प्रश्न के उत्तर में बहुत कुछ मिल जाएगा। अक्सर हम अपने आप को जो दिखते हैं वह समझ लेते हैं। यह एक हद तक सहज हो सकता है परंतु वास्तविकता यह नहीं है।
बुल्ले शाह जब इस सवाल को नहीं हल कर पाते तो उनका ह्रदय इस सवाल को एक गीत में पूरी करुणा के साथ सामवेदी करुणामय गीत के रूप में अगुंजित हो जाता है- बुल्ले की जाणा मैं कौन..?
लौकिक कृष्ण मथुरा से द्वारका तक विभिन्न लीलाओं के साथ यात्रा करते हैं यही जानने के लिए न मैं कौन हूं?
राम को भी नहीं मालूम था कि वे नर नहीं नारायण है ऐसा कुछ लोग कहते हैं। सत्य जो भी हो अद्वैत सिद्ध कर देता है कि हम नारायण अर्थात ब्रह्मांश ही तो हैं।
Then why do wars happen?
यह सवाल भी ठीक है। हम संघर्ष क्यों करते हैं? वास्तव में हम बार-बार भूल जाते हैं कि हम ब्रह्म है। अद्वैत यही तो कहता है न?
किसी भी तत्व चिंतक दृष्टा के मस्तिष्क में सबसे पहला एकमात्र सवाल यही होता है कि मैं कौन हूं..?
अपने मामा जी एवं साहित्यकार श्री राजेंद्र शर्मा जी से चर्चा करने पर उन्होंने बताया-"एक किशोर वय का बालक, श्री भगवदपाद के तपस्या स्थल पर खड़ा गुरु की प्रतीक्षा कर रहा था।
तपस्या की विश्राम में गुरु ने पूछा -"कौन हो बालक?
शंकर ने कहा यही तो मैं जानना चाहता हूं?
यह लघु प्रश्नोत्तरी सामान्य नहीं थी। इसमें विराट का बोध होता है। पर कभी-कभी चकित हो जाते हैं हम सब जब विराट का सारांश निकालना कठिन हो जाता है। जबकि युवा शंकर ने बहुत जल्द ही तत्व ज्ञान प्राप्त कर लिया। विभिन्न विचारों मतों संप्रदायों में विभक्त भारतीय जीवन क्रम को एकीकृत किया और हमें एक पंचायतन आराधना के लिए सौंप दी। पंचायतन जानते हैं न जी हां जो आपके घर में पूजा स्थल पर लगा होता है। आर्थिक क्षमता अनुसार कोई लोहे का सिहासन बनवा ता है तो कोई सोने या चांदी का बनवा लेता है। उसमें अपने सभी प्रभु को बैठा देता है। हर सनातन प्रवाह में बहने वाला व्यक्ति उसका परिवार अपने पंचायतन में शिव विष्णु शक्ति लड्डू गोपाल आदि आदि अपने मनचाहे स्वरूप में स्थापित कर उनकी आराधना करते हैं। लोकायत इसे आडंबर कहता है। आर्य समाजी इसे अस्वीकार्य करता है। आयातित संप्रदाय तो बिल्कुल पसंद नहीं करता। ऐसे में सामुदायिक एकात्मता की परिकल्पना किस तरह की जाए यह विचार करने योग्य है।
लोकायत परंपरा हमें ब्रह्म से भी मुक्त कर देती है। ब्रह्म के अस्तित्व को अस्वीकार करना लोकायत का मूल आधार है । सब एक ब्रह्म का उद्घोष करते हैं परंतु हर एक का अपना-अपना अलग-अलग ब्रह्म है। कोई ब्रह्म से मिलकर आ जाता है। अद्वैत की माने तो ब्रह्म से मिलना सहज नहीं है, और कठिन भी नहीं। पर जो ब्रह्म से मिलकर आते हैं, अगर लोकायत भाषा में मैं प्रश्न करूं तो भी घबरा सकते हैं! ऐसी कोई कठिन प्रश्न नहीं करूंगा। क्योंकि सद्गुरु स्वामी श्रद्धानंद नाथ कहते हैं कि -"अलख निरंजन" यह कोई साधु या भिक्षुक द्वारा उच्चारित उद्घोष नहीं है। यह विस्तृत अध्यात्म का उद्घाटन है। आंख में आज लेने के बाद काजल किसे दिखा है? ब्रह्म वही है आंख में आंजना आना चाहिए न..?
