25.1.23

असहमति मैत्री को खंडित करने का आधार नहीं है


  असहमति मैत्री को खंडित नहीं करती। ऐसा किसने कह दिया कि कोई किसी के विचार से सहमत हो वह साथ नहीं रह सकता?
बहुतेरे लोग ऐसे होते हैं, जो असहमति के आधार पर परिवार तक तोड़ देते हैं।
  
वेदांत का सार है सत्संग विमर्श और आपसी विचार विनिमय। क्या आपने इस एंगल से सोचा है?
सनातन में हजारों वर्ष पहले शास्त्रार्थ को मान्यता मिली है। पश्चिमी विद्वान वाल्टेयर ने असहमति को भलीभांति परिभाषित किया है। असहमति का अर्थ आपसी द्वंद्व नहीं है।
सहमति के साथ सह अस्तित्व बेहद प्रभावशाली आध्यात्मिक दार्शनिक बिंदु  है।
कई लोग असहमति को आधार बनाकर बेहद संवेदनशील हो जाते हैं। इससे संघर्ष भी पैदा हो जाता है। वास्तव में असहमति का संघर्ष से कोई लेना देना नहीं है। संघर्ष एक मानसिक उद्वेग है जो शारीरिक या बौद्धिक रूप से नकारात्मकता को जन्म देता है। इससे उलट असहमति एक तात्कालिक या दीर्घकालिक परिस्थिति भी हो सकती है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई भी असहमति को आधार बनाकर युद्ध करने लगे।
   स्वस्थ समाज में स्वस्थ मस्तिष्क के लोग अक्सर आपस में असहमत होने के बावजूद एकात्मता के साथ रहते हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि शक्कर की बरनी छोटे या बड़े शक्कर के दाने होने से शक्कर की मूल प्रवृत्ति में कोई परिवर्तन नहीं होता।
मित्रों कभी मेरी किसी भी मित्र के साथ  असहमति  होती है अथवा हो गई हो तो मुझ पर क्रोधित मत होना क्योंकि मैं असहमति के आधार पर द्वंद के जन्म से सहमत नहीं रहता। मेरे एक पूज्य वरिष्ठ अधिकारी हैं जो बेहद करुणा भाव से मुझे देखते हैं उनसे कई मुद्दों पर वैचारिक असहमति या हैं परंतु उनका इसने मुझ पर सदा बरसता है। यही महात्मा गांधी महात्मा गौतम बुद्ध महावीर स्वामी भगवान श्री राम जैसे महान व्यक्तियों द्वारा बताया गया मार्ग है। भारतीय जीवन दर्शन जीवंत दर्शन है। भारतीय जीवन दर्शन की शुचिता के लिए हर असहमति के प्रति सम्मान व्यक्त करने से हमारा जीवन सुदृढ़ एवं पवित्र हो जाता है। यही हर मुमुक्षु के लिए सनातनी संदेश है। हाल के दिनों में हम सब  सहमति और असहमति के साथ दो भागों में विभक्त हैं।  एक व्यक्ति लोगों के माइंड को पढ़कर एक पर्ची पर कुछ लिख देता है। और उसे ईश्वर की कृपा कहकर स्वयं को उस प्रक्रिया से ही अलग कर लेता है। दूसरी ओर एक युवा लड़की माइंड रीडिंग करके अपने हुनर को जादूगरी की श्रेणी में रखती है। दोनों में फर्क यह है कि एक अपनी माइंड रीडिंग की योग्यता रखते हुए भी अस्तित्व को ब्रह्म के आशीर्वाद को महान बताता है जबकि दूसरी ओर वही युवा बालिका अपने आप को मैजिशियन बताती है। एक टीवी चैनल इससे धजी का सांप बनाकर पेश करता है। इससे दर्शक और पाठक भ्रमित हो जाते हैं। जबकि इसका अर्थ यह है कि अगर यह जादू होता इसे बहुत से लोग आसानी से सीख लेते परंतु सवा सौ करोड़ से अधिक जनसंख्या में से मात्र कुछ ही लोग इस तरह की क्रिया प्रदर्शित कर पाते हैं। कुल मिलाकर आस्तिक लोग इसे ईश्वर की कृपा मानते हैं जबकि नास्तिक ऐसी प्रक्रियाओं को पाखंड कहते हैं अथवा जादूगरी मान लेते हैं। अगर मैं हर असहमत व्यक्ति से दूरी बनाने लगे अथवा दुश्मनी पालूँ तो मुझसे बड़ा मूर्ख कौन होगा भला?
वर्तमान युग में यही एक बहुत बड़ी कमी है।
   यही योग अहंकार और स्वयं को सिद्ध करते रहने का युग है। इस युग में हम सोचते हैं कि जो कर रहे हैं वह हम ही कर रहे हैं। ऐसी अवधारणा लोकायत विचारकों अर्थात नास्तिकों की होती है। नास्तिक जिनको ब्रह्मा के अस्तित्व पर तनिक भी भरोसा नहीं होता मान लिया जाए कि ब्रह्म नहीं है तब कि अगर हम इतना सा भरोसा करने तो हमारे मन में बसा हुआ है अहंकार तुरंत तिरोहित हो जाएगा। परंतु हम तो सोचते हैं कि यह कार्य मैंने किया इसका श्रेय मुझे मिलना चाहिए। तथाकथित प्रगतिशील साहित्य में ऐसी ही कहानियां कविताएं देखने पढ़ने को मिलती हैं। वैचारिक रूप से स्वस्थ मस्तिष्क यही सब करते नजर आते हैं। परंतु आस्तिक लोग वास्तव में ऐसे विचारकों से भिन्न होते हैं को से भिन्न होते हैं। एक बार की सत्य घटना में आपको बताता हूं किसी व्यक्ति पर मुझे अनायास क्रोध आ गया। कुछ अप्रिय वार्ता और कार्य किया था उसने। परंतु दूसरे ही पल मुझे यह महसूस हुआ कि-" जो मैं कर रहा हूं वह मैं नहीं कर रहा हूं यह ईश्वर द्वारा किया गया कार्य है।" तब तुरंत ही मैंने महसूस किया-" तब फिर उस व्यक्ति ने जो किया है वह उसने नहीं बल्कि ईश्वर की इच्छा के अनुकूल हुआ है।" ऐसा सोचते ही मस्तिष्क पूरी तरह से सामान्य हो गया। फलस्वरूप न तो मैं हिंसक बन पाया और न ही हिंसा करने के लिए मुझे मेरे शारीरिक संवेग ने प्रेरित किया। एक अनुचित हिंसा करने से मैं बच गया।
   सच मायने में यह घटना असामान्य हो सकती है। क्योंकि अपराधी को अपराध का दंड मिलना चाहिए था। परंतु मेरे विचार से मैंने यह कार्य ईश्वर पर छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद वही व्यक्ति बेहद दीन हीन स्थिति में मेरे सामने आया। मैं समझ चुका था कि यह व्यक्ति ईश्वरीय दंड का भागी हो चुका है। जो व्यक्ति अहंकारी है वह निश्चित तौर पर धन पद प्रतिष्ठा और सत्ता का अधिकारी होता है। अगर वह इन सबके होते हुए भी अहंकार से मुक्त रहता है तो वह सबसे पवित्र मुमुक्षु बनता है । इस प्रकार अहंकार आत्म प्रदर्शन और स्वयं को श्रेष्ठ करते रहने के लिए रास्ते बनाता है। इन रास्तों में आए किसी भी अवरोध के विरुद्ध वह व्यक्ति सक्रिय हो जाता है। स्थिति तो यहां तक आ जाती है कि अगर कोई व्यक्ति उस व्यक्ति की बात से सहमत है तो उसे रास्ते से हटा तक दिया जाता है। ठीक उसी तरह जैसे दारा शिकोह को औरंगजेब ने हाथी के पैरों से कुचलवा दिया था। ठीक वैसे ही जैसे हिटलर और स्टालिन ने भी ऐसा ही कुछ किया। मित्रों रावण के चरित्र को ध्यान से देखिए असहमति के कारण उसने अपने छोटे भाई को लात मारकर लंका से बाहर कर दिया। मित्रों आप सोचिए हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। उसकी पसंद भिन्न होती है उसकी आदतें भिन्न होती है उसका चिंतन भी भिन्न होता है। परंतु इस आधार पर अगर संघर्ष होने लगे तो पृथ्वी पर मानवता समाप्त हो जाएगी।
   हो सकता है आप मेरे विचारों से सहमत हूं आपकी असहमति का सम्मान करते हुए मैं आपको प्रणाम करता हूं
*ॐ श्री राम कृष्ण हरि:*

