं तुम हम सब शांत चित्त हो रचनात्मक हो जाते है.. बस आज़ और कल को इसी की ज़रूरत है..  
       शांति के लिये राज्य को प्रजातंत्र के ढांचे में ढाला गया किंतु हमारी लिप्सा ने प्रजातंत्र को भी रणभूमि में बदल दिया . बुद्ध के वैराग्य का आधार भी आपसी संवाद था ... इस कथा से सब कुछ स्पष्ट होगा
  • एक ऐसी घटना घटी जो शुद्धोदन के परिवार के लिये दुखद बन गयी और सिद्धार्थ के जीवन में संकटपूर्ण स्थिति पैदा हो गयी । शाक्यों के राज्य की सीमा से सटा हुआ कोलियों का राज्य था । रोहणी नदी दोनों राज्यों की विभाजक रेखा थी । शाक्य और कोलिय दोनों ही रोहिणी नदी के पानी से अपने-अपने खेत सींचते थे । हर फसल पर उनका आपस में विवाद होता था कि कौन रोहिणी के जल का पहले और कितना उपयोग करेगा । ये विवाद कभी-कभी झगड़े और लड़ाइयों में बदल जाते थे । जब सिद्धार्थ 28 वर्ष के थे, रोहणी के पानी को लेकर शाक्य और कोलियों के नौकरों में झगड़ा हुआ जिसमें दोनों ओर के लोग घायल हुये । झगड़े का पता चलने पर शाक्यों और कोलियों ने सोचा कि क्यों न इस विवाद को युद्ध द्वारा हमेशा के लिये हल कर लिया जाये । शाक्यों के सेनापति ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के प्रश्न पर विचार करने के लिये शाक्यसंघ का एक अधिवेशन बुलाया और संघ के समक्ष युद्ध का प्रस्ताव रखा । सिद्धार्थ गौतम ने इस प्रस्ताव का विरोध किया और कहा युद्ध किसी प्रश्न का समाधान नहीं होता, युद्ध से किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी, इससे एक दूसरे युद्ध का बीजारोपण होगा । सिद्धार्थ ने कहा मेरा प्रस्ताव है कि हम अपने में से दो आदमी चुनें और कोलियों से भी दो आदमी चुनने को कहें । फिर ये चारों मिलकर एक पांचवा आदमी चुनें । ये पांचों आदमी मिलकर झगड़े का समाधान करें । सिद्धार्थ का प्रस्ताव बहुमत से अमान्य हो गया साथ ही शाक्य सेनापति का युद्ध का प्रस्ताव भारी बहुमत से पारित हो गया । शाक्यसंघ और शाक्य सेनापति से विवाद न सुलझने पर अन्ततः सिद्धार्थ के पास तीन विकल्प आये । तीन विकल्पों में से उन्हें एक विकल्प चुनना था (1) सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेना, (2) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिए राजी होना, (3) फाँसी पर लटकना या देश निकाला स्वीकार करना । उन्होंने तीसरा विकल्प चुना और परिव्राजक बनकर देश छोड़ने के लिए राज़ी हो गए । (साभार विकी पीडिया)
    ॐ शांति शांति शांति

मंगलवार, मई 13, 2014

स्वतंत्रता को बीमारी मत बनाईये


साभार : पंजाब केसरी

  
आज़ मैं एक ऐसे मनोरोगी से मिला जिसे किसी की अधीनता स्वीकार्य नहीं. मेरे अधीनस्त अधिकारी है. उसे देखता हूं तो लगता है एक सपाट सा जीवन एक सपाट सी अभिव्यक्ति अतिसंवेदनशील उसे मिसफ़िट कहना ही होगा.  जो भी हो जितना भी पावन हो वह पर आज़ादी को वो बीमारी की तरह स्तेमाल कर रहा है मुझे ऐसा आभास हुआ . पिछले कई दिनों से मैं उनकी हरक़त का मुआयना कर रहा हूं. वो किसी न किसी से कोई न कोई पूर्वाग्रह पाले हुए हैं.  एक अधिकारी से अपेक्षा होती है कि वो अपने अधिकारिता वाले क्षेत्र में के दायित्व का निर्वाह करे . किंतु काम न करना तथा काम का दबाव आते ही स्वतंत्रता का बोध होना अपमे मानवाधिकार का हवाला देते हुए कार्य न करना कुल मिला कर स्वातंत्र्य को एक बीमारी की तरह जीने वाली स्थिति को प्रस्तुत करता है.
                  कुछ लोग अपनी बातों में कहा करते हैं ...    ये कि मुझे अब सहा नहीं जाता मेरी आदत ही यही है, मैं क्या करूं... शुद्ध देशी शब्दावली में इसे ठीठपन ही कहा जाएगा.. पर मेरी दृष्टि में इसे स्वतंत्रता के प्रति लोलुप होकर मनोरोगी हो जाना है.
                 घर से निकते ही हमारा सार्जवनिक जीवन शुरु हो जाता है. और अक्सर सार्वजनिक जीवन घात आघात को सहन करके ही सफ़लता पूर्वक जिया जा जाता है. कुछ लोग जो मानसिक रूप से अति संवेदनशील होते हैं तथा अपने सम्मान के लिये अधिक आसक्त होते हैं वे  घर में एवम  घर से बाहर, असफ़ल ही रहते हैं.  मेरी बेटी एक बार एक प्रतियोगिता में हार से गुमसुम नज़र आई अभिभावक के रूप मे हमारा हस्तक्षेप अत्यंत अनिवार्य था अस्तु  उसके चेहरे पर मुस्कान लाने एवमं उसे यह समझाने में हमें पहली बार बड़ी मशक्कत करनी पड़ी कि हर पराजय जीत की राह खोलती है.. अवसरों को तलाशने की ताक़त देती है. अब बेटी जीत और हार को एक ही तरीके से समभाव से ग्राह्य करती है.
                  किसी स्पर्धा अथवा युद्ध का  अंत "परिणाम" है जो हार, जीत कुछ भी होता है. अक्सर दोनों ही स्थितियों में मानसिक अवस्था उत्तेजित होती है. कायिक-भाषा में अज़ीबोग़रीब बदलाव नज़र आते हैं.  विजेता हर्षित होकर उत्तेजित होता है और पराजित लज्जित होकर कोई भी हार और जीत को खिलाड़ी भाव से ग्राह्य नहीं कर पाते .  
                    चुनाव प्रक्रिया को लें तो हम पाते हैं कि चुनाव अब  स्पर्द्धा न होकर युद्ध हैं..  जय- पराजय का एहसास होने मात्र से जिव्हा  पर समझदारी के अंकुश नहीं रह गए हैं वहीं प्रोवोग करने वालों की भीड़ भी सतत बढ़ रही है.. लोग नींच-ऊंच , क्या व्यक्तिगत लांछन तक लगाने से चूकते नहीं... यानी स्वतंत्रता को बीमारी की तरह भोगा जा रहा है.. क्यों नहीं हम गंभीर अपनी स्वतंत्रता को लेकर  यही सवाल कई दिनों से मेरे सर पर वैतालिक सवाल सा लदा है.. क्या कोई उत्तर है आपके पास .......... ? 

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