23.7.22

भारत से प्रतिभा पलायन : कारण और निदान [ गिरीश बिल्लोरे मुकुल]

          


   संसद के मानसून सत्र में तारांकित लोकसभा प्रश्न के जवाब में जानकारी स्पष्ट हुई है जिसके अनुसार भारत से 392000 लोग विदेशों में स्थाई रूप से बसने के इरादे से लगभग 120 देशों के नागरिक बन चुके हैं। 


मीडिया सूत्रों से तथा संसद में दिए जवाब के अनुसार टॉप 10 देशों की सिटीजनशिप लेने वालों में अमेरिका में सिटीजनशिप प्राप्त करने वालों की संख्या 1,70,795  है। जबकि कैनेडा की नागरिकता प्राप्त करने वाली आबादी 64,071  है। ऑस्ट्रेलिया को भी लोगों ने तीसरी प्राथमिकता पर रखते हुए अब तक. 58,391 वहां की नागरिकता प्राप्त कर चुके हैं। यूनाइटेड किंगडम की नागरिकता लेने वालों की संख्या 35,435 , तथा 12131 लोग इटली और 8,882 लोग न्यूजीलैंड के नागरिक बन चुके हैं. भारत के लोग सिंगापुर और जर्मनी की नागरिकता क्रमश:  7,046 , 6,690 जर्मनी, 3,754, स्वीडन के नागरिक हो गए हैं।भारत और भारतीयों की नजर में सबसे अशांत हमारे पड़ोसी  पाकिस्तान में  48 भारतीयों ने नागरिकता प्राप्त की है।


उपरोक्त नागरिकता संबंधी  आंकड़ों के सापेक्ष  हम अनिवासी प्रवासी भारतीयों अर्थात एन आर आई के आंकड़ों पर गौर करें तो विगत 20 वर्षों में 1.80 करोड़ है. अर्थात एक करोड़ अस्सी लाख भारतीय पहले से ही विदेशों में विभिन्न कारणों से प्रवास पर हैं . अर्थात कुल प्रवासियों के 2.8% लोगों ने ही विदेशी नागरिकता हासिल की है.    


विगत दो दिनों में नागरिकता के मुद्दे पर सबकी अपनी अपनी अलग-अलग राय है। कुछ लोगों का कहना है कि राजनीतिक अस्थिरता, एक महत्वपूर्ण वजह है। ऐसे लोगों की राय से कोई भी सहमत नहीं होगा और होना भी नहीं चाहिए। जो राष्ट्र की नागरिकता त्याग कर अन्यत्र राष्ट्रों में नागरिकता ग्रहण करते हैं यह उन व्यक्तियों के लिए सर्वथा व्यक्तिगत मुद्दा है ना कि राजनीति अथवा सामाजिक परिस्थितियों से इसका कोई लेना देना नहीं। विश्लेषक अपनी तरह से इस बात का विश्लेषण करने के लिए स्वतंत्र हैं और उनका अधिकार भी है परंतु मेरा मानना है कि केवल भारत में ऐसी कोई राजनीतिक परिस्थिति नहीं है जिसके कारण भारत को छोड़कर भारतवासी जाएं।भारतीय नागरिक विशेष तौर पर युवा अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान तथा अपने कर्मशील व्यक्तित्व के कारण यूरोप में अपना अस्तित्व सुनिश्चित करने के कारण सरलता से वीजा पा लेते हैं. एक और बात ध्यान देने योग्य है कि –“यूरोपीय एवं खाड़ी देख बिना लाभ के भारतीयों को वीजा नहीं देते..!”


यह महत्वपूर्ण है कि -" भारत से ब्रेन ड्रेनेज को अब रोकने की आवश्यकता है." भारत सरकार एवं राज्य सरकारों को ऐसी नीतियों का निर्माण करना आवश्यक है ताकि ब्रेन ड्रेन इसकी स्थिति उत्पन्न ना हो और प्रतिभावान युवाओं को यूरोप को मज़बूत बनाने से रोका जावे. ।


भारतीय 135 करोड़ की आबादी में से 1.80 करोड़ लोगों का प्रवासी होना ब्रेन ड्रेन है अत: सरकार के लिए माथे शिकन आनी जरूरी है।


यहाँ एक अपवाद पाकिस्तान की नागरिकता लेने वाले 48 लोग हैं. इसके कारणों पर इनका पाकिस्तान जाना सर्वथा व्यक्तिगत निर्णय है। इसे ब्रेन ड्रेनेज की श्रेणी से एकदम हटा देना चाहिए।


  विगत 3 वर्षों में जिस गति से भारतीय जन इतनी बड़ी संख्या में विदेशों में बस रहे हैं वह चिंताजनक अवश्य है। विदेशी नागरिकता ग्रहण करने के कारणों पर ध्यान दिया जाए तो आप पाएंगे

1.भारतवंशी युवा यूरोप में इस वजह से जाता है क्योंकि उसे जॉब सिक्योरिटी बेहतर जीवन प्रणाली उपलब्ध हो जाती है। परंतु यह सिद्धांत सब जगह लागू नहीं होता उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार आम बात है।

यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका  जर्मनी सिंगापुर में नागरिकता पाने वाले भारतीय मुख्य रूप से उच्च स्तरीय नौकरी अथवा व्यापार संस्थान स्थापित करने के कारण निजी सुविधा के चलते सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। इस समाचार के आने के बाद जब युवाओं से बात की गई तो उन्होंने अमेरिका जर्मनी यूनाइटेड किंगडम सिंगापुर और उसके बाद केनेडा को प्राथमिकता क्रम में रखा।

2. भारत से अमेरिका जाकर सॉफ्टवेयर और आईटी के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों ने बताया कि भारत की तुलना में अमेरिका का जीवन कठिन है। बावजूद इसके डॉलर की मोहनी छवि उनके मस्तिष्क से निकल नहीं पाती है।

3.  केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों को इस बात का ध्यान रखना ही होगा की ब्रेन ड्रेनेज की स्थिति निर्मित ना हो।

    कनाडा की नागरिकता लेने या कैनेडा में बसने के सपने पंजाब में सर्वाधिक देखे जाते हैं। कनाडा की सिटीजनशिप मिलने का प्रमुख कारण वहां की आबादी कम होना है। कनाडा में निजी कारोबार करने वाले सिखों एवं पंजाब के लोगों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है। 


2050 से 2060 तक विदेशों की नागरिकता ग्रहण करने वालों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि की संभावना है।अगर विदेशों की नागरिकता ग्रहण करने वाले भारतीयों की संख्या 10% से 15% का इजाफा होता है तो प्रतिभाओं के पलायन के दुष्परिणाम साफ़तौर नज़र आएँगे . 


 अत: भारत में प्रतिभावान युवाओं के लिए सकारात्मक वातावरण बनाने के लिए केंद्र एवं राज्यों की सरकारों की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।


स्पष्ट है कि व्यक्तिगत कारणों से नागरिकता लेना चिंता का विषय नहीं है। चिंता का विषय तो यह है कि-" भारत में प्रतिभाओं के सही तरीके से प्रोत्साहन एवं उपयोग की आवश्यकता पर हम सतर्क क्यों नहीं हैं...?"