22.1.23

पंडित धीरेंद्र शास्त्री ने सिद्ध कर दिया कि सनातन विज्ञान भी है


एक अजीबोगरीब सी परेशानी झेल रहे हैं जो सनातन के संबंध में हमेशा नकारात्मक भावना रखते हैं। इन सब का कारण बन गए हैं पंडित धीरेंद्र शास्त्री, मात्र 27 वर्ष की उम्र में विश्व में चर्चित होने तथा हनुमान जी के अमर होने का प्रमाण बन चुके, शास्त्री जी उनके पूर्वजों द्वारा स्थापित अथवा व्यवस्थित किए गए हनुमान मंदिर के संदर्भ में उल्लेखनीय भी बन चुके हैं। 1996 में जन्मे इस युवा आध्यात्मिक व्यक्तित्व ने दुनिया में बहुत ही कम समय में सनातन के पक्ष में अद्भुत वातावरण तैयार कर दिया है। रामायण को काल्पनिक तथा रामायण के पात्रों को कथा का काल्पनिक पात्र मान लेने वाले लोगों के लिए बड़ा सरदर्द बन चुके हैं।
धीरेंद्र शास्त्री क्या करते हैं..?
युवा कथावाचक शास्त्री जी एक पर्चे पर सामने आए हुए व्यक्ति जीवन से जुड़े कुछ मुद्दों को सामने रखते हैं। और उसे अभिव्यक्त भी करते हैं उतना ही अभिव्यक्त करते हैं जिससे व्यक्ति की निजता समाप्त ना हो। लोग उनके पास अपनी समस्या लेकर जाते हैं।  धीरेंद्र शास्त्री के सामने खड़ा हुआ व्यक्ति उनसे सहमत हो जाता है। जितने भी प्रकरण अब तक देख पाया हूं किसी भी अर्जी लगाने वाले ने उनकी बातों पर अविश्वास प्रगट नहीं किया।
  धीरेंद्र जी जो करते हैं उसका मतलब क्या है?
वीरेंद्र एक सामान्य व्यक्ति हैं जो अतिंद्रीय परीक्षण करने में सक्षम है। वह किसी के मस्तिष्क में क्या चल रहा है इस तथ्य का भली-भांति मूल्यांकन कर लेते हैं अगर इसे हम धर्म से न भी जोड़े तो यह एक अतींद्रिय विज्ञान है। कुछ दिनों पहले कुछ वीडियो देखें जो एक युवा लड़की के थे। वह सुहानी शाह  बालिका किसी भी व्यक्ति के फोन नंबर इत्यादि का विवरण सामने रख देती थी। यहां तक कि वह उसके मस्तिष्क में चल रहे विचारों को भी सामने प्रस्तुत कर देती थी। उसे महाराष्ट्र के कई पुलिस अधिकारियों के सामने प्रदर्शन हेतु बुलाया जाता रहा है। उनके कई शो होते हैं. इन दौनों सुहानी और धीरेन्द्र जी , सूक्ष्म रूप से परकाया में अवस्थित मष्तिष्क में प्रवेश करतें हैं और उसमे चल रहे विचार-प्रवाह को पढ़ लेते हैं.  
   साइकोलॉजिकल परीक्षण करने में सक्षम थी। इसे ईश्वर की कृपा या एक साइक्लोजिकल अरेंजमेंट यह आपके ऊपर है।
  जहां तक धीरेंद्र जी का प्रश्न है उनको उनके ईष्ट हनुमान जी के भक्त होने के कारण नकारा जाना किस हद तक उचित है।
केवल विज्ञान ही सर्वोपरि है तब हमारे मस्तिष्क में अच्छे बुरे विचारों का प्रवाह कहां से होता है?
इस बिंदु पर विचार करने पर महसूस होता है कि जो हमें अंतस की प्रेरणा जिसे अंग्रेजी में इनट्यूशन कहते हैं कैसे मिलती है?
     मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हमारे मस्तिष्क में प्रतिदिन 2000 से अधिक विभिन्न प्रकार के विचारों का प्रवाह होता है। हम जब कविता लिखते हैं तब रचना प्रक्रिया के दौरान हमारे मस्तिष्क में जो भी कुछ उत्पादित होता है उसे हम अपने शब्दों के साथ सामने रख देते हैं । यह सत्य है कि-" हमारे मस्तिष्क में प्रवाहित सारे विचार काल्पनिक भी होते हैं जो संयोगवश कभी सत्य हो जाते हैं और कभी असत्य रह जाते हैं।"
लेकिन बागेश्वर धाम के पंडित धीरेंद्र शास्त्री के किसी भी तथ्य में गलती नहीं होती। और वह स्वीकारते हैं कि वह सक्षम नहीं है ईश्वर उन्हें प्रेरित करते हैं। और जो वह कहते हैं वही सत्य हो जाता है। लोगों से वार्ता के दौरान पता चला कि बागेश्वर धाम के पंडित युवा विद्वान शास्त्री भले ही अंग्रेजी न जाने परंतु इस अतिंद्रीय सनातन विज्ञान से भली-भांति परिचित है। एक रिटायर्ड आईएएस अफसर उन पर अवैध भूमि कब्जे की बात कर रहे हैं। उनका आरोप हो सकता है सही है परंतु इसका निराकरण मीडिया ट्रायल पर नहीं किया जा सकता है इसका निराकरण प्रशासनिक व्यवस्था द्वारा किया जा सकता है। एक रिटायर्ड आईएएस का यह कहना कि उनके द्वारा भूमि अतिक्रमण की गई है तो मेरा यह प्रश्न है कि किन कारणों से प्रशासन उस पर ध्यान नहीं दे रहा। वास्तव में यह एक तरह से उस प्रतिभाशाली  देवदूत के विरुद्ध षड्यंत्र कारी वक्तव्य है। 
    कोशिश की जाए तो हम ऐसी अतिंद्रीय शक्तियां सनातन में वर्णित साधनों से कर सकते हैं। और अधिक लोग ऐसा कर सकते हैं. 
       सुहानी शाह अज्ञानता वश ईश्वरीय सत्ता से किनारा कर रही हैं. जबकि धीरेन्द्र सरीखे लोग आस्था को  प्रबल बना रहे हैं. सुहानी लोकायती है और धीरेन्द्र विश्वासी . ठीक वैसे ही जैसे मेरा चपरासी कहता है कि -साहब आप मेरे मालिक हो आप मुझे वेतन देते हो. जबकि मैं उससे कहता हूँ वेतन तुमको और मुझको सरकार देती है, मैं केवल माध्यम हूँ.  
इन दौनों सुहानी और धीरेन्द्र जी में फर्क क्या है...?

