नक्सलवाद आतंकवाद का सहोदर ..
बेशक़ इनको माओत्से तुंग की आत्मा कोस रही होगी .... नक्सली हिंसक प्रवृत्ति के ध्वज वाहकों को.क्योंकि वे कायर न थे ऐसा ब्रजेश त्रिपाठी जी ने अपने ब्लाग पर दरभा - दर्भ और डर के दंश शीर्षक से लिखे आलेख में लिखा है. कोसे न कोसे नक्सलवाद के पुरोधाओं को समझाना अब ज़रूरी हो गया है कि "भारत भारत है यहां माओ के फ़लसफ़े को कोई स्थान नहीं..!!" पर अब सवाल यह है कि लाल खाल पहने इन आतंकियों अंत कैसे होगा . इनके सफ़ाए के लिये किस तकनीकि का प्रयोग किया जाए कि भोले भाले आदिवासियों जिनका इस्तेमाल यह कायर समूह बतौर ढाल करता है को बिना हानि पहुंचाए समस्या का अंत हो. नक्सलवाद को विस्तार मिलने की सीधी वज़ह ये है कि उनके द्वारा सबसे पहले गतिविधि क्षेत्र के वाशिंदों के मानस पर अपने आप को अंकित किया.. उनसे बेहतर संवाद सेतु बनते ही उनमें एक भय का वातावरण भी बना दिया ताकि वे ( क्षेत्र के वाशिंदे ) भयाधारित प्रीति से सम्बद्ध रहें.