  प्रवासियों की उपलब्धि पर एक नजर -  

   अब हम चर्चा करते हैं उन राष्ट्रों की जहां पर भारतीयों का खासा दबदबा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 16 देशों में 200 से अधिक भारतवंशी  सक्रिय राजनीति में सांसद अथवा अन्य जनप्रतिनिधि के रूप में कार्यरत हैं। उदाहरणार्थ  अमेरिका में उपराष्ट्रपति की हैसियत हासिल करने में कमला हैरिस को ज्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी। वर्तमान में भारतीय मूल के ऋषि सुनक के बारे में पूरा विश्व जानता है। मेरे एक परिचित योगाचार्य स्वामी अनंत बोध हरियाणा के निवासी हैं। तथा वे इन दिनों यूक्रेन से लगे लिथुआनिया देश में निवास कर रहे हैं। उनका उद्देश्य भारतीय सनातन का विस्तार तथा योग का प्रचार प्रसार करना है। स्वामी अनंत बोध विधिवत लिथुआनिया में योग का प्रशिक्षण भी देते हैं तथा आयुर्वेद का प्रचार-प्रसार भी करते हैं।


   अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि-" भारत से अन्य देशों में जाकर बसने वालों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में प्रतिभाओं का सम्मान नहीं है अथवा उन्हें वांछित अवसर नहीं मिल रहे हैं।"

23.6.22

सनातनी अस्थि-पंजरों पूजन न करें..?

   बहुत दिनों से यह सवाल मेरे मित्र मुझसे पूछते थे। सनातन में अस्थि कलश विसर्जित किया जाता है। क्योंकि शरीर और प्राण दो अलग-अलग वस्तु है। कतिपय सनातनी उन स्थानों की पूजा करते हैं जहां शरीरों को प्रथा अनुसार मृत्यु के बाद भूमिगत कर दिया जाता हैं ।
 सनातनी लोगों के लिए ऐसा करना वर्जित है। 
    सामान्यतः  सनातन धर्म में देह को प्राण के देह से निकल जाने के बाद अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है उसकी अस्थियों एवं भस्म को गंगा या अन्य पवित्र नदी को सौंपा जाता है।  मृतक के मरने के 11 दिन बाद शरीर से पृथक हुए प्राण को पूर्वजों के साथ मिलाकर ब्रह्म के अर्थात परम उर्जा में समाविष्ट करने का नियम है। तदुपरांत सवा महीने तक दिवंगत आत्मा की स्मृति में ऐसे कार्य जो विलासिता की श्रेणी में आते हैं को संपन्न करने कराने की अनुमति सनातन में नहीं है।
सनातन ऐसे किसी विषय को रुकता नहीं है जिसमें कि किसी परिवार का हित छुपा हुआ हो। उदाहरण के तौर पर विवाह संस्कार रोजगार के लिए पर्यटन इत्यादि। क्योंकि सनातन व्यवस्था में विकल्पों का महत्व है तथा जीवन चर्या के लिए विकल्प भी मौजूद है ऐसी स्थिति में मृत्यु के उपरांत उत्तर कर्मों की काल अवधि में परिवर्तन किया जा सकता है। उदाहरण स्वरूप स्थाई नियम है किसी की मृत्यु के 1 वर्ष उपरांत घर में शुभ कार्य हो सकते हैं। परंतु आवश्यकता पड़ने पर 12 माह उपरांत होने वाली बरसी की तिथि में परिवर्तन किया जा सकता है। यहां तक कि अगर विवाह जैसा कार्य संपादित किया जा रहा हो और उसी समय परिवार में कोई मृत्यु हो जाए तो उत्तर कर्म तथा विवाह समानांतर रूप में संपन्न किए जा सकते हैं। सनातन कट्टर व्यवस्था को विकल्पों के तौर पर समाप्त करने की सलाह देता है। सनातन का हर संप्रदाय अपने अपने नियम बनाता है। इससे सनातन के मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। सनातन धर्म है ना कि सांप्रदायिक व्यवस्था। सनातन जिस ईश्वर की कल्पना करता है वह ईश्वर प्रत्येक जीव के साथ समानता का व्यवहार करता है। सनातन का  अनुसरण करने वाला व्यक्ति चाहे वह शैव वैष्णव अथवा शाक्त हो सभी में एक ही ब्रह्म की अवधारणा दृढ़ता से समाहित होती है।
    स्वर्ग और नर्क की परिकल्पना मूल रूप से सनातन में नहीं की गई। ऐसी मेरी अवधारणा है सर्वमान्य ग्रंथों में स्वर्ग नरक की परिकल्पना नहीं है।  ब्रह्म एक परम ऊर्जा है। हमारे प्राण उसी परम उर्जा का अंश होते हैं। प्रतीकात्मक रूप से हम सनातन धर्म के अनुयाई मृतक के पिंड अपने पूर्वजों के  पिंडों के साथ मिलाकर सहपिंडी की प्रक्रिया का निष्पादन करते हैं। यह अनुष्ठान हम निरंतर करते हैं कहीं-कहीं  पुण्यतिथि पर अथवा श्राद्ध पक्ष में।
  यह वैज्ञानिक सत्य भी है। केवल हम उन शरीरों को भस्मी भूत करते हैं। विशेष परिस्थिति में समाधि देने का भी प्रावधान है। परंतु ऐसा सामान्य रूप से नहीं होता। मित्र को मेरी सलाह थी कि-" हम अमर आत्मा की पूजन करते हैं अगर वह हमारे पूर्वज है तो अगर समकक्ष या छोटी उम्र के हैं तो उन्हें श्रद्धा सहित आमंत्रित कर उनका स्मरण करते हैं। यह परम सत्य है कि आत्मा नामक ऊर्जा का मिलन अगर प्रमुख ऊर्जा अर्थात ब्रह्म से नहीं होता तो वह या तो पुन: जन्म लेती हैं ,अथवा ऐसी आत्माएं जन्म लेने के लिए किसी भी योनि में प्रविष्ट हो हो सकती है। हमारी सनातनी मान्यता है कि हमें उन आत्माओं की प्रति तर्पण जैसी प्रक्रिया करने से आत्मा जिस योनि में जन्म लेती है को आत्मिक सुख का अनुभव होता है। 
हमें किन लोगों की समाधि पर पूजन करनी चाहिए
हमें केवल ऐसी मृत समाधिष्ट    महा ज्ञानियों तपस्वियों और ब्रह्मचारीयों की पूजन करने की आज्ञा है जो ऋषि परंपरा एवं लौकिक जीवन में जीव ब्रह्म के अनुरूप आचरण कर चुके हैं। ऋषि परंपरा के दिवंगत व्यक्तियों की समाधि यों को छोड़कर अन्य किसी भी मत एवं संप्रदाय के मृतकों की समाधि की पूजा करना वर्जित है इन समाधियों में नर कंकाल के अलावा कुछ नहीं होता।
यह भी मान्यता है कि जो लोग मृत शरीरों को संभाल कर रखते हैं तथा उनकी पूजन करते हैं उससे कुलदेवी या कुलदेवता रुष्ट हो जाते हैं। क्योंकि हमारी कुल की रक्षा कुलदेवी या कुलदेवता द्वारा की जाती है। कुलदेवी अथवा कुल देवता हमारे कुल की रक्षा और उन्हें सतत आशीर्वचन देने का दायित्व निभाते हैं। किंतु हम भ्रमित होकर अन्य संप्रदायों से संबंधित व्यक्तियों की समाधि पर आराधना करना सनातन में वर्जित है। ऐसा करने से कुलदेवी अथवा कुलदेवता के प्रति आपका अविश्वास प्रकट होता है। ऐसी स्थिति में जो सनातनी व्यक्ति है उसे कभी भी किसी अन्य संप्रदाय के प्रति आस्था रखने वालों से संबंधित समाधि पर ना तो जाना चाहिए और ना ही उन पर विश्वास ही करना चाहिए। क्योंकि हम अस्थि पूजक नहीं है बल्कि हम ब्रह्म के आराधक हैं। हमारी कुल देवी या देवता के प्रति आस्था ना रखते हुए हम अगर अन्य किसी पर विश्वास करते हैं तो यह अपने ही कुल देवी या देवता के प्रति सकारात्मक श्रद्धा से खुद को अलग कर लेते हैं। जिनके घर में श्राद्ध पक्ष एवं कुलदेवी और कुलदेवताओं का पूजन किया जाता है उन्हें किसी अन्य गैर सनातनी व्यक्ति की समाधि पर जाना शास्त्र सम्मत नहीं है भले ही वे कितने महत्वपूर्ण क्यों न हों। 
   आज से ही जो भी कब्रों दरगाह अथवा ऐसे किसी स्थान पर जाते हैं जहां उन्हें भ्रम होता है कि उनकी मनोकामना पूर्ण होगी । वास्तव में यह भ्रामक प्रचार के कारण होता है। पंडितों एवं आचार्यों को चाहिए कि वे इस संदेश को हर तरफ विस्तारित करें। 
  हां यदि आप अन्य किसी संप्रदाय को मानते हैं तो आप यह सब कर सकते हैं , इसे हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । परंतु सनातन धर्म के माननीय वालों के लिए यह सब वर्जित है।