इन दौनों सुहानी और धीरेन्द्र जी में फर्क क्या है...?

1. सुहानी : स्वयम को मैजीशियन कहती है

2. धीरेन्द्र : स्वयम को शून्य मानते हैं. ईश्वर को श्रेय देते हैं

3. सुहानी : पैसा लेकर शो करती है.

4. धीरेन्द्र : धीरेन्द्र ऐसा नहीं करते .

5. सुहानी : सुहानी नंबरों/अक्षरों/नामों पर केन्द्रित हैं  

6. धीरेन्द्र : धीरेन्द्र, नंबरों/अक्षरों/नामों के साथ साथ विवरणात्मक तथ्य रखतें हैं. 

7. सुहानी एवं धीरेन्द्र में टेलीपैथिक-संवेग के संचार  की क्षमता है.

8. दौनों ही साय्क्लोज़िष्ट नहीं हैं.  

इस मुद्दे पर एक तथ्य है और स्पष्ट है कि बागेश्वर के इन युवा योगी माइंड रीडिंग के ही नहीं बल्कि परिस्थितियों का भी अवलोकन कर लेते हैं। वे लंबे-लंबे स्टेटमेंट लिख कर दर्शनार्थियों को देते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि सुहानी अथवा इसी तरह के काम करने वाले माइंड रीडर मैजिशियन के सवालों का संक्षेप में उत्तर देते हैं।

सामान्य माइंड रीडर वैकल्पिक रेमेडीज पर विचार नहीं कर पाते जबकि वे ऐसा करते हैं। क्योंकि वह मेडिसिन अथवा अन्य किसी तरह के विकल्प नहीं बता सकते अतः बागेश्वर महाराज जी केवल ईश्वर आराधना मंत्र जाप इत्यादि के संबंध में जानकारी देते हैं। जो ठीक है इस आधार पर अंधविश्वास फैलाने का मामला कैसे बन सकता है?

 

   

15.1.23

अपने आप से सवाल करिए- मैं कौन हूं?



    प्रश्न के उत्तर में बहुत कुछ मिल जाएगा। अक्सर हम अपने आप को जो दिखते हैं वह समझ लेते हैं।  यह एक हद तक सहज हो सकता है परंतु वास्तविकता यह नहीं है।

   बुल्ले शाह जब इस सवाल को नहीं हल कर पाते तो उनका ह्रदय इस सवाल को एक गीत में पूरी करुणा के साथ सामवेदी करुणामय गीत के रूप में अगुंजित हो जाता है- बुल्ले की जाणा मैं कौन..?

   लौकिक कृष्ण मथुरा से द्वारका तक विभिन्न लीलाओं के साथ यात्रा करते हैं यही जानने के लिए न मैं कौन हूं?

   राम को भी नहीं मालूम था कि वे नर नहीं नारायण है ऐसा कुछ लोग कहते हैं। सत्य जो भी हो अद्वैत सिद्ध कर देता है कि हम नारायण अर्थात ब्रह्मांश ही तो हैं।

   Then why do wars happen?

यह सवाल भी ठीक है। हम संघर्ष क्यों करते हैं? वास्तव में हम बार-बार भूल जाते हैं कि हम ब्रह्म है। अद्वैत यही तो कहता है न?

   किसी भी तत्व चिंतक दृष्टा के मस्तिष्क में सबसे पहला एकमात्र सवाल यही होता है कि मैं कौन हूं..?

अपने मामा जी एवं साहित्यकार श्री राजेंद्र शर्मा जी से चर्चा करने पर उन्होंने बताया-"एक किशोर वय का बालक, श्री भगवदपाद के तपस्या स्थल पर खड़ा गुरु की प्रतीक्षा कर रहा था। 

तपस्या की विश्राम में गुरु ने पूछा -"कौन हो बालक?

शंकर ने कहा यही तो मैं जानना चाहता हूं?

   यह लघु प्रश्नोत्तरी सामान्य नहीं थी। इसमें विराट का बोध होता है। पर कभी-कभी चकित हो जाते हैं हम सब जब विराट का सारांश निकालना कठिन हो जाता है। जबकि युवा शंकर ने बहुत जल्द ही तत्व ज्ञान प्राप्त कर लिया। विभिन्न विचारों मतों संप्रदायों में विभक्त भारतीय जीवन क्रम को एकीकृत किया और हमें एक पंचायतन आराधना के लिए सौंप दी। पंचायतन जानते हैं न जी हां जो आपके घर में पूजा स्थल पर लगा होता है। आर्थिक क्षमता अनुसार कोई लोहे का सिहासन बनवा ता है तो कोई सोने या चांदी का बनवा लेता है। उसमें अपने सभी प्रभु को बैठा देता है। हर सनातन प्रवाह में बहने वाला व्यक्ति उसका परिवार अपने पंचायतन में शिव विष्णु शक्ति लड्डू गोपाल आदि आदि अपने मनचाहे स्वरूप में स्थापित कर उनकी आराधना करते हैं। लोकायत इसे आडंबर कहता है। आर्य समाजी इसे अस्वीकार्य करता है। आयातित संप्रदाय तो बिल्कुल पसंद नहीं करता। ऐसे में सामुदायिक एकात्मता की परिकल्पना किस तरह की जाए यह विचार करने योग्य है।

  लोकायत परंपरा हमें ब्रह्म से भी मुक्त कर देती है। ब्रह्म के अस्तित्व को अस्वीकार करना लोकायत का मूल आधार है । सब एक ब्रह्म का उद्घोष करते हैं परंतु हर एक का अपना-अपना अलग-अलग ब्रह्म है। कोई ब्रह्म से मिलकर आ जाता है। अद्वैत की माने तो ब्रह्म से मिलना सहज नहीं है, और कठिन भी नहीं। पर जो ब्रह्म  से मिलकर आते हैं, अगर लोकायत भाषा में मैं प्रश्न करूं तो भी घबरा सकते हैं! ऐसी कोई कठिन प्रश्न नहीं करूंगा। क्योंकि सद्गुरु स्वामी श्रद्धानंद नाथ कहते हैं कि -"अलख निरंजन" यह कोई साधु या भिक्षुक द्वारा उच्चारित उद्घोष नहीं है। यह विस्तृत अध्यात्म का उद्घाटन है। आंख में आज लेने के बाद काजल किसे दिखा है? ब्रह्म वही है आंख में आंजना आना चाहिए न..?

   मैं अगर कहता हूं कि -"जब कभी बुद्ध से भेंट होती है तो बुद्ध मुझे उपनिषदों के अनु गायक से प्रतीत होते हैं।" तो गलत क्या कहता हूं। बार-बार कबीर कठोरता से ब्रह्म तत्व का परिचय देते हैं, तो भी समझ में नहीं आता। हम उलझते जाते हैं प्रक्रियाओं को धर्म मान लेते हैं और स्वर्ग नरक जैसे काल्पनिक शब्दों के खोजते रहते हैं या उसकी परिकल्पना करते रहते हैं। 

अरे भाई, रुको जरा रुको पहले समझ तो लोग अनहलक का अर्थ क्या है, अलख निरंजन के बारे में कभी चिंतन किया है? कभी ध्यान से सुना है की महात्मा बुद्ध क्या कह रहे हैं?