मैं अगर कहता हूं कि -"जब कभी बुद्ध से भेंट होती है तो बुद्ध मुझे उपनिषदों के अनु गायक से प्रतीत होते हैं।" तो गलत क्या कहता हूं। बार-बार कबीर कठोरता से ब्रह्म तत्व का परिचय देते हैं, तो भी समझ में नहीं आता। हम उलझते जाते हैं प्रक्रियाओं को धर्म मान लेते हैं और स्वर्ग नरक जैसे काल्पनिक शब्दों के खोजते रहते हैं या उसकी परिकल्पना करते रहते हैं।
अरे भाई, रुको जरा रुको पहले समझ तो लोग अनहलक का अर्थ क्या है, अलख निरंजन के बारे में कभी चिंतन किया है? कभी ध्यान से सुना है की महात्मा बुद्ध क्या कह रहे हैं?
संभवत है अभी तक इस दिशा में सोचा ही नहीं। कभी किसी के विचारों को तू कभी किसी प्रक्रिया को या किसी डॉक्ट्रिन को धर्म कह दिया या किसी पंथ के नारे को धर्म कह दिया? यह क्या हो रहा है? पहली बात तो बुल्ले शाह को नहीं सुना कि बुल्ले शाह क्या पूछ रहे हैं?
ध्यान से सुनो बुद्ध ने कहा था -अप्प दीपो भव:, अपनी जान गवा देने वाला सूफी अन हलक का उद्घोष कर रहा था। ब्रह्म को लोकायत परंपरा तर्क से परीक्षित करती रहे, चार्वाक और जावली कुछ भी करें हमें उनसे कोई शिकायत नहीं क्योंकि वह जिसे धर्म समझ बैठे वह प्रक्रिया थी वह अनुशासनिक व्यवस्था रही। आत्मिक विकास के लिए तो सनातन अध्यात्म की उपयोगिता को नकारने की क्षमता किसी में नहीं है। एक थे प्रोफेसर रजनीश कहते हैं वह भगवान बन गए फिर वह समुद्र बन गए बस भगवान समुद्र इतनी ही यात्रा है क्या? यात्रा तो बहुत बड़ी है, इस यात्रा पर निकलने वाला जानता है और गाता है.."निर्गुण रंगी चादरिया जो उड़े संत सुजान"
ब्रह्म के अस्तित्व को नकारो स्वीकारो, इससे ब्रह्म को क्या फर्क पड़ने वाला है। तुम का कैसा भी विरूपण करो कोई फर्क नहीं पड़ता। एक बार आत्म योग मुद्रा में बैठो हजारों हजार संदेश मस्तिष्क पर मिलेंगे इसमें किसी मीडियेटर की भी जरूरत नहीं है। बस कुछ विचार जो इन संदेशों को रोकते हैं उनसे जरा सा दूर हो जाओ। उदाहरण के तौर पर मैं एक मनुष्य हूं तुम भी एक मनुष्य हो मैं सिर्फ तुम्हारे बारे में सोचते हुए तुम्हारी गलतियां कमियां त्रुटियां अपराध आदि का विश्लेषण करता रहूं या तुम मेरी तरह ऐसा ही करो इससे तुम्हारे मस्तिष्क में आने वाली वायरलेस संदेश अवरुद्ध हो जाते हैं।
फिर तुम किसी के पीछे पीछे भागते हो और उस व्यक्ति से मदद लेकर ब्रह्म से मिलना चाहते हो। ऐसा न हुआ है न होगा और सुना ही हो रहा है।
श्री राम कृष्ण हरि