20.6.22

जब एक कलेक्टर ने कमिश्नर लोकव्यहवार का पाठ

*आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ पर स्मृति कथा  01*
(15 अगस्त 2022 तक लगभग  ब्रिटिश हुकूमत पर कहानियों की सीरीज)
   1897-1898 की बात है, भारत अंग्रेजों का गुलाम था उस समय जबलपुर कमिश्नर के रूप में सर जे बेनफील्ड  फुलर पदस्थ थे। डिप्टी कमिश्नर वर्तमान में जिन्हें कलेक्टर कहा जाता है कि पद पर श्री स्टेंडन पदस्थ थे । जी हां मैं उसी फुलर साहब की बात कर रहा हूं जिनके नाम पर वर्तमान शहपुरा विकासखंड के एक गांव का नाम फुलर रखा गया था । अधिकांश अंग्रेज अधिकारी भारतीयों को अपमानित करते और अपमानित करने का अवसर की तलाश में रहते । फुलर साहब उसी तरह के अंग्रेज अफ़सर थे ।
    हाथी पर सवार होकर ग्रामीण क्षेत्रों की भ्रमण के लिए निकले। उनके साथ जबलपुर कलेक्टर अर्थात डिप्टी कमिश्नर स्टेंडन सरकारी कर्मचारी और माल गुजार भी चल रहे थे मालगुजार घोड़े पर सवार थे वे आसानी से घोड़े से चढ़ उतर नहीं सकते थे।
     यात्रा के दौरान कमिश्नर साहब ने मालगुजार से हाथी पर बैठे-बैठे कोई सवाल पूछा । मालगुजार ने भी हाथी पर बैठे-बैठे जवाब दे दिया।
  भारतीयों को अयोग्य और मूर्ख समझने वाले सर जे बेनफील्ड  फुलर के क्रोध का ठिकाना ना रहा। क्रोध का कारण था मालगुजार का घोड़े पर बैठे बैठे जवाब देना। वे आपे से बाहर हो गए और मालगुजार को अपमानित करते हुए अनाप-शनाप बोलने लगे, तथा घोड़े से उतर कर जवाब देने को बाध्य कर दिया। मालगुजार को पुनः घोड़े पर सवार होने के लिए अधीनस्थों की मदद लेनी पड़ी।
   डिप्टी कमिश्नर को उनका यह व्यवहार अशोभनीय लगा। डिप्टी कमिश्नर स्टेडेंन ने कमिश्नर को कहा- आपका यह व्यवहार अनुचित है। अगर आप जनता को प्रताड़ित करने का व्यवहार करते हैं तो मैं जिलाधीश होने के नाते आप के विरुद्ध कार्रवाई करूंगा। यह सुनते ही सर जे बेनफील्ड  फुलर के होश ठिकाने आ गए।
    फुलर की तरह कई अधिकारी इस तरह की भावना आम जनता के प्रति रखते थे। परंतु इससे उलट कुछ अधिकारी भारत के प्रति सकारात्मक सोच लेकर भारत के आम आदमी से सहज होकर व्यवहार करते थे। जिनमें नरसिंहपुर के डिप्टी कमिश्नर आई जे बोर्न एम स्लीमन साहब को आज भी जबलपुर की जनता सम्मान के साथ याद रखती है। स्लीमन साहब के वंश के लोग आज भी भारत का उतना ही सम्मान करते हैं।
यह कहानी स्वर्गीय डॉक्टर महेश चंद्र चौबे की पुस्तक जबलपुर अतीत दर्शन से ली गई है।

16.6.22

“दाम्पत्य जीवन में यौन सम्बन्ध एवं संबंध सुखी दाम्पत्य जीवन के सूत्र...!”


मनुष्य के जीवन में बुद्धि एक ऐसा तत्व है जो कि विश्लेषण करने में सक्षम है। बुद्धि अक्सर मानवता और व्यवस्था के विरुद्ध ही सर्वाधिक सक्रिय होती है।

      मनुष्य के जीवन में बुद्धि एक ऐसा तत्व है जो कि विश्लेषण करने में सक्षम है। बुद्धि अक्सर मानवता और व्यवस्था के विरुद्ध ही सर्वाधिक सक्रिय होती है।

       बुद्धि निष्काम और सकाम प्रेम के साथ-साथ मानवीय आवश्यक भावों पर साम्राज्य स्थापित करने की कोशिश करती है।    

भारतीय दर्शन को मुख्यतः दो भागों में महसूस किया जाता है...