  संभवत है अभी तक इस दिशा में सोचा ही नहीं। कभी किसी के विचारों को  तू कभी किसी प्रक्रिया को या किसी डॉक्ट्रिन को धर्म कह दिया या किसी पंथ के नारे को धर्म कह दिया? यह क्या हो रहा है? पहली बात तो बुल्ले शाह को नहीं सुना कि बुल्ले शाह क्या पूछ रहे हैं?

ध्यान से सुनो बुद्ध ने कहा था -अप्प दीपो भव:, अपनी जान गवा देने वाला सूफी अन हलक का उद्घोष कर रहा था। ब्रह्म को लोकायत परंपरा तर्क से परीक्षित करती रहे, चार्वाक और जावली कुछ भी करें हमें उनसे कोई शिकायत नहीं क्योंकि वह जिसे धर्म समझ बैठे वह प्रक्रिया थी वह अनुशासनिक व्यवस्था रही। आत्मिक विकास के लिए तो सनातन अध्यात्म की उपयोगिता को नकारने की क्षमता किसी में नहीं है। एक थे प्रोफेसर रजनीश कहते हैं वह भगवान बन गए फिर वह समुद्र बन गए बस भगवान समुद्र इतनी ही यात्रा है क्या? यात्रा तो बहुत बड़ी है, इस यात्रा पर निकलने वाला जानता है और गाता है.."निर्गुण रंगी चादरिया जो उड़े संत सुजान"

      ब्रह्म के अस्तित्व को नकारो स्वीकारो, इससे ब्रह्म को क्या फर्क पड़ने वाला है। तुम का कैसा भी विरूपण करो कोई फर्क नहीं पड़ता। एक बार आत्म योग मुद्रा में बैठो हजारों हजार संदेश मस्तिष्क पर मिलेंगे इसमें किसी मीडियेटर की भी जरूरत नहीं है। बस कुछ विचार जो इन संदेशों को रोकते हैं उनसे जरा सा दूर हो जाओ। उदाहरण के तौर पर मैं एक मनुष्य हूं तुम भी एक मनुष्य हो मैं सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचते हुए तुम्हारी गलतियां कमियां त्रुटियां अपराध आदि का विश्लेषण करता रहूं या तुम मेरी तरह ऐसा ही करो इससे तुम्हारे मस्तिष्क में आने वाली वायरलेस संदेश अवरुद्ध हो जाते हैं।

फिर तुम किसी के पीछे पीछे भागते हो और उस व्यक्ति से मदद लेकर ब्रह्म से मिलना चाहते हो। ऐसा न हुआ है न होगा और सुना ही हो रहा है।

      श्री राम कृष्ण हरि 

8.1.23

समाज सुधारक बनाम इंजीनियर मिस्त्री और चेला

पता नहीं समाज को सुधारने का ठेका सब ने क्यों ले लिया है।  सुधारना क्या है ,? 
   इस बारे में उन्हें विचार करना पड़ता है। कई विद्वान तो मुझे इंजीनियर लगते हैं कई विद्वान मैकेनिक लगते हैं और कई विद्वान मैकेनिक का हेल्पर लगते हैं। सब के पास एक ही ही धंधा है चलो समाज सुधार दें...!
   समाज सुधारना इतना आसान होता तो महात्मा बुद्ध के काल में ही सुधर जाता। पर महात्मा के विचार कहां तक जा पाए इसका सबको ज्ञान है, महात्मा बुद्ध के विचारों को सुना है अवेस्ता ने रास्ते में रोक लिया?
  एक बंधु को लगा की मूर्ति पूजा समाज की सबसे बड़ी बुराई है। भैया फिर क्या था..! काफिर कुफ्र जैसे शब्दों का इजाद कर दिया सर तन से जुदा करने की नसीहत दे डाली। तो कोई क्रूस लेकर मारने दौड़ा तो किसी ने जिहाद शुरू कर दिया। फिर भी समाज न सुधरा. बेचारे समाज सुधार को  अपने जीवन काल में इस समाज  को सुधारने की जिम्मेदारी ऊपर वाले ने दी। वैसे ऊपरवाला चाहे तो सीधे समाज सुधार सकता है पर उसने बहुत सारे मध्यस्थ क्यों भेजें हो सकता है कि -ऊपर वाले के पास कामकाज बहुत हो..?
चलो मान भी लिया कि जिम्मेदारी ऊपर वाले ने ही सौंपी होगी परंतु समाज है कि कभी नहीं सुधरा सुधरता भी कैसे समाज को सुधारने और सुधारने के लिए जिस मूल तत्व की जरूरत है उसे तो हम ताक में रख देते हैं। 
  मानता हूं कि बुद्ध ने ऐसा नहीं किया होगा। परंतु बुद्ध के बाद जितने भी बुद्ध बने या तो वे बुद्धू बन गए या बुद्धू बना दिए गए? विमर्श यह है कि दूसरों को सुधारने समझाने और समाज को सुधार देने का दावा करने का काम आजकल एक पेशेवर अंदाज में किया जाता है।
  महात्मा बोल चुके थे - "अप्प दीपो भव:..!"
   अगर सब दीपक बन जाते तो क्या बुराई थी? 
#सांख्य_दर्शन यही कहता है न....!
    चलिए मान भी लिया कि यह सब काल्पनिक है तब भी कथानकों ने भी तो समाज को नहीं सुधारा..! सुधारा क्या सुधारने की आकांक्षा समाज में है ही नहीं। 
 वेद लिखे गए उपनिषद लिखे गए बाद में पुराण फिर भी समाज ना सुधरा। असरानी मेरा प्रिय फिल्मी कलाकार है। असरानी ने फिल्म बनाई थी जिसका नाम था हम नहीं सुधरेंगे। फिल्म कितना पैसा बटोर पाई यह कहना तो मेरे लिए मुश्किल है परंतु समाज को सफल संदेश जरूर दे दिया।
   आज के विचारक तपस्वीयों को शत-शत नमन करता हूं जो बाद में तय करते हैं कि सुधारना क्या है। समाज ना हुआ कोई यंत्र हो गया पहले इंजीनियर देखेगा उसका एस्टीमेट बनाएगा (जैसा आजकल हो रहा है) मिस्त्री देखेगा फिर उस लड़के को बुलाएगा जो उसे उस्ताद उस्ताद कहकर फूला नहीं समाता।
   दिनभर समाज सुधार करके थका हारा समाज सुधारक इंजीनियर मिस्त्री और उसका चेला शाम को एक आध पेग ले लेता है तो क्या बुराई है?
बार-बार सब पाकिस्तान के प्रबंधन को कह रहे थे कि भस्मासुर से बचो पर पाकिस्तान के कान में जू न रेंगी..! पाकिस्तानी यह स्थापित कर दिया था कि अच्छे तालिबान और बुरे तालिबान यानी अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद वैसे अच्छे आतंकवाद को स्वीकारना चाहिए। पश्चिम के पूरे देश यह मंत्र पसंद भी करने लगे थे कि एक चाय वाले ने बताया कि आतंकवाद आतंकवाद होता है इसमें अच्छे और बुरे का विश्लेषण कर अच्छे आतंकवाद को प्रश्रय देना अच्छी बात नहीं है जब तक समझाते तब तक 9/11 हो चुका था. मामला समाज सुधारने का ही है न? मुझे नहीं लगता कि यह मामला समाज सुधारने का होगा। यह यह तो वर्चस्व की लड़ाई है, सोवियत विखंडन का दर्द जब रूस के पुतिन भैया को महसूस हुआ तो यूक्रेन को निपटाने की कहानी कोई समाज सुधार पर आधारित नहीं है। पुतिन भैया को दुनिया अपने ढंग से चलानी है तो उधर उत्तर कोरिया का सम्राट विश्व को अपने जलवे दिखा कर छोटी-छोटी नजरों से दुनिया पर पड़ने वाले असर को देखता है। उसका बड़ा भैया शी जिनपिंग कम खुदा नहीं है भाई तो पूरे विश्व को अपने नक्शे में निकल जाना चाहता है।
चीन के बनाए हुए वायरस से दुनिया को जितना नुकसान हुआ उतना लाभ भी हुआ है । कोविड-19 के दौर में इतने महान लोग जो न कर सके आप सोच रहे होंगे मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं?
उस समय एक महान विचार सभी लोगों के मन में आ चुका था पता नहीं कल क्या होगा। त्याग उत्सर्ग दान क्षमा दया करुणा की भावनाएं जिधर देखो उधर नजर आती थी। कोई भूखे मरते हुए कुत्तों की तीमारदारी में लगा था तो कोई गाय के लिए चारा बांट रहा था। कोई मुंबई से अपने गांव जाने वालों को चप्पल पहना रहा था तो कोई खाना खिला रहा था। इसे कहते हैं बदलाव शायद यह स्थिति एक दो साल और चल जाती तो यह तय हो गया था कि विश्व समाज बदल जाएगा। परंतु जैसे ही लॉकडाउन खत्म हुआ वैसे ही मानसिक स्थितियां बदली और फिर हम पुराने लटके झटकों के साथ जिंदगी जीने लगे।
   देखी अनदेखी आपदाओं से समाज सुधर जाता है। संकट में संबंध पवित्र हो जाते हैं। यह ब्रह्म सत्य का बोध आप अपने कोविड-19 वाले दिनों में समय यात्रा करके पुनः महसूस कर सकते हैं।
आत्म साक्षात्कार किए बिना दुनिया को सुधारने निकले लोगों की हालत उस बादल जैसी होती है जिसे यह पता नहीं होता कि उनके प्रयासों से होना जाना क्या है..? ना समाज बदलेगी ना व्यवस्था ना ही लोग बदलेंगे। पूरा विश्व चला था पाकिस्तान को सुधारने पूरा विश्व चाइना को सुधारने के उतारू है पर क्या कोई सफल हो सका है या होगा मुझे संदेह है।
  कुछ वस्तुओं में मैन्युफैक्चरिंग डिफेक्ट होता है इंजीनियर भी कुछ नहीं कर पाएगा मिस्त्री और उसका चेला भी कुछ नहीं कर सकता। अब आप पूछेंगे ऐसी कौन सी चीज है? हम बताते हैं न
1.सबसे पहले सत्ता पर काबिज होने की लालच 
2.समाज में वर्चस्व की स्थापना करने की उत्कंठा
3. अत्यंत महत्वाकांक्षा
4. और भेद की दृष्टि
   सुधारना यही है सुधरना भी इसे चाहिए समाज भी सुधर जाएगा प्रशासनिक स्वरूप भी सुधर जाएगा और जब यह सुधरेगा तो भारत का आर्थिक दृश्य भी सुधर जाएगा।
   सच मायनों में समाज सुधारक सीधे समाज को सुधारने लगते हैं अपने विचारों का पुलिंदा जबरिया सिर पर पटक के निकल जाते हैं। सांख्य दर्शन कहता है आत्मिक उत्कर्ष के लिए कोशिश की जाए पर लक्ष्य भौतिक है तो आध्यात्मिक विकास कैसे होगा? सच बताओ अगर आप अध्यात्म की बात करेंगे या आप कहेंगे अलख निरंजन ऐसी स्थिति में तुरंत आपको धर्म से बांध दिया जाएगा इतना जलील किया जाएगा कि आप बोल न सके आप सोचते हैं कि दूरी बनाई जाए बना लेते हैं यह सोच कर आप एक निरापद दूरी बना लेते हैं।
 इन दिनों में वैचारिक अत्याचार के खिलाफ झंडा उठाकर खड़े होने की जरूरत है। हमें समाज नहीं सुधर वाना उन लोगों से जो आयातित विचारधारा को लेकर भारत के मौलिक स्वरूप को बदलने के एजेंडे के साथ बदलाव चाहते हैं। ऐसे लोगों का सीधा तरीका होता है वर्ग बनाओ वर्ग के साथ हो रहे कहे अनकहे अत्याचार की व्याख्या करो फिर कुंठा के बीज बो दो और युद्ध करने दो।

11.12.22

टाइम मशीन से समय यात्रा की परिकल्पना केवल एक फेंटेसी है

*टाइम ट्रैवल : संभव नहीं है..!
यूट्यूब पर सुनिए यह पॉडकास्ट
 -किसी यंत्र के सहारे टाइम ट्रेवल एक अविश्वसनीय और असंभव परिकल्पना है।"

आईए देखते हैं उनके आर्टिकल में क्या लिखा गया है

"आज जिस बिंदु पर चर्चा करना चाहता हूँ वो सनातन शब्द –नेति नेति या  नयाति नयाति ... अर्थात ये भी नहीं अरे भाई ये नहीं  और ये भी नहीं ! 

  कई  दिनों से एक बात कहनी थी परन्तु सोचता था कि – संभव है कि आगे आने वाले और बीते समय की यात्रा की जा सकती हो. 

  फिर चिंतन करके पाया वास्तव में यह एक असत्य थ्योरी ही है. जिसे मानवीय मनोरंजन के लिए गढ़ा गया है .  

    ये अलहदा तथ्य है कि “आर्टीशियल इंटेलिजेंस में असीमित संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता कि AI की मदद से हम प्राचीन समय यानी बीते पल या समय का रिक्रिएशन कर सकते हैं। 

   इतना ही नहीं हम आने वाले समय को प्री-क्रिएट भी कर सकते हैं... 

पर यह सत्य है कि ऐसे रिक्रिएशन और प्री क्रिएशन  आभासी ही होंगे इनका भौतिक अस्तित्व नहीं होगा ।

  इन दृश्यों में  वास्तविकता कतई नहीं होगी।

  पराशक्तियाँ भी  ऐसा कुछ करा सकतीं हैं. फिर भी  पराशक्तियां कुछ कर या करा  सकतीं हैं तो ... केवल इतना कि आपको बीता समय हूबहू दिखा दे।  इससे अधिक भविष्य की झलक किसी स्वप्न  के रूप में दिखा देंगी ।

   भविष्य से भी आपको पर शक्तियां रूबरू कर सकती हैं। ध्यान रहे फिर भी यह सब  केवल आभासी होगा .    