1.  भारतीय जीवन दर्शन

2.  भारतीय अध्यात्मिक दर्शन

           जीवन दर्शन में आध्यात्मिकता का समावेशन तय किया जाना चाहिए . जो लोग ऐसा कर पाते हैं उनका जीवन अद्भुत एवं मणिकांचन योग का आभास देता है। इसी तरह अध्यात्मिक दर्शन में भी सर्वे जना सुखिनो भवंतु का जीवन दर्शन से उभरा तत्व महत्वपूर्ण एवं आवश्यक होता है।

      परंतु बुद्धि ऐसा करने से रोकती है। बहुत से ऐसे अवसर होते हैं जब मनुष्य प्रजाति आध्यात्मिकता और अपनी वर्तमान कुंठित जीवन परिस्थितियों को समझ ही नहीं पाती। परिणाम परिवारिक विखंडन श्रेष्ठता की दौड़ और कार्य करने का अहंकार मस्तिष्क को दूषित कर देता है।

    अर्थ धर्म काम जीवन के दर्शन को आध्यात्मिकता से जोड़कर अद्वितीय व्यक्तित्व बनाने में लोगों को मदद करते हैं। परंतु मूर्ख दंपत्ति अपने कर्म को अहंकार की विषय वस्तु बना देते हैं। वास्तविकता यह है कि व्यक्ति भावात्मक रूप से ऐसा नहीं करता बल्कि व्यक्ति अक्सर बुद्धि का प्रयोग करके वातावरण को दूषित कर देते हैं।

    हमारी शिक्षा प्रणाली में नैतिक चरित्र की प्रधानता समाप्त हो चुकी है। अगर मेरी उम्र एक दिन  से 75 वर्ष तक की है तो बेशक में इसी प्रणाली का हिस्सा हूं ।

    वर्तमान में दांपत्य केवल किसी नाटक से कम नहीं लगता। जिसे देखे वह यह कहता कहता है कि हम अपने बच्चों के विचारों को दबा नहीं सकते।ये बिंदु  परिवारिक विखंडन का मार्ग हैं।

   अधिकार अधिकारों की व्याख्या अधिकार जताना यह बुद्धि ही सिखाती है। जोकि मन ऐसा नहीं करता मन सदैव प्रेम और विश्वास के पतले पतले धागों से बना हुआ होता है। परंतु जब आप नित्य अनावश्यक आरोप मानसिक हिंसा के शिकार होते हैं और दैनिक दैहिक एवं सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं को असफल पाते हैं तब मानस विद्रोही हो जाता है।

    ऐसी घटनाएं अक्सर घटा करती हैं। अब तो पति पत्नी का एक साथ रहना भी केवल दिखावे सोशल इवेंट बन चुका है। यह सब बुद्धि के अत्यधिक प्रयोग से होता है। एक विरक्ति भाव मनुष्य के मस्तिष्क में चलने लगता है। बुद्धि अक्सर तुलना करती है और बुद्धि साबित कर देती है कि आपने जो आज तक किया है वह त्याग की पराकाष्ठा है।

    यही भ्रम जीवन को दुर्भाग्य की ओर ले जाता है।हम अक्सर सुनते रहते हैं... "मैंने आपके लिए यह किया... मैंने आपके लिए वो किया..!" ऐसा कहने वाला कोई भी हो सकता है पत्नी पति भाई-बहन मित्र सहयोगी कोई भी यह वास्तव में वह नहीं कह रहा होता है बल्कि उसकी बुद्धि के विश्लेषण का परिणाम है।

  इस विश्लेषण के फलस्वरुप परिवार और संबंधों में धीरे-धीरे दूरियां पनपने लगती है। यही होता है जीवन का वह समय जिसे आप कह सकते हैं- "यही है अहंकार की अग्नि में जलता हुआ समय..!"

    भारत के मध्य एवं उच्च वर्गीय परिवारों में नारी स्वातंत्र्य एक महत्वपूर्ण घटक बन चुका है। मेरे एक मित्र कहते हैं वास्तव में अब विवाह संस्था 6 माह तक भी चल जाए तो बड़ी बात है। बेशक ऐसा दौर बहुत नजदीक नजर आता है। कारण जो भी हो.... नारी स्वातंत्र्य की उत्कंठा समाज को अब एकल परिवारों से भी वंचित करने में मैं पीछे नहीं रहेगी। नारी की मुक्ति गाथा और मुक्ति गीत अब सर्वोपरि है। नारी स्वातंत्र्य और नारी सशक्तिकरण में जमीन आसमान का फर्क है।

     मेरे मित्र ने बताया कि वह बेहद परेशान है। क्योंकि उसकी पत्नी जब मन चाहता है तभी यौन संबंध स्थापित करती है, अन्यथा कोई ना कोई बहाना बनाकर उसे उपेक्षित करती है।विवाह संस्था में यौन संबंध अत्यावश्यक घटक होते हैं. इसके अलावा सामान्यत: परिवार में ऐसा कुछ नहीं होता जो विखंडन के का कारण बने।दाम्पत्य जीवन में यौन संबंधों का महत्व भी अनदेखा नहीं किया जा सकता . भारतीय जीवन दर्शन के सन्दर्भ में देखा जावे तो यद्यपि आदर्श रूप से परस्पर यौन-सम्बन्ध अति महत्वपूर्ण नहीं पर व्यवहारिक रूप में इसे महत्व मिलता है. वर्तमान महानगरीय जीवन शैली को देखा जावे तो यौन-आकांक्षाएं अब टेबू न होकर बहुत विस्तारित हो चुकीं हैं . अब यौन सुख के लिए नित नए प्रयोग सामने आ रहे हैं. विवाह की आयु का निर्धारण तो कानूनी रूप से सुनिश्चित होना अपनी ज़गह है, पर यौन संबंधों की उम्र का निर्धारण असंभव सा है .         

   यहां पति एक दिन इस तरह की स्थिति की कैफियत मांगता है। परंतु वह महिला बुद्धि का प्रयोग करते हुए अपने आप को कभी अत्यधिक काम के दबाव या कभी अस्वस्थता का हवाला देकर सहयोग नहीं करती। मेरा मित्र इस तकलीफ को अलग तरीके से परिभाषित करता है मित्र के मन में विभिन्न प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं जैसे यह की पत्नी उसे अब तक पूर्ण तरह स्वीकार नहीं कर पाई होगी उसने कोई बहुत बड़ा अपराध किया है अन्य किसी प्रकार की युक्तियों का सहारा लेकर जीवन यापन कर रही है।

         बात 30 वर्ष के विवाहित जीवन के विघटन तक की स्थिति पर पहुंच गई।यह सब स्वाभाविक है ऐसे विचार आना अवश्यंभावी है। मित्र को समझाया गया परंतु यह बात तय हो गई कि मित्र मानसिक रूप से आप दांपत्य के प्रति उपेक्षा का व्यवहार रखने लगा। यह घटना लगभग 15 वर्ष पूर्व की है। विरक्त भाव से वह केवल एक यंत्र की तरह कार्य करता है। घर की जरूरतों को सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए केवल पुरुषार्थ के बल पर निभाता है परंतु प्रतिदिन वही जली कटी बातें ऐसा नहीं तो क्या हैऐसा हिंसक दांपत्य कभी ना कभी विरक्ति और उपेक्षा में बदल जाता है।