    *किशोरावस्था में  अनेकों  बार मैंने महसूस किया था कि- "मैं सायकल और बाइक चला रहा हूँ. ऐसा अनुभव जागते हुए तो कदापि नहीं केवल स्वप्न में यह संभव था ।*

   *जबकि मुझे जानने वाले सभी जानते हैं कि ऐसा संभव कदापि नहीं है. क्योंकि मेरे दाएं अंग में पोलियो से ग्रसित है,  मसल्स हैं ही नहीं ।

   शरीर यंत्र का संचलन असामान्य एवं अतिरिक्त गैजेट्स अर्थात सहायक-उपकरण पर निर्भर  है ।  

   सुधि जन जानें कि फिर भी यदि मैं दावा करूँ कि मैंने सायकल चलाई है तो केवल केवल आभासी  विवरण मात्रा होगा।.

  इसी प्रकार मेरा एक और  मत यह भी है कि  जो घटना भविष्य में आकार लेगी उसका अनुमान मात्र लगाया जा सकता है तथा उसे वर्चुअल रूप से महसूस किया जा सकता है या उसका रीक्रिएशन किया जा सकता है न कि उस तक भौतिक रूप से ।

    एक मित्र ने दावा किया कि - "समय यात्रा  संभव है ..!" 

   बिना विरोध किये मैंने पूछा कि- अगर मेरा जन्म 1963 में हुआ है  2050 में मेरी उम्र क्या होगी ...?

   मित्र ने सटीक गणना करते हुए बताया कि जिस माह एवं तारीख में तुम्हारा जन्म हुआ है 2050 के उस माह और तारीख पर तुम 87 वर्ष के हो जाओगे. 

   मेरा अगला सवाल था कि तुम मुझसे दूर कहीं रहकर 2050 में टाइम मशीन के ज़रिये समय यात्रा  {  time-tour } कर  मिल सकते हो ?

मित्र जो टाइम मशीन के ज़रिये समय  की यात्रा को मानता था ने उत्साहित होकर कहा  – अवश्य . मेरा उत्तर था कि टाइम-मशीन के ज़रिये तुम अकेले 2050 में गए हो न कि मैं..! अर्थात टाइम मशीन या कोई एडवांस तकनीकी से केवल आभासी दृश्य को आप देख सकते हैं न कि उसे तोवास्तविकता के साथ महसूस कर सकते हैं।

  किसी भी व्यक्ति ने कॉविड-19 के कालखंड की कल्पना नहीं की होगी। हां इस घटना के आधार पर भविष्य की परिकल्पना अवश्य की जा सकती है। इल्यूजन हो सकते हैं परंतु यथार्थ नहीं।

  इस बात से सहमत अवश्य हूँ कि मेरी आवाज़ जो तरंगें बन कर खुले आकाश में अन्य तरंगों से मिल जातीं हैं । उनको विशेष यांत्रिक सहायता से री – क्रियेट किया जा सकता है. 

घटनाएं घटित हो जाने के बाद भौतिक रूप से न तो शेष रहतीं हैं जिन तक किसी मशीन के सहारे जाया ही जा सकता है  न ही वे घटित होने के पूर्व किसी को नजर नहीं आ सकतीं .

मित्र ने कहा कि- "फिर तुम नेति-नेति पर भरोसा क्यों करते हो ..?"

   ब्रह्मांड बहुत विशाल है, ब्रह्मांड में कई गैलक्सी है, गैलेक्सी में हजारों लाखों तारामंडल है, आज तारीख का एक सिस्टम है एक परिवार है, जैसे हमारे सूर्य का सोलर सिस्टम  . 

अब आप ब्रह्मांड में कितनी गैलेक्सियां खोजेंगे , कितने सितारे देखेंगे, कितने सौरमंडल से परिचित होंगे। यहाँ नेति नेति अर्थात नयाति नयाति का अर्थ यही है .

   टाइम-ट्रेवल की अवधारणा को प्रचारित करने का कारण  केवल हबर्ट जार्ज वेल्स के  उपन्यास द टाइम मशीन  और उस पर आधारित बनी   फिल्मों  के लिए दर्शक जुटाना मात्र था.       


         टाइम-ट्रेवल को या टाइम टूर को लेकर  तार्किक आधार पर पूरी ज़िम्मेदारी के साथ इस अवधारणा को खारिज करता हूँ. 

    यात्रा का अर्थ समझने के पूर्व सभी समझते ही हैं कि यात्रा एक भौतिक क्रिया है . जिसकी दिशा, गति, उद्देश्य, माध्यम, और यात्री सब कुछ तय शुदा है. ये तय करने वाला शरीरी होता है जिसे यात्री कहा जाता कि उसे किस दिशा, गति, उद्देश्य, माध्यम, से यात्रा करनी है. आइये आगे टाइम-ट्रेवल की थ्यौरी की विवशाताओं को  दिशा, गति, उद्देश्य, माध्यम, आदि के साथ-साथ  कर लेते हैं 

दिशा :- हर यात्रा की दिशा तय है अर्थात किसी भी डायरेक्शन में  कोई कहीं भी जा सकता है.

 तय जाने वाले को करना है कि वह किस डायरेक्शन में जावेगा।. 

समय  की कोई दिशा तय नहीं होती . दूसरे शब्दों में कहें तो समय हर दिशा  में विस्तारित है।

 आज 3 जुलाई 2018 है कल 2 जुलाई 2018 थी. मुझे बीते कल के 12:45 बजे में जाना है तो कौन सी दिशा तय करूंगा ? समय-यात्रा का सिद्धांत यहाँ विवश है .    

[  ] गति :- मेरी गति क्या होनी चाहिए ? समय यात्रा का सिद्धांत यहाँ भी मौन ही होगा .

[  ] उद्देश्य :- सामान्य यात्राओं  एवं समय यात्रा दौनों  के  उद्देश्य निर्धारित हो सकते हैं परंतु  क्या समय यात्रा में पिछले दिन की घटना की छवि वास्तविक अच्छा भौतिक रूप में रनज़र आ सकती है..? यकीनन आपका उत्तर न में ही होगा ..... 

सामान्य यात्रा के लिए माध्यम होता है अर्थात  यात्रा किसी साधन से की जाती है जैसे- रेल, बस, कार, वायुयान, आदि आदि . जिनके उपयोग से एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाया जा सकता है। परंतु समय की यात्रा के मामले में ऐसा कैसे संभव है। 

आभासी यात्रा का साधन आभासी ही होगा जैसे स्वप्न, यह काल्पनिक दृश्य। अर्थात  रात्रि अथवा दिवस में किसी बीते समय  से पीछे या आगे जाने के लिए किसी मशीन की कल्पना ही आधारहीन सोच है. 

  अगर मशीन बन भी गई तो वह आपको बेहोश करने की मशीन होगी जिसकी वज़ह से आप अन्य मुद्दों के लिए बेहोश हो जाएंगे और केवल भूत और भविष्य की काल्पनिक घटनाओं में खोते चले जाएंगें जैसे आप सपने देख रहे हो

भौतिक रूप से आप मशीन में समाधि अवस्था में  होते हैं। 

मष्तिष्क के साथ साथ केवल आपकी  देखने एवम महसूस करने की प्रणाली ठीक ई काम करेगी

 यह प्रणाली स्वप्न देखने की प्रणाली है। अब बताओ भला स्वप्न देखने के लिए भी कोई मशीन आवश्यक होती है। सपने देखने के लिए केवल  किसी मशीन की ज़रूरत  होती है तो वह है आपका सूक्ष्म और स्थूल  शरीर ।

4.12.22

बलिदानी टंट्या भील की कहानी आनंद राणा की जुबानी

 
( अमर बलिदानी टंट्या भील की बलिदान स्थली जबलपुर से बलिदान दिवस पर शोध आलेख सादर समर्पित ) 
  
भारत के गौरवशाली इतिहास की परंपरा में भील जनजाति का अद्भुत और अद्वितीय माहात्म्य रहा है। ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भों के आलोक में सतयुग में महादेव - बड़ा देव के पुत्र निषाद, जो तीर कमान विद्या में निपुण थे, भील जनजाति के आदि पुरुष के रूप में शिरोधार्य हैं। त्रेता में भगवान श्री राम के साथ निषादराज गुह और द्वापर युग में धनुर्धर अर्जुन की परीक्षा के लिए महादेव किरात भील के रूप में अवतरित हुए थे, वहीं वर्तमान युग के हर कालखंड में हुए स्वातंत्र्यसमर में भील जनजाति का अति विशिष्ट योगदान रहा है। प्राचीन काल में सिकंदर को शिवी जनपद के भीलों ने पराजित किया था, मध्यकाल में महाराणा प्रताप के साथ राणा पूंजा भील ने अकबर के विरुद्ध भयंकर संग्राम किया था और मेवाड़ से खदेड़ दिया था।  इसी महान् परंपरा के अनुक्रम में आधुनिक भारत में महा महारथी टंट्या भील ने अंग्रेजी शासन को ध्वस्त करने के लिए 12 वर्ष तक लगातार 24 युद्ध लड़े और अपराजेय रहे, उन्हें सुनियोजित षड्यंत्र कर ही गिरफ्तार किया गया था। महारथी टंट्या महिला सशक्तिकरण के संरक्षक थे, इसलिए उन्हें टंट्या मामा के नाम से भी जाना जाता है। महारथी टंट्या गरीबों के मसीहा थे, इसलिए उन्हें भगवान का दर्जा भी प्राप्त हुआ। कतिपय पश्चिमी लेखक और अंग्रेज अधिकारी उन्हें भारत के रॉबिनहुड के नाम से रेखांकित करते हैं। 
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर बलिदानी महारथी टंट्या भील की कर्मभूमि मध्य भारत मध्य प्रांत एवं मुंबई प्रेसिडेंसी के क्षेत्र थे, जहाँ उन्होंने ब्रिटानिया सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद किया था। महारथी टंट्या का जन्म पूर्वी निमाड़ (खंडवा जिले) के पंधाना तहसील के बड़दा (बडाडा)गांव में 1840 में हुआ था, वनवासी संगठनों का मानना है कि तिथि 26 जनवरी थी। महारथी टंट्या के पिता का नाम श्रीयुत भाऊ सिंह था और उनकी पत्नी का नाम कागज बाई था। टंट्या शब्द का अर्थ विभिन्न इतिहासकारों ने प्रकारांतर से अलग-अलग बताया है परंतु वास्तव में टंट्या का शाब्दिक अर्थ है" संघर्ष" और इसी नाम को आगे जाकर महारथी टंट्या ने सार्थक किया। 
बाल्यकाल से ही महारथी टंट्या कुशाग्र बुद्धि के थे तीर कमान लाठी और गोफन में प्रशिक्षण प्राप्त कर महारत हासिल कर ली थी। दावा या फलिया उनका मुख्य हथियार था और उन्होंने बंदूक चलाना भी भली-भांति सीख लिया था। धनुर्विधा में महारत हासिल कर ली थी। महारथी टंट्या का संबंध सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से भी है जिसमें वे तात्या टोपे के साथ रहे और उन्हीं से उन्होंने गुरिल्ला युद्ध पद्धति में महारत हासिल की थी। 
 बाल्यकाल में ही में ही उनके पिता भाऊ सिंह ने आमजा माता के समक्ष महारथी टंट्या को शपथ दिलाई थी, कि वह बेटियों बहुओं और बहनों की सदैव रक्षा करेगा, आगे चलकर टंट्या भील ने 300 निर्धन कन्याओं का विवाह कराया और महिलाओं के उत्थान के लिए अनेक कार्य किए इसलिए उन्हें टंट्या मामा भी कहा जाता है। महारथी टंट्या के पिता की जल्दी मृत्यु हो गई। सारी जिम्मेदारी महारथी टंट्या पर आ गई फसल ठीक से आने के कारण वे 4 साल का लगान जमा नहीं कर सके, इसलिए उन्हें मालगुजार ने बेदखल कर दिया इस मामले को लेकर वह अपने पिता के मित्र शिवा पाटिल के पास गए क्योंकि वह जमीन शिवा पाटिल और भाऊ सिंह दोनों ने मिलकर खरीदी थी, परंतु शिवा पाटिल ने जमीन पर अधिकार देने से मना कर दिया। महारथी टंट्या ने अंग्रेजी अदालत में मुकदमा दायर किया परंतु अंग्रेजी न्याय व्यवस्था ने झूठे साक्ष्यों के आधार पर महारथी टंट्या का प्रकरण समाप्त कर दिया। न्याय न मिलने के कारण महारथी टंट्या के पास संग्राम के अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था इसलिए एक दिन उन्होंने अपने साथियों के साथ शिवा के सभी आदमियों हमला बोल दिया और अपनी भूमि को कब्जे से मुक्त कराया।इसी समय अंग्रेज सरकार द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 1 साल की कठोर सजा मिली जहां उन्होंने कैदियों पर अंग्रेजों के अत्याचार को देखा और उनके मन में स्वतंत्रता संग्राम की इच्छा बलवती हुई ।
सन 1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम के उपरांत ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हुआ और सन् 1858 में भारत का शासन ब्रिटिश क्रॉउन के अधीन आ गया इसके उपरांत ब्रिटिश सरकार का अत्याचार और अनाचार बढ़ गया ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर मालगुजार और साहूकारों ने भी जनसाधारण का विभिन्न प्रकार से शोषण करना आरंभ किया तो महारथी टंट्या ने वनवासियों और पीड़ितों को एकत्रित कर अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम छेड़ दिया। 
सन् 1876 से  महारथी टंट्या भील का ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विधिवत् स्वतंत्रता संग्राम का शुभारंभ हुआ 20 नवंबर 1878 को उन्हें धोखे से पकड़कर खंडवा जेल में डाल दिया गया परंतु 24 नवंबर 1878 को रात में वह अपने साथियों के साथ दीवार लांघकर कर मुक्त हो गए। इसके बाद उन्होंने संगठन को मजबूत किया जिसमें जिसमें बिजानिया भील, दौलिया, मोडिया और हिरिया जैसे साथी मिले और उसी के साथ महारथी टंट्या ने ब्रिटिश सरकार के समानांतर 1700 गांव में सरकार चलाना आरंभ कर दी। महारथी टंट्या ने एक विशेष दस्ता "टंट्या पुलिस" के नाम से गठित किया और साथ ही चलित न्यायालय बनाए जिसमें न्याय किया जाता था। महारथी टंट्या का 12 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम रहा है जिसमें अंतिम 7 वर्ष बहुत ही महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ब्रिटिश सरकार को स्पेशल टास्क फोर्स गठित करनी पड़ी थी इस स्पेशल टास्क फोर्स के कमांडर एस. ब्रुक की एक हमले में महारथी टंट्या ने नाक काट दी थी। इसी प्रकार टंट्या मामा ने नाई बनकर एक चुनौती देने वाले थानेदार की भी नाक काटी थी। 