   उपरोक्त संपूर्ण परिस्थिति का कारण केवल और केवल बुद्धि का नकारात्मक विश्लेषक के रूप में उभरना है। मन पर जितना नियंत्रण जरूरी है उससे ज्यादा जरूरी है बुद्धि पर सदैव सत्य के अंकुश को साध कर रखना। और यह कोई भी व्यक्ति कर सकता है। ऐसी स्थिति को देखकर मुझे तो लगता है कि वह महिलामहिला होने का प्रिविलेज चाहती है।

   हाल ही में एक प्रतिष्ठित गायक के साथ यही घटनाक्रम हुआ। एक क्रिकेट प्लेयर भी इस समस्या से जूझ रहा है।

   आलेख का आशय यह नहीं कि केवल महिला ही दोषी है बल्कि यह बताना है कि बुद्धि के अतिशय प्रयोग एवं स्वतंत्रता की अनंत अभिलाषा भारतीय पारिवारिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर रही है चाहे विक्टिम पति हो अथवा पत्नी । अधिकांश मामलों में दोष प्रमुखता से महिलाओं का ही सामने आया है जो दांपत्य जीवन के महत्वपूर्ण बिंदु यौन संबंध के प्रति विरक्त होती है अथवा परिस्थिति वश अन्यत्र संलग्न होती हैं। यहां यह भी आरोप नहीं है कि केवल यही कारण हो बल्कि यह भी खुले तौर पर स्वीकार लिया जाना चाहिए कि बेमेल विवाह बहुत दूर तक नहीं चलते हैं। अगर चलते भी हैं तो एक आर्टिफिशियल स्थिति के साथ।

   

13.6.22

भारत में शिक्षा प्रोडक्ट है ?

         चित्र : गूगल से साभार
   महानगरों एवं मध्यम दर्जे के शहरों में शिक्षा व्यवस्था में एक अजीबोगरीब दृश्य देखने को मिल रहा है। स्कूलों में बच्चे नियमित विद्यार्थी के तौर पर केवल एडमिशन करा लेते हैं परंतु शिक्षा के लिए पूर्ण रूप से कोचिंग संस्थानों पर निर्भर करते हैं। कोचिंग संस्थानों की औसतन मासिक थी शिक्षण संस्थानों से दुगनी अथवा तीन गुनी भी होती है।
   शिक्षण संस्थानों ने भी परिस्थितियों से समझौता का कर लिया है। अभिभावक इस बात को लेकर कंफ्यूज रहते हैं कि - बच्चे को विद्यार्थी के रूप में शिक्षण संस्थानों पर निर्भर करना चाहिए अथवा कोचिंग क्लासेस पर...?
   यह एक अघोषित सा समझौता है इसमें कुछ विद्यालयों को डमी विद्यालय के रूप में चिन्हित किया जाता है। ऐसे विद्यालयों में बच्चे केवल एडमिशन लेते हैं परंतु नियमित शैक्षणिक गतिविधियों में भाग नहीं लेते।
   एक अभिभावक से पूछा गया कि भाई आप बच्चों की कोचिंग के लिए इतना अधीर क्यों है और किन कारणों से आप आवश्यकता से अधिक पैसा खर्च करने के लिए तैयार हैं? 
  *एक ओर आप* स्कूल की फीस भी दे रहे हैं दूसरी ओर आप नियमित शैक्षिक गतिविधि के लिए बच्चे को कोचिंग क्लास में भेज रहे हैं?
  अभिभावक ने पूरे कॉन्फिडेंस के साथ कहा कि-" जितनी अच्छी पढ़ाई कोचिंग क्लास में होती है उतनी बेहतर पढ़ाई स्कूलों में नहीं होती। '
  Socio-economic विचारक के रूप में मेरा सोचना उस अभिभावक से कुछ अलग है। वास्तव में अभिभावक पूरी तरह से सम्मोहित हैं। वे कोचिंग संस्थानों के मायाजाल में इस कदर फंसे हुए हैं कि उनका भरोसा शैक्षिक संस्थानों से  लगभग उठ गया है।
   कोचिंग संस्थानों की उपयोगिता को व्यक्तिगत तौर पर मैं नकार नहीं रहा हूं परंतु वह स्कूल का एकमात्र सटीक विकल्प है इस मुद्दे से फिलहाल मैं सहमत नहीं हूं।
  परंपरागत शिक्षा संस्थानों अर्थात स्कूलों को लेकर इन दिनों एक और जबरदस्त ओपिनियन सामने आता है। लोगों का यह मानना है कि सरकारी स्कूल अथवा हिंदी मीडियम से चलने वाले सरकारी और गैर सरकारी विद्यालय महत्वहीन है। महत्वपूर्ण विद्यालय तो केवल अंग्रेजी माध्यम से संचालित स्कूल ही होते हैं।
  ऐसी स्थिति को देखते हुए लगता है कि सामाजिक आर्थिक परिदृश्य में शिक्षा भी स्टेटस सिंबल का एक बिंदु है। बेहतर स्कूल उन्हें माना जाता है जहां अंग्रेजी में बात की जाती है अंग्रेजी में पढ़ाया जाता है और यह समस्त हिंदी माध्यम के स्कूल जो सरकार अथवा निजी प्रबंधन द्वारा चलाए जाते हैं हिंदी बच्चों का पढ़ना दोयम दर्जे का प्रतीक है। अक्सर हम सुनते हैं अंग्रेजी माध्यम के शिक्षा  स्कूलों की सर्वोत्तम होती है नव धनाढ्य उच्च मध्यम वर्ग यहां तक की मध्यम मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग भी येन केन प्रकारेण ऐसे स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना स्टेटस सिंबल के रूप में प्रदर्शित करते नजर आते हैं। कुल मिलाकर शैक्षणिक व्यवस्था में कोचिंग क्लास अति महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं।
    परंपरागत शैक्षणिक संस्थानों की भविष्य की स्थिति क्या होगी इसका अंदाजा आप सहज ही लगा सकते हैं।
   बचपन में हम अपने पिता के साथ ट्रांसफर हुआ करते थे। एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित होने वाले अभिभावकों के बच्चे भी उसी तरह से ट्रांसफर हो जाते थे । मुझे अच्छी तरह से याद है पिताजी का ट्रांसफर नई रेलवे प्रोजेक्ट सिंगरौली कटनी प्रोजेक्ट में हुआ था। सरई ग्राम रेलवे स्टेशन पर पदस्थ हुए मेरे पिताजी और हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसे स्कूल में हुई जहां शिक्षक के लिए कुर्सी  स्कूल के कमरे में मिट्टी के चबूतरे नुमा ठोस निर्माण कर बनाई गई थी। हम लकड़ी की तख्ती पर कलम से घुली हुई छुई मिट्टी लिखा करते थे। दफ्ती पर लिखने से मेरी गंदी लिखावट अपेक्षाकृत आकर्षक हो गई। उन दिनों नीति शिक्षा या नैतिक शिक्षा फिजिकल एक्सरसाइज अर्थात व्यायाम स्वच्छता सभ्यता पूर्ण व्यवहार पर विशेष ध्यान दिया जाता था। हम लोग टाट पट्टी पर बैठा करते थे। हमारी टीचर बहुत सुंदर तरीके से लाल नीली और हरे रंग की स्याही से अपने रजिस्टर्स में जो भी लिखते मोतियों की तरह आज भी आंखों के सामने आते हैं। स्कूल में बागवानी रुई की पोनी तकली में फंसा कर सूत कातने की कला हमें ऐसे ही स्कूलों से हासिल हुई। स्कूलों में बागवानी के कालखंड में मैंने भी धनिया और मिर्च के पौधे लगाए थे। प्रकृति से बिल्कुल करीब रहने का अभ्यास स्कूलों में कराया जाता था। प्रकृति से प्रेम का संस्कार वर्तमान नजरिए से  पिछड़े स्कूलों से ही प्राप्त हुआ है।
  अभिभावकों का बदला हुआ चिंतन, इन दिनों बच्चों की अपरिमित चिंता करना एवं शिक्षा जैसे मुद्दे को स्टेटस सिंबल के रूप में चिन्हित करने पर केंद्रित हो गया है।
    कुछ वर्ष पूर्व  कटनी ई में पदस्थ आईएएस दंपत्ति ने अपनी बेटी को आंगनवाड़ी केंद्र में भेजना प्रारंभ किया। आईएएस दंपत्ति श्री पंकज जैन एवं श्रीमती जैन ने अपने इस कार्य के जरिए समाज को यह संदेश देने की कोशिश की थी कि शासकीय फॉर्मेट पर चलने वाले संस्थान विकास के मूल बिंदु हो सकते हैं। उनके इस प्रयास से संदेश स्पष्ट एवं समाज में प्रभाव छोड़ने वाला सिद्ध हुआ। कलेक्ट्रेट के नजदीक संचालित आंगनवाड़ी केंद्र में अभी भी अधिकारियों के बच्चे जाते हैं।
  बाल शिक्षा एवं उनका समग्र विकास के लिए किए गए प्रयास एवं उनके रास्ते बुनियादी तौर पर बेहद दबाव युक्त नहीं होना चाहिए। पिछले दिनों आपने प्रशासनिक सेवाओं के लिए चुने गए बच्चों का परिवारिक बैकग्राउंड देखा होगा। कई ऐसे बच्चे हैं जो निम्न मध्यम वर्ग से अथवा बहुत गरीब परिवार से भी है और उन्होंने आईएएस का एग्जाम क्रैक किया। परंतु कई ऐसे बच्चे भी हैं जो संपन्नता के बावजूद भी अपने लक्ष्य तक पहुंच ही नहीं पाते। इसके लिए शिक्षा व्यवस्था में व्यवसायिक रंग रोगन जिम्मेदार  है ही परंतु उससे ज्यादा जिम्मेदारी मेरी नजर में अभिभावकों की है।
   मुझे अच्छी तरह से याद है अपनी बेटी के लिए मैंने इंदौर महानगर के महाविद्यालयों में पतासाजी की। बेटी को कॉमर्स में ऑनर्स डिग्री लेनी थी यह उसका अपना फैसला था। एक  कॉलेज प्रबंधन द्वारा मुझे मुझे यह कहकर प्रभावित करने की कोशिश की गई कि हमारे महाविद्यालय में अमिताभ बच्चन के चिरंजीव अभिषेक बच्चन भी आते हैं । मैंने एडमिशन एग्जीक्यूटिव से प्रश्न किया कि आप शिक्षा के लिए विद्यार्थियों का चयन कर रहे हैं या अपने महाविद्यालय में किसी प्रोडक्ट की तरह शिक्षा को बेचना चाहते हैं? हम सपरिवार उस महाविद्यालय से बाहर आने लगे महाविद्यालय के प्रबंधक तथा एडमिशन एग्जीक्यूटिव ने बाहर आकर हमें मनाने की कोशिश की परंतु मेरा मन उनकी मान मनुहार से प्रभावित नहीं हुआ। एक अभिभावक के रूप में हो सकता है कि बहुत सारे लोग मुझे बैकवर्ड समझे परंतु मेरी दृष्टि में मेरा निर्णय सही था। क्योंकि अगले महाविद्यालय में हमने बच्चों से विश्व आर्थिक परिदृश्य पर चर्चा की। बहुत प्रभावित हुआ कि बच्चे अंतरराष्ट्रीय भुगतान संतुलन मौद्रिक प्रणाली जीडीपी,  विश्व अर्थशास्त्र में भारत की परिस्थिति जैसे मुद्दों की जानकारी रखते हैं। कुल मिलाकर अभिभावक किसी भी प्रकार की चकाचौंध से बचकर स्वयं रहें और किसी भी शैक्षणिक ऐन्द्रजाल में ना फंसे तब जाकर शैक्षिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन आ सकता है। सरकार कितनी भी बेहतर व्यवस्था ला दे परंतु व्यवस्था के प्रति अभिभावकों की अरुचि शैक्षणिक व्यवस्था को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेंगी। मेरे इन विचारों से आप असहमत हो सकते हैं आपकी असहमति भी सहमति के बराबर महत्वपूर्ण है।

3.6.22

टारगेट किलिंग, सांप्रदायिक एकात्मता एवं भारत..!