महारथी टंट्या ने ब्रिटिश सरकार से 24 बार संघर्ष किया और वह विजयी रहे इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार के खजाने और जमीदारों तथा माल गुजारों से सभी निर्धन वर्गों के लिए के लिए 400 बार  धनराशि हस्तगत कर उन्हें वितरित की।अकाल के समय भी उन्होंने किसी को भूख से मरने नहीं दिया इसके उन्होंने कई बार अंग्रेजी सरकार द्वारा रेल से भेजे जा रहे अनाज को हस्तगत किया। यह बात प्रचलित हो गई थी, कि महारथी टंट्या के राज में कोई भूखा नहीं सो सकेगा । 
सन् 1880 के बाद मध्य प्रांत, मध्य भारत और मुंबई प्रेसिडेंसी के क्षेत्रों में महारथी टंट्या चमत्कारिक स्वरूप के रूप में स्थापित हो गए थे, इसलिए उन्हें को भगवान का दर्जा दिया जाने लगा था, और अब महारथी टंट्या जननायक बन गए थे। 
तांतिया भील - हिस्ट्री आॅफ आफ एम पी पुलिस के पृष्ठ क्रमांक 101 एवं 103 के हवाले से एक बार  महारथी टंट्या और बिजानिया को गिरफ्तार करके जबलपुर सेंट्रल जेल लाया गया परंतु दोनों पुनः भागने निकले परंतु दुर्भाग्य से बिजानिया, दौलिया मोडिया और हिरिया पकड़े गए और उन्हें फांसी दे दी गई जिससे महारथी टंट्या का संगठन कमजोर हो गया परंतु फिर भी ब्रिटिश सरकार उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकी। 
ब्रिटिश सरकार ने महारथी टंट्या को पकड़ने के लिए उनकी मुंह बोली बहन के पति गणपत सिंह का सहयोग लिया और 11 अगस्त 1889 को रक्षा बंधन के दिन सुनियोजित षड्यंत्र के चलते जब राखी बंधवाने के लिए टंट्या अपनी बहन के यहां पहुंचे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। महारथी टंट्या को पहले खंडवा जेल में रखा गया फिर उन्हें जबलपुर सेंट्रल जेल (वर्तमान नेताजी सुभाष चंद्र बोस केन्द्रीय जेल) में स्थानांतरित कर दिया गया। 
 जबलपुर के सत्र न्यायालय में महारथी टंट्या पर विभिन्न आपराधिक मामलों के साथ देशद्रोह का मुकदमा प्रारंभ हुआ। गौरतलब है कि जब महारथी टंट्या को जबलपुर लाया गया तो हजारों की संख्या में लोग उनके दर्शन के लिए एकत्रित हुए थे,इसलिए आगे चलकर सेंट्रल जेल क्षेत्र में कर्फ्यू की घोषणा कर दी गई थी। अंततः महारथी टंट्या भील को 19 अक्टूबर 1889 में फांसी की सजा सुनाई गई। संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयॉर्क टाइम्स समाचार पत्र में तो 10 नवंबर 1889 को टंट्या भील की गिरफ्तारी पर एक खबर प्रकाशित की जिसमें उन्हें भारत के रॉबिनहुड के रूप में रेखांकित किया गया था। किया गया था। फांसी की सजा के विरुद्ध  मर्सी पिटिशन दाखिल की गई परंतु 25 नवंबर 1889 को मर्सी पिटीशन खारिज कर दी गई और 4 दिसंबर 1889 को महारथी टंट्या नेताजी सुभाष चंद्र बोस केंद्रीय जेल में फांसी पर लटका दिया गया। फांसी के उपरांत उनके मृत शरीर को पातालपानी के कालाकुंड रेलवे ट्रैक पर फेंक दिया गया  ताकि  ब्रिटिश सरकार की दहशत और सर्वोच्चता बनी रहे। महारथी टंट्या का पार्थिव शरीर तो नष्ट हो गया परंतु वह अमर हो गए। टंट्या मामा का मंदिर भी बनवाया गया।यह प्रचलित है कि आज भी पातालपानी से जो भी रेल निकलती है वह थोड़ा रुकती है और टंट्या मामा(भगवान् टंट्या के रुप में) को प्रणाम (सलामी) किया जाता है।  यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि ऐसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महारथी टंट्या का पूर्ववर्ती इतिहास में पश्चिमी और परजीवी इतिहासकारों ने लुटेरा और डकैत  के रूप में उल्लेख किया गया है जो बेहद शर्मनाक ही नहीं वरन दुखद है और तो और वर्तमान संदर्भ में राजनीतिक उल्लू सीधा करने एवं "फूट डालो राज्य करो नीति" की पुनर्स्थापना करने के लिए राजनीतिज्ञ  महारथी, एवं आयातित विचारधारा के प्रवर्तक लोग सार्वजनिक रूप से अनियंत्रित वक्तव्य जारी कर रहे हैं। यह आरोप लगाया जा रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कारण टंट्या मामा को फांसी दी गई।
अगर आप विचार करें तो पाएंगे टंट्या मामा (4 दिसंबर सन् 1889 ) और भगवान् बिरसा मुंडा (9 जून सन् 1900) के बलिदान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हाथ होने का आरोप लगा रहे हैं, यह घृणित है और मानसिक दिवालियापन का प्रतीक है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना सन् 1925 में हुई थी । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास लेखन की विडंबना यही रही है कि ब्रिटानिया शासन के विरुद्ध जितने भी सशस्त्र संघर्ष हुए हैं, उन्हें विद्रोह, गदर, लूट, डकैती और आतंकवाद की संज्ञा दी गई है, जबकि वास्तविकता यह है कि सभी सशस्त्र संघर्ष - स्वतंत्रता संग्राम, पवित्र यज्ञ एवं अनुष्ठान थे,और उनके योद्धा, महान् स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। एतदर्थ अब स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के चलते इतिहास का पुनर्लेखन हो रहा है और इन गुमनाम बलिदानियों की अमर गाथाओं को इतिहास में समुचित स्थान मिल रहा है। अमृत महोत्सव का मूल उद्देश्य भी यही है कि है पूर्व के त्रुटिपूर्ण मत प्रवाह (नैरेटिव) को सुधारा जा सके और गुमनाम बलिदानियों को इतिहास में समुचित स्थान दिया जाए ताकि वर्तमान और भावी पीढ़ी को गर्व और गौरव की अनुभूति हो और राष्ट्रवाद की भावना पल्लवित पुष्पित होती रहे और यही भावना प्रबल हो कि मैं रहूं या ना रहूं मेरा देश यह भारत रहना चाहिए।..
.(यह मौलिक शोध है, संदर्भ के लिए प्राथमिक स्रोत के रूप में जबलपुर सेंट्रल जेल की फाइलें, सन् 1930 में प्रकाशित हिन्दू पंच बलिदान अंक और जबलपुर कमिश्नरी द्वारा प्रकाशित जबलपुर अतीत दर्शन के साथ अन्य द्वितीयक स्रोतों को लिया है। आज भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर बलिदानी महारथी टंट्या भील के बलिदान दिवस पर शत् शत् नमन है। जय हिंद 
🙏जय भारत 🙏............
 डाॅ. आनंद सिंह राणा, 
विभागाध्यक्ष इतिहास, श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत, जबलपुर (म. प्र.)

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में। शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर

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