     भारत की अर्थव्यवस्था 5 से 10 ट्रिलियन तक होने के लिए जरूरी है कि भारत अब Center of Peace के रूप में स्थापित हो जाए। टारगेट किलिंग सबसे भयावह है। इसके लिए 3 जून 2022 को जो राष्ट्रीय स्तर पर बैठक हुई है उसके निर्णय अगले कुछ दिनों में क्रियान्वित हो जाएंगे। टारगेट किलिंग के संबंध में एक सटीक सलाह है यह भी है कि कश्मीर में डेमोग्राफिक बैलेंस तुरंत प्रभाव से किया जाना चाहिए। अगर हम डेमोग्राफिक संतुलन स्थापित नहीं कर पाएंगे तो टारगेट किलिंग जैसी समस्या सदैव बनी रहेगी ऐसा मेरा व्यक्तिगत मत है। क्योंकि कश्मीर में टारगेट किलिंग का मुद्दा कुल मिलाकर ऐसी  मानसिकता का परिचय देता है जिसे आई एस आई या भारत विरोधी ताकतों का एजेंडा मानना गलत नहीं है।
   कश्मीरी पंडितों डोगरा और गैर मुस्लिम लोगों के विरुद्ध जिस मानसिकता को हवा दी जा रही है वह हवा, भारत विरोधी आंतरिक स्लीपर सेल्स एवं आयातित विचारधारा तथा आई एस आई का संयुक्त प्रयास है।
एक राजनीतिक दल के  प्रवक्ता  जीशान जावेद राणा ने एक टीवी चैनल पर केवल पॉलिटिकल स्टेटमेंट देते हुए नजर आए। टारगेट किलिंग को देखकर पूरी दुनिया समझ सकती है कि कश्मीरी पंडितों के विरुद्ध 1990 और उसके पहले तथा अब तक कितना जुल्म ढाया होगा। बहरहाल भारत सरकार इस मुद्दे पर बिल्कुल क्लियर है साथ ही निकट भविष्य में स्पष्ट एक्शन के मूड में है।
  कश्मीर के जिन लोगों की हत्या हुई उनमें बैंक में मैनेजर विजय कुमार के अलावा राहुल भट्ट राजस्व अधिकारी रणजीत सिंह दुकान का कर्मचारी अमरीन भट्ट टीवी कलाकार रजनी बाला शिक्षिका की हत्या एक राजनीतिक दल की पहल पर पाकिस्तान कुख्यात सरकारी संगठन आई एस आई प्रायोजित हो इससे इनकार करना असंभव है। वर्तमान में कुछ राजनीतिक टिप्पणियों से सिद्ध होता है कि टारगेट किलिंग करवा कर या हो जाने पर भारत की  सुरक्षा व्यवस्था को निशाने पर लिया जाए। एक सन्दर्भ से पता चलता है कि इस टार्गेट किलिंग का तानाबाना पीओके के मुज्ज़फराबाद में हुई थी . 
उपरोक्त विवरण से हटकर अगर देखा जाए तो भारत में शांति की स्थापना के लिए हमारी एथेनिक-परम्पराओ को समाप्त करने का प्रयास सतत जारी रहना चाहिए।
   इस संदर्भ में दिनांक 2 जून 2022 को संघ प्रमुख माननीय मोहन भागवत जी ने जो मार्गदर्शन दिया वह सामाजिक एकात्मता के परिपेक्ष में महत्वपूर्ण है। समय की आवश्यकता है कि भारत नेचुरल सेकुलरिज्म अर्थात प्राकृतिक- असंप्रदायिक परिस्थितियों में लौट जाए जैसा कि सनातन की प्रकृति है। सनातन व्यवस्था सदा से ही सांप्रदायिक विद्वेष को अस्वीकृत करती रही  है।
     लेकिन बाहरी विचारधारा एवं ब्रेनवाश करने वाली विचारधाराओं पर पैनी नजर रखने की जरूरत है। हमारा इंटरनल इंटेलिजेंस सिस्टम का बहुत प्रभावी होना जरूरी है।
  उपरोक्त अनुसार शांति सद्भावना और एकात्मता का संदेश संपूर्ण भारतीय नागरिकों को करना ही होगा।



2.6.22

मध्यमवर्गीय अभिभावक अब मुझे रेसकोर्स के जुआरी लगने लगे हैं..!


“मध्यमवर्गीय अभिभावक अब मुझे रेसकोर्स के जुआरी लगने लगे हैं..!”

गिरीश बिल्लोरे”मुकुल”

girishbillore@gmail.com

 

"भारत का मध्य वर्ग मध्यवर्ग के बच्चे बच्चों से मध्यवर्गीय माता पिता जी अंत ही उम्मीदें..!"- अब तक ना समझ में आने वाला प्रमेय यानी साध्य है। इस प्रमेय को हल करने के लिए बस बच्चों को पढ़ाने के पहले बच्चों को पढ़ लीजिए।

कोविड-19 के 2 साल पहले की बात है यानी 2017 की। एक मां इस समस्या से तनावग्रस्त स्थिति उनके बच्चे उनके अन्य रक्त संबंधियों के बच्चों के बराबर योग्यता नहीं रखते। और उन्हें यह भी तनाव था कि वे बच्चों पर जो इन्वेस्टमेंट कर रहे हैं उस इन्वेस्टमेंट के अनुपात में उन्हें उपलब्धि कुछ हासिल नहीं हो रही। वह अपने दोनों बच्चों को मेरे द्वारा प्रबंधित संस्थान ने दाखिला कराने की गरज से आई। महिला ने बताया कि-" मेरे बच्चे अपने चचेरे भाई बहनों से कमजोर हैं, वे हर फील्ड में अव्वल हैं... पर हमारे बच्चे कभी एक भी मैडल या पुरस्कार तक नहीं जीत पाते.

उस मां की अवसाद भरी अभिव्यक्ति के बाद मुझे स्वयं आश्चर्य हुआ कि इतने नन्हे मुन्ने बच्चों से सोचे-समझे ऐसी उम्मीदें रखी जा रही हैं , जिन पर बच्चे  खरे न उतरें ? तब ऐसी स्थिति में परिणाम बहुत सकारात्मक नहीं होंगे।
  एक अच्छे अभिभावक को चाहिए कि सबसे पहले बच्चे की योग्यता और क्षमताओं का अनुमान लगाएं। परंतु दुर्भाग्य है कि इन दिनों अभिभावक केवल सपना देखते हैं यथार्थ से शायद ही परिचित हों । विकास का एक सबसे बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है प्रतिस्पर्धा। भारत में हर अभिभावक चाहता है कि उसका बच्चा श्रेष्ठ से श्रेष्ठ स्तर को प्राप्त करें। जब मेरे बच्चे छोटे थे तब कई बार मुझे पैरंट टीचर मीटिंग बुलाया गया।
मेरे मित्र परिवार भी अक्सर पूछा करते थे - "भाई आप क्यों नहीं जाते इस मीटिंग में?
  मैं जानता था कि रिपोर्ट कार्ड में क्या आना है ! बच्चों की क्षमता और इनकी योग्यता को भली प्रकार समझने की क्षमता मुझ में थी। बच्चों के कम अंक आने पर मुझे कोई एतराज ना था। हां यह अवश्य कहता था जो भी पढ़ो पूरी तन्मयता के साथ पढ़ो।
मुझे परिजनों से फटकार भी मिलती थी। परंतु मैं जानता था की अनावश्यक दबाव डालना बहुत घातक होगा। हां एक बार बच्चे की अनुपस्थिति में अपने मित्र और संस्थान के प्राचार्य एवं प्रशासक से मिला अवश्य था। उनसे मैंने साफगोई से कह दिया था -"मुझे बच्चों के भविष्य की चिंता है इसलिए मैं उन पर किसी भी तरह के मानसिक दबाव से परहेज करता हूं।"
   इससे पहले कि वे मेरे बच्चे की कमजोरियां गिनाते मैंने उनकी इस कोशिश के दरवाजे ही बंद कर दिया। पर चलते चलते यह अवश्य कहा था-"हां बेटियों को समझाने का प्रयास जरूर करूंगा कि वह अपने प्रयासों में कभी कमी ना छोड़ें।
हुआ भी है औसत विद्यार्थी के रूप में बच्चों का रिजल्ट देखना मुझे ना गवारा नहीं गुजरता। अपने मन में प्रतिस्पर्धा का भाव लाना एक बौद्धिक संघर्ष को जन्म देता। और उस संघर्ष से बचने के लिए मेरा प्रयास था कि बच्चों पर अनाधिकृत दबाव पैदा ना किया जाए।
मेरी बेटी ने मुझे नवमी क्लास में ही बता दिया था ..."मुझे साइंस नहीं पढ़ना है आप मुझे बातें तो नहीं करोगे?
मैंने प्रति प्रश्न किया-"क्या तुम महसूस करती हो कि मैं ऐसा करूंगा?"
    प्रश्न और प्रतिप्रश्न का परिणाम पारस्परिक विश्वास में परिणित हो गया। दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद मुझे भी यह समझाया गया-"बेटी को समझाओ, वह साइंस ले..!
   इस समझा इसको मैंने किसी भी प्रकार की बहस में ना बदल कर "जी अवश्य समझा लूंगा"जैसे वाक्य के जरिए समाप्त कर दिया।
   इससे पहले कि आप बच्चे क्या पढ़ें निर्धारित करने की कोशिश करते हैं पहले बच्चे को पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए। वरना बदहवास मां की तरह आप स्वयं भी परेशान होंगे बच्चों को भी परेशान करेंगे ।
    बाल मन को टॉर्चर करना, उसे श्रेष्ठ होने के लिए बाध्य करना एक मनोरोग है। प्रत्येक प्राणी कुछ विशेषताओं के साथ जन्म लेता है।
अभिभावक के रूप में अगर जरूरत है तो उस बच्चे के विशेष गुण को पहचानने की । परंतु भारत का मध्यमवर्गीय अभिभावक समूह औसत रूप से ऐसा नहीं करता । बहुदा अभिभावक अपनी संतान को प्रतिस्पर्धी विजेता आना चाहता है।
मेरी दृष्टि में ऐसे अभिभावक रेस कोर्स में घोड़ों पर पैसा लगाने वाली जुआरी से अधिक कुछ भी नहीं आते।
   आप तो मैंने बात शुरू की थी उस मासूम और कन्फ्यूज्ड माता की जो अपने बच्चों से उम्मीद से ज्यादा उम्मीदें पाल कर रखती थी। बच्चों के लिए सपने जरूर अच्छे देख रही थी परंतु बच्चों का बचपन बुरी तरह छीनने पर आमदा थी। वह चाहती थी कि उनके बच्चे इसलिए श्रेष्ठ बने हर मोर्चे पर सफल हो ! ऐसा होने से उस मां और उसके पति का सम्मान बढ़ता सामाजिक पृष्ठभूमि में उन्हें रेखांकित किया जाता हताशा केवल इसी बात की थी। पर इसका परिणाम क्या होता है इस बात का अंदाज आप कोटा में घठित हाल की घटना लगा सकते हैं। कोटा में कोचिंग क्लास में पढ़ने वाली एक बालिका कृति ने अपने सुसाइड नोट में जो लिखा वह रोंगटे खड़े कर देने वाला है-
"मैं भारत सरकार और मानव संसाधन मंत्रालय से कहना चाहती हूं कि अगर वो चाहते हैं कि कोई बच्चा न मरे तो जितनी जल्दी हो सके इन कोचिंग संस्थानों को बंद करवा दें,
ये कोचिंग छात्रों को खोखला कर देते हैं।
पढ़ने का इतना दबाव होता है कि बच्चे बोझ तले दब जाते हैं।
कृति ने लिखा है कि वो कोटा में कई छात्रों को डिप्रेशन और स्ट्रेस से बाहर निकालकर सुसाईड करने से रोकने में सफल हुई लेकिन खुद को नहीं रोक सकी।"
  अत्यधिक मानसिक दबाव बाल मन पर विपरीत प्रभाव डालता है। बच्चों की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी करने से पहले हमें उसकी क्षमता का मूल्यांकन कर लेना चाहिए। वह बदहवास मां जो मेरे संस्थान में अपने बच्चों का दाखिला कराने आईं थी उनसे मैंने पूछा कभी आपने बच्चों की रुचि जानने की कोशिश की?
उस मां ने मुझे बैकवर्ड समझा और कहा क्या आप जानती नहीं दुनिया कहां जा रही है?
मैंने पूछा क्या आप जानती हैं दुनिया कहां तक चली गई है? और जहां तक चली गई है ?
    बातों बातों में पता चला कि बच्चे का सुबह से शाम 8:00 बजे तक का समय कोचिंग ट्यूशन स्कूल में खपता है। दोपहर बाद 3:00 से 4:00 का समय वे बच्चों को गीत संगीत चित्रकला इत्यादि में डालना चाहती थी। बच्चों के चेहरे पर भयानक किस्म का निस्तेज और मायूसी मुझे नज़र आ रही थी। मैंने खुलकर उनसे कहा-"मुझे लगता है कि मैं आपके बच्चों को आपसे ज्यादा प्यार करने लगा हूं, इसलिए चाहता हूं कि आप इनका बचपन वापस लौटाने की कोशिश करें। पहले इन बच्चों को पढ़ें की इनके अंदर कौन सी योग्यता है कौन सी विशेषता है जिसे हम उभार सकते हैं। अगर आप मुझे ऐसा करने में सहयोग देंगी तो आप का मैं स्वागत करता हूं। वरना कृपया अपने बच्चों को रोबोट ना बनने दें मैं उनको आराम करने के लिए अवसर देने की सलाह दूंगा। कुल-मिलाकर मुझे, बच्चों का कल दिख रहा था जो भयावह की तरफ मोड़ा जा रहा था।
  बच्चों की मां ने बताया कि वह प्रतिवर्ष दोनों बच्चों पर ₹200000 खर्च करती हैं। यह सुनते ही वह मां साथ ही उसका परिवार मुझे रेस कोर्स के घोड़े और जाॅकी पर पैसा लगाने वाले कुछ नजर नहीं आ रहे थे ।

 

  


 

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
जन्म- 29नवंबर 1963 सालिचौका नरसिंहपुर म०प्र० में। शिक्षा- एम० कॉम०, एल एल बी छात्रसंघ मे विभिन्न पदों पर रहकर छात्रों के बीच सांस्कृतिक साहित्यिक आंदोलन को बढ़ावा मिला और वादविवाद प्रतियोगिताओं में सक्रियता व सफलता प्राप्त की। संस्कार शिक्षा के दौर मे सान्निध्य मिला स्व हरिशंकर परसाई, प्रो हनुमान वर्मा, प्रो हरिकृष्ण त्रिपाठी, प्रो अनिल जैन व प्रो अनिल धगट जैसे लोगों का। गीत कविता गद्य और कहानी विधाओं में लेखन तथा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन। म०प्र० लेखक संघ मिलन कहानीमंच से संबद्ध। मेलोडी ऑफ लाइफ़ का संपादन, नर्मदा अमृतवाणी, बावरे फ़कीरा, लाडो-मेरी-लाडो, (ऑडियो- कैसेट व सी डी), महिला सशक्तिकरण गीत लाड़ो पलकें झुकाना नहीं आडियो-विजुअल सीडी का प्रकाशन सम्प्रति : संचालक, (सहायक-संचालक स्तर ) बालभवन जबलपुर

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